व्रत विधि-अनादिकाल से सभी संसारी प्राणी चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करते आ रहे हैंं। उन चौरासी लाख योनि के भ्रमण से छूटने के लिए यह ‘‘चौरासी लाख योनिभ्रमण निवारण व्रत’’ है। इसके करने से व प्रतिदिन इन योनियों के भ्रमण से छूटने की भावना करते रहने से अवश्य ही हम और आप इन संसार परिभ्रमण के दु:खों से छुटकारा प्राप्त करेंगे।
इन चौरासी लाख योनियों का विवरण इस प्रकार है-१. नित्य निगोद, २. इतरनिगोद, ३. पृथ्वीकायिक, ४. जलकायिक, ५. अग्निकायिक व ६. वायुकायिक इन एकेन्द्रिय जीवों के प्रत्येक की सात-सात लाख योनियां मानी गयी हैं। अत: ६x७=४२ लाख योनियाँ हुई हैं। पुन: वनस्पतिकायिक की दश लाख योनियाँ हैं। पुन: विकलत्रय अर्थात् दो इंन्द्रिय, तीन इन्द्रिय व चार इन्द्रिय जीवों की प्रत्येक की दो-दो लाख योनियाँ हैं। अत: ३x२=६ लाख भेद हुए। पुन: देव, नारकी व पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की चार-चार लाख योनियाँ हैं। ये ३x४=१२ लाख हुए। पुन: मनुष्यों की चौदह लाख योनियाँ हैं। इस प्रकार (४२०००००+१००००००+६०००००+१२०००००+ १४०००००=८४०००००) योनियों के भेद हैं। इनके संक्षेप मेें १४ प्रकार से विभाजित चौदह मंत्र दिये गये हैं। उत्कृष्ट विधि यह है कि नित्यनिगोद के सात लाख योनियों का एकमंत्र है। इसके सात व्रत करना, ऐसे ही इतर निगोद के सात, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुकायिक के भी ७-७ व्रत करने से ४२ व्रत हो जाते हैं। ऐसे ही वनस्पतिकायिक के १० व्रत करने से १० हुए। ऐसे ही दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय व चार इन्द्रिय के २-२ व्रत करने से ६ व्रत होते हैं। पुन: देव, नारकी व पंचेन्द्रिय तिर्यन्चों के ४-४ व्रत करने से १२ हुए एवं मनुष्यों की चौदह लाख के १-१ व्रत से १४ व्रत हुए। इस प्रकार ४२+१०+६+१२+१४=८४ व्रत हो जाते हैं। इनमें नित्य निगोद के ७ व्रत, इतर निगोद के ७ व्रत, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के ७-७ व्रत ऐसे ४२ व्रत होंगे। इनमें सात-सात व्रतों में वहीं मंत्र ७-७ बार लिया जायेगा। ऐसे वनस्पतिकायिक के १० व्रतों में वनस्पतिकायिक का ही मंत्र दश व्रतों में होगा। ऐसे ही सभी में समझना। ऐसे ८४ व्रत हो जाते हैं। जघन्यविधि में इन चौदह मंत्रों के चौदह व्रत भी कर सकते हैं। अपनी शक्ति के अनुसार व्रत में उत्कृष्ट विधि में उपवास करना है। मध्यम विधि में अल्पाहार, जल, रस, दूध, फल आदि लेकर करना चाहिए तथा जघन्य विधि में दिन में एक बार शुद्ध भोजन करके अर्थात् ‘एकाशन’ करके भी व्रत किया जा सकता है। व्रत के दिनों में अर्हंत भगवान की अथवा चौबीसी तीर्थंकरों की प्रतिमा का या किन्हीं एक भी तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा का पंचामृत अभिषेक करें। पुन: चौबीस तीर्थंकर पूजा या अर्हंत पूजा करके जाप्य करें। मंत्र की १०८ जाप्य में सुगंधित पुष्प या लवंग या पीले पुष्पों से अथवा जपमाला से भी मंत्र जप सकते हैं। व्रत के दिन पूजा व मंत्र जाप्य आवश्यक है। इस व्रत के करने से क्रम-क्रम से संसार के भी उत्तम-उत्तम सुख प्राप्त होंगे पुन: चतुर्गति के दु:खों से छुटकारा प्राप्त कर नियम से २-४ आदि भवों में अपनी आत्मा को परमात्मा बनाकर सिद्धशिला को प्राप्त करना है।
समुच्चय मंत्र- ॐ ह्रीं चतुरशीतिलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशकाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने नम:। (इन छह मंत्रों में से १-१ मंत्र सात-सात व्रतों में जपना है)
१. ॐ ह्रीं नित्यनिगोदजीवानां सप्तलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशकाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने नम:।
२. ॐ ह्रीं इतरनिगोदजीवानां सप्तलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशकाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने नम:।
३. ॐ ह्रीं पृथ्वीकायिकजीवानां सप्तलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशकाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने नम:।
४. ॐ ह्रीं जलकायिकजीवानां सप्तलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशकाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने नम:।
५. ॐ ह्रीं अग्निकायिकजीवानां सप्तलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशकाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने नम:।
६. ॐ ह्रीं वायुकायिकजीवानां सप्तलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशकाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने नम:।
(यह सातवाँ एक मंत्र १० व्रतों में जपें)
७. ॐ ह्रीं वनस्पतिकायिकजीवानां दशलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशकाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने नम:।
(आगे के तीन मंत्रों में से एक-एक मंत्र दो-दो व्रतों में जपें)
८. ॐ ह्रीं द्वीन्द्रियजीवानां द्विलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशकाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने नम:।
९.ॐ ह्रीं त्रीन्द्रियजीवानां द्विलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशकाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने नम:।
१०. ॐ ह्रीं चतुरिन्द्रियजीवानां द्विलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशकाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने नम:।
(आगे के इन तीन मंत्रों में से १-१ मंत्र ४-४ व्रतों में जपें)
११. ॐ ह्रीं देवानां चतुर्लक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशकाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने नम:।
१२. ॐ ह्रीं नारकाणां चतुर्लक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशकाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने नम:।
१३. ॐ ह्रीं पञ्चेन्द्रियतिरश्चां चतुर्लक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशकाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने नम:।
(पुन: आगे का यह मंत्र १४ व्रतों में जपें)
१४. ॐ ह्रीं मनुष्याणां चतुर्दशलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशकाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने नम:।
विशेष – जो जघन्यरूप से १४ ही व्रत करें वे एक-एक मंत्र एक-एक व्रतों में जपें।