प्रश्न-जम्बूद्वीप कहाँ है ?
उत्तर-इस मध्यलोक में असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। उन सबके बीचोंबीच में यह जंबूद्वीप नाम का द्वीप है।
प्रश्न-यह कैसा है ?
उत्तर-यह थाली के समान गोल है। एक लाख योजन विस्तृत है। इसकी जगती (परकोटा) ८ योजन ऊँची है। नीचे बारह योजन चौड़ी है, घटते-घटते ऊपर में ४ योजन चौड़ी रह गई है।
इस जगती के उपरिम भाग पर ठीक बीच में दिव्य सुवर्णमय वेदिका है। यह दो कोश ऊँची और पांच सौ धनुष चौड़ी है। वेदी के दोनों पार्श्व भागों में उत्तम वापियों से संयुक्त वन खण्ड है। वेदी के अभ्यंतर भाग में महोरग जाति के व्यंतर देवों के नगर हैं। इन व्यंतर नगरों के भवनों में अकृत्रिम जिनमन्दिर शोभित हैं।
प्रश्न-इस परकोटे में कितनी गुफायें हैं ?
उत्तर-इसमें चौदह महागुफायें हैं, जिनसे गंगा-सिंधु आदि चौदह नदियां निकलकर लवण समुद्र में प्रवेश करती हैं।
प्रश्न-इस जगती में कितने द्वार हैं ?
उत्तर-इसमें पूर्व आदि दिशाओं में क्रम से विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित ऐसे चार गोपुर द्वार हैं। ये आठ महायोजन ऊंचे हैं और चार महायोजन विस्तृत हैं। सब गोपुर द्वारों में सिंहासन, तीन छत्र, भामंडल और चामर आदि से युक्त जिनप्रतिमायें स्थित हैं। ये द्वार अपने-अपने नाम के व्यंतर देवों से रक्षित हैं।
प्रश्न-इस जंबूद्वीप में कितने पर्वत हैं ?
उत्तर-इसमें तीन सौ ग्यारह पर्वत हैं। जिनमें १ मेरु, ६ कुलाचल, ४ गजदंत, १६ वक्षार, ३४ विजयार्ध, ३४ वृषभाचल, ४ नाभिगिरि, ४ यमकगिरि, ८ दिग्गजेन्द्र और २०० कांचनगिरि हैं।
प्रश्न-ये सब कहां-कहां हैं ?
उत्तर-जंबूद्वीप के बीचोंबीच में सुमेरु पर्वत है। इसमें दक्षिण भाग से लेकर पूर्व-पश्चिम लंबे ऐसे हिमवान् आदि ६ कुलाचल हैं। मेरू की विदिशा में ४ गजदंत हैं, विदेहक्षेत्र में १६ वक्षार हैं। ३२ विदेह के मध्य और भरत-ऐरावत क्षेत्र के मध्य ऐसे ३४ विजयार्ध हैं। प्रत्येक छह खण्ड के मध्यम म्लेच्छ खण्ड में ३४ वृषभाचल हैं। हैमवत, हरि, रम्यक और हैरण्यवत इनमें बीचोंबीच में १-१ नाभिगिरि, ऐसे ४ नाभिगिरि हैं। सीता-सीतोदा के प्रारम्भिक मोड़ पर दोनों पाश्र्व भाग में ऐसे ४ यमकगिरि हैं। इन दोनों नदियों के आगे विदेहक्षेत्र में मेरु की प्रदक्षिणा के दोनों मोड़ पर आजू-बाजू दोनों तरफ दो-दो पर्वत होने से ४-४ ऐसे ८ दिग्गजेन्द्र हैं। सीता-सीतोदा नदी के १०-१० सरोवरों के दोनों तटों पर ५-५ होने से ऐसे २०० कांचनगिरि हैं।
प्रश्न-इस द्वीप में कितनी नदियां हैं ?
उत्तर-सत्रह लाख बानवे हजार नब्बे नदियां हैं।
प्रश्न-कर्मभूमि कितनी हैं ?
उत्तर-१ भरत की, १ ऐरावत की और ३२ विदेह की, ऐसी ३४ कर्मभूमि हैं।
प्रश्न-भोगभूमि कितनी हैं ?
उत्तर-६ भोगभूमि हैं।
प्रश्न-कितने मुख्य वृक्ष हैं ?
उत्तर-जंबू और शाल्मली ऐसे २ महावृक्ष हैं ।
प्रश्न-आर्यखण्ड कितने हैं ?
उत्तर-३४ आर्यखण्ड हैं।
प्रश्न-म्लेच्छ खण्ड कितने हैं।
उत्तर-१७० म्लेच्छ खण्ड हैं।
प्रश्न-कूट कितने हैं ?
उत्तर-५६८ वूâट हैं।
प्रश्न-जिनमन्दिर कितने हैं ?
उत्तर-७८ हैं।
प्रश्न-ये कहां-कहां हैं ?
उत्तर-सुमेरु के १६, गजदंत के ४, जंबू शाल्मली वृक्ष के २, वक्षार के १६, विजयार्ध के ३४ और कुलाचल के ६ ऐसे ७८ होते हैं।
इन जिनचैत्यालयों को मेरा बारम्बार नमस्कार होवे।
प्रश्न-इस जंबूद्वीप के बाहर क्या है ?
उत्तर-इसको चारों तरफ से वेष्टित करके लवणसमुद्र है जो कि २ लाख योजन है। इसके आगे धातकीखण्ड, इसके आगे कालोदधि, इसके बाहर पुष्करार्ध द्वीप आदि ऐसे-ऐसे असंख्यातों द्वीप-समुद्र हैं जो कि पूर्व-पूर्व को वेष्टित किए हुए हैं।
सुमेरुपर्वत
प्रश्न-सुमेरु पर्वत कहां है ?
उत्तर-जंबूद्वीप में सात क्षेत्र हैं-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत। इनमें विदेहक्षेत्र बीच में आ जाता है। इस विदेह के ठीक बीच में सुमेरुपर्वत स्थित है।
प्रश्न-जंबूद्वीप कहां है ?
उत्तर-इस मध्यलोक में असंख्यात द्वीप समुद्र हैं जो कि एक दूसरे को वेष्ठित किए हुए हैं। इनमें सर्वप्रथम द्वीप का नाम जंबूद्वीप है। इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में ही हम लोग रहते हैं।
प्रश्न-क्या यह सुमेरुपर्वत पृथ्वीतल पर ही है ?
उत्तर-हां, यह पर्वत पृथ्वीतल पर ही है।
प्रश्न-इसकी ऊँचाई और चौड़ाई का प्रमाण क्या है ?
