मध्यलोक के चार शतक, अट्ठावन अकृत्रिम मंदिर ।
सबमें इक सौ अठ जिन प्रतिमा, वंदूँ मैं मस्तक नतकर ।।
आठ कोटि औ छप्पन लाख, सहस सत्तानवे चार शतक ।
इक्यासी जिनगृह अकृत्रिम, तीन लोक के नमूँ सतत ।।१।।
नव सौ पच्चीस कोटि त्रेपन, लाख सत्ताइस सहस प्रमाण ।
नव सौ अड़तालिस जिनप्रतिमा, शिव सुख हेतू करूँ प्रणाम।।
ज्योतिष-व्यंतर गृह में शाश्वत, जिन प्रतिमा हैं संख्यातीत।
पूर्व दिशामुख पर्यंकासन, राजें सदा नमूँ नत शीश ।।२।।
अधो–मध्य और ऊर्ध्वलोक में, अकृत्रिम-कृत्रिम जिनचैत्य।
जितने भी हैं उनकी नितप्रति, सुरगण करें भक्ति से सेव।।
भवनवासि-व्यंतर-ज्योतिष, वैमानिकसुर परिवार सहित।
दिव्यगंध दिव चूर्णवास से, दिव्य न्हवन करते नितप्रति ।।३।।
अर्चें पूजें वंदन करते, नमस्कार वे करें सतत।
मैं भी जिन प्रतिमा को वंदूँ, अर्चूं पूजूँ नमूँ सतत।।
दु:खों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे बोधि लाभ होवे ।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे ।।४।।