लोयालोयप्पयासमत्तंडातिलोयपण्णत्ति-चतुर्थ महाधिकार पृ. २६२ से २६५ तक।।। ८९५।।
णिस्सेदत्तं णिम्मलगत्तत्तं दुद्धधवलरुहिरत्तं।
आदिमसंहडणत्तं समचउरस्संगसंठाणं।।८९६।।
अणुवमरूवत्तं णवचंपयवरसुरहिगंधधारित्तं।
अट्ठुत्तरवरलक्खणसहस्सधरणं अणंतबलविरियं।। ८९७।।
मिदहिदमधुरालाओ साभावियअदिसयं च दसभेदं।
एदं तित्थयराणं जम्मग्गहणादिउप्पण्णं।। ८९८।।
जोयणसदमज्जादं सुभिक्खदा चउदिसासु णियराणा।
णहगमणाणमहिंसा भोयणउवसग्गपरिहीणा।।८९९।।
सव्वाहिमुहट्ठियत्तं अच्छायत्तं अपम्हपंदित्तं।
विज्जाणं ईसत्तं समणहरोमत्तणं सजीवम्हि।। ९००।।
अट्ठरसमहाभासा खुल्लयभासा सयाइं सत्त तहा।
अक्खरअणक्खरप्पय सण्णीजीवाण सयलभासाओ।।९०१।।
एदासुं भासासुं तालुवदंतोट्ठवंâठवावारे।
परिहरिय एक्ककालं भव्वजणे दिव्वभासित्तं।। ९०२।।
पगदीए अक्खलिओ संझत्तिदयम्मि णवमुहुत्ताणि।
णिस्सरदि णिरुवमाणो दिव्वझुणी जाव जोयणयं।।९०३।।
सेसेसुं समएसुं गणहरदेविंदचक्कवट्टीणं।
पण्हाणुरूवमत्थं दिव्वझुणी अ सत्तभंगीहिं।। ९०४।।
छद्दव्वणवपयत्थे पंचट्ठीकायसत्ततच्चाणि।
णाणाविहहेदूहिं दिव्वझुणी भणइ भव्वाणं।। ९०५।।
घादिक्खएण जादा एक्कारस अदिसया महच्छरिया।
एदे तित्थयराणं केवलणाणम्मि उप्पण्णे।। ९०६।।
माहप्पेण जिणाणं संखेज्जेसुं च जोयणेसु वणं।
पल्लवकुसुमफलद्धीभरिदं जायदि अकालम्मि।। ९०७।।
कंटयसक्करपहुदिं अवणेंतो वादि सुक्खदो वाऊ।
मोत्तूण पुव्ववेरं जीवा वंट्टति मेत्तीसु।। ९०८।।
दप्पणतलसारिच्छा रयणमई होदि तेत्तिया भूमि।
गंधोदकाइ वीरसइ मेघकुमारो य सक्कआणाए।।९०९।।
फलभारणमिदसालीजवादिसस्सं सुरा विकुव्वंति।
सव्वाणं जीवाणं उप्पज्जदि णिच्चमाणंदं।। ९१०।।
वायदि विक्किरियाए वाउकुमारो य सीयलो पवणो।
वूवतडायादीणिं णिम्मलसलिलेण पुण्णाणि।।९११।।
धूमुक्कपडणपहुदीहिं विरहिदं होदि णिम्मलं गयणं।
रोगादीणं बाधा ण होंति सयलाण जीवाणं।।९१२।।
जकंखिदमत्थएसुं किरणुज्जलदिव्वधम्मचक्काणि।
दट्ठूण संठियाइं चत्तारि जणस्स अच्छरिया।। ९१३।।
छप्पण चउदिसासुं कंचणकमलाणि तित्थकत्ताणं।
एक्वं च पायपीढं अच्चणदव्वाणि दिव्वविविधाणि।।९१४।।
चौंतीस अतिशय एवं आठ प्रातिहार्य
(तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ से)
तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में श्री यतिवृषभाचार्य ने ३४ अतिशय एवं ८ प्रातिहार्य का वर्णन किया है— लोक और अलोक को प्रकाशित करने के लिए सूर्य के समान भगवान् अरहन्त देव उन सिंहासनों के ऊपर आकाशमार्ग में चार अंगुल के अन्तराल से स्थित रहते हैं।। ८९५।। (१) स्वेदरहितता, (२) निर्मलशरीरता, (३) दूध के समान धवल रुधिर, (४) आदि का