साहित्य रचना में जिस प्रकार रस, अलंकार, व्याकरण आदि आवश्यक अंग होते है उसी प्रकार ‘‘छंद’’ शास्त्र का भी साहित्य रचना में अपना महत्वपूर्ण स्थान है। साहित्य को दो भागों में पाया जाता है- एक गद्यरूप और दूसरा पद्यरूप। दोनों ही रचनाएं प्राचीन काल से चली आ रही है। पद्यात्मक रचना के पठन-पाठन में सुगमता होती है और संगीतगत मधुरता होने के कारण अशांत मन को भी उससे शांति की प्राप्ति होती है। इसीलिए इस पंचमकाल के सर्वज्ञ कहलाने वाले आचार्य कुंद-कुंद देव ने भी समयसार आदि पाहुड़ ग्रन्थों की रचना पद्य में की है क्योंकि पद्य में जो भावों का संक्षिप्तीकरण हो सकता है वह गद्य में संभव नहीं है।
संगीत एक ऐसी कला है, जो साधना के बल पर प्राप्त की जाती है। वस्तुत: संगीत भक्त के हृदय की भक्ति को प्रगट करने का एक सफल माध्यम है। संगीत एक ईश्वरीय नियामत है। स्वर—साधना से एक संगीतज्ञ प्रभु की उपासना करता हुआ एक आध्यात्मिक पुरुष के समान पवित्र मन और हृदय वाला बन जाता है। संगीत का उपयोग प्रारम्भ में भगवान की भक्ति के लिए ही होता था। बाद में विविध भावाभिव्यक्ति के लिए इसे उपयोग में लाया जाने लगा। भगवान के प्रति सर्वतोभावेन आत्म समर्पण होने के लिए इसका उपयोग किया जाता रहा है। संगीत के साथ गायी जाने वाली पद्यात्मक रचना छन्द शास्त्र के नियमानुसार ही होनी चाहिए।
कविवर वृन्दावन जी द्वारा विरचित ‘‘छन्दशतक’’ में १०० प्रकार के छंदों का वर्णन है। इस लघु पुस्तिका में विशेषता यह है कि छन्द के लक्षण में ही छन्द का नाम निहित है तथा उन लक्षण के पद्यों में जिनेन्द्र भगवान की स्तुति भी हो जाती है। इसलिये यह कृति परिपूर्ण रोचक और सरस है।
लघु की रेखा सरल (।) है, गुरु की रेखा बंक (ऽ)।
इहि क्रम सौं गुरु-लघु परखि, पढ़ियौ छंद निशंक।।१।।
कहुँ-कहुँ सुकवि प्रबंध मंह, लघु को गुरु कहि देत।
गुरु हूँ को लघु कहत हैं, समुझत सुकवि सुचेत।।२।।
भावार्थ—हिन्दी छन्द-शास्त्र में कभी-कभी गुरु को लघु तथा लघु को गुरु मानकर पढ़ने की प्रथा प्रचलित है। यह बात संस्कृत भाषा के छन्दों के विषय में नहीं कही जा सकती। हिन्दी भाषा में कई शब्दों के मध्य कुछ वर्ण ऐसे भी होते है जिनका उच्चारण न लघु (ह्रस्व) रूप में होता है न गुरु (दीर्घ) रूप में; जिसे, संकेत द्वारा कुछ भी नहीं कहा जा सकता। प्रारम्भ से ही इस ओर हिन्दी छन्दाचार्यों का ध्यान न जाने के कारण उसे केवल ‘माध्यमिक स्वरोच्चार’ कह सकते हैं और , फिर सत्य तो यह है कि वर्ण का लघुत्व और गुरुत्व उसके उच्चारण पर ही निर्भर है, सम्बन्ध बोलने वाले से है। जैसे ‘इंद्र जिनिंद्र को गोद धरें चढ़े मत्तगयंद इरावत सोहैं’ सवैया के इस चरण में को और ढ़े, यद्यपि गुरुवर्ण है तथापि लघु उच्चारित किए जाते है और इसलिए इनकी एक-एक मात्रा ही समझी जावेगी।
तीन वरन को एक गन, लघु गुरु तैं वसु भेद।
