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चौबीस तीर्थंकर गणिनी पूजा
August 12, 2020
पूजायें
jambudweep
चौबीस तीर्थंकर गणिनी पूजा
अथ स्थापना
गीता छंद
तीर्थंकरों के समवसृति में, आर्यिकाएँ मान्य हैं।
ब्राह्मी प्रभृति से चंदना तक, सर्व में हि प्रधान हैं।।
व्रतशील गुण से मंडिता, इंद्रादि से पूज्या इन्हें।
आह्वान करके पूजहूँ, त्रयरत्न से युक्ता तुम्हें।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितगणिनी-ब्राह्मीप्रमुखसर्वार्यिकासमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितगणिनी-ब्राह्मीप्रमुखसर्वार्यिकासमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितगणिनी-ब्राह्मीप्रमुखसर्वार्यिकासमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक
गीता छंद
गंगा नदी का नीर शीतल, स्वर्ण झारी में भरूँ।
निज कर्ममल को धोवने हित, मात पद धारा करूँ।।
सद्धर्म कन्या आर्यिकाओं, की सदा पूजा करूँ।
माता चरण वंदन करूँ, निज आत्म की रक्षा करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितगणिनी-ब्राह्मीप्रमुखसर्वार्यिकाचरणेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरी चंदन सुगंधित, घिस कटोरी में भरूँ।
तुम पाद पंकज चर्चते भवताप की बाधा हरूँ।।
सद्धर्म कन्या आर्यिकाओं, की सदा पूजा करूँ।
माता चरण वंदन करूँ, निज आत्म की रक्षा करूँ।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितगणिनी-ब्राह्मीप्रमुखसर्वार्यिकाचरणेभ्य: चंदनंं निर्वपामीति स्वाहा।
उज्ज्वल अखंडित शांलि तंदुल, धोय थाली में भरूँ।
तुम पाद सन्निध पुंज धरते, सर्व दुख का क्षय करूँ।।
सद्धर्म कन्या आर्यिकाओं, की सदा पूजा करूँ।
माता चरण वंदन करूँ, निज आत्म की रक्षा करूँ।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितगणिनी-ब्राह्मीप्रमुखसर्वार्यिकाचरणेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपा चमेली केवड़ा, अरविंद सुरभित पुष्प से।
तुम पाद कुसुमावलि किये, यश सुरभि फैले चहुँ दिशे।।
सद्धर्म कन्या आर्यिकाओं, की सदा पूजा करूँ।
माता चरण वंदन करूँ, निज आत्म की रक्षा करूँ।।४।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितगणिनी-ब्राह्मीप्रमुखसर्वार्यिकाचरणेभ्य: पुष्पंं निर्वपामीति स्वाहा।
मोदक इमरती सेमई, पायस पुआ पकवान से।
तुम पाद पंकज पूजते, क्षुध रोग मुझ तुरतहिं नशे।।
सद्धर्म कन्या आर्यिकाओं, की सदा पूजा करूँ।
माता चरण वंदन करूँ, निज आत्म की रक्षा करूँ।।५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितगणिनी-ब्राह्मीप्रमुखसर्वार्यिकाचरणेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर ज्योती रजत दीपक, में जला आरति करूँ।
अज्ञानतम को दूर कर, निज ज्ञान की ज्योती भरूँ।।
सद्धर्म कन्या आर्यिकाओं, की सदा पूजा करूँ।
माता चरण वंदन करूँ, निज आत्म की रक्षा करूँ।।६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितगणिनी-ब्राह्मीप्रमुखसर्वार्यिकाचरणेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध धूप सुगंध खेकर, कर्म अरि भस्मी करूँ।
तुम पाद पंकज पूजते, निज आत्म की शुद्धी करूँ।।
सद्धर्म कन्या आर्यिकाओं, की सदा पूजा करूँ।
माता चरण वंदन करूँ, निज आत्म की रक्षा करूँ।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितगणिनी-ब्राह्मीप्रमुखसर्वार्यिकाचरणेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर सेव अनार केला, आम फल को अर्पते।
निज आत्म अनुभव सुख सरस फल, प्राप्त हो तुम पूजते।।
सद्धर्म कन्या आर्यिकाओं, की सदा पूजा करूँ।
माता चरण वंदन करूँ, निज आत्म की रक्षा करूँ।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितगणिनी-ब्राह्मीप्रमुखसर्वार्यिकाचरणेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध तंदुल पुष्प नेवज, दीप धूप फलादि से।
