देखते-देखते नवमा महीना पूर्ण हो गया। शुभ चैत्र मास की शुक्ला त्रयोदशी के दिन अर्यमा नाम के शुभ योग में एवं शुभ लग्न में त्रिशला महादेवी ने अलौकिक पुत्र को जन्म दिया है। वह पुत्र अपने उज्ज्वल शरीर की कान्ति से अन्धकार को विनष्ट करने वाला, जगत् का हित करने वाला मति-श्रुत-अवधिµतीनों ज्ञान को धारण करने वाला, महा दैदीप्यमान एवं धर्म-तीर्थ का प्रवर्तक तीर्थंकर हुआ।
भगवान महावीर का जन्म तेरस की रात्रि में हुआ है ऐसा जयधवला में वर्णित है-
‘‘आसाढ़ जोण्हपक्खछट्ठीए कंुडलपुरणगराहिव-णाहवंस-सिद्धत्थणरिंदस तिसिला-देवीए गब्भमागंतूण तत्थ अट्ट्ठदिवसाहियणवमासे अच्छिय चइत्तसुक्कपक्ख- तेरसीए रत्तीएउत्तरफग्गुणीणक्खत्ते गब्भादो णिक्खंतो वड्ढमाणजिणिंदो।’’
आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन कंुडलपुर नगर के स्वामी नाथवंशी सिद्धार्थ नरेन्द्र की रानी त्रिशला देवी के गर्भ में आकर और वहाँ नवमास आठ दिन रहकर चैत्रशुक्ला त्रयोदशी के दिन रात्रि में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के रहते हुये वर्द्धमान जिनेंद्र ने जन्म लिया।उनके जन्म के साथ-साथ सभी दिशायें निर्मल हो गयीं। आकाश में निर्मल वायु बहने लगी। स्वर्ग से कल्प-वृक्षों के पुष्पों की वर्षा हुई एवं चारों निकायों के देवों के आसन कम्पायमान हो गये। स्वर्ग में बिना बजाये ही वाद्यों की ध्वनि होने लगी, मानो वे भी भगवान का जन्मोत्सव मना रहे हों। इसके अतिरिक्त अन्य तीनों जातियों (निकायों) के देवों के महलों में शंख-भेरी आदि के शब्द होने लगे।
कल्पेषु घण्टा भवनेषु शंखो, ज्योतिर्विमानेषु च सिंहनादः।
दध्वान भेरी वनजालयेषु, यज्जन्मनि ख्यात जिनः स एषः।।
कल्पवासी देवों के यहाँ घंटे बजने लगे, भवनवासी देवों के यहाँ शंखध्वनि होने लगी, ज्योतिष्क देवों के यहाँ सिंहनाद होने लगा और व्यंतर देवों के यहाँ भेरी बजने लगी। जिनके जन्म के समय ऐसा हुआ ये जिन भगवान् वे ही हैं।जैसे कि आज टेलीविजन या रेडियो का बटन दबाते ही हजारों किलोमीटर दूर के भी दृश्य और संगीत सामने आ जाते हैं किंतु वहाँ तो बटन दबाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी प्रत्युत् तीर्थंकर प्रकृति का पुण्यरूपी बटन अपने आप ही दब गया और 40 करोड़ मील से अधिक ऊँचाई पर स्थित स्वर्गलोक में अतिशय फैल गया। तत्क्षण ही सौधर्म इंद्र असंख्य देव परिवारों के साथ मध्यलोक में आये और जन्मजात शिशु को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर 1008 कलशों से उनका जन्माभिषेक संपन्न किया।कुछ विद्वान सहज ही कह देते हैं कि वे तीर्थंकर हम आप जैसे साधारण मानव थे लेकिन ऐसा नहीं है वे तीर्थंकर प्रकृति नाम कर्म के बंध करने तक तो साधारण कहे जा सकते हैं किन्तु तीर्थंकर प्रकृति को बांध लेने के बाद उनमें कुछ विशेष ही अतिशय प्रगट हो जाते हैं इसीलिए तो श्रीसमन्तभद्रस्वामी ने कहा है
मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान्, देवतास्वपि च देवता यतः।
तेन नाथ! परमासि देवता, श्रेयसे जिनवृष! प्रसीद नः।।
हे नाथ! आपने मनुष्य योनि में जन्म तो लिया है किंतु आप मानुषी प्रकृति का उलंघन कर चुके हैं इसलिए आप देवताओं के भी देवता हैं यही कारण है कि आप परमदेवता हैं।
हे जिनधर्म तीर्थंकर! आप हमारे कल्याण के लिए हम पर प्रसन्न होइये।
सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र भगवान के जन्म का समाचार पाकर उनका जन्मकल्याणक मनाने का विचार करने लगा। उसी समय इन्द्र की आज्ञा से देवों की सेनायें ‘जय-जयकार’ करती हुई स्वर्ग से उतरीं। उनकी विशाल सेनायें समुद्र से उठती हुई प्रचण्ड लहरों के समान प्रतीत होती थीं। गजराज, अश्व, रथ, गन्धर्व, नर्तकी, पैदल एवं बैल आदि से युक्त सात प्रकार की सेनायें निकलीं। तत्पश्चात् सौधर्म स्वर्ग का स्वामी इन्द्र अपनी इन्द्राणी सहित ऐरावत हाथी पर आरूढ़ होकर चला। उसके चारों ओर देवों की सेनायें फैली हुईं थीं।इन्द्र के पीछे-पीछे बड़ी विभूतियों के साथ सामानिक देव आदि चल रहे थे। उस समय दुन्दुभी आदि वाद्यों की ध्वनि एवं देवों की ‘जय-जयकार’ से सारा आकाश गूँजने लगा। मार्ग में कितने ही देव गाते हुए चल रहे थे। कोई नृत्य करता जाता था एवं कोई प्रसन्नता के कारण दौड़ लगा रहा था। उनके छत्र-चमर एवं ध्वजाओं से समस्त आकाश-मण्डल आच्छादित हो गया था। वे चारों निकाय के देव बड़ी विभूति के साथ क्रम-क्रम से कुण्डलपुर जा पहुँचे। उस समय आकाश में ऊपर एवं बीच का भाग देव-देवियों से घिर गया था। राजमहल का आँगन इन्द्रादिक देवों से बिलकुल भर गया था।
इन्द्राणी ने तत्काल प्रसूतिग्रह में जाकर दिव्यशरीरधारी कुमार एवं जिनमाता का दर्शन किया। वे बारम्बार उन्हें प्रणाम कर जिनमाता के आगे खड़ी होकर उनके गुणों की प्रशंसा करने लगीं। इन्द्राणी ने कहाµ ‘हे महादेवी! आप तीनों जगत् के स्वामी को उत्पन्न करने के कारण समग्र विश्व की माता हो एवं आप ही महादेवी भी हो। महान देव उत्पन्न कर आपने अपना नाम सार्थक कर लिया है। संसार में आपकी तुलना की अन्य कोई स्त्री नहीं है।’इस प्रकार महादेवी की स्तुति कर इन्द्राणी ने उन्हें निद्रित कर दिया। जब जिनमाता सो गयीं, तो इन्द्राणी ने उनके आगे एक माया का बालक बना कर सुला दिया एवं स्वयं अपने हाथों से शिशु भगवान को उठाकर उनके शरीर का स्पर्श किया। वे बारम्बार उनके मुख का चुम्बन करने लगीं। भगवान के शरीर से निकलती हुई उज्ज्वल ज्योति को देखकर उनके हर्ष का ठिकाना न रहा। तत्पश्चात् वह उस बालक भगवान को लेकर आकाश-मार्ग की ओर चलीं। वे भगवान आकाश में ठीक सूर्य की तरह जान पड़ते थे। समस्त दिक्कुमारियाँ छत्र, ध्वजा, कलश, चमर एवं स्वस्तिक आदि आठ मांगलिक द्रव्यों को लेकर इन्द्राणी के आगे-आगे चल रही थीं।