तासु नाम, लच्छन सुनौ, स्वामी सुफल अखेद।।३।।
छन्द सवैया, मात्रा ३१
मगन तिगुरु भूलच्छि लहावत, नगन तिलघु सुर शुभ फल देत।
भगन आदि गुरु इंदु सुजस, लघु आदि यगन, जल वृद्धि करेत।।
रगन मध्य लघु, अगिन मृत्यु, गुरुमध्य जगन, रवि रोग निकेत।
सगन अंत गुरु, वायु, भ्रमन, तगनंत लघु, नभ शून्य फलेत।।४।।
तीन-तीन वर्ण के एक-एक गण होते हैं, ये लघु और गुरु से मिलकर आठ भेदरूप हैं। इनके नाम, लक्षण, स्वामी और फल को उक्त सवैया में बताये गये हैं।
तीन गुरु (ऽऽऽ) को मगण कहते हैं इसका स्वामी पृथ्वी है और फल लक्ष्मी है। तीन लघु (।।।) को नगण कहते हैं इसका स्वामी सुर है और फल शुभ है। आदि गुरु (ऽ।।) को भगण कहते है इसका स्वामी चन्द्रमा है और फल सुयश है। आदि लघु (।ऽऽ) को यगण कहते है इसका स्वामी जल है और फल वृद्धि है। मध्य लघु (ऽ।ऽ) रगण है इसका स्वामी अग्नि है और फल मृत्यु है। मध्य गुरु (।ऽ।) जगण है इसका स्वामी सूर्य है और फल रोग है। अन्त गुरु (।।ऽ) सगण है इसका स्वामी वायु है और फल भ्रमण है। अन्त लघु (ऽऽ।) तगण है इसका स्वामी आकाश है और फल शून्य है। इन्हे ही आगे चार्ट में दिखलाया है।
गण का संकेत चिन्ह |
गण के नाम | लक्षण | स्वामी | फल | शुभाशुभ | उदाहरण |
ऽऽऽ | म-गण | तीनों गुरु | पृथ्वी | लक्ष्मी | शुभ | राजाज्ञा |
।।। | न-गण | तीनों लघु | सुर | शुभ | ’’ | अमित |
ऽ।। | भ-गण | आदि गुरु | चन्द्रमा | सुयश | ’’ | पावण |
।ऽऽ | य-गण | आदि लघु | जल | वृद्वि कर या आयु | ’’ | जिनेन्द्र |
।ऽ। | ज-गण | मध्य में गुरु | सूर्य | रोग | अशुभ | मदैव |
ऽ।ऽ | र-गण | मध्य में लघु | अग्नि | मृत्यु | ’’ | मालती |
।।ऽ | स-गण | अंत में गुरु | वायु | भ्रमण | ’’ | रजनी |
ऽऽ। | त-गण | अंत में लघु | नभ | शून्य | ’’ | दीनार |
विशेषार्थ—गणों के नाम और लक्षण कण्ठस्थ करने के लिए ‘यमाताराजभानसलगा’ इन दस अक्षरों के सूत्र को याद करना अच्छा रहता है। किहीं भी तीन वर्णों के गण की जांच करना हो तो वे जिस क्रम से लघु-गुरु के रूप में हों, उसी क्रम के तीन वर्ण उक्त सूत्र में से चुन लेना चाहिए उन तीन वर्णों में जो अक्षर प्रथम हो, उसी नाम का गण, उन जानने योग्य वर्णों का है, ऐसा समझना चाहिए। यह बात ऊपर के ‘उदाहरण’ कोष्ठक द्वारा सहज ही में समझी जा सकता
है। सूत्र के अन्त में जो ‘लगा’ यह दो वर्ण हैं, वे लघु और गुरु के लिए हैं। लघु की एक और गुरु की दो मात्राएं मानी जाती हैं। इस सम्बन्ध में एक श्लोक यह भी बहुत प्रसिद्ध एवं सरल है-
आदिमध्यावसानेषु, भजसा यान्ति गौरवम्।
यरता लाघवं यान्ति, म नौ तु गुरु लाघवम्।।
आदि गुरु भगण (ऽ।।), मध्य गुरु जगण (।ऽ।), अंत गुरु सगण (।।ऽ) है। ऐसे ही आदि लघु यगण (।ऽऽ), मध्य लघु रगण (ऽ।ऽ), अंत लघु तगण (ऽऽ।) हैं, पुन: तीनों गुरु मगण (ऽऽऽ) और तीनों लघु नगण (।।।) होते हैं।