मैं अर्घ अर्पण करूँ माता! आपको अति भक्ति से।।
सद्धर्म कन्या आर्यिकाओं की सदा पूजा करूँ।
माता चरण वंदन करूँ निज आत्म की रक्षा करूँ।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितगणिनी-ब्राह्मीप्रमुखसर्वार्यिकाचरणेभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
व्रत गुण मंडित मात के, चरणों में त्रयबार।
शांतीधारा मैं करूँ, होवे शांति अपार।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
वकुल मल्लिका केवड़ा, सुरभित हरसिंगार।
पुष्पांजलि चरणों करूँ, करूँ स्वात्म शृंगार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अथ प्रत्येक अर्घ
सोरठा
महाव्रतादी श्रेष्ठ, गुण भूषण को धारतीं।
पूजूँ भक्ति समेत, पुष्पांजलि करके यहाँ।।१।।
इति पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
शंभु छंद
ऋषभदेव के समवसरण में, ‘ब्राह्मी’ गणिनी मानी हैं।
सर्व आर्यिका तीन लाख, पच्चास हजार बखानी हैं।।
रत्नत्रय गुणमणि से भूषित, शुभ्र वस्त्र को धारे हैं।
इनकी पूजा वंदन भक्ती, भवि को भवदधि से तारे हैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवस्य गणिनीब्राह्मीप्रमुखत्रयलक्ष-पंचाशत्सहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
अजितनाथ के धर्मतीर्थ में, व्रत समिती गुप्ती धारें।
सर्व आर्यिका तीन लाख, अरु बीस हजार धर्म धारें।।
मात ‘प्रकुब्जा’ गणिनी इनमें, धर्म धुरंधर नारी हैं।
इनकी पूजा वंदन भक्ती, सब जन-जन को सुखकारी है।।२।।
ॐ ह्रीं श्री अजितनाथस्य गणिनीप्रकुब्जाप्रमुखत्रय-लक्षविंंशतिसहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
संभव जिन के समवसरण में, महाव्रतों से भूषित हैं।
तीन लाख अरु तीस हजार, आर्यिकायें गुण पूरित हैं।।
इनमें गणिनी ‘धर्म श्री’ माँ, धर्मवत्सला सुरवंद्या।
इनकी पूजा वंदन भक्ती, देती सुख परमानंदा।।३।।
ॐ ह्रीं श्री संभवनाथस्य गणिनीधर्मश्रीप्रमुखत्रय-लक्षत्रिंशत्सहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
अभिनंदन प्रभु धर्म सभा में, सर्व आर्यिकायें पूज्या।
तीन लाख अरु तीस सहस, छह सौ सब शील नियम युक्ता।।
इन सबकी ‘मेरुषेणा’ मां, गणिनी वत्सल गुणधारी।
इन सबकी पूजा भक्ती से, तरें भवोदधि नरनारी।।४।।
ॐ ह्रीं श्री अभिनंदननाथस्य गणिनीमेरुषेणा-प्रमुखत्रयलक्षत्रिंशत्सहस्रषट्शत-आर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
सुमति जिनेश्वर समवसरण में, तीन लाख अरु तीस सहस।
इन सब व्रतमंडितआर्या में, मात ‘अनंता’ प्रमुख बसत।।
लज्जा शील गुणों से पूरित, एकशाटिका धारी हैं।
ध्यान अध्ययन तपस्या में रत, इन पूजा गुणकारी हैं।।५।।
ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथस्य गणिनीअनंताप्रमुखत्रय-लक्षत्रिंशत्सहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मप्रभू के धर्म तीर्थ में, धर्म मूर्तियाँ शोभे हैं।
चार लाख अरु बीस सहस, ये व्रती आर्यिकायें सब हैं।।
‘रतिषेणा’ माँ गणिनी इनमें, मानों जिनवर कन्या हैं।
जाती कुल से शुद्ध शील से, शुद्ध आर्यिका धन्या हैं।।६।।
ह्रीं श्री पद्मप्रभनाथस्य गणिनीरतिषेणाप्रमुख-चतुर्लक्षविंशतिसहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुपार्श्व जिन समवसरण में, तीन लाख अरु तीस सहस।
‘मीना ‘ गणिनी सहित आर्यिका, सब सद्धर्म सुता सदृश।।
संयमशील समिति गुणमंडित, समकित रत्न धरें शोभें।
इनकी पूजा करते सुर नर, पुन: न दुर्गति दुख भोगें।।७।।
ॐ ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथस्य गणिनीमीनाप्रमुखत्रय-लक्षत्रिंशत्सहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्रनाथ के समवसरण में, श्वेत वस्त्रधारी आर्या।
तीन लाख अस्सी हजार ये, इनमें ‘वरुणा’ प्रमुखार्या।।
