इनमें प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम व चौदहवें तीर्थंकर अयोध्या में जन्मे हैं। शेष तीर्थंकर अन्यत्र जन्में हैं। यह हुण्डावसर्पिणी काल का निमित्त माना है।
अवसप्पिणिउस्सप्पिणिकाल च्चिय रहटघटियणाएणं।
होंति अणंताणंता भरहेरावदखिदिम्मि पुढं१।।१६१४।।
भरत और ऐरावत क्षेत्र में रँहटघटिका न्याय से अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल अनन्तानन्त होते हैं। (अर्थात् जिस प्रकार रँहट की घरियां बार-बार ऊपर व नीचे आती-जाती हैं, इसी प्रकार अवसर्पिणी के पश्चात् उत्सर्पिणी और उत्सर्पिणी के पश्चात् अवसर्पिणी, इस क्रम से सदा इन कालों का परिवर्तन होता ही रहता है)।।१६१४।।
अवसप्पिणिम्मि काले तहेव उवसप्पिणिम्मि कालम्मि।
उप्पज्जंति महप्पा तेसट्ठिसलागवरपुरिसा२।।२०८।।
अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी काल में तिरेसठ शलाका महापुरुष उत्पन्न होते हैं।।२०८।।
अवसप्पिणिउस्सप्पिणिकालसलाया गदे य संखाणिं।
हुंडावसप्पिणी सा एक्का जाएदि तस्स चिण्हमिमं३।।१६१५।।
असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीकाल की शलाकाओं के बीत जाने पर प्रसिद्ध एक हुण्डावसर्पिणी आती है, उसके चिन्ह ये हैं।।१६१५।।
विशेषार्थ-हुंडावसर्पिणी में कुछ अघटित घटनाएं हुई हैं। जैसे-प्रथम तीर्थंकर तीसरे काल में हो गये आदि। इसी निमित्त से अयोध्या में पाँच तीर्थंकर ही जन्मे हैं। शेष तीर्थंकरों की अन्य जन्मभूमियाँ मिलाकर सोलह हो गई हैं।
ताभ्यामलंकृते पुण्ये देशे कल्पांघ्रिपात्यये।
तत्पुण्यैर्मुहुराहूत: पुरूहूत: पुरीं व्यधात्१।।६९।।
मरुदेवी और नाभिराज से अलंकृत पवित्र स्थान में जब कल्पवृक्षों का अभाव हो गया, तब वहाँ उनके पुण्य के द्वारा बार-बार बुलाये हुए इन्द्र ने एक नगरी की रचना की।
संचस्करुश्च तां वप्रप्राकारपरिखादिभि:।
अयोध्यां न परं नाम्ना गुणेनाप्यरिभि: सुरा:२।।७६।।
देवों ने उस नगरी को वप्र (धूलि के बने हुए छोटे कोट), प्राकाार (चार मुख्य दरवाजों से सहित, पत्थर के बने हुए मजबूत कोट) और परिखा आदि से सुशोभित किया था। उस नगरी का नाम अयोध्या था। वह केवल नाममात्र से अयोध्या नहीं थी किन्तु गुणों से भी अयोध्या थी। कोई भी शत्रु उससे युद्ध नहीं कर सकते थे इसलिए उसका वह नाम सार्थक था (अरिभि: योद्धुं न शक्या-अयोध्या)।।७६।।
पुण्येऽहनि मुहूर्त्ते च शुभयोगे शुभोदये।
पुण्याहघोषणां तत्र सुराश्चक्रु: प्रमोदिन:३।।८१।।
विश्वद्दृश्वैतयो: पुत्रो जनितेति शतक्रतु:।
तयो: पूजां व्यधत्तोच्चैरभिषेकपुरस्सरम्४।।८३।।
षड्भिर्मासैरथैतस्मिन् स्वर्गादवतरिष्यति।
रत्नवृष्टिं दिवो देवा: पातयामासुरादरात्५।।८४।।
खाङ्गणे गणनातीता रत्नधारा रराज सा।
विप्रकीर्णेव कालेन तरला तारकावली६।।९२।।
अनन्तर उस अयोध्या नगरी में सब देवों ने मिलकर किसी शुभ दिन, शुभ मुहूर्त, शुभ योग और शुभ लग्न में हर्षित होकर पुण्याहवाचन किया।।८१।।
इन दोनों के (महाराजा नाभिराज व महारानी मरुदेवी) सर्वज्ञ ऋषभदेव पुत्र जन्म लेंगे। यह समझकर इन्द्र ने अभिषेकपूर्वक उन दोनों की बड़ी पूजा की थी।।८३।।
तदनन्तर छह महीने बाद ही भगवान ऋषभदेव यहाँ स्वर्ग से अवतार लेंगे, ऐसा जानकर देवों ने बड़े आदर के साथ आकाश से रत्नों की वर्षा की।।८४।।
आकाशरूपी आंगन में वह असंख्यात रत्नों की धारा ऐसी जान पड़ती थी, मानों समय पाकर पैâली हुई नक्षत्रों की चंचल और चमकीली पङ्क्ति ही हो।।९२।।
कृतप्रथममाङ्गल्ये, सुरेन्द्रो जिनमंदिरम्।
न्यवेशयत् पुरस्यास्य, मध्ये दिक्ष्वप्यनुक्रमात्।।१५०।।
अर्थ-इन्द्र ने प्रथम ही मांगलिक कार्य किया और फिर उसी अयोध्यापुरी के बीच में जिनमंदिर की रचना की। इसके बाद पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर इस प्रकार चारों दिशाओं में भी यथाक्रम से जिनमंदिरों की रचना की, तभी से जिनमंदिर निर्माण की परम्परा चली आ रही है।।१५०।।