-दोहा—
तीर्थंकर चौबीस जिन, पंचकल्याणक ईश।
पुष्पांजलि से पूजहूँ, नमूँ नमूँ नत शीश।।१।।
।।अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजिंल क्षिपेत्।।
-शंभु छंद-
यह पुरी अयोध्या इंद्र रचित, चौदहवें कुलकर नाभिराज।
माता मरुदेवी के आँगन, बहु रत्न वृष्टि की धनदराज।।
आषाढ़ वदी द्वितीया सर्वारथ, सिद्धी से अहमिंद्र देव।
माता के गर्भ बसे आकर, इंद्रों ने की पितु मात सेव।।१।।
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णाद्वितीयायां श्रीआदिनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री ह्री धृति आदि देवियों ने, माता की सेवा भक्ती की।
नाना विध गूढ़ प्रश्न करके, माता की अतिशय तृप्ती की।।
शुभ चैत्र वदी नवमी जन्में, प्रभु त्रिभुवन में अति हर्ष हुआ।
इन्द्रों ने आ प्रभु को लेकर, मेरू पर अतिशय न्हवन किया।।२।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णानवम्यां श्रीआदिनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुरुदेव निलांजना नृत्य देख, वैराग्यभाव मन में लाये।
लौकांतिक सुर स्तुति करते, सुर सुदर्शना पालकि लाये।।
नक्षत्र उत्तराषाढ़ चैत वदि, नवमी प्रभु सिद्धार्थ वन में।
छह मास योग ले दीक्षा ली, मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ प्रभु पद में।।३।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णनवम्यां श्रीआदिनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
छह मास योग के बाद प्रभू, मुनिचर्या बतलाने निकले।
गजपुर में अक्षयतृतिया को, आहार दिया श्रेयांस मिले।।
इक सहस वर्ष तप तपने से, केवलज्ञानी होकर चमके।
दिव्यध्वनि से जग संबोधा, फाल्गुन वदि एकादशि तिथि के।।४।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाएकादश्यां श्रीआदिनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बारह विध सभा बनी सुंदर, मुनि आर्या सुरनर पशुगण थे।
प्रभु समवसरण में वृषभसेन, आदिक चौरासी गणधर थे।।
तीजे युग में त्रय वर्ष सार्ध, अरु मासशेष अष्टापद से।
चौदह दिन योग निरुद्ध माघ, वदि चौदश के प्रभु मुक्ति बसे।।५।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीआदिनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-गीता छंद-
साकेतनगरी में पिता, जितशत्रु विजया मात के।
उर में बसे नक्षत्र रोहिणि, ज्येष्ठ कृष्ण अमावसे।।
श्री अजितनाथ विजय अनुत्तर, से उतर आये यहाँ।
प्रभु गर्भकल्याणक मनाते, इंद्र मैं पूजूँ यहाँ।।६।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णामावस्यायां श्रीअजितनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री आदि देवी मात की, सेवा करें अति भक्ति से।
अतिगूढ़ करतीं प्रश्न वे, उत्तर दिया माँ युक्ति से।।
सुदि माघ दशमी तिथि सुखद, अजितेश जिन जन्में यहाँ।
सौधर्म सुरपति ने सुमेरू, पर न्हवन विधिवत् किया।।७।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लादशम्यां श्रीअजितनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैराग्य उल्कापात से, देवर्षि सुरगण आ गये।
सुप्रभा पालकि में बिठा, वन सहेतुक में ले गये।।
सुदि माघ नवमी शाम को, नृप सहस सह दीक्षा लिया।
मनपर्ययी ज्ञानी हुए, ध्यानस्थ हो बेला किया।।८।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लानवम्यां श्रीअजितनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साकेत में नृप ब्रह्म खीर, अहार दे हर्षित हुए।
छद्मस्थ बारहवर्ष नंतर, अजितप्रभु केवलि हुए।।
सुदि पौष ग्यारस नखत रोहिणि, में सुरासुर आ गये।
जिन समवसृति में सिंहसेन, गणीन्द्र मुनिगण शिर नये।।९।।
ॐ ह्रीं पौषशुक्लाएकादश्यां श्रीअजितनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वर पंचमी तिथि चैत्रशुक्ला, समय था पूर्वाण्ह जब।
सम्मेदगिरि पर योग को, रोका प्रभू ध्यानस्थ तब।।
रोहिणि नखत में सब अघाती, घात शिवलक्ष्मी वरी।
मैं पूजहूँ श्री अजित को, इस तिथी को भी इस घड़ी।।१०।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लापंचम्यां श्रीअजितनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शंभु छंद-
संभवजिन अधो ग्रैवेयक तज, नगरी श्रावस्ती में आये।
दृढ़रथ पितु मात सुषेणा के, वर गर्भ बसे जन हरषाये।।
फागुन सुदि अष्टमि तिथि उत्तम, मृगशिर नक्षत्र समय शुभ था।
इन्द्रों ने जन्मोत्सव कीया, पूजत ही पापकर्म नशता।।११।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लाष्टम्यां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्रीसंभवनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जब प्रभु ने जन्म लिया भूपर, देवों के आसन काँप उठे।
झुक गये मुकुट सब देवों के, माँ उत्तर देती युक्ती से।।
कार्तिक पूना मृगशिर नक्षत्र में, संभवप्रभु ने जन्म लिया।
मेरू पर सुरगण न्हवन किया, तिथि जन्म जजत सुख प्राप्त किया।।१२।।
ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्लापूर्णिमायां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्रीसंभवनाथ-जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेघों का विभ्रम देख विरक्त, हुए संभव मगसिर पूनम।
लौकांतिक सुर ने स्तुति की, सिद्धार्था पालकि सजि उस क्षण।।
इक सहस नृपति सह दीक्षा ली, उद्यान सहेतुक में प्रभु ने।
सुरपति ने उत्सव किया तभी, मैं नमूँ नमूँ प्रभु चरणों में।।१३।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लापूर्णिमायां दीक्षाकल्याणकप्राप्ताय श्रीसंभवनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपमाीति स्वाहा।
