-अडिल्ल छंद-
पश्चिम पुष्कर भरतक्षेत्र मनमोहना।
भाविकाल के तीर्थंकर से सोहना।।
उन चौबीसों जिनवर का वंदन करूँ।
आशा सरवर तुम वच से सूखा करूँ।।१।।
-दोहा-
नाथ! आप शिवपथ विघन, करते चकनाचूर।
इसी हेतु मैं नित नमूँ, मिले आत्मरस पूर।।२।।
-नरेन्द्र छंद-
मन से संचित पाप उदयगत, मानसीक दुख देते।
‘प्रभावकनाथ’ तीर्थंकर जी, सब दुख को हर लेते।।
परम अतीन्द्रिय ज्ञानसौख्यमय, श्री जिनवर को ध्याऊँ।
चिच्चैतन्य कल्पतरु नमते, मनवांछित फल पाऊँ।।१।।
वच से संचित कर्म उदयगत, वाणी को दुखकारी।
श्री ‘विनतेंद्रनाथ’ जिन स्तुति, सब दुख संकटहारी।।परम.।।२।।
तन से संचित पाप उदयगत, काया को दुखदायी।
‘सुभावकनाथ’ जिनवर वंदन, सब दुखहर सुखदायी।।परम.।।३।।
अशुभ योग से संचित पातक, आकस्मिक दुख दाता।
श्री ‘दिनकरनाथ’ जिन संस्तुति, दु:ख हरे दे साता।।परम.।।४।।
अगणित व्याधी पाप उदय से, तन मन को दुख दाता।
‘अगस्त्येजनाथ’ जिन भक्ती, मेटे सर्व असाता।।परम.।।५।।
क्रोधकषाय आत्म की शांति, भंग करे दुख देवे।
‘श्रीधनदत्तनाथ’ जिन वंदन, क्रोध नाश कर देवे।।
परम अतीन्द्रिय ज्ञानसौख्यमय, श्री जिनवर को ध्याऊँ।
चिच्चैतन्य कल्पतरु नमते, मनवांछित फल पाऊँ।।६।।
मानकषाय स्वात्म गौरव को, मिट्टी में मिलवाता।
‘पौरवनाथ’ की भक्ती करते, मार्दव गुण बन जाता।।परम.।।७।।
माया ठगिनी निज चेतन को, ही ठगकर दुख देती।
श्री ‘जिनदत्तनाथ’ जिन स्तुति, उसका क्षय कर देती।।परम.।।८।।
लोभकषाय आत्म संपत्ती, को तृणवत् कर देता।
‘पार्श्वनाथ’ का वंदन भवि को, संतोषित कर देता।।परम.।।९।।
पांचों इंद्रिय के विषयों ने, रत्नत्रय निधि लूटी।
‘मुनीसिंधुनाथ’ का वंदन, करते मूर्छा टूटी।।परम.।।१०।।
इस मिथ्यात्व शत्रु ने मुझको, त्रिभुवन में भटकाया।
श्री ‘आस्तिकनाथ’ की संस्तुति, उसको मार भगाया।।परम.।।११।।
अविरति आस्रव ने बहुतेरे, कर्म आत्मसंग जोड़े।
‘भवानीकनाथ’ भक्ती से, कर्म झड़ें मुख मोड़ें।।परम.।।१२।।
मुझ प्रमाद ने मुझको जग के, अंधकूप में डाला।
श्री ‘नृपनाथ’ आप भक्तों को, भव से शीघ्र निकाला।।परम.।।१३।।
पच्चीसों कषाय ने मिलकर, नाना दु:ख दिखाये।
‘नारायणनाथ’ की भक्ती, सब दुख दूर भगाये।।परम.।।१४।।
अप्रशस्त योगों ने जग में, सबको रोक रखा है।
श्री ‘प्रशमौकनाथ’ जिन से ही, सब दुख शोक नशा है।।परम.।।१५।।
अशुभकर्म आस्रव सब जन को, भव-भव में दुख देता।
‘भूपतिनाथ’ की संस्तुति भवि के, शुभ आस्रव कर देता।।परम.।।१६।।
पुण्य पाप सोने लोहे की, बेड़ीवत् दुखदायी।
‘सुदृष्टिनाथ’ जिनकी संस्तुति ने, सब बेड़ी तुड़वाई।।परम.।।१७।।
भूत प्रेत डाकिनि शाकिनि औ, व्यंतर की बाधायें।
श्री ‘भवभीरुनाथ’ को जपतें, तुरत नष्ट हो जायें।।
परम अतीन्द्रय ज्ञानसौख्यमय श्री जिनवर को ध्याऊँ।
चिच्चैतन्य कल्पतरु जिन में मनवांछित फल पाऊँ।।१९।।
देवों द्वारा किये उपद्रव, बहुविध पीड़ा देते।
श्री ‘नंदननाथ’ भक्तों की, सब पीड़ा हर लेते।।परम.।।१९।।
दुष्ट नरों द्वारा दी पीड़ा, सहन नहीं होवे जब।
‘भार्गवनाथ’ जिन वंदन करिये, वे दुख शमन करें सब।।परम.।।२०।।
तिर्र्यंचोंकृत घोर उपद्रव, तनिक कष्ट नहिं देवें।
श्री ‘सुवसुनाथ’ तीर्थंकर का, यदि जन आश्रय ले लेवें।।परम.।।२१।।
वायुयान नौका आदी से, पतन आदि के संकट।
‘परावशनाथ’ की संस्तुति से, टल जाती सब आपद।।परम.।।२२।।
तन में व्रण हों अस्थि टूटने, आदिक बहु दुख होते।
‘वनवासिकनाथ’ की स्तुति से, कष्ट पलायित होते।।परम.।।२३।।
शारीरिक मानस आगंतुक, आकस्मिक पीड़ायें।
जो ‘भरतेशनाथ’ को वंदें, सब दुख दूर भगायें।।परम.।।२४।।
-दोहा-
इहलोकादिक सात भय, जन को करते भीत।
भय भी भय से भागते, नमत ‘ज्ञानमति’ नित्त।।२५।।