माणुसजगबहुमज्झे विक्खादो होदि जंबुदीओ त्ति।
एक्कज्जोयणलक्खव्विक्खंभजुदो सरिसवट्टो१।।११।।
जगदीविण्णासाइं भरहक्खिदी तम्मि कालभेदं च।
हिमगिरिहेमवदा महहिमवंहरिवरिसणिसहद्दी।।१२।।
विजओ विदेहणामो णीलगिरी रम्मवरिसरुम्मिगिरी।
हेरण्णवदो विजओ सिहरी एरावदो त्ति वरिसो य।।१३।।
एवं सोलसभेदा जंबूदीवम्मि अंतरहियारा।
एण्हं ताण सरूवं वोच्छामो आणुपुव्वीए।।१४।।
वेढेदि तस्स जगदी अट्ठं चिय जोयणाणि उत्तुंगा।
दीवं तं मणिबंधस्सरिसं होदूण वडयणिहा।।१५।।।
जो ८।
मूले बारस मज्झे अट्ठ च्चिय जोयणाणि णिद्दिट्ठो।
सिहरे चत्तारि पुढं जगदीरुंदस्स परिमाणं।।१६।।
१२। ८। ४।
दो कोसा अवगाढा तेत्तियमेत्ता हुवेदि वज्जमयी।
मज्झे बहुरयणमयी सिहरे वेरुलियपरिपुण्णा।।१७।।
कोस २।
तीए मूलपएसे पुव्वावरदो य सत्त सत्त गुहा।
वरतोरणाहिरामा अणाइणिधणा विचित्तयरा।।१८।।
\जगदीउवरिमभाए बहुमज्झे कणयवेदिया दिव्वा।
वे कोसा उत्तुंगा वित्थिण्णा पंचसयदंडा।।१९।।
को २।
दंड ५००।
जगदीउवरिमरुंदो वेदीरुंदं खु सोधियद्धकदो।
जं लद्धमेक्कपासे तं विक्खंभस्स परिमाणं।।२०।।
पण्णरससहस्सािण सत्तसया धणूणि पण्णासा।
अब्भंतरविक्खंभा बाहिरवासो वि तम्मेत्ता।।२१।।
१५७५०।
वेदीदोपासेसुं उववणसंडा हवंति रमणिज्जा।
वरवावीसंजुत्ता विचित्तमणिआरपरिपुण्णा।।२२।।
जेट्ठा दोसयदंडा विक्खंभजुदा हवेदि मज्झिमया।
पण्णासब्भहियसयं जघण्णवावी वि सयमेक्वं।।२३।।
दं २००। १५०। १००।
तिविहाओ वावीओ णियरुंददसंसमेत्तमवगाढा।
कइआरकमलकुवलयकुमुदामोदेिंह परिपुण्णा।।२४।।
२०। १५। १०।
पायारपरिगदाइं वरगोउरदारतोरणाइं पि।
अब्भंतरम्मि भागे महोरगाणं च चेट्ठंति।।२५।।
पाठान्तरम्। णयरेसुं रमणिज्जा पासादा होंति विविहविण्णासा।
अब्भंतरचेत्तरया णाणावररयणणियरमया।।२६।।
दिप्पंतरयणदीवा समंतदो विविहधूवधडजुत्ता।
वज्जमयवरकवाडा वेदीगोउरदुवारजुदा।।२७।।
पणुहत्तरि चावािण उत्तुंगा सयधणूणि दीहजुदा।
पण्णासदंडरुंदा होंति जहण्णम्मि पासादा।।२८।।
७५। १००। ५०।
पासादावारेसुं बारस चावाणि होंति उच्छेहो।
पत्तेक्वं छण्णाहं अवगाढं तं पि चत्तारि।।२९।।
१२। ६। ४।
पणुवीसं दोण्णि सया उच्छेहो होदि जिट्ठपासादा।
दीहं तिसयधणूिण पत्तेक्व सद्ध विक्खंभो।।३०।।
२२५। ३००। १५०।
ताण दुवारुच्छेहो दंडा छत्तीस होदि पत्तेक्वंâ।
अट्ठारस विक्खंभो बारस णियमेण अवगाढं।।३१।।
दं. ३६। १८। १२।
मज्झिमपासादाणं हुवेदि उदओ दिवड्ढसयदंडा।
दोण्णि सया दीहत्तं पत्तेक्वं एक्कसय रुंदं।।३२।।
१५०। २००। १००।
चउवीसं चावािंण ताण दुवारेसु होदि उच्छेहो।
बारह अट्ठ कमेणं दंडा वित्थारअवगाढा।।३३।।
२४। १२। ८।
सामण्णचित्तकदलीगब्भलदाणादआसणगिहाओ।
गेहा होंति विचित्ता वेंतरणयरेसु रमयारा।।३४।।
मेहुणमंडणओलगवंदणअभिसेयणच्चणाणं पि।
णाणाविहसालाओ वररयणविणिम्मिदा होंति।।३५।।