कार्तिक वदि चौथी के मृगशिर, नक्षत्र रहा अपराण्ह समय।
उद्यान सहेतुक शाल्मलितरु, के नीचे केवल सूर्य उदय।।
संभव जिनवर का तरु अशोक, वर समवसरण में शोभ रहा।
भव भ्रमण निवारण हेतू मैं, पूजूँ केवल तिथि आज यहाँ।।१४।।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णाचतुर्थ्यां केवलज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्रीसंभवनाथ-जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ चैत सुदी षष्ठी तिथि थी, अपराण्ह काल में ध्यान धरा।
इक सहस साधु सह कर्मनाश, निज सौख्य लिया प्रभु शिवंकरा।।
सम्मेदशिखर भी पूज्य बना, तिथि पूज्य बनी सुरगण आये।
निर्वाण कल्याणक पूजा की, हम अर्घ्य चढ़ाकर गुण गायें।।१५।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लाषष्ठ्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्रीसंभव्नााथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-नरेन्द्र छंद-
पुरी अयोध्या में सिद्धार्था, माता के आँगन में।
रत्न बरसते पिता स्वयंवर, बाँट रहे जन जन में।।
मास श्रेष्ठ वैशाख शुक्ल की, षष्ठी गर्भ कल्याणक।
इन्द्र महोत्सव करते मिलकर, जजें गर्भ कल्याणक।।१६।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लाषष्ठ्यां श्रीअभिनंदननाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऐरावत हाथी पर चढ़कर, इन्द्र शची सह आये।
जिन बालक को गोदी में ले, सुरगिरि पर ले जायें।।
माघ शुक्ल द्वादश तिथि उत्तम, जन्म महोत्सव करते।
जिनवर जन्म कल्याणक पूजत, हम भवदधि से तरते।।१७।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लाद्वादश्यां श्रीअभिनंदननाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपमामीति स्वाहा।
सुंदर नगर मेघ का विनशा, देख प्रभू वैरागी।
लौकांतिक सुर स्तुति करते, प्रभु गुण में अनुरागी।।
हस्तचित्र पालकि में प्रभु को, बिठा अग्रवन पहुँचे।
माघ शुक्ल बारस दीक्षा ली, बेला कर प्रभु तिष्ठे।।१८।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लाद्वादश्यां श्रीअभिनंदननाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपमामीति स्वाहा।
पौष शुक्ल चौदश तिथि जिनवर, असनवृक्ष तल तिष्ठे।
बेला करके शुक्ल ध्यान में, घातिकर्म रिपु दग्धे।।
केवलज्ञान ज्योति जगते ही, समवसरण की रचना।
अर्घ चढ़ाकर पूजत ही मैं, झट पाऊँ सुख अपना।।१९।।
ॐ ह्रीं पौषशुक्लाचतुर्दश्यां श्रीअभिनंदननाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपमामीति स्वाहा।
प्रभु सम्मेदशिखर पर पहुँचे, योग निरोध किया जब।
तिथि वैशाख शुक्ल षष्ठी के, निज शिवधाम लिया तब।।
इन्द्र सभी मिल मोक्ष कल्याणक, पूजा किया रुची से।
अभिनंदन जिन निर्वाण कल्याणक, जजूँ यहाँ भक्ती से।।२०।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लाषष्ठ्यां श्रीअभिनंदननाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपमामीति स्वाहा।
-नरेन्द्र छंद-
पुरी अयोध्या पिता मेघरथ, सती मंगला माता।
श्रावण शुक्ल द्वितीया तिथि में, गर्भ बसे जग त्राता।।
इन्द्र स्वयं सुरगण सह आये, मात पिता को पूजें।
पुनर्जन्म के नाश हेतु हम, गर्भकल्याणक पूजें।।२१।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाद्वितीयायां श्रीसुमतिनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र शुक्ल एकादशि तिथि में, जन्म लिया तीर्थेश्वर।
सुरपति जिन बालक को लेकर, बैठे ऐरावत पर।।
सुरगिरि पहुँचे जन्म महोत्सव, किया इन्द्रगण मिलकर।
जन्म कल्याणक मैं नित पूजूँ, मिले जन्म अविनश्वर।।२२।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लाएकादश्यां श्रीसुमतिनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जातिस्मरण पाय विरती हो, इन्द्र सभी मिल आये।
सुदि नवमी वैशाख तिथी, अभयंकरि पालकि लाये।।
प्रभू सहेतुक वन में पहुँचे, बेला कर दीक्षा ली।
दीक्षा कल्याणक जजते ही, मिले स्वात्मगुणशैली।।२३।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लानवम्यां श्रीसुमतिनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र सुदी ग्यारस उद्यान, सहेतुक में प्रभु पहुँचे।
तरु प्रियंगु के नीचे तिष्ठे, केवल रवि बन चमके।।
धनपति समवसरण रच करके, ज्ञानकल्याणक पूजें।
गंधकुटी में सुमति जिनेश्वर, पूजत भव से छूटें।।२४।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लाएकादश्यां श्रीसुमतिनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र शुक्ल ग्यारस अपराण्हे, सम्मेदाचल से ही।
मृत्युनाश मृत्युंजय होकर, स्वात्मा में तिष्ठे ही।।
सुमतिनाथ का मोक्षकल्याणक, इन्द्र जजें भक्ती से।
मैं पूजूँ इस कल्याणक को, नशें कर्म युक्ती से।।२५।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लाएकादश्यां श्रीसुमतिनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-चौबोल छंद-
कौशाम्बी नगरी के राजा, धरण राज के आंगन ही।
वर्षे रतन सुसीमा माता, हर्षी गर्भ बसे प्रभुजी।।
माघकृष्ण छठ तिथि उत्तम थी, इन्द्रों ने इत आ करके।
गर्भ महोत्सव किया मुदित हो, हम भी पूजें रुचि धरके।।२६।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णाषष्ठ्यां श्रीपद्मप्रभजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक कृष्णा तेरस तिथि में, पद्मप्रभू ने जन्म लिया।
इन्द्राणी माँ के प्रसूतिगृह, जाकर शिशु का दर्श किया।।
