बौद्ध हेतु से ही तत्त्वों की सिद्धि मानते हैं, ब्रह्माद्वैतवादी आगम से ही परम ब्रह्म को सिद्ध करते हैं। वैशेषिक तथा बौद्ध प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों से ही तत्त्वों की सिद्धि मानते हैं। आचार्य इन सबका क्रम से खंडन करते हैं।
बौद्ध-सभी उपेय तत्त्व हेतु से ही सिद्ध हैं प्रत्यक्ष से नहीं, क्योंकि जो युक्ति से घटित नहीं होता, उसे हम देखकर भी श्रद्धा नहीं करते हैं।
जैन-आपके यहाँ हेतु को ही प्रमाण मानने से तो प्रत्यक्ष, आगम आदि सभी अप्रमाण हो जावेंगे। पुन: अनुमान ज्ञान भी उत्पन्न नहीं हो सकेगा तथा शास्त्र के उपदेश से भी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा और तब तो आपके बुद्ध भगवान भी अप्रमाण हो जावेंगे, क्योंकि बुद्ध भगवान का ज्ञान हेतु से नहीं हो सकता है।
ब्रह्माद्वैतवादी-सभी तत्त्व आगम से ही सिद्ध हैं, क्योंकि अनुमान से सिद्ध भी वाक्य यदि आगम से बाधित है, तो वह अग्राह्य है। जैसे-‘‘ब्राह्मण को मदिरा पीना चाहिए, क्योंकि वह द्रव है, दूध के समान’’ यह कथन अनुमान से तो सिद्ध है किन्तु ‘‘ब्राह्मणो न सुरां पिबेत्’’ इत्यादि आगम से बाधित है और हमारे यहाँ परम ब्रह्म भी तो आगम से ही सिद्ध है।
जैन-इस प्रकार आगम को ही प्रमाण मानने पर तो आपके यहाँ अन्य लोगों द्वारा विरुद्ध अर्थ को कहने वाले आगम भी प्रमाण हो जावेंगे, क्योंकि आगम-आगम से तो सभी समान हैं। यदि आप अपने आगम को ही समीचीन कहो, तो उसकी समीचीनता का निर्णय भी तो युक्ति-हेतु से ही किया जायेगा। अत: आपका आगम भी तो हेतु सापेक्ष ही रहा अत: एकांत मान्यता ठीक नहीं है।
वैशेषिक-सौगत-प्रत्यक्ष और अनुमान से ही तत्त्वों की सिद्धि होती है, आगम से नहीं।
जैन-यह कथन भी सारहीन है, क्योंकि ग्रहों के संचार एवं चंद्रग्रहण आदि ज्योतिष शास्त्र से ही सिद्ध हैंं अत: हेतु आगम, प्रत्यक्ष और अनुमान इन सभी से ही उपेय तत्त्व सिद्ध होते हैं।इन दोनों का निरपेक्ष उभयैकात्म्य भी श्रेयस्कर नहीं है तथा स्याद्वाद के अभाव में अवाच्य तत्त्व कहना भी असंभव है।
स्याद्वाद सिद्धि-वक्ता के आप्त न होने पर जो हेतु से सिद्ध होता है, वह हेतु साधित है एवं वक्ता जब आप्त होता है तब उसके वाक्य से जो सिद्ध होता है, वह आगम साधित है। ‘यो यत्र अवंचक: स तत्राप्त:’ जो जिस विषय में अवंचक-अविसंवादक है वह आप्त हैं, इससे भिन्न अनाप्त हैं।
कथंचित् सभी वस्तुएँ हेतु से सिद्ध हैं, क्योंकि उनमें इन्द्रिय और आप्त वचन की अपेक्षा नहीं है।
कथंचित् सभी आगम से सिद्ध हैं, क्योंकि इन्द्रिय और हेतु की अपेक्षा है।
कथंचित् उभयरूप हैं, क्योंकि क्रम से दोनोें की विवक्षा है।
कथंचित् अवक्तव्य हैं, क्योंकि युगपत् दोनों की विवक्षा है।
कथंचित् हेतु से सिद्ध और अवक्तव्य हैं, क्योंकि क्रम से हेतु की और युगपत् दोनोें की विवक्षा है।
कथंचित् आगम से सिद्ध और अवक्तव्य हैं, क्योंकि क्रम से आगम की और युगपत् दोनों की विवक्षा है।
कथंचित् उभयरूप और अवक्तव्य हैं, क्योंकि क्रम से दोनों की और युगपत् दोनों की विवक्षा है।
भावार्थ-जैन सिद्धांत में ‘प्रमाणनयैरधिगम:’ सूत्र के द्वारा प्रमाण और नयों से वस्तु तत्त्व को समझने का उपदेश दिया गया। प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष की अपेक्षा दो भेद हैं। इन्द्रिय और मन से होने वाले ज्ञान को कहीं (न्याय ग्रंथों में) सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये परोक्ष प्रमाण हैं। इन सभी के द्वारा वस्तु तत्त्व को ठीक से समझना चाहिए।