वङ्कार्षभनाराचसंहनन, (५) समचतुरस्ररूप शरीर संस्थान, (६) अनुपमरूप, (७) नवचम्पक की उत्तम गन्ध के समान गन्ध का धारण करना, (८) एक हजार आठ उत्तम लक्षणों का धारण करना, (९) अनन्त बल-वीर्य और (१०) हित-मित एवं मधुर भाषण, ये स्वाभाविक अतिशय के दश भेद हैं। यह दशभेदरूप अतिशय तीर्थंकरों के जन्म ग्रहण से ही उत्पन्न हो जाते हैं।। ८९६-८९८।। (१) अपने पास से चारों दिशाओं में एक सौ योजन तक सुभिक्षता, (२) आकाशगमन, (३) हिंसा का अभाव, (४) भोजन का अभाव, (५) उपसर्ग का अभाव, (६) सबकी ओर मुख करके स्थित होना, (७) छाया रहितता, (८) निर्निमेष दृष्टि, (९) विद्याओं की ईशता, (१०) सजीव होते हुए भी नख और रोमों का समान रहना, (११) अठारह महाभाषा, सात सौ क्षुद्रभाषा तथा और भी जो संज्ञी जीवों की समस्त अक्षरानक्षरात्मक भाषाएँ हैं उनमें तालु, दाँत, ओष्ठ और कण्ठ के व्यापार से रहित होकर एक ही समय भव्यजनों को दिव्य उपदेश देना। भगवान् जिनेन्द्र की स्वभावतः अस्खलित और अनुपम दिव्यध्वनि तीनों संध्या कालों में नव मुहूर्तों तक निकलती है और एक योजन पर्यन्त जाती है। इसके अतिरिक्त गणधर देव, इन्द्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ वह दिव्यध्वनि शेष समयों में भी निकलती है। यह दिव्यध्वनि भव्य जीवों को छः द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्वों का नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा निरूपण करती है। इस प्रकार घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुए ये महान् आश्चर्यजनक ग्यारह अतिशय तीर्थंकरों को केवलज्ञान के उत्पन्न होेने पर प्रगट होते हैं।।८९९-९०६।। (१) तीर्थंकरों के माहात्म्य से संख्यात योजनों तक वन असमय में ही पत्र, फूल और फलों की वृद्धि से संयुक्त हो जाता है; (२) कंटक और रेती आदि को दूर करती हुई सुखदायक वायु चलने लगती है, (३) जीव पूर्व बैर को छोड़कर मैत्री भाव से रहने लगते हैं, (४) उतनी भूमि दर्पणतल के सदृश स्वच्छ और रत्नमय हो जाती है, (५) सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से मेघकुमार देव सुगन्धित जल की वर्षा करता है, (६) देव विक्रिया से फलों के भार से नम्रीभूत शालि और जौ आदि सस्य को रचते हैं, (७) सब जीवों को नित्य आनन्द उत्पन्न होता है, (८) वायुकुमार देव विक्रिया से शीतल पवन चलाता है, (९) कूप और तालाब आदि निर्मल जल से पूर्ण हो जाते हैं, (१०) आकाश धुआँ और उल्कापातादि से रहित होकर निर्मल हो जाता है, (११) सम्पूर्ण जीवों को रोगादि की बाधाएँ नहीं होती हैं, (१२) यक्षेन्द्रों के मस्तकों पर स्थित और किरणों से उज्ज्वल ऐसे चार दिव्य धर्मचक्रों को देखकर जनों को आश्चर्य होता है, (१३) तीर्थंकरों के चारों दिशाओं में (विदिशाओं सहित) छप्पन सुवर्णकमल एक पादपीठ और दिव्य एवं विविध प्रकार के पूजनद्रव्य होते हैं।।९०७-९१४।।
