आहार में नख, बाल, हड्डी, मांस, पीप, रक्त, चर्म, द्वीन्द्रिय आदि जीवों का कलेवर, कण१, कुंड२, बीज, कंद, मूल और फल।
इनमें से कोई महामल हैं, कोई अल्पमल हैं, कोई महादोष हैं और कोई अल्पदोष है। रुधिर, मांस, अस्थि, चर्म और पीप ये महादोष हैं, आहार में इनके दीखने पर आहार छोड़कर प्रायश्चित्त भी लिया जाता है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों का शरीर-मृतक लट, चिंवटी, मक्खी आदि तथा बाल के आहार में आ जाने पर आहार का त्याग कर दिया जाता है। नख के आ जाने पर आहार छोड़कर गुरु से किंचित् प्रायश्चित्त भी लेना होता है। कण, कुण्ड, बीज, कंद, फल और मूल के आहार में आ जाने पर यदि उनको निकालना शक्य है, तो निकालकर आहार कर सकते हैं अन्यथा आहार का त्याग करना होता है।सिद्धभक्ति कर लेने के बाद यदि अपने शरीर में रक्त, पीप बहने लगे अथवा दातार के शरीर में बहने लगे, तो आहार छोड़ देना होता है। मांस के देखने पर भी उस दिन आहार का त्याग कर दिया जाता है।
द्रव्य से प्रासुक आहार भी यदि मुनि के लिए बनाया गया है, तो वह अशुद्ध है। इसलिए ज्ञात कर ऐसा आहार मुनि नहीं लेते हैं। ‘‘जैसे मत्स्य के लिए किये गये मादक जल से मत्स्य ही मदोन्मत्त होते हैं किन्तु मेंढक नहीं, वैसे ही पर के लिए बनाये हुए आहार में प्रवृत्त हुए मुनि उस दोष से आप लिप्त नहीं होते हैं। अर्थात् गृहस्थ अपना कर्त्तव्य समझकर शुद्ध भोजन बनाकर साधु को आहार देते हैं तब मुनि अपने रत्नत्रय की सिद्धि कर लेते हैं और श्रावक दान के फल स्वर्ग, मोक्ष को सिद्ध कर लेते हैं।यदि आहार शुद्ध है फिर भी यदि साधु अपने लिए बना हुआ समझ कर उसे ग्रहण करता है, तो वह दोषी है और यदि कृत, कारित आदि दोष रहित आहार लेने के इच्छुक साधु को अध:कर्मयुक्त-सदोष भी आहार मिलता है, किन्तु उसे वह मुनि साधु बुद्धि से ग्रहण कर रहा है, तो वह साधु शुद्ध है।’’
अन्यत्र भी कहा है-यदि मुनि मन, वचन, काय से शुद्ध होकर तथा आलस को छोड़कर शुद्ध आहार को ढूंढ़ता है, तो फिर कहीं पर अध:कर्म होने पर भी वह साधु शुद्ध ही कहा जाता है। शुद्ध आहार को ढूँढने से अध:कर्म से उत्पन्न हुआ अन्न भी उस साधु के कर्मबंध करने वाला नहीं है१।’’