इसके बाद तीन वर्ष आठ माह और एक पक्ष के बीत जाने पर महाविषम अतिदुष्षमा नामक छठा काल प्रविष्ट होता है। इस काल के प्रवेश में शरीर की ऊँचाई साढ़े तीन हाथ पृष्ठ भाग की हड्डिंयाँ बारह और उत्कृष्ट आयु बीस वर्ष प्रमाण होती है। उस काल में सब मनुष्यों का आहार मूल, फल और मत्स्य आदि होते हैं। उस समय मनुष्यों को वस्त्र, वृक्ष, मकान आदि दिखाई नहीं देते हैं। अत: सभी मनुष्य नंगे और भवनों से रहित होकर वनों में घूमते हैं। उस समय के लोग सर्वांग धूम्रवर्ण, पशुवत आचरण करने वाले, क्रूर, बहिरे, अन्धे, गूंगे, दारिद्र्य एवं क्रोध से परिपूर्ण दीन, हुंडक संस्थान युक्त, कुबड़े, बौने, व्याधि वेदना से विकल, लोभ मोहयुक्त, पापिष्ठ, पुत्रकलत्र से रहित, दुर्गंध युक्त होते हैं।
इस छठे काल में ये जीव नरक तिर्यंच गति से आते हैं और नरक तिर्यंच गति में ही जाते हैं। दिन प्रतिदिन इन जीवों की आयु, बल, ऊॅँचाई आदि हीन होते जाते हैं।
उनंचास दिन कम इक्कीस हजार वर्षों के बीतने पर जंतुओं को भयदायक घोर प्रलय काल प्रस्तुत होता है। उस समय महागंभीर एवं भीषण संवर्तक वायु चलती है जो सात दिन तक वृक्ष, पर्वत और शिला प्रभृति को चूर्ण करती है। इससे वहाँ के मनुष्य, तिर्यंचों को महादु:ख प्राप्त होता है तथा वे वस्त्र और स्थान की अभिलाषा करते हुए बहुत प्रकार से विलाप करते हैंंं इस समय पृथक्-पृथक् संख्यात वह बहत्तर युगल गंगा, सिंधु नदियों की वेदी और विजयार्ध वन के मध्य में प्रवेश करते हैं। इसके अतिरिक्त देव और विद्याधर दयार्द्र होकर मनुष्य और तिर्यंचों में से संख्यात जीव राशि को उन प्रदेशों में ले जाकर रखते हैं।
उस समय गंभीर गर्जना से युक्त मेघ-सात-सात दिन तक हिम आदि की वर्षा करते हैं क्रमश: उनके नाम-बर्फ, क्षार जल, विषजल, धूम्र, धूलि, वङ्का और अग्नि है। इन वङ्का, अग्नि आदि की वर्षा से भरत क्षेत्र के भीतर आर्यखंड में चित्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित वृद्धिंगत हुई एक योजन की भूमि जलकर नष्ट हो जाती है अर्थात यहाँ के आर्यखंड की चित्रा पृथ्वी एक योजन तक ऊँची उठ गई है वह जलकर खाक होकर शेष भूमियों के समान हो जाती है। इस छठे काल के अंत के मनुष्यों की ऊँचाई एक हाथ, आयु सोलह वर्ष प्रमाण रहती है। इस प्रकार इक्कीस हजार वर्ष का यह काल समाप्त हो गया है।