करिहरिसुकमोराणं मयरपवालाण गरुडहंसाणं।
सारिच्छाइं तेसुं रम्मेसुं आसणाणि चेट्ठंते।।३६।।
वररयणविरइदाणि विचित्तसयणाणि मउव्वपासाइं।
रेहंति मंदिरेसुं दोपासठिदोवधाणाणि।।३७।।
कणय व्व णिरुवलेवा णिम्मलवंâती सुगंधणिस्सासा।
वरविविहभूसणयरा रविमंडलसरिसमउडसिरा।।३८।।
रोगजरापरिहीणा पत्तेक्वं दसधणूणि उत्तुंगा।
वेंतरदेवा तेसुं सुहेण कीडंति सच्छंदा।।३९।।
जिणमंदिरजुत्ताइं विचित्तविण्णासभवणपुण्णाइं।
सददं अकिट्टिमाइं वेंतरणयराणि रेहंति।।४०।।
मनुष्यक्षेत्र के बहुमध्यभाग में एक लाख योजन विस्तार से युक्त,सदृश गोल और जम्बूद्वीप इस नाम से प्रसिद्ध पहला द्वीप है।।११।।
उस जम्बूद्वीप के वर्णन करने में जगती (वेदिका), विन्यास, भरतक्षेत्र, उस (भरत) क्षेत्र में होने वाला कालों का भेद, हिमवान् पर्वत, हैमवत क्षेत्र, महाहिमवान् पर्वत, हरि क्षेत्र, निषध पर्वत, विदेह क्षेत्र, नील पर्वत, रम्यक क्षेत्र, रुक्मि पर्वत, हैरण्यवत क्षेत्र, शिखरी पर्वत और ऐरावत क्षेत्र, इस प्रकार सोलह अंतराधिकार हैं। अब उनके स्वरूप को अनुक्रम से कहते हैंं।।१२-१४।।
आठ योजन ऊँची उसकी जगती मणिबंध के सदृश उस द्वीप को वलय अर्थात् कड़े के सदृश होकर वेष्टित करती है।।१५।।
यो. ८। जगती के विस्तार का प्रमाण मूल में बारह, मध्य में आठ और शिखर पर चार योजन कहा गया है।।१६।।
जगती विस्तार—मूल में १२, मध्य में ८, शिखर पर ४ यो.। उक्त जगती की गहराई अर्थात् नींव दो कोस है, जो सब ही वङ्कामय है। यह मध्य में बहुत रत्नों से निर्मित और शिखर पर वैडूर्यमणियों से परिपूर्ण है।।१७।।
कोस २। उस जगती के मूल प्रदेश में पूर्व-पश्चिम की ओर सात-सात गुफाएँ हैं, जो उत्कृष्ट तोरणों से रमणीय, अनादिनिधन एवं अत्यन्त विचित्र हैं।।१८।।
इस जगती के उपरिम भाग पर ठीक बीच में दिव्य सुवर्णमय वेदिका है। यह दो कोस ऊँची और पाँच सौ धनुषप्रमाण चौड़ी है।।१९।। ऊँचाई को. २, विस्तार दंड ५००। जगती के उपरिम विस्तार में से वेदी के विस्तार को घटाकर शेष को आधा करने पर जो प्राप्त हो उतना वेदी के एक पाश्र्वभाग में जगती के विस्तार है।।२०।।
३२०००-५००/२ · १५७५० धनुष। जगती का अभ्यन्तर विस्तार पन्द्रह हजार सात सौ पचास धनुष और इतना ही उसका बाह्य विस्तार भी है।।२१।।
१५७५०। वेदी के दोनों पाश्र्व भागों में उत्तम वापियों से संयुक्त और विचित्र मणिगृहों से परिपूर्ण रमणीय उपवनों के समूह हैं।।२२।।
इनमें से उत्कृष्ट बावड़ियों का विस्तार दो सौ धनुष, मध्यमों का एक सौ पचास धनुष और जघन्यों का एक सौ धनुषप्रमाण है।।२३।।
उत्कृष्ट २००, मध्य. १५०, ज. १०० धनुष। तीनों ही तरह की बावड़ियाँ अपने-अपने विस्तार के दशवें भागप्रमाण गहरी और वैरव (सपेद कमल), कमल, नीलकमल एवं कुमुदों की सुगन्ध से परिपूर्ण हैं।।२४।। वेदी के अभ्यन्तर भाग में प्राकार से वेष्टित एवं उत्तम गोपुरद्वार व तोरणों से संयुक्त ऐसे महोरग देवों के भवन स्थित हैं।।२५।।