उत्तर– यह पर्वत एक लाख चालीस योजन १ ऊँचा है। इसकी नींव पृथ्वी के अन्दर १ हजार योजन की है अतः ऊपर में यह ९९००० योजन ऊँचा है इसकी चूलिका ४० योजन प्रमाण है। नींव के तल में इसका विस्तार १००९०१०/११ योजन है। पृथ्वी के ऊपर इसका विस्तार १०००० योजन है। आगे घटते-घटते चूलिका के अग्रभाग में इसका विस्तार ४ योजन मात्र रह गया है।
पृथ्वी पर जहां पर इसका विस्तार १०००० योजन है वहीं पर इस पर्वत के चारों ओर में भद्रशाल वन स्थित है। इस भद्रशाल वन में ५०० योजन ऊपर जाकर नंदनवन आता है। यह नंदनवन मेरु के चारों ओर ५०० योजन प्रमाण है अर्थात् मेरु में अंदर भाग में ५०० योजन की कटनी है इसी का नाम नंदनवन है। नंदनवन में ६२५०० योजन ऊपर जाकर सौमनस वन है यह वन भी ५०० योजन विस्तार वाला है। इससे ऊपर ३६००० योजन जाकर पांडुकवन है। यह पांडुकवन नाम की कटनी ४९४ योजन विस्तृत है। इसके ठीक मध्य में ४० योजन ऊँची चूलिका है, जिसका विस्तार पांडुकवन में १२ योजन, मध्य में ८ योजन और अग्रभाग में ४ योजन मात्र है।
इस पर्वत में हानि का क्रम-यह सुमेरु पर्वत पृथ्वीतल पर १०००० योजन विस्तृत है। इसके विस्तार में ११ प्रदेश के ऊपर १ प्रदेश घट गया है। ऐसे ही पांडुकवन तक घटता गया है अर्थात् जैसे ११ प्रदेश ऊपर जाने पर १ प्रदेश घटता है, वैसे ही ११ अंगुल जाने पर १ अंगुल घटा है, ११ हाथ जाने पर १ हाथ घटा है और ११ योजन ऊपर जाने पर १ योजन घट जाता है। इतनी इसमें विशेषता है कि जब नंदनवन की कटनी अन्दर की ओर ५०० योजन प्रमाण की हो गई है तब नंदनवन से ऊपर ११००० योजन तक यह पर्वत समवृत्त रहा है अर्थात् इतने योजन तक ११ प्रदेश पर १ प्रदेश घटने का क्रम नहीं रहा है। ऐसे ही सौमनस वन भी ५०० योजन का होने से उसके ऊपर भी ११००० योजन तक समान रहा है इसके बाद घटने का क्रम बना है।
प्रश्न-इस सुमेरु पर्वत का वर्ण कैसा है ?
उत्तर-यह पर्वत मूल में-नींव में १ हजार योजन प्रमाण वङ्कामय है। पृथ्वीतल से लेकर ६१ हजार योजन पर्यन्त उत्तम रत्नमय है अर्थात् नाना रत्नों से निर्मित नाना वर्णमय है। आगे ३८००० योजन तक सुवर्णमय है और इसकी चूलिका नीलमणि से बनी हुई है।
प्रश्न-इस पर्वत में जिनमन्दिर कहां-कहां हैं ?
उत्तर-भद्रशाल वन में चारों ही दिशाओं में चार जिनमन्दिर हैं। नंदनवन में चारों ही दिशाओं में एवं पांडुकवन की चारों ही दिशाओं में चार जिनमन्दिर होने से कुल १६ जिनमन्दिर हो जाते हैं।
भद्रसाल के जिनमन्दिर का विस्तार २०० कोश, लम्बाई ४०० कोश और ऊँचाई ३०० कोश प्रमाण है। यही प्रमाण नंदनवन के चारों चैत्यालयों का है। सौमनवन के मन्दिरों का प्रमाण इनसे आधा है अर्थात् विस्तार १०० कोश, लम्बाई २०० कोश और ऊंचाई १५० कोश है। पांडुकवन के जिनमन्दिर इससे भी अर्धप्रमाण वाले हैं अर्थात् विस्तार ५० कोश, लम्बाई १०० कोश और ऊंचाई ७५ कोश प्रमाण है।
पांडुकवन के जिनमन्दिर के प्रमुख द्वार की ऊंचाई १६ कोश, विस्तार ८ कोश है। मन्दिर के दक्षिण-उत्तर के द्वारों का प्रमाण इससे आधा होता है। ये तीनों ही द्वार दिव्य तोरण स्तम्भों से संयुक्त हैं। ये जिनमन्दिर कुन्दपुष्प सदृश धवल मणियों से निर्मित हैं। इनके दरवाजे कर्वेâतन आदि मणियों से निर्मित वङ्कामयी हैं।
जिनमंदिर के मध्य में स्फटिक मणिमय १०८ उन्नत सिंहासन हैं। उन सिंहासनों पर ५०० धनुष१ प्रमाण ऊंची १०८ जिनप्रतिमायें विराजमान हैं जो कि अनादि अनिधन हैं, अकृत्रिम हैं, इन जिनप्रतिमाओं मेें से प्रत्येक जिनप्रतिमा के आजू-बाजू में श्रीदेवी, श्रुतदेवी तथा सर्वाण्हयक्ष व सनत्कुमार यक्षों की मूर्तियां रहती हैं। प्रत्येक जिनप्रतिमा के निकट भृंगार, कलश, दर्पण, चंवर, ध्वजा, बीजना, छत्र और सुप्रतिष्ठ ये ८ मंगलद्रव्य प्रत्येक १०८-१०८ होते हैं। इन जिनमंदिरों में सुवर्ण, मोती आदि की मालाएं लटकती रहती हैं। धूपघट, मंगलघट आदि के प्रमाण अलग-अलग बताये हुए हैं। इन अकृत्रिम जिनमंदिरों का विस्तृत वर्णन त्रिलोकसार, तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रन्थों से समझना चाहिए।
प्रश्न-भद्रशाल, नन्दन आदि को वन संज्ञा क्यों है ?
उत्तर-इन वनों में कर्पूर, तमाल, ताल, कदली, लवंग, दाडिम, पनस, सप्तच्छद, मल्ली, चंपक, नारंगी, मातुलिंग, पुनाग, नाग, कुब्जक, अशोक आदि वृक्ष सुशोभित हो रहे हैं। इन वनों में अनेक पुष्करिणी, वापिका आदि हैं। देवों के क्रीड़ागृह बने हुए हैं और अनेक वूâट, देव भवन आदि से रमणीय हैं। वहां पर देवगण, विद्याधर आदि सतत क्रीड़ा किया करते हैं। चारणऋद्धिधारी मुनिगण भी वहां विचरण करते रहते हैं।
प्रश्न-तीर्थंकर शिशु का जन्माभिषेक इस पर्वत पर कहां होता है ?