सुरपति जिन शिशु गोद में लेकर, रूप देख नहिं तृप्त हुआ।
नेत्र हजार बना करके प्रभु, दर्शन कर अति मुदित हुआ।।२७।।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णात्रयोदश्यां श्रीपद्मप्रभजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जातिस्मृति से विरक्त होकर, कार्तिक कृष्णा तेरस में।
निवृति करि पालकी सजाकर, इन्द्र सभी आये क्षण में।।
सुभग मनोहर वन में पहुँचे, प्रभु ने दीक्षा स्वयं लिया।
बेला कर ध्यानस्थ हो गये, जजत मिले वैराग्य प्रिया।।२८।।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णात्रयोदश्यां श्रीपद्मप्रभजिनजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र सुदी पूनम तिथि शुभ थी, नाम मनोहर वन उत्तम।
शुक्लध्यान से घात घातिया, केवलज्ञान हुआ अनुपम।।
सुरपति ऐरावत गज पर चढ़, अगणित विभव सहित आये।
गजदंतों सरवर कमलों पर, अप्सरियाँ जिनगुण गायें।।२९।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लापूर्णिमायां श्रीपद्मप्रभजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदि चौथ तिथी सायं, प्रभु सम्मेद शिखर गिरि से।
एक हजार मुनी के संग में, मुक्ति राज्य पाया सुख से।।
इन्द्र असंख्यों देव देवियों, सहित जहाँ आये तत्क्षण।
प्रभु निर्वाण कल्याणक पूजेंं, जजूँ भक्ति से मैं इस क्षण।।३०।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाचतुर्थ्यां श्रीपद्मप्रभजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-नरेन्द्र छंद-
प्रभु मध्यम ग्रैवेयक तजकर, वाराणसि में आये।
सुप्रतिष्ठ पितु माता पृथ्वी-षेणा गर्भ में आये।।
भादों सुदि छठ तिथी श्रेष्ठ में, इन्द्र महोत्सव कीना।
गर्भकल्याणक पूजा करते, हमने समकित लीना।।३१।।
ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्लाषष्ठ्यां श्रीसुपार्श्वनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्येष्ठ सुदी बारस में जन्मे, सुरपति आसन कंपे।
देवगृहों में सबविध बाजे, स्वयं स्वयं बज उठते।।
जन्म न्हवन उत्सव विधिपूर्वक, किया इन्द्र सुरगण ने।
जन्मकल्याणक पूजा करते, परमानंद हो क्षण में।।३२।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाद्वादश्यां श्रीसुपार्श्वनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋतु परिवर्तन देख विरक्ती, ज्येष्ठ सुदी बारस में।
मनोगती पालकि सुर लाये, प्रभु बैठे उस क्षण में।।
इन्द्र सहेतुक वन में पहुँचे, प्रभु ने केश उखाड़े।
नमः सिद्ध कह दीक्षा धारी, पूजत कर्म पछाड़े।।३३।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाद्वादश्यां श्रीसुपार्श्वनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदि छठ सायं प्रभु ने, घाति विनाश किया था।
बाग सहेतुक तरु शिरीष तल, केवलज्ञान हुआ था।।
इन्द्र सातविध सुरसेना सह, आये समवसरण में।
ज्ञान कल्याणक पूजा करते, ज्ञान ज्योति हो क्षण में।।३४।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाषष्ठ्यां श्रीसुपार्श्वनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदि सप्तमी प्रभाते, गिरि सम्मेद शिखर से।
मुक्तिनगर में वास किया था, एक हजार मुनी ले।।
काल अनंतानंत वहीं पे, सुस्थिर हो तिष्ठेंगे।
जिनसुपार्श्व की पूजा करते, कर्ममेघ विघटेंगे।।३५।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णासप्तम्यां श्रीसुपार्श्वनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-गीताछंद-
जिनचंद्र विजयंते अनुत्तर, से चये आये यहाँ।
महासेन पितु माँ लक्ष्मणा के, गर्भ में तिष्ठे यहाँ।।
शुभ चंद्रपुरि में चैत्रवदि, पंचमि तिथी थी शर्मदा।
इंद्रादि मिल उत्सव किया, मैं पूजहूँ गुणमालिका।।३६।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णापंचम्यां श्रीचंद्रप्रभजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री चन्द्र जिनवर पौष कृष्णा, ग्यारसी शुभयोग में।
जन्में उसी क्षण सर्व बाजे, बज उठे सुरलोक में।।
तिहुँलोक में भी हर्ष छाया, तीर्थकर महिमा महा।
सुरशैल पर जन्माभिषव को, देखते ऋषि भी वहाँ।।३७।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाएकादश्यां श्रीचन्द्रप्रभजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आदर्श में मुख देखकर, वैराग्य उपजा नाथ को।
वदि पौष एकादशि दिवस, इंद्रादि सुर आये प्रभो।।
पालकी विमला में बिठा, सर्वर्तुवन में ले गये।
स्वयमेव दीक्षा ली किया, बेला जगत वंदित हुए।।३८।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाएकादश्यां श्रीचन्द्रप्रभजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदी सप्तमि तिथी, सर्वर्तुवन में आ गये।
तरु नाग नीचे ज्ञान केवल, हुआ सुरगण आ गये।।
धनपति समवसृति को रचा, श्रीचंद्रप्रभ राजें वहाँ।
द्वादशगणों के भव्य जिनध्वनि, सुनें अति प्रमुदित वहाँ।।३९।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णासप्तम्यां श्रीचन्द्रप्रभजिनज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री चंद्रजिन फाल्गुन सुदी, सप्तमि निरोधा योग को।
सम्मेदगिरि से मुक्ति पायी, जजें सुरपति भक्ति सों।।
हम भक्ति से श्रीचंद्रप्रभ, सम्मेदगिरि को भी जजें।
निज आत्म संपति दीजिए, इस हेतु ही प्रभु को भजें।।४०।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लासप्तम्यां श्रीचन्द्रप्रभजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-रोला छंद-
प्राणत स्वर्ग विहाय, काकंदीपुर आये।