गणों के विषय में रचयिता के विचार –
मगन नगन भगनो यगन, शुभ कहियतु है येह।
रगन जगन सगनो तगन, अशुभ कहावत तेह।।
मनुज कवित की आदि में, करिये तहाँ विचार।
देव प्रबन्ध विषैं नहीं, इनको दोष लगार।।
मगण, नगण, भगण और यगण ये शुभ हैं। रगण, जगण, सगण और तगण ये अशुभ कहलाते हैं। मनुष्य के लिए कविता बनाते समय कविता आदि में इनका विचार करना चाहिए तथा भगवान् के चरित आदि के रचते समय इनका दोष नहीं होता है ऐसा समझना।
त्याग निरख नर कवित महं, अ-गन मनहि विलखाय।
आये सरन जिनंद के, निज-निज दोष विहाय।।
सुधा-सिंधु महं गरल कन, मिलत अमी व्है जात।
यह विचार गुरु ग्रंथ महं, गहन करी गन व्रात।।
३.४ आठ गणों के आठ छन्द—
गहत प्रतिग्या वृंद कवि, करि गुरु चरन प्रणाम।
अरथ सहित सब छंद के, परै अन्त में नाम।।
आठ गननि के छंद जे, तिनके गन जुत नाम।
छंद मािंह गर्भित रहैं, जिनमें जिन गुण ग्राम।।
स्यादवाद लच्छन सहित, जिनवाणी सुखकंद।
ताही को रस छंद में, प्रगट धरत भवि वृंद।।
इन छन्दों में यह विशेषता है कि छन्द के अन्त में छन्द का नाम तो श्लेष रूप में आया ही है, लेकिन कौन सा गण कितनी बार प्रयुक्त हुआ है, यह भी छन्द के आदि या मध्य में, कवि ने श्लेष द्वारा व्यक्त कर दिया है। समस्त छन्दों में भगवान जिनेन्द्र, दिगम्बर मुनि, जिनवाणी के प्रति हार्दिक प्रगाढ़ श्रद्धा तो निहित है ही, परन्तु यह भी प्रकट हुए बिना नहीं रहता कि कवि के इस परिश्रम पूर्ण प्रयास में कर्कशता या कर्ण-कटुता नहीं आ पाई है। सर्वत्र कोमलता, सरलता एवं आनंद की अनुभूति होती है तथा सौंदर्य का दृश्य सम्मुख उपस्थित हो जाता है।
१. तरलनयन छन्द—नगण, सर्वलघु (।।।) वर्ण १२—
जिस छन्द के प्रत्येक चरण में १२-१२ वर्ण एवं चारों नगण हो उसे तरलनयन छन्द कहते हैं। जैसे उदाहरण—
चतुर नगन मुनि दरसत, भगत उमगि उर सरसत।
नुति-थुति करि मन हरषत, तरल नयन जल बरसत।।
२. मोदक छन्द- भगण, आदि गुरु (ऽ।।) वर्ण १२—
जिस छन्द के प्रत्येक चरण में १२ वर्ण एवं सर्व भगण हों उसे मोदक छंद कहते हैं। जैसे—
भागन च्यार पदारथ पावत, दर्शन ज्ञान व्रतो तप भावत।
सो निहचै विवहार विनोदक, स्वर्ग पवर्ग लहै फल मोदक।।
३. भुजंगप्रयात छन्द- यगण, आदि लघु (।ऽऽ) वर्ण १२—
जिस छंद के प्रत्येक चरण में चारों यगण हों उसे भुजंगप्रयात कहते हैं। जैसे –
समौसृत्य की को कहै सर्व बातौं।
लखौ चारु ये ही अलौकीक जातौं।।
तहां पक्षियों का पती भी रहातौ।
तहां तैं कभी ना भुजंग प्रयातौ।।
४. सारंगी छन्द तथा चित्रा छन्द-मगण, सर्व गुरु (ऽऽऽ) वर्ण १५ –
जिस छन्द के प्रत्येक चरण में पाँच-पाँच मगण हों उसे सारंगी या चित्रा छन्द कहते हैं। जैसे—
पांचों ही सौं नाता जोरे, तामैं मग्ना माचा है।
ताही सेती नाता तोरे, सो ही ग्याता सांचा है।।
आपा ही में सांचै राचै, आपाही को ह्वै रंगी।
सो ही वे वै आपा माहीं, चित्रा बाजा सारंगी।।