लेश्या शुक्ल धरें ये श्रमणी, शुक्लगुणों से मंडित हैं
जो भविजन इन पूजा करते, वे पद लहें अखंडित हैं।।८।।
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभनाथस्य गणिनीवरुणाप्रमुखत्रय-लक्षअशीतिसहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
सुविधिनाथ के समवसरण में, ‘घोषा’ प्रमुख आर्यिका हैं।
तीन लाख अस्सी हजार, सब महाव्रतादि धारिका हैं।।
धर्म वत्सला धर्म मूर्तियाँ, धर्म ध्यान में तत्पर हैं।
धर्म प्राण जन इनको पूजें, सब सुख लहें निरंतर हैं।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथस्य गणिनीघोषाप्रमुखत्रय-लक्षअशीतिसहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री शीतल जिन समवसरण में, प्रमुख आर्यिका ‘धरणा’ हैं।
ये तीन लाख अस्सी हजार, इनके वच अमृत झरना हैं।।
सब क्षमा मार्दव आर्जवादि, दश धर्मों को धारण करतीं।
इनकी पूजा वंदन भक्ती, सब तन मन की व्याधी हरती।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथस्य गणिनीधरणाप्रमुखत्रय-लक्षअशीतिसहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रेयांसनाथ के यहाँ एक लख, तीस सहस्र आर्यिका हैं।
इनमें गणिनी ‘धारणीमात’, ये रत्नत्रय त्रितय साधिका हैं।।
इस भव में स्त्रीलिंग छेद, इंद्रों का वैभव पाती हैं।
फिर आकर शिवपद प्राप्त करें, इन पूजा भव दुख घाती हैं।।११।।
ॐ ह्रीं श्री श्रेयांसनाथस्य गणिनीधारणीप्रमुखएक-लक्षत्रिंशत्सहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री वासुपूज्य के यहाँ साध्वियाँ, एक लाख छह सहस कहीं।
इनमें ‘वरसेना’ गणिनी हैं, सब महाव्रतों को पाल रहीं।।
ये ग्यारह अंग पढ़ें रुचि से, शिष्याओें को शिक्षा देतीं।
जिनवर भक्ती में नित तत्पर, इनकी पूजा दु:ख हर लेती।।१२।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यनाथस्य गणिनीवरसेनाप्रमुखएक-लक्षषट्सहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री विमलनाथ के निकट साध्वियाँ, एक लाख त्रय सहस कहीं।
ये ‘पद्मा’ गणिनी आज्ञा में, निज आत्म तत्त्व में लीन रहीं।।
सोलह कारण भावना भाय, तीर्थंकर पुण्य कमाती हैं।
इनकी पूजा वंदन भक्ती, भव्यों के कर्म जलाती हैं।।१३।।
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथस्य गणिनीपद्माप्रमुखएक-लक्षत्रयसहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर अनंत के यहाँ आर्यिका, एक लाख अठ सहस कहीं।
गणिनी माँ ‘सर्वश्री’ उनमें, सब शील गुणों की खान कहीं।।
इनको पूजें सुर नर किन्नर, वीणादिक वाद्य बजा करके।
अप्सरियाँ नृत्य करें सुंदर, इनके गुण मणि गा गा करके।।१४।।
ॐ ह्रीं श्री अनंतनाथस्य गणिनीसर्वश्रीप्रमुखएक-लक्षअष्टसहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री धर्मनाथ के निकट ‘सुव्रता’, गणिनी के अनुशासन में।
बासठ हजार चउशतक आर्यिका, नित तत्पर व्रत पालन में।।
तप त्याग अकिंचन ब्रह्मचर्य, धर्मों से शक्ति बढ़ाती हैं।
निज पाणि पात्र में लें आहार, मुनिवत् चर्या सु निभाती हैं।।१५।।
ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथस्य गणिनीसुव्रताप्रमुखद्विषष्टि-सहस्रचतु:शतआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री शांतिनाथ के समवसरण में, साठ हजार तीन सौ हैं।
गणिनी ‘हरिषेणा’ माता भी, निज गुण से सुर नर मन मोहें।।
ये परमशांति पाने हेतू, निज समतारस को चखती हैं।
इनकी आहारदान पूजा, भक्तों में समरस भरती हैं।।१६।।
ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथस्य गणिनीहरिषेणाप्रमुखषष्टि-सहस्रत्रयशतआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री कुंथुनाथ के यहाँ साठ, हजार तीन सौ पचास हैं।
आर्यिका ‘भाविता’ प्रमुख मान्य, निजगुण से भविजन मन मोहें।।
उपचार महाव्रत हैं इनके, इक साड़ी मात्र परिग्रह से।