उस समय इन्द्राणी ने जगत् को आनन्द प्रदान करनेवाले जिनदेव को लाकर बड़ी प्रसन्नता से इन्द्र को सौंप दिया। भगवान की अपूर्व सुन्दरता व उनकी तेजोमय दीप्ति देखकर देवों का स्वामी इन्द्र उनकी स्तुति करने लगादृ ‘हे देव! आप हमें परम आनन्द प्रदान करने के लिए बाल-चन्द्रमा की भांति लोक को प्रकाश देने के लिए प्रगट हुए हो। हे ज्ञानी! आप विश्व के स्वामी इन्द्र-धरणेन्द्र-चक्रवर्ती के भी स्वामी हो। धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक होने के कारण आप ही ब्रह्मा भी हो।’‘हे देव! योगीराज आपको ज्ञानरूपी सूर्य का उदयाचल मानते हैं। आप भव्य पुरुषों के रक्षक एवं मोक्षरूपी स्त्री के पति हो। आप मिथ्याज्ञानरूपी अन्धकूप में पड़े हुए अनेक भव्य जीवों को धर्मरूपी हाथ का सहारा देकर उद्धार करने वाले हो। संसार के सभी विचारशील व्यक्ति आपकी अलौकिक वाणी सुनकर अपने कर्मों को नष्ट कर परम पवित्र मोक्ष प्राप्त करेंगे एवं अनेक भव्य जीवों को स्वर्ग की प्राप्ति होगी। आज आपके अभ्युदय से सन्त पुरुषों को बड़ी प्रसन्नता हुई। वस्तुतः आप ही धर्म की प्रवृत्ति के कारण हैं।’
अतएव हे देव! हम आपको प्रणाम करते हैं, आपकी सेवा करते हैं, भक्ति प्रकट करते हैं एवं प्रसन्नतापूर्वक केवल आपकी आज्ञा का पालन करते हैंदृ अन्य मिथ्यात्वी देव की नहीं।’ इस तरह देवों का स्वामी सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र भगवान की स्तुति कर उन्हें गोद में उठा कर सुमेरु पर्वत पर चलने को उद्यत हुआ। उसने अन्य देवों को भी सुमेरु पर्वत पर चलने के लिए आज्ञा दी। उस समय सभी देवों ने ‘प्रभु की जय हो, आनन्द की वृद्धि हो’ आदि शब्दों से ‘जय-जयकार’ की। उनकी ध्वनि समस्त दिशाओं में फैली।
इन्द्र के साथ-साथ आये देव भी ‘जय-जय’ शब्द करते हुए आनन्द मनाने लगे। प्रसन्नता के कारण उनका शरीर रोमांचित हो उठा। आकाश में प्रभु के समक्ष अप्सरायें नृत्य करने लगीं। गन्धर्वदेव भी वीणा आदि वाद्यों के साथ गान करने लगे। देवों की दुन्दुभी की आवाज से सारा आकाश-मण्डल गूँज उठा। किन्नरियाँ हर्षित होकर अपने किन्नरों के साथ जिनदेव का गुणगान करने लगीं। उस समय सब देव भगवान का दर्शन कर अपने जीवन को सार्थक समझने लगे। वे बड़ी देर तक भगवान का दिव्य रूप देखते रहे। इन्द्र की गोद में विराजमान भगवान को ऐशान स्वर्ग के इन्द्र ने दिव्य छत्र लगाया। सनत्कुमार एवं माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र भी चमर ढुराते हुए भगवान की सेवा करने लगे। श्री जिनेन्द्र भगवान की ऐसी विभुता देखकर अनेक देवों ने उसी समय सम्यक्त्व धारण किया। उन्होंने इन्द्र के वचनों को प्रमाण माना। वे इन्द्रादि देव ज्योति-चक्र को लाँघकर अपने शरीर के आभूषणों की किरणों से आकाश को प्रकाशित करते हुए जा रहे थे।