उत्तर-इस पर्वत के पांडुकवन में चारों दिशाओं में तो चार जिनमंदिर हैं और चारों विदिशाओं में चार शिलायें हैं जिनके नाम पांडुकशिला, पांडुवंâबला, रक्ता शिला और रक्तवंâबला हैं। ईशान दिशा में पांडुकशिला है, आग्नेय दिशा में पांडुकम्बला शिला है, नैऋत्य दिशा मेें रक्ता शिला है और वायव्य दिशा में रक्तकम्बला है।
पांडुकशिला १०० योजन लम्बी, ५० योजन विस्तृत अर्धचन्द्राकार है। यह ८ योजन ऊंची है ऊपर समवृत्ताकार है और वनवेदी आदि से संयुक्त है। इस शिला के मध्य भाग में उन्नत सिंहासन है। इसके दोनों तरफ एक-एक भद्रासन है। ये सिंहासन ५०० धनुष ऊंचे हैं। धवल छत्र, चामर, घन्टादि मंगलद्रव्यों से संयुक्त हैं और पूर्वाभिमुख हैं। सभी शिलायें इसी प्रकार हैं। मध्यलोक में भरतक्षेत्र में जब तीर्थंकर का जन्म होता है तब सौधर्म इन्द्र आदि स्वर्ग से आकर तीर्थंकर कुमार को बहुत ही वैभव के साथ ले जाकर मेरु की प्रदक्षिणा देते हुए पांडुक शिला के ऊपर स्थित मध्य के सिंहासन पर शिशु-भगवान को विराजमान करते हैं। सौधर्म इन्द्र दायीं ओर के भद्रासन पर और ईशानेंद्र बायीं ओर के भद्रासन पर स्थित होकर भगवान के जन्माभिषेक की क्रिया सम्पन्न करते हैं।
पांडुकशिला पर भरतक्षेत्र के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। पांडुकम्बला शिला पर पश्चिम विदेह के तीर्थंकरों का अभिषेक होता है। रक्ता शिला पर ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों का एवं रक्तकम्बला शिला पर पूर्व विदेहक्षेत्र के तीर्थंकरों का अभिषेक होता है।
आज तक इस जंबूद्वीप के भरत-ऐरावत और पूर्वविदेह-पश्चिम विदेह में अनंतों तीर्थंकर हो चुके हैं। उन सभी के जन्माभिषेक का पुण्य अवसर इस सुमेरुपर्वत को ही प्राप्त हुआ है अतएव यह सुमेरुपर्वत महातीर्थ हो चुका है, महान् पवित्रता को प्राप्त है और अपने दर्शन, वंदन करने वालों को भी पवित्र करने वाला है।
यह पर्वत तीनों लोकों और तीनों कालों में सबसे ऊंचा है, इसके समान अन्य कोई पर्वत न हुआ है और न होगा ही। सूर्य, चन्द्रमा आदि ज्योतिषीदेव भी सदा इस पर्वत की
प्रदक्षिणा किया करते हैं।
प्रश्न-इस पर्वत का दर्शन आज के युग में हम लोगों को हो सकता है क्या ?
उत्तर-आज के युग में हम लोगों के वहां तक पहुंचने की शक्ति नहीं है। यह पर्वत हमारे यहां से लगभग २० करोड़ मील की दूरी पर है। आज हम और आप इस पर्वत के चैत्यालयों की, उनमें विराजमान जिनप्रतिमाओं की परोक्ष में ही वंदना कर सकते हैं और इन पांडुक आदि शिलाओं की भी परोक्ष में ही वंदना करके महान पुण्य संचय कर सकते हैं, इसमें किञ्चित् भी संदेह नहीं है।
जम्बूवृक्ष कहां है ?
प्रश्न-जम्बूवृक्ष कहां है ?
उत्तर-यह जम्बूवृक्ष उत्तरकुरु नामक उत्तम भोगभूमि में स्थित है।
प्रश्न-यह उत्तरकुरु भोगभूमि कहां है ?
उत्तर– इस जम्बूवृक्ष में सात क्षेत्र में मध्य के क्षेत्र का नाम विदेह है। यह ३३,६८४ योजन प्रमाण विस्तृत है। इसके बीचोंबीच में सुमेरु पर्वत है। इस सुमेरु पर्वत की विदिशाओं में हाथी दांत के सदृश, अनादिनिधन, महारमणीय गजदन्त नाम से प्रसिद्ध चार पर्वत हैं। तिरछे रूप से लंंबे ये चारों पर्वत निषध, नील और मेरू से संलग्न हैं। मेरूपर्वत के ईशान कोण में माल्यवान् पर्वत है, आग्नेय में सौमनस्य, नैऋत्य में विद्युत्प्रभ और वायव्य में गन्धमादन पर्वत है। आग्नेय और नैऋत्य विदिशा के गजदन्त मेरु के पास ५०० योजन ऊंचे हैं, आगे आकर निषध पर्वत के पास ४०० योजन ऊंचे रह गये हैं। ऐसे ही ईशान और वायव्य के गजदंत पर्वत मेरु के पास ५०० योजन एवं नील पर्वत के पास ५०० योजन ऊंचे हैं। ये चारों पर्वत सर्वत्र ५०० योजन चौड़े हैं। इनकी लम्बाई ३०२०९ ६/१९ योजन प्रमाण है। माल्यवान् पर्वत पर नववूâट हैं, सौमनस्य पर सात हैं, विद्युत्प्रभ पर नव हैं एवं गन्धमादन पर सात कूट हैं। इन चारों पर्वत पर मेरु के निकट वाले कूट का नाम सिद्धकूट है, उनमें जिनमंदिर हैं, शेष कूटों में देव-देवियों के भवन बने हुए हैं। दोनों गजदंत से निषध-नील पर्वत के पास का अन्तराल ५३००० योजन है।
मेरु की तलहटी में भद्रसाल वन है। उसके आगे वेदी है। इस भद्रसाल वेदी से निषध पर्वत तक क्षेत्र का विस्तार ११५९२२/१० योजन है। इसी क्षेत्र का नाम देवकुरु है। ऐसे ही उधर के मेरु पर्वत के उत्तर में नील पर्वत के दक्षिण में और गजदन्तों के पूर्व, पश्चिम में बीच के क्षेत्र का नाम ‘उत्तरकुरु’ है। इन देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्रों में उत्तम भोगभूमि की रचना है जो कि शाश्वत है। इस उत्तरकुरु में ईशान दिशा में ‘जम्बूवृक्ष’ है और ‘देवकुरु’ में नैऋत्यकोण मेंं ‘शाल्मलीवृक्ष’ है।
प्रश्न-यह जम्बूवृक्ष कैसा है ?