इंद्र सभी हर्षाय, गर्भकल्याण मनाये।।
पिता कहे सुग्रीव, जयरामा जगमाता।
नवमी फागुन कृष्ण, जजत मिले सुखसाता।।४१।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णानवम्यां श्रीपुष्पदंतनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर एकम शुक्ल, जन्म लिया तीर्थंकर।
रुचकवासिनी देवि, जातकर्म में तत्पर।।
शची प्रभू को गोद, ले स्त्रीलिंग छेदा।
जन्म महोत्सव देव, करके भव दुख भेदा।।४२।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लाप्रतिपदायां श्रीपुष्पदंतनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उल्का गिरते देख, प्रभु विरक्त अपराण्हे।
मगसिर शुक्ला एक, तप लक्ष्मी को वरने।।
पालकि रविप्रभ बैठ, पुष्पकवन में पहुँचे।
जजूँ आज शिर टेक, तपकल्याणक हित मैं।।४३।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लाप्रतिपदायां श्रीपुष्पदंतनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक शुक्ला दूज, सायं पुष्पक वन में।
घाति कर्म से छूट, नागवृक्ष के तल में।।
केवल रवि प्रगटाय, समवसरण में तिष्ठे।
स्वात्म निधी मिल जाय, इसीलिए हम पूजें।।।४४।।
ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्लाद्वितीयायां श्रीपुष्पदंतनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भादों शुक्ला आठ, सायं सहस मुनी ले।
सकल कर्म को काट, गिरि सम्मेद शिखर से।।
पुष्पदंत भगवंत, सिद्धिरमा के स्वामी।
जजत मिले भव अंत, बनूँ स्वात्म विश्रामी।।४५।।
ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्लाअष्टम्यां श्रीपुष्पदंतनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-गीता छंद-
शीतल प्रभू अच्युत सुरग से, भद्रिकापुरि आ गये।
दृढ़रथ पिता माता सुनंदा, के गरभ में आ गये।।
तिथि चैत्र कृष्णा अष्टमी, धनपति रतन बरसा रहा।
इन्द्रादि गर्भोत्सव किया, पूजत गरभ के दुख दहा।।४६।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाअष्टम्यां श्रीशीतलनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तिथि माघ कृष्णा द्वादशी, प्रभु जन्मते बाजे बजे।
देवों के आसन कंप उठे, सुर इन्द्र थे हर्षित तबे।।
सुरशैल पर पांडुकशिला पे, जन्म अभिषव था हुआ।
जिन जन्म कल्याणक जजत, मेरा जनम पावन हुआ।।४७।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णाद्वादश्यां श्रीशीतलनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हिमनाश देखा नाथ के, मन में विरक्ती छा गई।
वदि माघ बारस पालकी, शुक्रप्रभा तब आ गई।।
सुरपति सहेतुक बाग में, लेकर गये प्रभु चौक पे।
सिद्धं नम: कह लोच कर, दीक्षा ग्रही पूजूँ अबे।।४८।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णाद्वादश्यां श्रीशीतलनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तिथि पौष वदि चौदश जिनेश्वर, शुक्ल ध्यानी हो गये।
तब बेलतरु तल में त्रिलोकी, सूर्य केवल पा गये।।
सुंदर समवसृति में अधर, तिष्ठे असंख्यों भव्य को।
संबोध वचपीयूष से, तारा जजूँ जिनसूर्य को।।४९।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीशीतलनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आश्विन सुदी अष्टम तिथी, सम्मेदगिरि पे जा बसे।
इक सहस साधू साथ ले, मुक्तीनगर में जा बसे।।
अतिशय अतीन्द्रिय सौख्य, परमानंद अमृत पा लिया।
शीतल प्रभू का मोक्षकल्याणक, जजत निजसुख लिया।।५०।।
ॐ ह्रीं आश्विनशुक्लाअष्टम्यां श्रीशीतलनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-चौपाई छंद-
सिंहपुरी पितु विष्णूमित्र। नंदा माँ के गर्भ पवित्र।।
ज्येष्ठ कृष्ण छठ तिथि अभिराम। मैं पूजूँ इत गर्भ कल्याण।।५१।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाषष्ठ्यां श्रीश्रेयांसनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तिथि फाल्गुन वदि ग्यारस जन्म। सुरपति किया मेरु पे न्हवन।।
सुरगण उत्सव करें अपार। जजत प्रभू को हर्ष अपार।।५२।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाएकादश्यां श्रीश्रेयांसनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋतु वसंत श्री विनशी जबे। बारह भावन भायी तबे।।
फाल्गुन वदि ग्यारस पूर्वाण्ह। जजूँ प्रभू का तप कल्याण।।५३।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाएकादश्यां श्रीश्रेयांसनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माघ वदी मावस अपराण्ह, तुंबुर तरु नीचे धर ध्यान।
पाँच सहस धनु अधर जिनेश, जजूँ ज्ञान कल्याण हमेश।।५४।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णाअमावस्यायां श्रीश्रेयांसनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रावण सुदि पूनो श्रेयांस, कर्म नाश करके शिवकांत।
गिरि सम्मेद पूज्य जग सिद्ध, नमूँ मोक्ष कल्याण प्रसिद्ध।।५५।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लापूर्णिमायां श्रीश्रेयांसनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-गीताछंद-
दिव महाशुक्र विमान से, च्युत हो प्रभू चंपापुरी।
वसुपूज्य पितु माता जयावति, गर्भ आये शुभ घरी।।
आषाढ़ कृष्णा छठ तिथी, सुरवृंद माँ पितु को जजें।
हम गर्भ कल्याणक जजत, संपूर्ण दु:खों से छुटें।।५६।।
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णाषष्ठ्यां श्रीवासुपूज्यजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदी चौदश तिथी, सुरगृह स्वयं बाजे बजे।
जन्में जिनेश्वर उसी क्षण, सुरपति मुकुट भी थे झुके।।
