१.चारों गतियों में गमन करने के कारण को गति कहते हैं। उसके चार भेद हैं-नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति और देवगति।
२.जो इन्द्र के समान हो अथवा आत्मा के लिंग को इन्द्रिय कहते हैं। इसके ५ भेद हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र।
३.त्रस और स्थावरनामकर्म के उदय से होने वाली आत्मा की पर्याय को काय कहते हैं। इसके ६ भेद हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय।
४.शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव की जो कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है, उसको योग कहते हैं। उसके १५ भेद हैं-सत्य, असत्य, उभय और अनुभय ये चार मनोयोग, इन्हीं सत्यादि के चार वचनयोग, औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियक, वैक्रियकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण, ये सात काययोग, ऐसे १५ योग हैं।
५.वेद नामक नो कषाय के उदय से उत्पन्न हुई जीव के मैथुन की अभिलाषा को भाववेद कहते हैं और नामकर्म के उदय से आविर्भूत जीव के चिन्ह विशेष को द्रव्यवेद कहते हैं। वेद के ३ भेद हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद।
६.जो आत्मा के सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र और यथाख्यातचारित्र रूप परिणामों को कषे-घाते, उसको कषाय कहते हैं। उसके १६ भेद हैं-अनंतानुबंधी, क्रोध, मान, माया, लोभ। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि चार। प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि चार और संज्वलन क्रोधादि चार।
७.जो त्रिकाल विषयक समस्त पदार्थों को जाने, वह ज्ञान है। अथवा आत्मा को जानने का गुण ज्ञानगुण है। उसके ८ भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल तथा कुमति, कुश्रुत, कुअवधि।
८.व्रतधारण, समितिपालन, कषाय निग्रह, योग का त्याग और इन्द्रिय विजय को संयम कहते हैं। उसके ७ भेद हैं-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात ये ५ संयम तथा देशसंयम और असंयम।
९.सामान्य विशेषात्मक पदार्थ के केवल सामान्य अंश को ग्रहण करने वाला दर्शन है। इसके चार भेद हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन।
१०.कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। इसके ६ भेद हैं-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल। इनमें ३ अशुभ और ३ शुभ हैं।
११.जो मुक्ति प्राप्ति के योग है उसे भव्य कहते हैं। भव्य मार्गणा के २ भेद हैं-भव्य और अभव्य। जिनकी सिद्धि होने वाली हो अथवा जो उसकी प्राप्ति के योग हों, उनको भव्य कहते हैं। जो इन दोनों से अर्थात् मुक्ति प्राप्ति की योग्यता से रहित हों, वे अभव्य हैं।
१२.जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित छह द्रव्यादि का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। इस मार्गणा के ६ भेद हैं-उपशम सम्यक्त्व, क्षयोपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सासादन और मिथ्यात्व।
१३.नो इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम को या उससे उत्पन्न ज्ञान को संज्ञा कहते हैं। यह संज्ञा जिसके हो, उसको संज्ञी कहते हैं। इस मार्गणा के दो भेद हैं-संज्ञी और असंज्ञी।
१४.औदारिक आदि शरीर और पर्याप्ति के योग्य पुद्गलों के ग्रहण करने को आहार कहते हैं। इस मार्गणा के दो भेद हैं-आहार और अनाहार। इन चौदह मार्गणाओं के उत्तर भेद ८६ होते हैंं।