उत्तर-मेरू की ईशान दिशा में ५०० योजन विस्तार वाला एक स्वर्णमय चबूतरा है। इसके मध्य में तीन कटनियां बनी हुई हैं। पहली कटनी १२ योजन, दूसरी ८ योजन, तीसरी ४ योजन की है, इनकी ऊंचाई ८ योजन है। इस स्थल के बहुमध्य भाग में ‘जम्बूवृक्ष’ है। यह ८ योजन ऊंचा है। इसकी वङ्कामय जड़ दो कोस गहरी है। इस वृक्ष का दो कोश मोटा, दो योजन मात्र ऊंचा स्कन्ध है। इस वृक्ष की चारों दिशाओं में चार महाशाखायें हैं। इनमें से प्रत्येक शाखा ६ योजन लम्बी है और इतने मात्र अन्तर से सहित है। इनके सिवाय क्षुद्र शाखायें अनेकों हैं। यह वृक्ष पृथ्वीकायिक है, जामुन के समान इसमें फल लटकते हैं। इसके पत्ते मरकतमणि के बने हुए हैं जो कि हवा के झकोरे से हिलते रहते हैं इसीलिए इसका ‘जम्बूवृक्ष’ नाम सार्थक है क्योंकि ‘जामुन’ को संस्कृत में ‘जम्बू’ कहते हैं।
प्रश्न-इस वृक्ष पर जिनमंदिर कहां है ?
उत्तर-जम्बूवृक्ष की उत्तरी शाखा पर अकृत्रिम जिनमंदिर बना हुआ है। यह मन्दिर १ कोश लम्बा, अर्धकोश चौड़ा और पौन कोश ऊंचा है। इसमें १०८ जिनप्रतिमायें विराजमान हैं। शेष तीन दिशाओं की तीन शाखाओं पर आदर-अनादर नामक व्यंतर देवों के भवन बने हुए हैं।
प्रश्न-जम्बूवृक्ष के परिवार वृक्ष कहां है ?
उत्तर-इस जम्बूवृक्ष के चारों तरफ गोपुर द्वारों से युक्त उत्तम रत्नों से सुशोभित बारह दिव्य वेदियाँ हैं। ये वेदियां दो कोश ऊंची और पांच सौ धनुष चौड़ी हैं। इन्हें पद्म वेदिका भी कहते हैं। इन वेदियों के मध्य उपवन खण्ड, वापी, पुष्करिणी, पुष्पलतायें आदि मनोरम स्थल हैं। इन वेदिकाओं के अन्तराल में ही १४०११९ प्रमाण परिवार वृक्ष हैं। ये सभी परिवार वृक्ष अपने मूलवृक्ष से आधे प्रमाण वाले हैं, ये सभी भी अनादिनिधन, महारमणीय, पृथ्वीकायिक रत्नों से निर्मित हैं। इन सबकी उत्तरी शाखा पर भी एक-एक जिनमंदिर है और अन्य शाखाओं के भवनों पर परिवार देव रहते हैं। इस जम्बूवृक्ष के निमित्त से ही इस द्वीप का ‘जम्बूद्वीप’ यह सार्थक नाम प्रसिद्ध है।
प्रश्न-यह जम्बूवृक्ष ‘उत्तरकुरु’ में है। ऐसे ही देवकुरु में शाल्मली वृक्ष है, उसका वर्णन वैâसा है ?
उत्तर-उस शाल्मलीवृक्ष का सारा वर्णन जम्बूवृक्ष के सदृश ही है। उस वृक्ष की दक्षिणी शाखा पर जिनमंदिर है। उस वृक्ष के भी इतने ही परिवार वृक्ष हैं, जिन सभी पर जिनमंदिर हैं। उसके मूलवृक्ष की तीन शाखाओं पर वेणु और वेणुधारी नाम के व्यंतर देवों के भवन बने हुए हैं, ये सभी देव सम्यग्दृष्टियों पर प्रेम करने वाले हैं, ऐसा आगम में कहा है।
विदेहक्षेत्र कहां है ?
प्रश्न-विदेहक्षेत्र कहां है ?
उत्तर-थाली के समान गोल और १ लाख योजन विस्तृत इस जम्बूद्वीप में दक्षिण से लेकर उत्तर तक क्रमशः सात क्षेत्र माने गये हैं-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत। यह मध्य का विदेहक्षेत्र ३३६८४ योजन प्रमाण विस्तृत है। इसके ठीक बीच में सुदर्शन मेरु पर्वत स्थित है। इस निमित्त विदेहक्षेत्र के पूर्वविदेह और पश्चिमविदेह ऐसे दो भेद हो जाते हैं। सुदर्शन मेरु की चौड़ाई भूमि पर १०००० योजन है। वहां भूमि पर चारों ही दिशा में भद्रसाल वन है, इस भद्रसाल वन की वेदिका से दक्षिण-उत्तर में तो देवकुरु-उत्तरकुरु भोगभूमि हैं और पूर्व-पश्चिम में विदेहक्षेत्र हैं। विदेहक्षेत्र के दक्षिण-उत्तर में क्रम से निषध और नील पर्वत स्थित हैं। नीलपर्वत के केसरी नामक सरोवर के दक्षिणद्वार से सीता नामक उत्तम नदी निकलती है। यह पर्वत से नीचे सीता कुण्ड में गिरकर दक्षिण मुख होती हुई दो कोश प्रमाण से मेरु पर्वत को छोड़कर पूर्व की ओर मुड़ जाती है और माल्यवंत गजदन्त पर्वत की दक्षिण मुख वाली गुफा में प्रवेश करके गुफा के बाहर निकलकर कुटिल रूप से मेरु पर्वत के मध्यभाग तक जाकर उसे अपना मध्य प्रदेश करके यह सीता नदी पूर्व विदेह के ठीक बीच में बहती हुई जम्बूद्वीप के अन्त में पूर्व लवण समुद्र में प्रवेश कर जाती है। ऐसे ही निषध पर्वत के तिगिञ्छ सरोवर के उत्तर द्वार से सीतोदा महानदी निकलती है। यह उत्तर मुख होकर निषध पर्वत से नीचे सीतोदाकुण्ड में गिरकर उसके उत्तर तोरणद्वार से निकलकर मेरु पर्वत से दो कोस इधर ही रहकर पश्चिम में मुड़ जाती है, पुनः कुटिल रूप से बहती हुई विद्युत्प्रभ गजदन्त पर्वत की गुफा द्वार में प्रवेश कर आगे निकलकर मेरु के मध्यभाग को अपना मध्य प्रणिधि बनाकर वह सीतोदा नदी पश्चिम विदेह के मध्य में बहती हुई जम्बूद्वीप के अन्त में पश्चिम लवण समुद्र में प्रवेश कर जाती है। इस प्रकार से इन सीता-सीतोदा नदी के निमित्त से उन-उन पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह में भी दक्षिण-उत्तर ऐसे दो-दो भेद हो जाते हैं।
प्रश्न-इस जम्बूद्वीप में कुल विदेह कितने हैं ?
उत्तर-यहां पर कुल विदेह ३२ हैं।
प्रश्न- जम्बूद्वीप में विदेह की संख्या विस्तार से बताइए ?