माँ के प्रसूती सद्म जा, शचि ने शिशू को ले लिया।
सुर शैल पर अभिषव हुआ, पूजत जगत भव कम किया।।५७।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीवासुपूज्यजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदी चौदश तिथी, वैराग्य मन में आ गया।
सुर पालकी पे प्रभु चढ़े, लौकांतिसुर स्तुति किया।।
इन्द्राणि निर्मित चौक पर, तिष्ठे स्वयं दीक्षा लिया।
प्रभु तप कल्याणक पूजते, मिल जाय जिन दीक्षा प्रिया।।५८।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीवासुपूज्यजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वन मनोहर में तरु कदंबक, तले प्रभु थे ध्यान में।
शुभ माघ शुक्ला द्वितीया, प्रभु केवली भास्कर बनें।।
धनदेव निर्मित समवसृति में, गंधकुटि में शोभते।
द्वादशसभा में भव्य नमते, हम प्रभू को पूजते।।५९।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लाद्वितीयायां श्रीवासुपूज्यजिनज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भादों सुदी चौदश तिथी, चंपापुरी से नाथ ने।
संपूर्ण कर्म विनाश कर, शिव वल्लभा के पति बने।।
सौधर्म इन्द्र सुरादिगण, हर्षित हुए वंदन करें।
हम वासुपूज्य जिनेन्द्र की, निर्वाण पूजा को करें।।६०।।
ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्लाचतुर्दश्यां श्रीवासुपूज्यजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-रोला छंद-
पुरी कंपिला नाम, पितु कृतवर्मा गृह में।
जयश्यामा वर मात, गर्भ बसे शुभ तिथि में।।
ज्येष्ठ वदी दश श्रेष्ठ, सुरपति नरपति पूजें।
नमूँ आज शिर टेक, जजूँ कर्म अरि धूजें।।६१।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णादशम्यां श्रीविमलनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जन्में त्रिभुवननाथ, चौथ माघ सुदि तिथि में।
सुरनर हुये सनाथ, शांति हुई तिहुँजग में।।
मेरु शिखर ले जाय, इन्द्र किया जन्मोत्सव।
पूजूँ शीश झुकाय, जन्मकल्याण महोत्सव।।६२।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लाचतुर्थ्यां श्रीविमलनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बर्फ विनशती देख, चित वैराग्य समाया।
माघ चतुर्थी शुक्ल, सुरगण शीश नमाया।।
गये सहेतुक बाग, देवदत्त पालकि में।
नमूँ नमूँ नत माथ, तपकल्याणक प्रभु मैं।।६३।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लाचतुर्थ्यां श्रीविमलनाथजिनतप:कल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माघ शुक्ल छठ श्रेष्ठ, जामुनतरु के नीचे।
नशा घाति का क्लेश, केवलज्ञान उदय से।।
समवसरण प्रभु आप, गगनांगण में शोभे।
ज्ञानकल्याणक नाथ, जजत भावश्रुत दीपे।।६४।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लाषष्ठ्यां श्रीविमलनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विमलनाथ जिनराज, श्रीसम्मेदशिखर से।
कर्म अघाति विनाश, म्ाुक्तिधाम में पहुँचे।।
वदि अष्टमि आषाढ़, मोक्षकल्याणक तिथि है।
मोहारि को पछाड़, जजत लहूँ निज सुख है।।६५।।
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णाअष्टम्यां श्रीविमलनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सखी छंद-
सिंहसेन अयोध्यापति थे, जयश्यामा गर्भ बसे थे।
कार्तिक वदि एकम तिथि में, प्रभु गर्भकल्याणक प्रणमें।।६६।।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णाप्रतिपदायां श्रीअनंतनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तिथि ज्येष्ठ वदी बारस में, सुर मुकुट हिले जिन जन्में।
अठ एक हजार कलश से, जिन न्हवन किया सुर हरषें।।६७।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाद्वादश्यां श्रीअनंतनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तिथि ज्येष्ठ वदी बारस थी, उल्का गिरते प्रभु विरती।
तप लिया सहेतुक वन में, पूजत मिल जावे तप मे।।६८।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाद्वादश्यां श्रीअनंतनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वदि चैत अमावस्या के, पीपल तरु तल जिन तिष्ठे।
केवल रवि उगा प्रभू के, मैं जजूँ त्रिजग भी चमके।।६९।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाअमावस्यायां श्रीअनंतनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत आमावसी यम नाशा, शिवनारि वरी निज भासा।
सम्मेद शिखर को जजते, निर्वाण जजत सुख प्रगटे।।७०।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाअमावस्यायां श्रीअनंतनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-चौपाई-
रत्नपुरी पितु भानु महान, मात सुव्रता गर्भ निधान।
सुदि तेरस वैशाख सुरेन्द्र, जजें गर्भ कल्याण जिनेन्द्र।।७१।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लात्रयोदश्यां श्रीधर्मनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माघ शुक्ल तेरस जिन जन्म, सुरपति किया महोत्सव धन्य।
नाम रखा श्रीधर्म जिनेन्द्र, जन्म कल्याण जजें शत इन्द्र।।७२।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लात्रयोदश्यां श्रीधर्मनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उल्कापात देख वैराग्य, नागदत्त पालकि बड़भाग्य।
माघ सुदी तेरस वन शाल, दीक्षा धरी नमूँ नत भाल।।७३।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लात्रयोदश्यां श्रीधर्मनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सप्तपत्रतरु तल धर ध्यान, घात घाति ले केवलज्ञान।
समवसरण में प्रभु राजंत, पौष पूर्णिमा इन्द्र जजंत।।७४।।
