-शंभु छंद-
वर जंबूद्वीप प्रथम इसमें, है क्षेत्र सातवाँ मन मोहे।
ऐरावत क्षेत्र उसे जानो, सुरगिरि के उत्तर दिश सोहे।।
छहकाल परावर्तन इसमें, चौथे में तीर्थंकर होते।
जिनवर अतीत को भक्ती से, वंदन करके हम मल धोते।।१।।
-चौपाई-
श्री ‘पंचरूपनाथ’ महान्, धर्मतीर्थकर सुख की खान।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।१।।
श्री ‘जिनधरनाथ’ जिनभूप, पाया शुद्ध निरंजन रूप।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।२।।
जिन ‘सांप्रतिकनाथ’ शुभ नाम, मनवचतन से करूँ प्रणाम।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।३।।
श्री ‘ऊर्जयंतनाथ’ गुणखान, करते स्वात्मसुधारस पान।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।४।।
श्री जिन ‘अधिक्षायिकनाथ’, भवदधि तारणतरण जिहाज।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।५।।
श्री ‘अभिनंदननाथ’ जिनेश, नित शत इंद्र नमावें शीश।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।६।।
‘रत्नसेननाथ’ अभिराम, पुरुष चिदंबर भुवन ललाम।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।७।।
श्री ‘रामेश्वरनाथ’ उदार, मूर्ति रहित फिर भी साकार।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।८।।
श्री ‘अनंगऊज्झित’ जिननाथ, वंदन करूँ नमाकर माथ।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।९।।
श्री ‘विन्यासनाथ’ तीर्थेश, भक्तजनों के हरें कलेश।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।१०।।
जिन ‘अरोषनाथ’ नमि भव्य, जीत कषाय बनें कृतकृत्य।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।११।।
श्री ‘सुविधाननाथ’ सुुखतृप्त, पूजत भविजन हों संतृप्त।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।१२।।
श्री ‘प्रदत्तनाथ’ गुणपूर, किया कर्म गिरि चकनाचूर।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।१३।।
श्री तीर्थंकर ‘कुमारनाथ’, मुक्तिवल्लभा किया सनाथ।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।१४।।
‘सर्वशैलनाथ’ जिननाम, गुणरत्नाकर सर्वप्रधान।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।१५।।
‘प्रभंजननाथ’ कर्म विडार, भविजन हेतू सुख भंडार।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।१६।।
श्री ‘सौभाग्यनाथ’ तीर्थेश, ब्रह्मा विष्णु बुद्ध परमेश।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।१७।।
श्री ‘व्रतविंदुनाथ’ जिन आप, व्रत दे सब जन करो अपाप।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।१८।।
‘सिद्धिकर देव’ सिद्धस्वरूप, आत्मसुधारस तृप्त अनूप।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।१९।।
‘ज्ञानशरीरनाथ’ जिन आप, मुनिगण का हरते भवताप।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।२०।।
‘कल्पद्रुमनाथ’ देव, ईप्सित फल देते स्वयमेव।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।२१।।
जिनवर ‘तीर्थफलेश’ महेश, मुनिगण सुरगण नमें हमेश।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।२२।।
श्री ‘दिनकरनाथ’ भास्वान्, हरते भविजन मन अज्ञान।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।२३।।
तीर्थंकर श्री ‘वीरप्रभ’ देव, सुर नर करें तुम्हारी सेव।
शीश नमाकर वंदूँ आज, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज्य।।२४।।
-दोहा-
ऐरावत के तीर्थकर, भूतकाल के सिद्ध।
नमत ‘ज्ञानमति’ पूर्ण हो, मिले ऋद्धि नव निद्ध।।२५।।