उत्तर-सुनिये, मेरु पर्वत से पूर्व दिशा में २२००० योजन विस्तृत भद्रसाल वन है। इसकी समाप्ति पर एक तटवेदी है जो बाउन्ड्रीवाल के समान है।
इस वेदिका से आगे २२१२७/८ योजन पूर्वापर विस्तृत विदेह देश है। इसके आगे ५०० योजन विस्तृत वक्षार पर्वत है पुनः पूर्ववत् विस्तृत विदेह है पुनः विभंगा नदी है। इसके आगे क्षेत्र है पुनः वक्षार पर्वत है। ऐसे ही क्रम से एक भद्रसाल वेदी, चार वक्षार पर्वत, तीन विभंगा नदियां और पुनः एक वेदी है जिसके बाद देवारण्य-भूतारण्य वन हैं। इस प्रकार से २ वेदी, ४ वक्षार और ३ विभंगा नदियां, इन नव के अंतराल में आठ क्षेत्र हो गये हैं। यह व्यवस्था पूर्व विदेह के सीता नदी के उत्तर ओर की है ऐसे ही सीता नदी के दक्षिण भाग में भी दो तटवेदी, चार वक्षार और तीन विभंगा नदियों से आठ विदेह हो गये हैं। यही व्यवस्था पश्चिम विदेह में सीतोदा नदी के दक्षिण-उत्तर भाग में कही गई है। इसलिए (८±८±८±८·३२) कुल मिलाकर बत्तीस विदेह देश हो जाते हैं।
प्रश्न-इन विदेह क्षेत्रों के नाम क्या हैं ?
उत्तर-सीता नदी के उत्तर भाग के ८ विदेहों के नाम क्रम से कच्छा, सुकच्छा, महाकच्छा, कच्छकावती, आवर्ता, लांगलावर्ता, पुष्कला और पुष्कलावती है। सीता नदी के दक्षिण भाग के विदेह के नाम-वत्सा, सुवत्सा, महावत्सा, वत्सकावती, रम्या, सुरम्यका, रमणीया, मंगलावती हैं। ऐसे पश्चिम विदेह में सीतोदा नदी के दक्षिण भाग में पद्मा, सुपद्मा, महापद्मा, पद्मकावती, शंखा, नलिना, कुमुदा और सरिता ये आठ देश हैं। ऐसे ही सीतोदा नदी के उत्तर भाग में वप्रा, सुवप्रा, महावप्रा, वप्रकावती, गंधा, सुगंधा, गंधिला और गंधमालिनी ये आठ क्षेत्र हैं, इस प्रकार से कुल ३२ विदेहक्षेत्र हैं।
प्रश्न-इन विदेह क्षेत्रों में क्या व्यवस्था है ?
उत्तर-इन विदेहों में प्रत्येक में छह खण्ड की व्यवस्था है। प्रत्येक कक्षा आदि क्षेत्र में क्षेत्र विस्तार के सदृश लम्बे विजयार्ध पर्वत हैं अर्थात् २२१२२/१९ योजन लम्बे और ५० योजन विस्तृत ३२ विजयार्ध हैं। इन प्रत्येक विजयार्ध के उत्तर-दक्षिण दोनों श्रेणियों में ५५-५५ विद्याधर नगरियां हैं जहां नित्य ही विद्याधर निवास करते हैं।
प्रत्येक क्षेत्र में निषध पर्वत के उत्तर की ओर दो कुण्ड स्थित हैं। इनसे गंगा-सिंधु नामक दो नदियां निकलती हैं जो कि वत्सा आदि क्षेत्र में जाती हुई विजयार्ध के गुफा द्वार से निकलकर वत्सा आदि क्षेत्र में बहती हुई सीता नदी में प्रविष्ट हो जाती हैं। ऐसे नील पर्वत में दक्षिण की ओर दो-दो कुण्ड हैं जिनसे रक्ता-रक्तोदा नदियां निकलकर सीता नदी में मिल जाती हैं। ऐसे ही पश्चिम विदेह में भी दो-दो नदियां सीतोदा नदी में प्रविष्ट हो जाती हैं। इस प्रकार प्रत्येक विदेह में छह-छह खण्ड हो जाते हैं, जिनमें से एक आर्यखण्ड है और पांच म्लेच्छ खण्ड हैं।
प्रश्न-विदेह क्षेत्र के आर्यखण्ड की व्यवस्था कैसी है ?
उत्तर-प्रत्येक आर्यखण्ड के मध्य में १-१ राजधानी है। उनके क्षेमा, क्षेमपुरी, अरिष्टा, अरिष्टपुरी आदि नाम हैं। ये प्रत्येक नगरियां दक्षिण-उत्तर में बारह योजन लम्बी पूर्व-पश्चिम में नव योजन विस्तृत हैं, सुवर्णमय परकोटे से वेष्टित हैं, ये नगरियां एक हजार गोपुर द्वारों से, पांच सौ अल्प द्वारों से तथा रत्नों के विचित्र कपाटों वाले सात सौ क्षुद्र द्वारों से युक्त हैं। इनमें एक हजार चतुष्पथ और बारह हजार रथ मार्ग हैं, ये अविनश्वर नगरियां अन्य किसी के द्वारा निर्मित नहीं हैं-अकृत्रिम हैं।
प्रश्न-वहां पर आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन होता है क्या ?
उत्तर-नहीं, विदेहों में शाश्वत कर्मभूमि है। वहां पर सदा ही चतुर्थकाल की आदि जैसा परिणमन चलता रहता है।
प्रश्न-वहां पर तीर्थंकर आदि महापुरुष कब-कब जन्मते हैं ?
उत्तर-वहां पर तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव आदि महापुरुष हमेशा उत्पन्न होते रहते हैं। सीमंधर आदि विहरमाण तीर्थंकर वहां सतत विहार किया करते हैं। ये तीर्थंकर पांच कल्याणक से सहित होते हैं। वहां विदेह क्षेत्रों में कोई-कोई मनुष्य वहीं पर जन्म लेकर गृहस्थावस्था में तीर्थंकर के पादमूल में तीर्थंकर प्रकृति बांधकर दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण ऐसे तीन कल्याणक को प्राप्त कर लेते हैं और कोई-कोई यदि मुनि होकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते हैं तो उनके ज्ञान और निर्वाण ऐसे दो ही कल्याणक होते हैं। वहां पर प्रत्येक मनुष्य की उत्कृष्ट आयु पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण है और शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना पांच सौ धनुष प्रमाण है।
प्रश्न-वहां पर वर्ण व्यवस्था आदि कैसी है ?