ॐ ह्रीं पौषशुक्लापूर्णिमायां श्रीधर्मनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्येष्ठ चतुर्थी सुदि प्रत्यूष, गिरि सम्मेद मुक्ति में तोष।
शिवकल्याणक पूजें इन्द्र, जजत मिले निज सौख्य अनिंद।।७५।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाचतुर्थ्यां श्रीधर्मनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-रोला छंद-
भादों कृष्णा पाख, सप्तमि तिथि शुभ आई।
गर्भ बसे प्रभु आप, सब जन मन हरषाई।।
इन्द्र सुरासुर संघ, उत्सव करते भारी।
हम पूजें धर प्रीति, जिनवर पद सुखकारी।।७६।।
ॐ ह्रीं भाद्रपदकृष्णासप्तम्यां श्रीशांतिनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपमाीति स्वाहा।
जन्म लिया प्रभु आप, ज्येष्ठवदी चौदस में।
सुरगिरि पर अभिषेक, किया सभी सुरपति ने।।
शांतिनाथ यह नाम, रखा शांतिकर जग में।
हम नावें निज माथ, जिनवर चरणकमल में।।७७।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीशांतिनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीक्षा ली प्रभु आप, ज्येष्ठ वदी चौदस के।
लौकांतिक सुर आय, बहु स्तवन उचरते।।
इंद्र सपरिकर आय, तप कल्याणक करते।
हम पूजें नत माथ, सब दुख संकट हरते।।७८।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीशांतिनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान विकास, पौष सुदी दशमी के।
समवसरण में नाथ, राजें अधर कमल पे।।
इंद्र करें बहु भक्ति, बारह सभा बनी हैं।
सभी भव्य जन आय, सुनते दिव्य धुनी हैं।।७९।।
ॐ ह्रीं पौषशुक्लादशम्यां श्रीशांतिनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्राप्त किया निर्वाण, ज्येष्ठ वदी चौदश में।
आत्यंतिक सुखशांति, प्राप्त किया उस क्षण में।।
महामहोत्सव इंद्र, करते बहुवैभव से।
हम पूजें तुम पाद, छुटें सभी भवदु:ख से।।८०।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीशांतिनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
श्रावण वदि दशमी तिथी, गर्भ बसे भगवान।
इंद्र गर्भ मंगल किया, मैं पूजूँ इत आन।।८१।।
ॐ ह्रीं श्रावणकृष्णादशम्यां श्रीकुंथुनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एकम सित वैशाख की, जन्में कुंथुजिनेश।
किया इंद्र वैभव सहित, सुरगिरि पर अभिषेक।।८२।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लाप्रतिपत्तिथौ श्रीकुंथुनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सित एकम वैशाख की, दीक्षा ली जिनदेव।
इन्द्र सभी मिल आयके, किया कुंथु पद सेव।।८३।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लाप्रतिपत्तिथौ श्रीकुंथुनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र शुक्ल तिथि तीज में, प्रगटा केवलज्ञान।
समवसरण में कुंथुजिन, करें भव्य कल्याण।।८४।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लातृतीयायां श्रीकुंथुनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपमीति स्वाहा।
सित एकम वैशाख की, तिथि निर्वाण पवित्र।
कुंथुनाथ के पदकमल, जजतें बनूँ पवित्र।।८५।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लाप्रतिपत्तिथौ श्रीकुंथुनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सखी छंद-
फाल्गुन कृष्णा तृतिया में, प्रभु गर्भ निवास किया तें।
सुरपति ने उत्सव कीना, हम पूजें भवदुखहीना।।८६।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णातृतीयायां श्रीअरनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर शुक्ला चौदस के, प्रभुजन्म लिया सुर हर्षे।
मेरू पर न्हवन हुआ है, इन्द्रों ने नृत्य किया है।।८७।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लाचतुर्दश्यां श्रीअरनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर सुदी दशमी तिथि में, दीक्षा धारी प्रभु वन में।
इंद्रों से पूजा पाई, हम पूजें मन हरषाई।।८८।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लादशम्यां श्रीअरनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक सुदि बारस तिथि में, केवल रवि प्रकटा निज में।
बारह गण को उपदेशा, हम पूजें भक्ति समेता।।८९।।
ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्लाद्वादश्यां श्रीअरनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपमीति स्वाहा।
शुभ चैत्र अमावस्या में, मुक्तिश्री परणी प्रभु ने।
इन्द्रोें ने की प्रभु अर्चा, पूजन से निजसुख मिलता।।९०।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णामावस्यायां श्रीअरनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-नरेन्द्र छंद-
मिथिलापुरी में कुंभ नृपति गृह, प्रजावती रानी को।
सोलह स्वप्न दिखा प्रभु आये, गर्भ बसे अतिसुख सों।।
चैत्र सुदी एकम तिथि उत्तम, सुरपति उत्सव कीना।
हम पूजें प्रभु गर्भकल्याणक, भव भव दु:ख क्षय कीना।।९१।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लाप्रतिपदायां श्रीमल्लिनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर सुदि ग्यारस प्रभु जन्में, त्रिभुवन धन्य हुआ था।
रुचकाचल देवियाँ आय के, जातक कर्म किया था।।
सुरगिरि पर जन्माभिषेक कर, सुरगण धन्य हुये तब।
जन्मकल्याणक जजते मेरे, संकट दूर हुये सब।।९२।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लाएकादश्यां श्रीमल्लिनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जातिस्मरण हुआ प्रभु को जब, बाल ब्रह्मचारी ही।