५. मैनावली छन्द- तगण, अन्त लघु (ऽऽ।), वर्ण १२—
जिस छन्द के चारों ही चरण में चार-चार तगण हों उसे मैनावली छन्द कहते हैं। जैसे—
च्यारों तरै के जिते देव के भेव,
जैनेंद्र ही की करैं, प्रीति सों सेव।
भैटारिवे की यही जासकी टेव,
मैं-नांव-लीनों मुझे तारि है देव।।
६. लक्ष्मीधरा छन्द- रगण, मध्य लघु (ऽ।ऽ), वर्ण १२—
जिस छन्द के प्रत्येक चरण में चार-चार रगण हों उसे लक्ष्मीधरा छन्द कहते हैं। जैसे –
जग्ग में तग्ग जो चार घाती हरा,
राग संचार जाके न हौवे खरा ।
सो जिनाधीस निर्दोष सोभा भरा,
बाह्य आभ्यंतरे छंद लक्ष्मीधरा ।।
७. तोटक छन्द-सगण, अन्त गुरु (।।ऽ), वर्ण १२—
जिस छन्द के प्रत्येक चरण में चार-चार सगण हों उसे तोटक छन्द कहते हैं। जैसे—
गन चारस भेद सभाथित ही,
तजि बैर प्रमोद भरैं हित ही।
जिन गंधकुटी जुत हैं जित ही,
मम तोटक लागि रह्यौ तित ही।।
८. मोतीदाम छन्द-जगण, मध्य गुरु (।ऽ।), वर्ण १२—
जिस छन्द के प्रत्येक चरण में चार-चार जगण हों उसे मोतीदाम छन्द कहते हैं। जैसे—
जिनेसुर को मुद मंगल धाम। जहां चहुं देव जजंति ललाम।।
प्रलंवित द्वारनि मैं अभिराम। अमोलमणी जुत मोतियदाम।।
३.५ छन्द-प्रकरण—
छन्द दो प्रकार के होते है।- वर्णिक तथा मात्रिक। वर्णिक छन्दों में, प्रत्येक छन्द के प्रत्येक चरण (पाद) में कितने वर्ण होते हैं, इस बात पर विचार किया जाता है तथा गणों का प्रयोग भी इन्हीं छन्दों में किया जाता है। मात्रिक छन्दों में यह सब न होकर केवल मात्राओं पर ही विचार किया जाता है। तात्पर्य इतना ही है कि एक में वर्णों पर ध्यान दिया जाता है और दूसरे में मात्राओं पर।
इन्द्रवङ्काा छन्द, वर्ण ११, प्र० (२ त०, ज०, २ गु०) –
नंदीश्वर द्वीप महाकहा है । चैत्यालये बावन जो तहाँ है ।।
अष्टाह्निका माहिं प्रमोद हूजै, जे इन्द्रवङ्काा युध धारि पूजै ।।
उपेन्द्रवङ्काा छन्द, वर्ण ११, प्र० (ज० त० ज०, २ गु०) –
जहाँ प्रतिष्ठादिक को अखाडो । तहां महानंद समुद्र ठाढो ।।
टालै सबी विध्न दिगीश गाढो । उपेन्द्रवङ्काा युध धारि ठाढो ।।
वसन्त-तिलका छन्द, वर्ण १४ प्र० (त० भ० २ ज०, २ गु०) –
श्री द्रोणजा जनकजादि रमा समानी ।
घेरें सभी भरत को रितुराज ठानी ।।
कीनों अनेक मन लोभन को उपायौ ।
तो भी बसंत तिल-काम नहीं हि आयौ ।।
चामर छन्द, वर्ण १५, प्र० ( र०, ज०, र०, ज०, र०) –
छत्र तीन सिंह पीठ पुष्प वृष्टि तापरं ।
अर्ध मागधी सुगी अशोक वृक्ष कावरं ।।
देव दुंदुभी अनूप देह की प्रभाव भरं ।
देखि देव देव पै ढुरंति वृंद चामरं ।।
नाराच छन्द, वर्ण १६ प्र० ( ज०, र०, ज०, र०, ज०, गु०)—
जजौं जिनँद चंद के पदारविंद चावसौं।
मुनिंद को सुदान दे, उमंग के बढ़ाव सौं।।
अभंग सात भंग रंग में पगो प्रभाव सौं।
सही उपाय सौं तरों न-राच भोग भाव सौं।।
स्रग्धरा छन्द, वर्ण २१, प्र० (म०, र०, भ०, न०, ३ य०)—
तीनों रत्न त्रिवेनी-सुविमल-जल की धारा में जो नहावै ।
