-गीता छंद-
जो पूर्व पुष्कर भरत में, तीर्थेश आगे होएँगे।
निज कर्म कल्मष पुंज को, स्वयमेव आगे धोएँगे।।
सच आज भी उन नाम सबके, पाप कल्मष धो रहे।
वंदूँ यहाँ प्रभु भक्ति से, मेरे सभी पातक दहें।।१।।
-चौपाई छंद-
श्री ‘बसंतध्वज’ तीर्थ करंता, निज आतम अनुभव विलसंता।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।१।।
श्री ‘त्रिजयंत देव’ जगनामी, परम पूज्य त्रिभुवन के स्वामी।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।२।।
श्री ‘त्रिस्तंभनाथ’ सुखदाता, नाम मात्र से होती साता।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।३।।
‘परब्रह्मनाथ’ पुण्यफल मानें, भव्य जीव तुमको सरधानें।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।४।।
‘अबालिशनाथ’ वैद्य प्रधाना, जन्म रोग नाशन में माना।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।५।।
‘प्रवादिनाथ’ जिनदेव अपूरब, जो ध्यावें सुख लहें अपूरब।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।६।।
‘भूमानंदनाथ’ जग ध्यावें, जो पूजें धन जन सुख पावें।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।७।।
‘त्रिनयननाथ’ तीर्थंकर सोहें, ज्ञाननेत्र से जन मन मोहें।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।८।।
श्री ‘विद्वान्नाथ’ सुखकर्ता, दर्शन करते सब दुख हर्ता।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।९।।
‘परमात्मप्रसंगनाथ’ जिनेशा, नमत चरण में सुर असुरेशा।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।१०।।
‘भूमीन्द्रनाथ’ अतुलनिधि दाता, नमते ही सब मिटे असाता।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।११।।
श्री ‘गोस्वामी’ त्रिभुवन स्वामी, तुम हो सबके अंतर्यामी।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।१२।।
श्री ‘कल्याणप्रकाशित’ देवा, गणधर भी करते तुम सेवा।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।१३।।
‘मंडलनाथ’ तीर्थेश महेशा, रवि शशि तुमको नमें हमेशा।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।१४।।
‘महावसुनाथ’ तीर्थेश महाना, वंदत हो जन जगत प्रधाना।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।१५।।
‘उदयवान’ जिन जग उद्योती, नाम जपे सुख संपति होती।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।१६।।
‘दिव्यज्योति प्रभु’ जगत प्रकाशे, केवलज्ञान विषे सब भासे।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।१७।।
‘प्रबोधेश’ भविकमल विकासें, जो ध्यावें वे स्वपर प्रकाशें।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।१८।।
श्री ‘अभयांकनाथ’ जिन तारें, भविजन को भव पार उतारें।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।१९।।
‘प्रमितनाथ’ अप्रमित शक्तिधर, जो वंदें वे बनें मुक्तिवर।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।२०।।
‘दिव्यस्फारकनाथ’ पद पंकज, वंदत ही मिलती जिन संपत।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।२१।।
‘व्रतस्वामी’ जिनदेव अनूपा, चरणकमल वंदे जग भूपा।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।२२।।
‘निधाननाथ’ सर्वनिधीश्वर, तुमको मन में धरें ऋषीश्वर।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।२३।।
‘त्रिकर्मानाथ’ कर्म नशाते, भक्तों को सुख मार्ग बताते।
वंदूँ आप चरण सुखकारी, निजानंद सुख हो हितकारी।।२४।।
-कुसुमलता छंद-
पण मिथ्यात्व विनय संशय, एकांत और विपरीत अज्ञान।
तथा अवांतर भेद तीन सौ, त्रेसठ हैं मिथ्यात्व प्रधान।।
तुम भक्ती से भव का मूल, हेतु मिथ्यात्व नष्ट हो जाय।
‘ज्ञानमती’ वैâवल्य हेतु प्रभु, तुमको वंदूँ शीश नमाय।।२५।।