देव जयंता पालकि लाये, मगसिर सुदि ग्यारस थी।।
श्वेतबाग में पहुँच प्रभू ने, दीक्षा स्वयं लिया था।
तपकल्याणक पूजा करके, सुरगण पुण्य लिया था।।९३।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लाएकादश्यां श्रीमल्लिनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पौष वदी दुतिया वन में प्रभु, तरु अशोक तल तिष्ठे।
मोह नाश दशवें गुणथाने, बारहवें में पहुँचे।।
ज्ञानावरण दर्शनावरणी, अंतराय को नाशा।
केवलज्ञान सूर्य किरणों से, लोकालोक प्रकाशा।।९४।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाद्वितीयायां श्रीमल्लिनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपमीति स्वाहा।
फाल्गुन सुदि पंचमि तिथि उत्तम, गिरि सम्मेद पर तिष्ठे।
चार अघाती कर्मनाश कर, मोक्षधाम में पहुँचे।।
इन्द्र गणों ने उत्सव करके, तांडवनृत्य किया तब।
शिवकल्याणक पूजा करते, जीवन सफल हुआ अब।।९५।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लापंचम्यां श्रीमल्लिनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-रोला छंद-
पिता सुमित्र नरेश, राजगृही के शास्ता।
सोमावती के गर्भ, बसें जगत शिर नाता।।
श्रावण कृष्णा दूज, इन्द्र जजें पितु माँ को।
जजूँ गर्भ कल्याण, मिले आत्मनिधि मुझको।।९६।।
ॐ ह्रीं श्रावणकृष्णाद्वितीयायां श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जन्म लिया प्रभु आप, वदि वैशाख दुवादश।
इन्द्र लिया शिशु गोद, पहुँचे पांडुशिला तक।।
एक हजार सुआठ, कलशों से नहलाया।
जजत जन्म कल्याण, पुनि पुनि जन्म नशाया।।९७।।
ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णाद्वादश्यां श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जातिस्मरण निमित्त, वदि वैशाख सुदशमी।
अपराजिता पालक्कि, नीलबाग में प्रभुजी।।
सिद्धं नम: उचार, स्वयं ग्रही प्रभु दीक्षा।
नमूँ नमूँ शत बार, मिले महाव्रत दीक्षा।।९८।।
ॐ हीं वैशाखकृष्णादशम्यां श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपक तरु तल नाथ, वदि वैशाख नवमि के।
केवलज्ञान विकास, समवसरण में तिष्ठे।।
श्रीविहार में चरण तले, प्रभु स्वर्ण कमल थे।
नमूँ नमूँ नतमाथ, ज्ञान कल्याणक रुचि से।।९९।।
ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णानवम्यां श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सम्मेद सुशैल, फाल्गुन वदि बारस में।
किया मृत्यु को दूर, मुक्तिरमा ली क्षण में।।
नमूँ मोक्ष कल्याण, कर्म कलंक नशाऊँ।
मुनिसुव्रत भगवान, चरणों शीश झुकाऊँ।।१००।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाद्वादश्यां श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-चौपाई छंद-
मिथिलापुरी में विजय पिता थे। मात वप्पिला गर्भ बसे थे।।
वदि आसोज दुतिय हम पूजें। गर्भ कल्याण जजत अघ छूटें।।१०१।।
ॐ ह्रीं आश्विनकृष्णाद्वितीयायां श्रीनमिनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वदि आषाढ़ दशमि नमि जन्में। न्हवन किया सुरगण इन्द्रों ने।।
जन्म कल्याणक मैं नित वंदूँ। जन्म मरण के दु:ख को खंडूँ।।१०२।।
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णादशम्यां श्रीनमिनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जाति स्मृति से हुई विरक्ती। तिथि आषाढ़ वदी दशमी थी।।
उत्तरकुरु पालकि से जाके। दीक्षा ली थी चैत्रवनी में।।१०३।।
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णादशम्यां श्रीनमिनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर सुदि ग्यारस सायं के। वकुल वृक्ष के नीचे तिष्ठे।।
घट में केवलज्ञान प्रकाशा। जजूँ प्रभो! भविकमल विकासा।।१०४।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लाएकादश्यां श्रीनमिनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपमीति स्वाहा।
वदि चौदस वैशाख निशांते। गिरि सम्मेद ध्यान में तिष्ठे।।
मुक्तिरमा को वरण किया था। इन्द्रों ने बहु भक्ति किया था।।१०५।।
ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीनमिनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
श्रीसमुद्रविजय शौरीपुरि, नृप पितु मात शिवादेवी।
गर्भ बसे शुभ स्वप्न दिखाकर, तिथि कार्तिक शुक्ला षष्ठी।।
गर्भकल्याणक पूजा करते, मिले राह कल्याण की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।१०६।।
ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्लाषष्ठ्यां श्रीनेमिनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
श्रावण शुक्ला छठ में मति श्रुत, अवधिज्ञानि प्रभु जन्मे थे।
मेरू पर जन्माभिषेक में, देव देवियाँ हर्षे थे।।
जन्मकल्याणक पूजा करते, मिले राह उत्थान की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।१०७।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ठ्यां श्रीनेमिनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
चले ब्याहने राजुल को, पशु बंधे देख वैराग्य हुआ।
श्रावण सुदि छठ सहस्राम्र वन, में प्रभु दीक्षा स्वयं लिया।
दीक्षा तिथि जजते मिल जावे, बुद्धि आत्मकल्याण की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।१०८।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ठ्यां श्रीनेमिनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
आश्विन सुदि एकम पूर्वाण्हे, ऊर्जयंत गिरि पर तिष्ठे।
केवलज्ञान सूर्य प्रगटा तब, प्रभु को वांसवृक्ष नीचे।।
समवसरण में किया सभी ने, पूजा केवलज्ञान की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।१०९।।