निश्चै घाती विघाती, करमज-मल को मूल से सो बहावै ।।
पावै चारौं अनंता, निजगुण अमलानंद वृंदा धरा है ।
ताकी काया अछाया अनुपम पग पै पुष्प का स्रग्धरा हैै ।।
शिखरिणी छन्द, वर्ण १७ प्र० ( य०,भ०, न०, स०, ल०, गु०)—
जहां कोई प्रानी चढत गुणथाने उपसमी।
गिराआवै नीचे सुमग महँ सम्यक्त्वहिं बमी।।
जहाँ द्वेधा धारा बहत निजभावें विपरिनी।
दही मीठाखाई वमन समये ज्यों शिखरिनी।।
शार्दूलविक्रीडित छन्द, वर्ण १९, प्र० (म०, स०, ज०, स०, २ त०, गुरु)—
मों सो जी सततं गुरुगन जती ये कर्मशत्रू टरे ।
सोई आप उपाय शीघ्र करिये, हो दीनबन्धु वरे ।।
आपी स्वर्ग-पवर्ग देत जन कों, रक्षा करो पीडितैं ।
आपी सर्व कुवादि जीति भगवन्शार्दूल विक्रीडते ।।
३.६ मात्रिक छन्द निरूपण
मात्रिक छन्दों में मात्राओं की ही गिनती होती है। लघु वर्ण की एक और गुरुवर्ण की दो मात्राएँ होती हैं। इस प्रकरण में वर्णों को लघु-गुरु न कहकर ह्रस्व-दीर्घ कहते हैं।
दोहा (अर्धसम)
इसके प्रथम- तृतीय चरणों में १३-१३ और द्वितीय-चतुर्थ में ११-११ मात्राएँ होती हैं। यह अर्धसम वृत्त हैं –
नेमि स्वामि निरवान थल, शोभत गढ़ गिरनार।
वंदौं सोरठ देश में, दोहाथ-नि सिरधार।।
सोरठा (अर्धसम)
यह दोहे का उलटा होता है। इसके प्रथम-तृतीय चरणों में ११-११ तथा द्वितीय-चतुर्थ में १३-१३ मात्राएँ होती हैं। यह अर्धसम वृत है—
शोभत गढ़ गिरनार, नेमि स्वामि निरवान थल।
दो हाथनि सिरधार, वंदौं सोरठ देश मैं।।
पद्धरी (डी) (सम)
इसके प्रत्येक चरण में १६-१६ मात्राएँ होती है। अन्त में लघु होना चाहिए—
जिन-बाल छबी सचि लखी आय।
मन अडी खडी टकटकी लाय।।
उमग्यौ उमंग मन में न माय।
तब गद्द पद्द पद्धरी गाय ।।
रूप चौपई (चौपई) (सम)
इसके प्रत्येक चरण में १६-१६ मात्राएँ होती हैं। चरणान्त में जगण (।ऽ।) या तगण (ऽऽ।) कदापि न रखना चाहिए और दो गुरु ही होने चाहिए –
भवथित उघटित निकट रही है।
सुगुरु वचन जुत प्रीति गही है।।
बसत सुसंग कुसंगत खोई।
सहज स-रूप-चौप-इमि होई।।
अडिल्ल (सम)
इसके प्रत्येक चरण में २१-२१ मात्राएँ होती हैं—
कामिनि-तन-कांतार, काम जहां भिल्ल है ।
पंच-बान कर धरैं, गुमान अखिल्ल है।।
करै जगत जन जेर, न जाके ढिल्ल है।
शील बिना नहिं हटत, बड़ो ही अडिल्ल है।।
नरिन्द ( नरेन्द्र) अथवा जोगीरासा (सम)
इसके प्रत्येक चरण में २८ मात्राएँ होती हैं तथा १६, १२ पर यति—
समकित सहित सुव्रत निरवाहैं, राजनीति मन लावै।
श्री जिनराज चरन नित पूजै, मुनि लखि भगति बढ़ावै।।
चार प्रकार दान नित देवैâ, सुर-पुर महल बनावै।
न्याय समेज प्रजा प्रतिपालै, सो नरिन्द सुख पावै।।
गीता (सम)
यह छंद २६ मात्रा का होता है । यति १४, १२ पर—
भविजीव हो, संसार है, दुख-खार-जल-दरयाव।
तसु पार उतरन को यहि, है एक सुगम उपाव।।
गुरु भक्ति को मल्लाह करि निज रूप सौं लव लाव।
जिनराज को गुन वृंद गीता यही मीता नाव।।