गुणस्थान पाँचवाँ देशविरत, होता है पूजूूँ भक्ती से।।१७।।
ॐ ह्रीं श्री कुंथुनाथस्य गणिनीभाविताप्रमुखषष्टि-सहस्रत्रयशत्पंचाशत-आर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
अर जिन के यहाँ आर्यिकाएँ, सब साठ हजार बखानी हैं।
‘कुंथुसेना’ गणिनी इनकी, ये उज्ज्वल गुणरजधानी हैं।।
इनके वचनामृत भविजन को, पुष्टी तुष्टी शांती देते।
जो इनकी पूजा करते हैं, उनके सब पातक हर लेते।।१८।।
ॐ ह्रीं श्री अरनाथस्य गणिनीकुंथुसेनाप्रमुख-षष्टिसहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री मल्लिनाथ के तीरथ में, पचपन हजार साध्वी मानीं।
गणिनी ‘बंधूसेना’ उनमें, सबको शिक्षा दें कुशलानी।।
ये सम्यग्दर्शन से विशुद्ध, निज पर भेद ज्ञान धारें।
चारित निर्दोष पालती हैं, इन पूजत रोग शोक टारें।।१९।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथस्य गणिनीबंधुसेनाप्रमुखपंच-पंचाशत्सहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिसुव्रत जिन के सभा बीच, पच्चास हजार आर्यिका हैं।
उनमें सु ‘पुष्पदत्ता’ प्रधान, सब निज शुद्धात्म साधिका हैं।।
रस रूप गंध स्पर्श शून्य, निज आत्मा का चिंतन करतीं।
इनके गुण गाते चक्रवर्ति, ये भक्तों के भवभय हरतीं।।२०।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथस्य गणिनीपुष्पदत्ताप्रमुख-पंचाशत्सहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
नमि जिन के समवसरण में ये, साध्वी पैंतालिस सहस कहीं।
गणिनी ‘मार्गिणी’ मान्य उनमें, ये निजानंद सुख मग्न कहीं।।
भक्तों को शिवपथ दिखलातींr, पापों से रक्षा करती हैं।
वात्सल्यमयी माता सच्ची, इन पूजा नवनिधि भरती हैं।।२१।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथस्य गणिनीमार्गिणीप्रमुख-पंचचत्वािंरशत्सहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
नेमीप्रभु समवसरण में ये, चालीस हजार बखानी हैं।
उनकी गणिनी ‘राजुलदेवी’, पातिव्रत धर्म निशानी हैं।।
हलधर नारायण चक्रवर्ती, इंद्रादिक इनको नमते हैं।
महिलाओं में ये चूड़ामणि, इनका हम वंदन करते हैं।।२२।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथस्य गणिनीराजमतीप्रमुख-चत्वािंरशत्सहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री पार्श्वनाथ के निकट आर्यिका, अड़तिस सहस मान लीजे।
उनमें ‘सुलोचना’ गणिनी हैं, स्तुति से मन पवित्र कीजे।।
इनके गुण अमलवस्त्र उज्ज्वल, मन धवल शुक्ल लेश्या शोभें।
इनकी पूजा भक्ती करके, हम शिवपुर के सब सुख भोेगें।।२३।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथस्य गणिनीसुलोचनाप्रमुखअष्ट-िंत्रशत्सहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री वीरप्रभू की सभा बीच, छत्तीस हजार आर्यिका हैं।
मां सती ‘चंदना’ गणिनी हैं, सब संयम रत्न साधिका हैं।।
इनको वंदामी कर करके, मैं शिवपथ प्रशस्त कर लेऊँ।
मेरा संयम निर्दोष पले, गुरुचरण हृदय में रख लेऊँ।।२४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: गणिनीचंदनाप्रमुखषट्-्िंत्रशत्सहस्रआर्यिकाभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णार्घ्य
दोहा
लाख पचास छप्पन सहस, दो सौ तथा पचास।
समवसरण की साध्वियाँ, और अन्य भी खास।।
अट्ठाइसों मूलगुण, उत्तर गुण बहुतेक।
धारें सबहीं आर्यिका, नमूँ नमूँ शिर टेक।।२५।।
ॐ ह्रीं श्री चतुिंवशतितीर्थंकरसमवसरणस्थित-गणिनीब्राह्मीप्रमुखपंचाशल्लक्षषट्-पंचाशत्सहस्रद्वयशत-पंचाशत्आर्यिकाचरणेभ्य: पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं गणिनीप्रमुख सर्वार्यिकाभ्यो नम:।
जयमाला
त्रिभंगी छंद
जय जय जिन श्रमणी, गुणमणि धरणी, नारि शिरोमणि सुरवंद्या।
जय रत्नत्रयधनि, परम तपस्विनि, स्वात्मचिंतवनि त्रय संध्या।।
मुनि सामाचारी, सर्व प्रकारी, पालनहारी अहर्निशी।