आठ प्रातिहार्यों का वर्णन
जेिंस तरूण मूले उप्पण्णं जाण केवलं णाणं।
उसहप्पहुदिजिणाणं ते चिय असोयरुक्ख त्ति।। ९१५।।
णाग्गोहसत्तपण्णं सालं सरलं पियंगु तं चेव।
सिरिसं णागतरू वि य अक्खा धूली पलास तेंदूवं।।९१६।।
पाडलजंबू पिप्पलदहिवण्णो णंदितिलयचूदा य।
कंकल्लिचंपबउलं मेसयसिंगं धवं सालं।।९१७।।
सोहंति असोयतरू पल्ल्वकुसुमाणदाहि साहाहिं।
लंबंतमालदामा घंटाजालादिरमणिज्जा।। ९१८।।
णियणियजिणउदएणं बारसगुणिदेहिं सरिसउच्छेहा।
उसहजिणप्पहुदीणं असोयरुक्खा विरायंति।। ९१९।।
कि वण्णणेण बहुणा दट्ठूणमसोयपादवे एदे।
णियउज्जाणवणेसुं ण रमदि चित्तं सुरेसस्स।। ९२०।।
ससिमंडलसंकासं मुत्ताजालप्पयाससंजुत्तं।
छत्तत्तयं विरायदि सव्वाणं तित्थकत्ताणं।। ९२१।।
सिंहासणं विसालं विसुद्धफलिहोवलेहिं णिम्मविदं।
वररयणणिकरखचिदं को सक्कइ वण्णिदुं ताणं।।९२२।।
णिब्भरभत्तिपसत्ता अंजलिहत्था पफुल्लमुहकमला।
चेट्टंति गणा सव्वे एक्केक्कं वेढिऊण जिणं।। ९२३।।
विसयकसायासत्ता हदमोहा पविस जिणपहूसरणं।
कहिदुं वा भव्वाणं गहिरं सुरदुंदुही रसइ।। ९२४।।
रुणरुणरुणंतछप्पयछण्णा वरभत्तिभरिदसुरमुक्का।
णिवडेंति कुसुमविट्ठी जिणिंदपयकमलमूलेसुं।। ९२५।।
भवसयदंसणहेदुं दरिसणमेत्तेण सयललोयस्स।
भामंडलं जिणाणं रविकोडिसमुज्जलं जयइ।। ९२६।।
चउसट्ठिचामरेहिं मुणालकुंदेंदुसंखधवलेहिं।
सुरकरपणच्चिदेहिं विज्जिज्जंता जयंतु जिणा।। ९२७।।
आठ प्रातिहार्यों का वर्णन
ऋषभादि तीर्थंकरों को जिन वृक्षों के नीचे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है वे ही अशोक वृक्ष हैं।। ९१५।। न्यग्रोध, सप्तपर्ण, शाल, सरल, प्रियंगु, फिर वही (प्रियंगु), शिरीष, नागवृक्ष, अक्ष (बहेड़ा), धूली (मालिवृक्ष), पलाश, तदू, पाटल, पीपल, दधिपर्ण, नन्दी, तिलक, आम्र, कंकेलि (अशोक), चम्पक, वकुल, मेषशृङ्ग, धव और शाल ये अशोक वृक्ष लटकती हुई मालाओं से युक्त और घंटासमूहादिक से रमणीय होते हुए पल्लव एवं पुष्पों से झुकी हुई शाखाओं से शोभायमान होते हैं।। ९१६-९१८।। ऋषभादिक तीर्थंकरों के उपर्युक्त चौबीस अशोकवृक्ष बारह से गुणित अपने अपने जिन की ऊँचाई से युक्त होते हुए शोभायमान हैं।। ९१९।। बहुत वर्णन से क्या? इन अशोकवृक्षों को देखकर इन्द्र का भी चित्त अपने उद्यान वनों में नहीं रमता है।।९२०।। सब तीर्थंकरों के चन्द्रमण्डल के सदृश और मुक्ता समूहों के प्रकाश से संयुक्त तीन छत्र शोभायमान होते हैं।।