पाठान्तर। नगरों में विविध प्रकार की रचनाओं से युक्त, अनेक उत्तमोत्तम रत्नसमूहों से निर्मित, अभ्यन्तर भाग में चैत्यतरुओं से सहित, चारों ओर प्रदीप्त रत्नदीपकों से सुशोभित, विविध प्रकार के धूपघटों से युक्त, वङ्कामय कपाटों से संयुक्त और वेदी व गोपुरद्वारों से सहित रमणीय प्रासाद हैं।।२६-२७।।
ये प्रासाद जघन्यरूप से पचहत्तर धनुष ऊँचे, सौ धनुष लंबे और पचास धनुषप्रमाण विस्तारयुक्त हैं।।२८।।
ऊँचाई ७५; लंबाई १००; विस्तार ५० धनुष। इन प्रासादों के द्वारों में प्रत्येक की ऊँचाई बारह धनुष, व्यास छह धनुष और अवगाढ़ चार धनुषप्रमाण है।।२९।।
ऊँचाई १२; व्यास ६; अवगाढ़ ४ धनुष। उत्कृष्ट प्रासादों में प्रत्येक की ऊँचाई दो सौ पच्चीस धनुष, लम्बाई तीन सौ धनुष और विष्भ इससे आधा अर्थात् एक सौ पचास धनुषप्रमाण है।।३०।।
उँचाई २२५, लम्बाई ३००; वि. १५० धनुष। उत्कृष्ट प्रासादों के द्वारों में प्रत्येक द्वार की ऊँचाई छत्तीस धनुष, विष्वंकंभ अठारह धनुष और अवगाढ़ नियम से बारह धनुषप्रमाण है।।३१।।
ऊँचाई ३६; वि. १८; अव. १२ धनुष। मध्यम प्रासादों में प्रत्येक की ऊँचाई डेढ़ सौ धनुष, लम्बाई दो सौ धनुष और चौड़ाई एक सौ धनुषप्रमाण है।।३२।।
ऊँचाई १५०; लम्बाई २००; चौड़ाई १०० धनुष। इन प्रासादों के प्रत्येक के द्वार की ऊँचाई चौबीस धनुष, चौड़ाई बारह धनुष और अवगाढ़ आठ धनुषमात्र है।।३३।।
ऊँचाई २४; चौड़ाई १२; अव. ८ धनुष। व्यंतरों के नगरों में सामान्यगृह, चित्तगृह (चित्रशाला या चैत्यगृह), कदलीगृह, गर्भगृह, लतागृह, नादगृह और आसनगृह; ये रम्य आकार वाले विचित्र गृहविशेष होते हैं।।३४।।
इसके अतिरिक्त वहाँ पर मैथुनशाला, मण्डनशाला, ओलगशाला, वंदनशाला, अभिषेकशाला और नृत्यशाला, इस प्रकार उत्तम रत्नों से निर्मित नाना प्रकार की शालाएँ होती हैं।।३५।।
इन रमणीय प्रासादों में हाथी, िंसह, शुक, मयूर, मगर, व्याल, गरुड़ और हंस, इनके सदृश आसन रखे हुए हैं।।३६।।
महलों में उत्तम रत्नों से निर्मित, मृदुल स्पर्श वाले और दोनों पाश्र्व भाग में स्थित तकियों से युक्त विचित्र शय्याएँ शोभायमान हैं।।३७।।
सुवर्ण के समान निर्लेप, निर्मल कान्ति के धारक, सुगन्धमय निश्वास से युक्त, उत्तमोत्तम विविध प्रकार के भूषणों को धारण करने वाले, सिर पर सूर्यमण्डल के समान मुकुट के धारक, रोग एवं जरा से रहित और प्रत्येक दश धनुष ऊँचे, ऐसे व्यन्तर देव उन नगरों में सुखपूर्वक स्वच्छंद क्रीड़ा करते हैं।।३८-३९।।
जिनमन्दिरों से संयुक्त, विचित्र रचना वाले भवनों से परिपूर्ण और अकृत्रिम वे व्यन्तर नगर सदैव शोभायमान होते हैं।।४०।।