मैं पूूजूँ ध्याऊँ, तुम गुण गाऊँ, निजपद पाऊँ ऊर्ध्वदिशी।।१।।
स्रग्विणी छंंद
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं नमूँ मैं नमूँ मात! तुमको यहाँ।।
आप सम्यक्त्व से शुद्ध निर्दोष हो।
शास्त्र के ज्ञान से पूर्ण उद्योत हो।।२।।
शुद्ध चारित्र संयम धरा आपने।
श्रेष्ठ बारह विधा तप चरा आपने।।
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं नमूँ मैं नमूँ मात! तुमको यहाँ।।३।।
एक साड़ी परिग्रह रहा शेष है।
केश लुुंचन करो आर्यिका वेष है।।
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं नमूँ मैं नमूँ मात! तुमको यहाँ।।४।।
आतपन आदि बहु योग को धारतीं।
क्रोध कामारि शत्रू सदा मारतीं।।
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं नमूँ मैं नमूँ मात! तुमको यहाँ।।५।।
अंग ग्यारह सभी ज्ञान को धारतीं।
मात! हो आप ही ज्ञान की भारती।।
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं नमूँ मैं नमूँ मात! तुमको यहाँ।।६।।
भक्तजनवत्सला धर्म की मूर्ति हो।
जो जजें आपको आश की पूर्ति हो।।
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं नमूँ मैं नमूँ मात! तुमको यहाँ।।७।।
मात ब्राह्मी प्रभृति चंदना साध्वियाँ।
अन्य भी जो हुई हैं महासाध्वियाँ।।
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं नमूँ मैं नमूँ मात! तुमको यहाँ।।८।।
मात सीतासती सुलोचना द्रौपदी।
रामचंद्रादि इंद्रादि से वंद्य भी।।
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं नमूँ मैं नमूँ मात! तुमको यहाँ।।९।।
चंद्र समकीर्ति उज्ज्वल दिशा व्यापती।
सूर्य सम तेज से पाप तम नाशतीं।।
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं नमूँ मैं नमूँ मात! तुमको यहाँ।।१०।।
सिंधुसम आप गांभीर्य गुण से भरीं।
मेरु सम धैर्य भू-सम क्षमा गुण भरीं।।
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं नमूँ मैं नमूँ मात! तुमको यहाँ।।११।।
बर्फ सम स्वच्छ शीतलवचन आपके।
श्रेष्ठ लज्जादि गुण यश कहें आपके।।
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं नमूँ मैं नमूँ मात! तुमको यहाँ।।१२।।
आर्यिका वेष से मुक्ति होवे नहीं।
संहनन श्रेष्ठ बिन कर्म नशते नहीं।।
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं नमूँ मैं नमूँ मात! तुमको यहाँ।।१३।।
सोलवें स्वर्ग तक इंद्र पद को लहें।
फेर नर तन धरें साधु हों शिव लहें।।
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं नमूँ मैं नमूँ मात! तुमको यहाँ।।१४।।
जैन सिद्धांत की मान्यता है यही।
संहनन श्रेष्ठ बिन शुक्ल ध्यानी नहीं।।
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं नमूँ मैं नमूँ मात! तुमको यहाँ।।१५।।
अंबिके! आपके नाम की भक्ति से।
शील सम्यक्त्व संयम पलें शक्ति से।।
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं नमूँ मैं नमूँ मात! तुमको यहाँ।।१६।।
आत्मगुण पूर्ति हेतू जजूँ मैं सदा।
नित्य वंदामि करके नमूँ मैं मुदा।।
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं नमूँ मैं नमूँ मात! तुमको यहाँ।।१७।।
‘ज्ञानमति’ पूर्ण हो याचना एक ही।
अंब! पूरो अबे देर कीजे नहीं।।
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं नमूँ मैं नमूँ मात! तुमको यहाँ।।१८।।
घत्ता
जय जय जिन साध्वी, समरस माध्वी, तुममें गुणमणि रत्न भरें।
तुम अतुलित महिमा, पुण्य सुगरिमा, हम पूजें निज सौख्य भरें।।१९।।
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थित-सर्वार्यिकाचरणेभ्य: जयमाला पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
दोहा
भूत भविष्यत् संप्रती, आर्यिकाएँ त्रयकाल।
हुईं होयंगी हो रहीं, नमूँ नमूँ नतभाल।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
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