-अडिल्ल छंद-
पूरब पुष्कर में ऐरावत जानिये।
आगामी तीर्थंकर को सरधानिये।।
मन वच तन कर उनको नितप्रति वंदिए।
परमानंदस्वरूप सिद्धिपति होइए।।१।।
-दोहा-
अतुल रूप के तुम धनी, अतुल ऋद्धि के नाथ।
मेरे सब संकट हरो, अगणित गुणमणि सार्थ।।२।।
-पद्धड़ी छंद-
जिनराज ‘यशोधरनाथ’ वंद्य। तुम गुणगण गावें इंद्रवृंद।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१।।
श्री ‘सुकृतनाथ’ जो नमें आप। उनके मिट जाते सकल ताप।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।२।।
‘अभयघोषनाथ’ दें अभयदान। सब प्राणीगण का करें त्राण।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।३।।
‘निर्वाणनाथ’ जिन आप नाम। जपकर भवि पाते सुखद धाम।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।४।।
‘व्रतवासनाथ’ जिन व्रतिकबंध। तुम ही हो भगवन जगतबंधु।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।५।।
‘अतिराजनाथ’ गुण के निधान। तुम भक्त लहें निरुपम सुनाथ।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।६।।
‘अश्वदेवनाथ’ तुम चरण सेव। जो करते सुख लभते स्वमेव।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।७।।
श्री ‘अर्जुननाथ’ तुम पापहीन। मुनिगण तुम ध्यावें ध्यानलीन।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।८।।
‘तपश्चंद्रनाथ’ तप में प्रवीण। तुम शिष्य तपें तप स्वात्मलीन।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।९।।
‘शारीरिकनाथ’ तनु तापहीन। तुम ध्याकर जन हों देह हीन।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१०।।
श्री ‘महेशनाथ’ तुम देवदेव। सुरपति भी करते चरणसेव।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।११।।
‘सुग्रीवनाथ’ जिन नाममंत्र। मुनिजन को पूर्ण करें स्वतंत्र।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१२।।
‘दृढ़प्रहारनाथ’ यमशत्रु आप। भक्तों के हरते सकल ताप।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१३।।
‘अंबरीकनाथ’ अगणित मुनीश। तुम पद पंकज में नमत शीश।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१४।।
‘दयातीतनाथ’ करुणानिधान। करुणा कर दीजे स्वपद थान।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१५।।
श्री ‘तुंबरनाथ’ गुणगण निधान। जो वंदें ध्यावें मोक्ष थान।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१६।।
‘सर्वशीलनाथ’ अठरह हजार। शीलों के स्वामी गुण अपार।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१७।।
‘प्रतिजातनाथ’ जिन जन्महीन। भविजन को करते कर्महीन।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१८।।
‘जितेंद्रियनाथ’ जिन परमसौख्य। इंद्रियविरहित भोगें मनोज्ञ।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।१९।।
‘तपादित्यनाथ’ भविकमलसूर्य। शिवपथ के नेता परम धुर्य।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।२०।।
‘रत्नाकरनाथ’ गुण खनि महान्। अगणित गुणमणि की आप खान।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।२१।।
‘देवेशनाथ’ जिन देवपूज्य। तुम वाणी भी है जगत्पूज्य।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।२२।।
‘लांछननाथ’ शुभचिन्ह धार। तनशक्ती भी तुम है अपार।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।२३।।
‘सुप्रदेशनाथ’ जिनवर हमेश। भक्तों के हरते सकल क्लेश।
मैं वंदूँ शीश नमाय आज। पाऊँ परमाल्हादक स्वराज।।२४।।
-गीता छंद-
सज्जाति सद्गार्हस्थ्य, पारिव्राज्य और सुरेन्द्रता।
साम्राज्यपद आर्हन्त्य पद, निर्वाणपद की पूर्णता।।
ये सात परमस्थान हैं, तुम भक्त इनको पावते।
निज ‘ज्ञानमति’ वैâवल्य करके, फिर न भव में आवते।।२५।।