ॐ ह्रीं आश्विनशुक्लाप्रतिपदायां श्रीनेमिनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
प्रभु गिरनार शैल से मुक्ती, रमा वरी शिवधाम गये।
सुदि आषाढ़ सप्तमी सुरगण, वंद्य नेमि जगपूज्य हुए।।
जो निर्वाण कल्याणक पूजें, मिले राह निर्वाण की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।११०।।
ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्लासप्तम्यां श्रीनेमिनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वंदन शत शत बार है,
पार्श्वनाथ के चरण कमल में, वंदन शत शत बार है।
जिनका गर्भ कल्याणक जजते, मिले सौख्य भंडार है।।
पार्श्वनाथ.।।टेक०।।
अश्वसेन पितु वामा माता, तुमको पाकर धन्य हुए।
तिथि वैशाख वदी द्वितीया को, गर्भ बसे जगवंद्य हुए।।
प्रभु का गर्भकल्याणक पूजत, मिले निजातम सार है।।
पार्श्वनाथ.।।१११।।
ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णाद्वितीयायां श्रीपार्श्वनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वंदन शत शत बार है,
पार्श्वनाथ के चरण कमल में, वंदन शत शत बार है।
जिनका जन्मकल्याणक जजते, मिले सौख्य भंडार है।।
पार्श्वनाथ.।।
पौष कृष्ण ग्यारस तिथि उत्तम, वाराणसि में जन्म हुआ।
श्री सुमेरु की पांडुशिला पर, इन्द्रों ने जिन न्हवन किया।।
जो ऐसे जिनवर को जजते, हो जाते भव पार हैं।।
पार्श्वनाथ.।।११२।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाएकादश्यां श्रीपार्श्वनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वंदन शत शत बार है,
पार्श्वनाथ के चरण कमल में, वंदन शत शत बार है।
जिनका तपकल्याणक जजते, मिले सौख्य भंडार है।।
पार्श्वनाथ.।।
पौषवदी ग्यारस जाति स्मृति, से बारह भावन भाया।
विमलाभा पालकि में प्रभु को, बिठा अश्ववन पहुँचाया।।
स्वयं प्रभू ने दीक्षा ली थी, जजत मिले भव पार है।।
पार्श्वनाथ.।।११३।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाएकादश्यां श्रीपार्श्वनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वंदन शत शत बार है,
पार्श्वनाथ के चरण कमल में, वंदन शत शत बार है।
जिनका ज्ञानकल्याणक जजते, मिले सौख्य भंडार है।।
पार्श्वनाथ.।।
चैत्रवदी सुचतुर्थी१ प्रात:, देवदारु तरु के नीचे।
कमठ किया उपसर्ग घोर तब, फणपति पद्मावति पहुँचे।।
जित उपसर्ग केवली प्रभु का, समवसरण हितकार है।।
पार्श्वनाथ.।।११४।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाचतुर्थ्यां श्रीपार्श्वनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वंदन शत शत बार है,
पार्श्वनाथ के चरण कमल में, वंदन शत शत बार है।
जिनका मोक्षकल्याणक जजते, मिले सौख्य भंडार है।।
पार्श्वनाथ.।।
श्रावण शुक्ल सप्तमी पारस, सम्मेदाचल पर तिष्ठे।
मृत्युजीत शिवकांता पायी, लोकशिखर पर जा तिष्ठे।।
सौ इन्द्रों ने पूजा करके, लिया आत्म सुखसार है।।
पार्श्वनाथ.।।११५।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लासप्तम्यां श्रीपार्श्वनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-गीता छंद-
सिद्धार्थ नृप कुण्डलपुरी में, राज्य संचालन करें।
त्रिशला महारानी प्रिया सह, पुण्य संपादन करें।।
आषाढ़ शुक्ला छठ तिथी, प्रभु गर्भ मंगल सुर करें।
हम पूजते वसु अर्घ्य ले, हर विघ्न सब मंगल भरें।।११६।।
ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्लाषष्ठ्यां श्रीमहावीरजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सितचैत्र तेरस के प्रभू, अवतीर्ण भूतल पर हुए।
घंटादि बाजे बज उठे, सुरपति मुकुट भी झुक गये।।
सुरशैल पर प्रभु जन्म उत्सव, हेतु सुरगण चल पड़े।
हम पूजते वसु अर्घ्य ले, fिनजकर्म धूली झड़ पड़े।।११७।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लात्रयोदश्यां श्रीमहावीरजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर वदी दशमी तिथी, भवभोग से निःस्पृह हुए।
लौकांतिकादी आनकर, संस्तुति करें प्रमुदित हुए।।
सुरपति प्रभू की निष्क्रमण, विधि में महा उत्सव करें।
हम पूजते वसु अर्घ्य ले, संसार सागर से तरें।।११८।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णदशम्यां श्रीमहावीरजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ने प्रथम आहार राजा, कूल के घर में लिया।
वैशाख सुदि दशमी तिथी, केवलरमा परिणय किया।।
श्रावण वदी एकम तिथी, गौतम मुनी गणधर बनें।
तव दिव्यध्वनि प्रभु की खिरी, हम पूजते हर्षित तुम्हें।।११९।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लादशम्यां श्रीमहावीरजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक अमावस पुण्य तिथि, प्रत्यूष बेला में प्रभो।
पावापुरी उद्यान सरवर, बीच में तिष्ठे विभो।।
निर्वाण लक्ष्मी वरणकर, लोकाग्र में जाके बसे।
हम पूजते वसु अर्घ्य ले, तुम पास में आके बसें।।१२०।।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णाअमावस्यायां श्रीमहावीरजिननिर्वाणकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य—शंभुछंद-
चौबीस जिनेश्वर तीर्थंकर, भक्तों को सब सुखदाता हैं।
संपूर्ण अमंगल दूर करें, नित नित नव मंगलदाता हैं।।
पूर्णार्घ्य चढ़ाकर मैं पूजूं, संपूर्ण मनोरथ पूर्ण करें।
वैâवल्य ज्ञानमति देकर के, निज पद देकर निज पास करें।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिचतुर्विंशतितीर्थंकरपंचकल्याणकेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।