९२१।। उन तीर्थंकरों का निर्मल स्फटिक पाषाणों से निर्मित और उत्कृष्ट रत्नों के समूह से खचित जो विशाल सिंहासन होता है, उसका वर्णन करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है।। ९२२।। गाढ़ भक्ति से आसक्त, हाथों को जोड़े हुए और विकसित मुखकमल से संयुक्त ऐसे सम्पूर्ण गण प्रत्येक तीर्थंकर को घेरकर स्थित रहते हैं।। ९२३।। विषय-कषायों में अनासक्त और मोह से रहित होकर जिनप्रभु के शरण में जाओ, ऐसा भव्य जीवों को कहने के लिए ही मानों देवों का दुंदुभी बाजा गम्भीर शब्द करता है।। ९२४।। जिनेन्द्र भगवान् के चरण कमलों के मूल में, रुण-रुण शब्द करते हुए भ्रमरों से व्याप्त और उत्तम भक्ति से युक्त देवों के द्वारा छोड़ी गई पुष्पवृष्टि गिरती है।। ९२५।। जो दर्शन मात्र से ही सम्पूर्ण लोगों को अपने सौ (सात) भवों के देखने में निमित्त है और करोड़ों सूर्यों के समान उज्ज्वल है ऐसा वह तीर्थंकरों का प्रभामण्डल जयवन्त होता है।। ९२६।। मृणाल, कुन्दपुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान सपेद तथा देवों के हाथों से नचाये गए (ढोरे गए) चौंसठ चामरों से वीज्यमान जिन भगवान् जयवन्त होवें।। ९२७।।
आदिपुराण में ३४ अतिशय एवं ८ प्रातिहार्यों का वर्णन
जन्म के १० अतिशय—आदिपुराण भाग १ पृ. ५९७-५९८, ६३२, ५३४, ५९९। पसीना रहित मलमूत्र रहित सुगन्धित शरीर शुभ लक्षणों से सहित समचतुरस्र संस्थान रुधिर श्वेत वङ्कावृषभनाराच संहनन सुन्दरता सौभाग्य मीठी वाणी ।
केवलज्ञान के १० अतिशय— सौ-सौ योजन तक सुभिक्षता आकाश में गमन हिंसा का अभाव कवलाहार का अभाव उपसर्ग से रहित सब विद्याओं के स्वामी चतुर्मुख दिखना छाया का अभाव नेत्रों की अनुन्मेष वृत्ति नख-केश का नहीं बढ़ना ।
देवकृत १४ अतिशय—आदिपुराण भाग १ पृ. ५९७-५९८, ६३२, ५३४, ५९९। अर्धमागधी भाषा आपस में मित्रता वृक्षों को फूल फल अंकुरों से व्याप्त का दिया पृथिवी मण्डल को दर्पण के आकार में परिवर्तित कर दिया सुगन्धित, शीतल मन्द-मन्द वायु पवनकुमार देवों द्वारा भूमि की निष्कंटकता मेघकुमार जाति के देव द्वारा सुगन्धित जल की वर्षा कमलों पर चरण कमल दिशाओं की निर्मलता हजार आरे वाला देदीप्यमान धर्मचक्र अष्टमंगलद्रव्य फहराती हुई ध्वजाओं का समूह दुंदुभि बाजों का मधुर तथा गम्भीर शब्द पुष्पों की वर्षा ।
अष्ट प्रातिहार्य—आदिपुराण भाग १ पृ. ५९७-५९८, ६३२, ५३४, ५९९। अशोक वृक्ष चमरों के समूह तीन छत्र सिंहासन देवों के द्वारा साढ़े बारह करोड़ दुन्दुभि आदि बाजे गम्भीर दिव्य ध्वनि (ठौना) देवों द्वारा पुष्पों की वर्षा शरीर का प्रभामण्डल।