—नरेन्द्र छंद—
वृषभदेव के समवसरण में, ‘चक्रेश्वरी’ सुयक्षी।
सम्यग्दर्शन गुण से मंडित, खंडे सर्व विपक्षी।।
महायज्ञ पूजा विधान में, आवो आवो माता।
यज्ञ भाग मैं अर्पण करता, करो सर्व सुख साता।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवस्य शासनदेवि चक्रेश्वरी यक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
अजितनाथ के समवसरण में, रहे ‘रोहिणी’ यक्षी।
जिन भक्ती में रत महिलायें, पूजा करतीं अच्छी।।
महायज्ञ पूजा विधान में, आवो आवो माता।
यज्ञ भाग मैं अर्पण करता, करो सर्व सुख साता।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथस्य शासनदेवि रोहिणीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
संभव जिनके निकट भक्तिरत, ‘प्रज्ञप्ती’ यक्षी हैं।
जिन भक्तों के संकट हरती, अधर्म प्रतिपक्षी हैं।।महा.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथस्य शासनदेवि प्रज्ञप्तीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
अभिनंदन के निकट रहें नित, ‘वङ्काश्रृंखला देवी’।
जिन पूजक के विघ्न निवारें, जिन चरणाम्बुज सेवी।।महा.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथस्य शासनदेवि वङ्काशृंखलायक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
‘पुरुषदत्ता’ यक्षिणी नितप्रति, सुमतिनाथ पदभक्ता।
जो जिनभक्त धर्म के प्रेमी, उन गुण में अनुरक्ता।।महा.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथस्य शासनदेवि पुरुषदत्तायक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
‘मनोवेगा’ कही यक्षिणी, पद्मप्रभू पद सेवें।
जो जिनशासन के अनुरागी, उनको सब सुख देवें।।महा.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभनाथस्य शासनदेवि मनोवेगायक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
श्री सुपार्श्व के पास रहें नित, सुरी ‘पुरुषदत्ता’ हैं।
द्वितिय नाम वाली यक्षी नित, जिनगुण अनुरक्ता हैं।।महा.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथस्य शासनदेवि पुरुषदत्तायक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
चंद्रप्रभू के चरण लीन प्रभु भक्त ‘मनोवेगा’ हैं।
अपर नाम ‘ज्चालामालिनी’ ये धर्मनीतिवेत्ता हैं।।महा.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभनाथस्य शासनदेवि ज्वालामालिनियक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
पुष्पदंत के चरण कमलरत, ‘भृकुटी’ यक्षी।
द्वितिय नाम महाकाली है, भविजन विघ्न विपक्षी।।महा.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथस्य शासनदेवि भृकुटीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
शीतल जिनकी ‘यक्षि मानवी’, देवी प्रियंवदा है।
सुख संपति सौभाग्य बढ़ातीं, जिन भक्तों के सदा हैं।।महा.।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथस्य शासनदेवि मानवीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
नाम कहा ‘गौरी’ देवी ये, सम्यग्दर्शन युत हैं।
श्री श्रेयांस के समवसरण में, जिनपद पंकजरत हैं।।महा.।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथस्य शासनदेवि गौरीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
वासुपूज्य जिनशासन देवी ‘गांधारी सु कही है।
शुक्लवर्ण सम शुभ्र गुणों से जिनपद भक्त रही है।।महा.।।१२।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यस्य शासनदेवि गांधारीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
—दोहा—
‘वैरोटीयक्षी’ सदा, विमलनाथ पद भक्त।
अर्घ समर्पूं प्रीति से, ग्रहण करो हे यक्षि।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथस्य शासनदेवि वैरोटीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
‘अनंतमती’ यक्षी रहें, प्रभु अनंत जिन पास।
अर्घ समर्पूं प्रेम से, ग्रहण करो तुम आज।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथस्य शासनदेवि अनन्तमतीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
शासनदेवी ‘मानसी’ धर्मनाथ गुणलीन।
अर्घ समर्पूं नित्य मैं, करो विघन सब क्षीण।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथस्य शासनदेवि मानसीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
शांतिनाथ की यक्षिणी महामानसी मान्य।
पूजूँ अर्घ समर्प्य मैं, करो शांति जगमान्य।।१६।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथस्य शासनदेवि महामानसीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
‘जयादेवी’ यक्षिणी, कुंथुनाथ पद भक्त।
अर्घ समर्पूं प्रीति से, करो उपद्रव नष्ट।।१७।।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथस्य शासनदेवि जयायक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
अरहनाथ की यक्षिणी ‘विजयादेवी’ ख्यात।
अर्घ समर्पूं यज्ञ में, करो विजय सुप्रभात।।१८।।
ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथस्य शासनदेवि विजयायक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
मल्लिनाथ की यक्षिणी, ‘अपराजिता’ वंसत।
रुचि से अर्घ समर्प्यते, धर्मविजय विलसंत।।१९।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथस्य शासनदेवि अपराजितायक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
मुनिसुव्रत शासनरता, ‘बहुरूपिणी’ विख्यात।
अर्घ समर्पूं प्रेम से, करो पराजित पाप।।२०।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथस्य शासनदेवि बहुरूपिणीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
नमि जिनकी ‘चामुंडी’ है शासन देवी सिद्ध।
अर्घ समर्पूं प्रीति से, हो धन धान्य समृद्ध।।२१।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथस्य शासनदेवि चामुण्डीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
‘कूष्मांडिनी’ यक्षिणी, नेमिनाथ पद भक्त।
रुचि से अर्घ चढ़ावते, नाशो सर्व अनिष्ट।।२२।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथस्य शासनदेवि कूष्माण्डीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
माता ‘पद्मावती’ करें, पार्श्वनाथ गुणगान।
अर्घ समर्पण कर जजूँ, भरो सौख्य धनधान।।२३।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथस्य शासनदेवि पद्मावतीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण ग्ाृहाण स्वाहा।
महावीर जिन भक्तिका, ‘सिद्धायिनी’ प्रसिद्ध।
रुचि से अर्घ चढ़ावते, करो मनोरथ सिद्ध।।२४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: शासनदेवि सिद्धायिनीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
(सुगंधित पुष्प, लवंग या पीले चावलों से १०८ बार या २७ बार मंत्र जपें)