-गीता छंद-
श्री विजयमेरू उत्तरी दिश, क्षेत्र ऐरावत कहा।
जो पूर्वधातकि द्वीप में है, कालषट् को धर रहा।।
उसके चतुर्थेकाल में जो, भूतकालिक जिनवरा।
वंदूँ उन्हें वर भक्ति से, वे हों हमें क्षेमंकरा।।१।।
-दोहा-
त्रिभुवनपति त्रिभुवनधनी, त्रिभुवन के गुरु आप।
त्रिभुवन के चूड़ामणी, नमूूँ-नमूँ नत माथ।।२।।
-नरेन्द्र छंद-
नाथ ‘वङ्कास्वामिन्’! तुम गुणमणि, गणना शक्य नहीं है।
गणधर मुनिगण नित्य गुणों को, गाते पार नहीं है।।
मन-वच-तन से शीश नमाकर, वंदूँ हर्ष बढ़ाके।
चिन्मय चिंतामणि निज आतम, पाऊँ पुण्य बढ़ाके।।१।।
‘उदत्तनाथ’ तीर्थंकर जग में, ज्ञान उद्योत करे हैं।
मुक्ति गये हैं फिर भी अब तक, भविमन मोद भरे हैं।।मन..।।२।।
‘सूर्यस्वामि’ तीर्थंकर जिन हैं, जन-जन के हितकारी।
जो जन वंदन-भक्ती करते, वे लभते शिवनारी।।मन..।।३।।
श्री ‘पुरुषोत्तमनाथ’ तीर्थंकर, उत्तम तीन जगत में।
इसीलिये मुनिगण नित ध्याते, अपने हृदयकमल में।।मन..।।४।।
नाथ ‘शरणस्वामिन्’! तुम शरणे, जीव अनंते आते।
कर्मकालिमा दूर भगाकर, तुम सम ही बन जाते।।मन..।।५।।
श्री ‘अवबोधनाथ’ तीर्थंकर, मृत्यूमल्ल विजेता।
इसीलिये यमराज भीति से, नमें तत्त्व के वेत्ता।।
मन-वच-तन से शीश नमाकर, वंदूँ हर्ष बढ़ाके।
चिन्मय चिंतामणि निज आतम, पाऊँ पुण्य बढ़ाके।।६।।
‘विक्रमनाथ’ कामशत्रु हन, शिवरमणी को परणा।
इसी हेतु से परम योगिजन, लिया आपकी शरणा।।मन..।।७।।
श्री ‘निर्घंटिकनाथ’ तीर्थंकर, सघन विघन घन नाशें।
श्री जिनपद वंदन करते वे, अंतर ज्योति प्रकाशें।।मन..।।८।।
श्री ‘हरीन्द्रनाथ’ जिन पद को, हरिहर ब्रह्मा भजते।
त्रैलोक्येश्वर शत इंद्रों से, वंद्य तुम्हें सब नमते।।मन..।।९।।
‘परित्रेरितनाथ’ पदपंकज, सुर-किन्नरगण ध्यावें।
नाना विध गुणगान करें औ, नाचें बीन बजावें।।मन..।।१०।।
तीर्थंकर ‘निर्वाणसूरि’ पद, सुरपति नरपति पूजें।
सकल अमंगल दोष दूर हों, मोह कर्म अरि धूजें।।मन..।।११।।
‘धर्महेतुनाथ’ वृषचक्री, दश धर्मों के स्वामी।
नाममंत्र भी परमधाम में, पहुँचावे जगनामी।।मन..।।१२।।
देव ‘चतुर्मुखनाथ’ चतुर्गती, रहित सकल सुख देवें।
तिनके चरण कमल जो वंदें , परमामृत सुख लेवें।।मन..।।१३।।
‘सुकृतेंद्रनाथ’ तीर्थंकर, जब कृतकृत्य हुए हैं।
तभी उन्हीं का आश्रय लेकर, भव्य प्रमुक्त हुए हैं।।मन..।।१४।।
‘श्रुताम्बूनाथ’ हिमपर्वत से, सकल भावश्रुत गंगा।
निकली है इसमें अवगाहन, करके बनो निसंगा।।मन..।।१५।।
श्री ‘विमलार्कनाथ’ केवल रवि, विश्व प्रकाश करे हैं।
अमल विमल तुम चरणकमल रज, निर्मल चित्त करे हैं।।मन..।।१६।।
‘देवप्रभनाथ’ देवदेव तुम, महादेव सुखदेवा।
इंद्र सकल परिवार शची मिल, करें निरंतर सेवा।।मन..।।१७।।
श्री ‘धरणेंद्रनाथ’ जिन भू पर, धर्म सुधा बरसाते।
भविजन खेती सिंचन करके, भव्य कुमुद विकसाते।।
मन-वच-तन से शीश नमाकर, वंदूँ हर्ष बढ़ाके।
चिन्मय चिंतामणि निज आतम, पाऊँ पुण्य बढ़ाके।।१८।।
‘सुतीर्थनाथ’ जिन भावतीर्थ के, कर्ता तीर्थंकर हैं।
भव्यजीव निज भाव द्रव्य मल, धोते नैरंतर हैं।।मन..।।१९।।
‘उदयानंदनाथ’ जिन निज में, ज्ञान उदय को करके।
परमधाम में नित्य विराजें, त्रिजग ज्ञान में झलकें।।मन..।।२०।।
श्री ‘सर्वार्थदेव’ तीर्थंकर, सर्वमनोरथ पूरें।
भक्तजनों के अनायास ही, सर्वकर्म रिपु चूरें।।मन..।।२१।।
‘धार्मिकनाथ’ तीर्थंकर का नित, धर्मपरायण जनता।
आश्रय लेकर भववारिधि तर, वर लेती शिववनिता।।मन..।।२२।।
तीर्थंकर श्री ‘क्षेत्रस्वामि’ हैं, तीन लोक के स्वामी।
गुण अनंत के सागर अनुपम, सबके अंतर्यामी।।मन..।।२३।।
तीर्थेश्वर ‘हरिचंद्रनाथ’ प्रभु, भवि लेते तुम शरणा।
अप्सरियाँ नित तुम गुण गावें, भक्ति करें सुर ललना।।मन..।।२४।।
दोहा- श्री चौबीसों तीर्थकर, प्रीतिंकर सुखकार।
‘ज्ञानमती’ वैâवल्य हितु, मैं प्रणमूँ त्रय बार।।२५।।