उत्तर-विदेहों में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन ही वर्ण होते हैं, ब्राह्मण वर्ण नहीं होता है। वहां पर परचक्र का प्रकोप, अन्याय, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ईति, भीति, भूकम्प आदि आतंक नहीं होते हैं। आज भी वहां से मनुष्य कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।
इस प्रकार से यह विदेहक्षेत्र इसी जम्बूद्वीप में है, पृथ्वीतल पर है और यहां से लगभग ३४ हजार योजन की दूरी पर है ऐसा समझना।
भोगभूमि कहां है ?
प्रश्न-भोगभूमि कहां है ?
उत्तर-इस जम्बूद्वीप में दक्षिण उत्तर चौड़े और पूर्व-पश्चिम लम्बे हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी ऐसे छः कुलाचल पर्वत हैं। भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ऐसे सात क्षेत्र हैं। इनमें से प्रथम भरतक्षेत्र और अंतिम ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में कर्मभूमि है। द्वितीय हैमवत क्षेत्र और छठे हैरण्यवत क्षेत्र में जघन्य भोगभूमि है। तृतीय क्षेत्र हरि और पंचम क्षेत्र रम्यक में मध्यम भोगभूमि है। विदेह के मध्य में सुमेरू पर्वत है। इस सुमेरू की चारों विदिशाओं में एक-एक गजदंत पर्वत है जो कि एक तरफ से सुमेरू का स्पर्श करते हैं और दूसरी तरफ से निधष पर्वत या नील पर्वत से लगे हुए हैं। इस तरह से जो सुमेरू के दक्षिण में क्षेत्र हैं उसका नाम ‘देवकुरु’ है और सुमेरू से उत्तर मेें ‘उत्तरकुरु’ है। इन देवकुरु और उत्तरकुरु में उत्तम भोगभूमि है। इस प्रकार इस जम्बूद्वीप में २ जघन्य, २मध्यम और २ उत्तम ऐसी छः भोगभूमि हैं।
प्रश्न-इन भोगभूमियों में क्या-क्या चीजें हैं ?
उत्तर-इन भोगभूमियों में दश प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं जिनसे वहां के स्त्री-पुरुष अपने जीवन में सुख के लिए उपयोगी सामग्री प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न-ये दश प्रकार के कल्पवृक्ष कौन-कौन से हैं ?
उत्तर-ये पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और ज्योतिरंग नाम को धारण करने वाले कल्पवृक्ष अपने नाम के अनुरूप ही सामग्री प्रदान करते हैं। पानांग जाति के कल्पवृक्ष भोगभूमिया मनुष्यों को मधुर सुस्वादु बत्तीस प्रकार के पेय द्रव्य देते हैं। तूर्यांग कल्पवृक्ष उत्तम वीणा आदि वादित्रों को देते हैं। भूषणांग कल्पवृक्ष कंकण आदि भूषणों को, वस्त्रांग कल्पवृक्ष चीनपट्ट आदि वस्त्रों को, भोजनांग कल्पवृक्ष नाना प्रकार के आहार, व्यंजन, खाद्य, स्वाद्य आदि भोज्य पदार्थों को, आलयांग कल्पवृक्ष स्वस्तिक, नंद्यावर्त आदि सोलह प्रकार के दिव्य भवनों को, दीपांग कल्पवृक्ष शाखा, प्रवाल, फल, फूल और अंकुरादि के द्वारा जलते हुए दीपकों को, भोजनांग कल्पवृक्ष सुवर्ण निर्मित झारी, कलश आदि भाजनों को, मालांग कल्पवृक्ष बेल, तरु और लताओं से उत्पन्न हुए सोलह हजार भेदरूप पुष्पों की मालाओं को और ज्योतिरांग कल्पवृक्ष करोड़ों सूर्यों की किरणों के समान होते हुए सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिषी देव विमानों की कांति का संहरण करने वाले प्रकाश को देते हैं। ये सब कल्पवृक्ष न वनस्पति ही हैं और न कोई व्यंतर देव ही हैं। इनकी विशेषता यही है कि ये सब पृथ्वी रूप होते हुए जीवों को उनके पुण्य का फल देते हैं। वहां के मनुष्य कल्पवृक्षों से प्राप्त हुई वस्तुओं को ग्रहण करके और विक्रिया से बहुत प्रकार के शरीरों को बनाकर अनेक प्रकार के भोगों को भोगते हैं। यहां के मनुष्य इन्द्र के सदृश सुन्दर और स्त्रियाँ अप्सराओं के सदृश सुन्दर होती हैं।
प्रश्न-भोगभूमि में तिर्यंच हैं या नहीं ?
उत्तर-वहां पर पंचेन्द्रिय होते हैं, गाय, सिंह, हाथी, मगर, हरिण, भैंस, बंदर, हंस, कबूतर आदि जीव परस्पर में वैरभाव से रहित होते हैं। वहां के पशु-पक्षी क्रूर परिणामी हिंसक व मांसाहारी नहीं हैं। सभी वहां निसर्गतः उत्पन्न हुई हरी घास खाते हैं।
प्रश्न-इन भोगभूमियों में परिवार व्यवस्था क्या है ?
उत्तर-वहां पर केवल युगल स्त्री, पुरुष ही होते हैं। संतान के जन्मते ही उनके माता-पिता मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, जिससे वहां पति-पत्नी के सिवाय अन्य परिवार भेद नहीं दिखता है।
प्रश्न-जघन्य, मध्यम और उत्तम भोगभूमि में क्या अन्तर है ?
उत्तर-जघन्य भोगभूमि में मनुष्यों की आयु एक पल्य है, शरीर की ऊंचाई एक कोस है। मध्यम भोगभूमि में आयु दो पल्य और शरीर की ऊंचाई दो कोश प्रमाण है, उत्तम भोगभूमि में आयु तीन पल्य और शरीर की ऊंचाई तीन कोश प्रमाण है।
प्रश्न-ये भोगभूमि कब तक रहती हैं ?
उत्तर-ये शाश्वत भोगभूमि हैं, हमेशा एक समान ही रहती हैं और अनंतकाल तक ज्यों की त्यों व्यवस्थित रहेंगी।
प्रश्न-पुनः अशाश्वत और परिवर्तनशील भोगभूमि कहां हैं ?
उत्तर-जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन होता है अतः इन्हीं दोनों में प्रथम काल में उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था है, द्वितीय काल में मध्यम भोगभूमि की एवं तृतीय काल में उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था रहती है, पुनः चतुर्थकाल में कर्मभूमि की व्यवस्था हो जाती है। आज यहां भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में पंचमकाल में कर्मभूमि की व्यवस्था चल रही है इसीलिए इन भोगभूमियों को अशाश्वत कहते हैं। इस प्रकार से जंबूद्वीप में छः शाश्वत भोगभूमि हैं और दो अशाश्वत भोगभूमि तीन काल में आ जाती हैं। धातकीखण्ड में १२ शाश्वत भोगभूमि हैं, पुष्करद्वीप में भी १२ हैं, कुल ढाई द्वीप संबंधी ३० भोगभूमि शाश्वत हैं। जंबूद्वीप के समान ही धातकीखण्ड में २ भरत, २ ऐरावत ऐसे ही पुष्करार्ध में २ भरत, २ ऐरावत क्षेत्र होने से वहां पर आर्यखण्ड के प्रथम आदि तीन काल में भोगभूमि की व्यवस्था हो जाती है पुनः निसर्गतः वह व्यवस्था समाप्त होकर कर्मभूमि की व्यवस्था बन जाती है।
प्रश्न-ये हैमवत आदि क्षेत्र कितने-कितने बड़े हैं ?
