-अडिल्ल छंद-
अपरधातकी में, ऐरावत जानिये।
वर्तमान चौबीस, जिनेश्वर मानिये।।
तिनको वंदन करूँ, भक्ति उर लायके।
शुद्ध बुद्ध परमातम, गुण चित ध्यायके।।१।।
-नरेन्द्र छंद-
श्री ‘साधितनाथ’ तीर्थंकर को, सुरपतिगण मिल वंदें।
जो इनको नित वंदन करते, अपने अघरिपु खंडे।।
नव क्षायिक लब्धी हेतू मैं, प्रभु को शीश नमाऊँ।
निज आतम अनुभव अमृत को, पीकर तृप्ती पाऊँ।।१।।
‘जिन स्वामी’ तीर्थंकर जग में, अनुपम हित उपदेशी।
प्रभु तुम नाम मंत्र ही जग में, रोग शोक दुख भेदी।।नव.।।२।।
श्री ‘स्तमितेन्द्रनाथ’ विश्व में, परमानंद प्रदाता।
निश्चल मन से जो नित वंदें, वे पावें सुख साता।।नव.।।३।।
‘अत्यानंदधाम’ जिनवर जी, परमानंद सुख कर्ता।
सुर नर किन्नर सुरललनागण, वंदें भव दुख हर्ता।।नव.।।४।।
‘पुष्पोत्फुल्लनाथ’ इस जग में, भविजन मन हरषावें।
सबको आत्यंतिक सुख हेतू, धर्मामृत बरसावें।।नव.।।५।।
श्री ‘मँडितनाथ’ तीर्थंकर, श्री सर्वज्ञ कहाते।
शत इंद्रों से वंदित नितप्रति, जो वंदें सुख पाते।।नव.।।६।।
‘प्रहितदेव’ जिनदेव त्रिजगपति, धर्मचक्र के धारी।
दश धर्मों का करें प्रवर्तन, भवि जीवन हितकारी।।नव.।।७।।
‘मदनसिद्ध प्रभु’ काम क्रोध मद, माया लोभ नशाके।
परम सुखास्पद धाम लिया है, आठों कर्म जलाके।।
नव क्षायिक लब्धी हेतू मैं, प्रभु को शीश नमाऊँ।
निज आतम अनुभव अमृत को, पीकर तृप्ती पाऊँ।।८।।
श्री ‘हसिंदद्रनाथ’ जिन सुखकर, विषय कषायजयी हैं।
मुनिगण उनके पदपंकज नमि, पावें मोक्षमही हैं।।नव.।।९।।
‘चंद्रपार्श्व जिन’ अतुल चंद हैं, मुनिमनकुमुद विकासी।
जो नित वंदें भक्ति भाव से, पावें निजसुख राशी।।नव.।।१०।।
‘अब्जबोधनाथ’ प्रभु जग में, भविजन कमल खिलाते।
जन्मजात बैरी प्राणी को, प्रेम पियूष पिलाते।।नव.।।११।।
‘जिनबल्लभनाथ’ तीर्थंकर शिव-ललना वर माने।
सम्यग्दृष्टीजन उनको भज, निज-पर को पहचानें।।नव.।।१२।।
‘सुविभूतिकनाथ’ तीर्थंकर, त्रिभुवन विभव सनाथा।
भाक्तिकजन उनको वंदत हैं, नित्य नमाके माथा।।नव.।।१३।।
‘कुकुद्भासनाथ’ तीर्थंकर, धर्मध्वजा फहराते।
जो जन वंदें भक्ति भाव से, आत्मसुधारस पाते।।नव.।।१४।।
‘सुवर्णनाथ’ परम तीर्थंकर, वर्ण रहित अशरीरी।
जो उनके पदपंकज वंदें, होवें चरम शरीरी।।नव.।।१५।।
तीर्थंकर ’हरिवासक स्वामी’, भवि दुख शमन करे हैं।
हरिहर ब्रह्मा बुद्ध सूर्य शशि, तुम पद नमन करे हैं।।नव.।।१६।।
श्री ‘प्रियमित्रनाथ’ जनगण के, मित्र परम उपकारी।
सुरललनायें भक्तिभाव से, गावें गुण अविकारी।।नव.।।१७।।
भवहर ‘धर्मदेव’ तीर्थेश्वर, अविचल धाम विराजें।
सुर किन्नरियाँ वीणा लेकर, भक्ति के स्वर साजें।।नव.।।१८।।
‘प्रियरतनाथ’ तीर्थंकर लखते, तीन लोक त्रयकाला।
जो जन श्रद्धा से नित वंदें, उनके वे प्रतिपाला।।नव.।।१९।।
‘नंदिनाथ’ भवि को आनंदें, सुरगण उनको वंदें।
परम अतींद्रिय सौख्य पायके, भोगें परमानंदें।।
नव क्षायिक लब्धी हेतू मैं, प्रभु को शीश नमाऊँ।
निज आतम अनुभव अमृत को, पीकर तृप्ती पाऊँ।।२०।।
‘अश्वानीकनाथ’ जिन तुम हो, शम दम के अवतारी।
परमप्रशमसुख वे पा लेते, जो वंदें सुखकारी।।नव.।।२१।।
‘पूर्वनाथ’ सुख लिया अपूरब, क्षपक श्रेणि पर चढ़के।
निजभक्तों को भी सुख अनुपम, देते हैं बढ़ चढ़के।।नव.।।२२।।
‘पार्श्वनाथ’ जिननाथ हमारे, सर्व दुखों के हर्ता।
सुर नर असुर सदा तुम वंदें, हो जाते शिवभर्ता।।नव.।।२३।।
‘चित्रहृदयनाथ’ जिन चित्रित, पंच परावर्तन को।
कर समाप्त निज गुण विचित्र, सब पाया वंदूँ उनको।।नव.।।२४।।
-अडिल्ल छंद-
वर्तमान चौबीस जिनेश्वर को नमूँ।
श्रद्धा भक्ति समेत सतत उनको नमूँँ।।
वंदूँ शीश नमाय नमाऊँ भाल मैं।
‘ज्ञानमती’ हो पूर्ण बनूँ खुशहाल मैं।।२५।।