दोहा
स्वयंसिद्ध यह द्वीप है, जंबूद्वीप महान।
सब द्वीपों में है प्रथम, अनुपम रत्न निधान।।१।।
इसमें शाश्वत जिन भवन, अट्ठत्तर अभिराम।
तीर्थंकर जिन केवली, साधु शील गुण खान।।२।।
इन सब की पूजा करूँ, आत्मशुद्धि के हेतु।
जिन पूजा चिंतामणी, मन चिंतित फल देत।।३।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालय-जिनबिम्ब-तीर्थंकर-केवलिसर्वसाधु समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालय-जिनबिम्ब-तीर्थंकर-केवलिसर्वसाधु समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालय-जिनबिम्ब-तीर्थंकर-केवलिसर्वसाधु समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
शंभु छंद
सुर सरिता का उज्ज्वल जल ले, कंचन झारी भर लाया हूँ।
भव भव की तृषा बुझाने को, त्रय धारा देने आया हूँ।।
इस जंबूद्वीप में जिन मंदिर, कृत्रिम अकृत्रिम जितने हैं।
तीर्थंकर केवलि सर्वसाधु, उन सबको मेरा वंदन है।।१।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बतीर्थंकरकेवलि-सर्वसाधुभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा।
वर अष्ट गंध सुरभित लेकर, तुम चरण चढ़ाने आया हूँ।
भव भव संताप मिटाने औ, समता रस पीने आया हूँ।। इस जम्बूद्वीप…।।२।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बतीर्थंकरकेवलि-सर्वसाधुभ्यो चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शशि किरणों सम उज्ज्वल तंदुल, धोकर थाली भर लाया हूँ।
निज आतम गुण के पुंज हेतु, यह पुंज चढ़ाने आया हूँ।।
इस जंबूद्वीप में जिन मंदिर, कृत्रिम अकृत्रिम जितने हैं।
तीर्थंकर केवलि सर्वसाधु, उन सबको मेरा वंदन है।।३।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बतीर्थंकरकेवलि-सर्वसाधुभ्यो अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कुवलय बेला वर मौलसिरी, मचकुन्द कमल ले आया हूँ।
गार हार कामारिजयी, जिनवर पद भजने आया हूँ।।
इस जम्बूद्वीप…।।४।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बतीर्थंकरकेवलि-सर्वसाधुभ्यो पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मोदक फेनी घेवर ताजे, पकवान बनाकर लाया हूँ।
निज आतम अनुभव चखने को, नैवेद्य चढ़ाने आया हूँ।।
इस जम्बूद्वीप…।।५।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बतीर्थंकरकेवलि-सर्वसाधुभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक ज्योती के जलते ही, अज्ञान अंधेरा भगता है।
इस हेतू से दीपक पूजा , करते ही ज्ञान चमकता है।। इस जम्बूद्वीप…।।६।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बतीर्थंकरकेवलि-सर्वसाधुभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूपायन में वर धूप खेय, दशदिश में धूम उठे भारी।
बहु जनम जनम के संचित भी, दु:खकर सब कर्म जलें भारी।।
इस जम्बूद्वीप…।।७।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बतीर्थंकरकेवलि-सर्वसाधुभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
वर आम्र बिजौरा नींबू औ, गन्ना मीठा ले आया हूँ।
शिव कांता सत्वर वरने की, बस आशा लेकर आया हूँ।।
इस जम्बूद्वीप…।।८।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बतीर्थंकरकेवलि-सर्वसाधुभ्यो फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत फूल चरू, वर दीप धूप फल लाया हूँ।
तुम चरणों अर्घ चढ़ा करके, भव संकट हरने आया हूँ।।
इस जम्बूद्वीप…।।९।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बतीर्थंकरकेवलि-सर्वसाधुभ्यो अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षीरोदधि समश्वेत, उज्ज्वल जल ले भृंग में।
श्री जिनचरण सरोज, धारा देते भव मिटे।।१०।।
शांतये शांतिधारा।।
सुरतरु के सुम लाय, प्रभु पद में अर्पण करूँ।
काम देव मद नाश, पाऊँ आनन्द धाम मैं।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।
परम ज्योति परमात्मा, सकल विमल चिद्रूप।
जिनवर गणधर साधुगण, नमूँ नमूँ निजरूप।।१।।
शंभु छंद
जय जय सुमेरुगिरि के जिनगृह, सोलह शाश्वत हैं रत्नमयी।
जय जय जिनमंदिर चारों ही, गजदंतगिरी के स्वर्णमयी।।
जय जय जंबूतरु शाल्मलि के, दो जिनमंदिर महिमाशाली।
जय जय वक्षारगिरी के भी, सोलह जिनगृह गरिमाशाली।।२।।
जय जय चौंतिस विजयारध के, चौंतिस जिनमंदिर सुखकारी।
जय जय छह कुल पर्वत के भी, छह जिनगृह भव भव दु:खहारी।।
ये जंबूद्वीप के अठहत्तर, जिनमंदिर अकृत्रिम सुन्दर।
प्रतिजिनगृह में जिन प्रतिमाएँ, हैं इक सौ आठ कहीं मनहर।।३।।
मेरू के पांडुक वन में चउ, विदिशा में चार शिलाएँ हैं।
तीर्थंकर के जन्माभिषेक से, पावन पूज्य शिलायें हैं।।
इस भरत और ऐरावत में, होते हैं चौबिस तीर्थंकर।
केवलि श्रुतकेवलि गणधर मुनि, साधूगण होते क्षेमंकर।।४।।
उनके कल्याणक से पवित्र, पृथिवी पर्वत भी तीर्थ बने।
जो उनकी पूजा करते हैं, उनके मन वांछित कार्य बनें।।
बत्तिस विदेह के तीर्थंकर, सीमंधर युगमंधर स्वामी।
बाहु सुबाहु जिन विहरमाण, केवलज्ञानी अन्तर्यामी।।५।।
उन सर्व विदेहों में संतत, तीर्थंकर होते रहते हैं।
केवलज्ञानी चारणऋद्धी, मुनिगण वहाँ विचरण करते हैं।।
आकाशगमन करने वाले, ऋषिगण मेरू पर जाते हैं।
निज आत्म सुधारस स्वादी भी, जिनवंदन कर हर्षाते हैं।।६।।
इस जंबूद्वीप के अठहत्तर, शाश्वत जिन मंदिर को वंदन।
जितने भी कृत्रिम जिनगृह हों, उन सबको भी शत शत वंदन।।
जितने तीर्थंकर हुए यहाँ, हो रहे और भी होवेंगे।
उन सबको मेरा वंदन है, वे मेरा कलिमल धोवेंगे।।७।।
आचार्य उपाध्याय साधूगण, जो भी इन कर्मभूमियों में।
चिन्मय आत्मा को ध्याते हैं, सुस्थिर होकर निज आत्मा में।।
वे घाति चतुष्टय घात पुन:, अर्हंत अवस्था पाते हैं।
इस कर्मभूमि से ही फिर वे, भगवान सिद्ध बन जाते हैं।।८।।
दोहा
पंच परम गुरु जिनधरम, जिनवाणी जिन गेह।
जिन प्रतिमा को नित नमूँ, ‘ज्ञानमती’ धर नेह।।९।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमजिनालयजिनबिम्ब-तीर्थंकरकेवलि-सर्वसाधुभ्यो जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलि:।।
दोहा
जंबूद्वीप की अर्चना, करे विघ्न घन चूर।
सर्व अमंगल दूर कर, भरे सौख्य भरपूर।।१०।।
।। इत्याशीर्वाद: ।।