उत्तर-हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र २१०५५/१९ योजन है, हरि और रम्यक क्षेत्र ८४२११/१९ योजन है और देवकुरु-उत्तरकुरु भोगभूमि ११८४२१/१२ योजन है। यह योजन दो हजार कोश का है अर्थात् लगभग ४००० मील का है।
प्रश्न-इनमें कौन जन्म लेते हैं ?
उत्तर-जो मनुष्य तिर्यंच मंद कषायी हैं, आहारदान देते हैं या अनुमोदना करते हैं इत्यादि शुभ कार्यों से ये भोगभूमि में जन्म ले लेते हैं। इनका अधिक विस्तार आदिपुराण व तिलोयपण्णत्ति आदि से जानना चाहिए।
कर्मभूमि कहां कहां हैं ?
प्रश्न-इस जम्बूद्वीप में कर्मभूमि कहां-कहां हैं ?
उत्तर-इस जम्बूद्वीप में जो सात क्षेत्र हैं-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत। इनमें से भरतक्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में चतुर्थ, पंचम और छठे काल में कर्मभूमि की व्यवस्था रहती है।
प्रश्न-भरत और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में प्रथम, द्वितीय और तृतीय काल में क्या व्यवस्था होती है?
उत्तर-भरत, ऐरावत क्षेत्र में प्रथम, द्वितीय, तृतीय काल में उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। इन्हें अशाश्वत भोगभूमि कहते हैं। ऐसे ही यहां आर्यखण्ड में जो कर्मभूमि की व्यवस्था है वह भी अशाश्वत ही है।
प्रश्न-तो फिर शाश्वत कर्मभूमि कहां पर हैं ?
उत्तर-शाश्वत कर्मभूमि विदेहक्षेत्र में रहती हैं।
प्रश्न-विदेहक्षेत्र में कितनी जगह कर्मभूमि हैं ?
उत्तर-विदेहक्षेत्र में बीचोंबीच में सुदर्शनमेरु पर्वत है, जो कि दस हजार योजन विस्तार वाला है। विदेहक्षेत्र का कुल विस्तार ३३६८४४/१९ योजन प्रमाण है। मेरु की पूर्वदिशा में पूर्वविदेह और पश्चिम दिशा में पश्चिम विदेह है। पूर्वविदेह के बीच में सीता नदी है। पश्चिम विदेह के बीच में सीतोदा नदी है। इन दोनों नदियों के दक्षिण-उत्तर तट होने से चार विभाग हो जाते हैं। सीता नदी के उत्तर तट में भद्रसालवेदी है, उसके आगे वक्षार पर्वत, उसके आगे विभंगा नदी, उसके आगे वक्षार पर्वत, उसके आगे विभंगा नदी, उसके आगे वक्षार पर्वत, उसके आगे विभंगा नदी, उसके आगे वक्षार पर्वत, उसके आगे देवारण्य की वेदी है। ऐसे इन नव के अन्तराल में आठ विदेह देश हो जाते हैं। ऐसे ही सीता नदी के दक्षिण तरफ आठ विदेह देश हैं। इसी प्रकार से सीतोदा नदी के दक्षिण-उत्तर में भी आठ-आठ विदेह होने से कुल बत्तीस विदेह हो जाते हैं। प्रत्येक वक्षार पर्वत सुवर्णमय है, ५०० योजन विस्तृत और १६५९२ योजन लम्बे हैं। विभंगा नदियां निषध-नील पर्वत की तलहटी के वुंâड से निकलकर सीता-सीतोदा नदी में प्रवेश कर जाती हैं। ये विदेह देश पूर्व-पश्चिम में २२१२७/८ योजन विस्तृत हैं और दक्षिण-उत्तर में १६५९२२/१९ योजन लंबे हैं। इनके मध्य भाग में ५० योजन विस्तृत, २२१२ योजन लम्बा विजयार्ध पर्वत है। यह तीन कटनी वाला है, भरतक्षेत्र के विजयार्ध के समान है। इन विजयार्धों पर ९-९ वूâट हैं, १-१ में जिनचैत्यालय और प्रत्येक में देवभवन हैं। ऐसे ही वक्षार पर्वत पर भी ४-४ वूâट हैं, जिनमें १-१ चैत्यालय हैं और ३-३ देवभवन हैं।
इन विदेहक्षेत्रों में मध्य में विजयार्ध पर्वत है, निषध-नील पर्वत की तलहटी के पास बने हुए वुंâडों से गंगा-सिंधु नदियाँ निकलती हैं जो कि विजयार्ध की गुफाओं से बाहर आकर सीता-सीतोदा में प्रवेश कर जाती हैं। इस निमित्त से प्रत्येक क्षेत्र में छह-छह खण्ड हो जाते हैं। इनमें से सीता-सीतोदा नदी के तरफ के मध्य का आर्यखण्ड है, शेष पांच म्लेच्छ खण्ड हैं। इन आर्यखण्डों में कर्मभूमि की व्यवस्था है। वहां पर हमेशा उत्कृष्ट से ५०० धनुष ऊँचे अवगाहना वाले मनुष्य होते हैं। उनकी उत्कृष्ट आयु एक कोटिपूर्व वर्ष की होती है। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन वर्ण ही होते हैं, सतत मोक्षमार्ग चालू रहता है। वहां द्रव्य मिथ्यात्व नहीं है इसलिए कुदेव, कुलिंगी नहीं हैं और न उनके मंदिर ही हैं। इस प्रकार से यहां जम्बूद्वीप में ३२ विदेह हैं। ऐसे ही धातकीखण्ड में ६४ और पुष्करार्ध द्वीप में ६४ होकर १६० विदेह माने हैं। इनमें शाश्वत कर्मभूमि की व्यवस्था है जो कि अनादिनिधन है। हमेशा सीमंधर आदि तीर्थंकरों के जन्म होते रहते हैं। इस तरह से जम्बूद्वीप के बत्तीस विदेहों में बत्तीस कर्मभूमि होती हैं।
प्रश्न-अशाश्वत कर्मभूमि कितनी हैं ?
उत्तर-जम्बूद्वीप में अशाश्वत कर्मभूमि दो हैं। एक भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की, दूसरी ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड की। इन आर्यखण्डों में षट्काल परिवर्तन होता रहता है। काल के दो भेद हैं-अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी। अवसर्पिणी के ६ भेद हैं-सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमादुषमा, दुषमा-सुषमा, दुषमा और दुषमा-दुषमा। ऐसे ही उत्सर्पिणी के भी छह भेद हैं। इसमें दुषमा-दुषमा से शुरू होता है, अवसर्पिणी में आयु, शरीर की ऊँचाई आदि का ह्रास और उत्सर्पिणी में वृद्धि होती जाती है। यहां सुषमासुषमा नाम के प्रथम काल में उत्तम भोगभूमि की, द्वितीय काल में मध्यम भोगभूमि की और तृतीय काल में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था हो जाती है, पुनः चतुर्थकाल में कर्मभूमि की व्यवस्था प्रारंभ होती है। तीर्थंकर आदि महापुरुष जन्म लेते हैं। वर्तमान में यहां पर भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में पंचमकाल चल रहा है।
प्रश्न-यह आर्यखण्ड कितना बड़ा है ?
उत्तर-यह भरतक्षेत्र जंबूद्वीप के १९० वें भाग अर्थात् ५२६६/१९ योजन प्रमाण है। इसके छह खंड में जो आर्यखंड है उसका प्रमाण लगभग निम्न प्रकार है-
दक्षिण का भरतक्षेत्र २३३/१९ योजन का है। पद्म सरोवर की लम्बाई १००० योजन है तथा गंगा सिंधु नदियां ५-५ सौ योजन पर्वत पर पूर्व-पश्चिम बहकर दक्षिण में मुड़ती हैं। यह आर्यखण्ड उत्तर दक्षिण में २३८ योजन चौड़ा है। पूर्व-पश्चिम में १०००±५००±५००·२००० योजन लम्बा है। इनको आपस में गुणा करने से २३८²२०००·४७६००० वर्ग योजन प्रमाण आर्यखण्ड का क्षेत्रफल हो जाता है अथवा ४७६०००² ४०००·१९०४०००००० एक अरब नब्बे करोड़ चालीस लाख मील प्रमाण क्षेत्रफल हो जाता है।
इस आर्यखण्ड के मध्य में अयोध्या नगरी है। इस अयोध्या के दक्षिण में ११९ योजन की दूरी पर लवण समुद्र की वेदी है और उत्तर की तरफ इतनी ही दूर पर विजयार्ध पर्वत की वेदिका है। अयोध्या से पूर्व में १००० योजन की दूरी पर गंगा नदी की तट वेदी है अर्थात् आर्यखण्ड की दक्षिण दिशा में लवण समुद्र, उत्तर दिशा में विजयार्ध, पूर्व दिशा में गंगा नदी एवं पश्चिम दिशा में सिंधु नदी है। ये चारों आर्यखण्ड की सीमारूप हैं।
अयोध्या से दक्षिण में लगभग ४,७६००० मील (चार लाख छिहत्तर हजार मील) जाने से लवण समुद्र है और उत्तर में इतना ही जाने से विजयार्ध पर्वत है। उसी प्रकार अयोध्या से पूर्व में ४०,००००० (चालीस लाख) मील दूर गंगा नदी तथा पश्चिम में इतनी ही दूर सिंधु नदी है।
जैनाचार्यों के कथनानुसार आज का सारा विश्व इस आर्यखण्ड में ही है। हम और आप सभी इस आर्यखण्ड के ही भारतवर्ष में रहते हैं। वर्तमान में जो गंगा-सिंधु नदियां दिखती हैं और जो महासमुद्र, हिमालय पर्वत आदि हैं वे सब परिवर्तनशील हैं। अकृत्रिम नदी, समुद्र और पर्वतों से अतिरिक्त ये सभी उपनदी, उपसमुद्र, उपपर्वत आदि हैं। इन सभी विषयों का विशेष विस्तार समझने के लिए तिलायेपण्णत्ति, त्रिलोकसार, तत्वार्थराजवार्तिक, जंबूद्वीपपण्णत्ति, त्रिलोकसार आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिए।
पद्म आदि सरोवर कहां हैं ?
प्रश्न-पद्म आदि सरोवर कहां हैं ?
उत्तर-पद्म आदि सरोवर कुलाचलों पर हैं।
प्रश्न-ये कुलाचल कहां पर हैं ?
उत्तर-इसी जम्बूद्वीप में दक्षिण से प्रारंभ कर पूर्व-पश्चिम लम्बे छह पर्वत हैं जिनके हिमवान आदि नाम हैं। इन पर्वतों के निमित्त से ही भरत, हैमवत आदि सात क्षेत्र हो जाते हैं। इन्हीं पर्वतों को कुलपर्वत और कुलाचल भी कहते हैं।
प्रश्न-ये पर्वत कितने-कितने बड़े हैं ?
उत्तर-हिमवान् पर्वत की चौड़ाई का प्रमाण १०५२१२/१९ योजन अर्थात् ४२०८४२११/१९ मील प्रमाण है तथा इसकी ऊंचाई १०० योजन (४०००००० मील) प्रमाण है। महाहिमवान् पर्वत की चौड़ाई ४२१०१०/१९ योजन (१६८४२१०५५/१९ मील) प्रमाण है, इसकी ऊँचाई २०० योजन (८००००० मील) प्रमाण है। निषध पर्वत की चौड़ाई १६८४२२/१९ योजन (६७३६८०००१/१९ मील) प्रमाण है। इसकी ऊँचाई ४०० योजन (१६००००० मील) है। ऐसे ही निषध के समान नील का विस्तार आदि है। महाहिमवान के समान रुक्मी पर्वत है और हिमवान पर्वत के समान शिखरी पर्वत है।
प्रश्न-इन पर्वतों पर सरोवर कहां पर है ?
उत्तर-हिमवान् पर्वत पर बीचोंबीच में पद्म सरोवर है, यह ५०० योजन चौड़ा है, १००० योजन लंबा है और १० योजन गहरा है, ऐसे ही हिमवान पर्वत पर महापद्म, निषध पर्वत पर तिगिञ्छ, नील पर्वत पर केसरी, रुक्मी पर्वत पर महापुण्डरीक और शिखरी पर्वत पर पुण्डरीक सरोवर हैं। पद्म सरोवर से महापद्म सरोवर दूने विस्तार वाला है और इससे दूने विस्तार वाला तिगिञ्छ सरोवर है। केसरी सरोवर तिगिंछ के समान है, महापुण्डरीक सरोवर महापद्म के समान है और पुण्डरीक सरोवर पद्म सरोवर के समान है। इन सरोवरों में पृथ्वीकायिक कमल बने हुए हैं।
प्रश्न-ये कमल कितने-कितने बड़े हैं ?
उत्तर-पद्म सरोवर में बीचोंबीच में एक कमल है। यह एक योजन (४००० मील) विस्तृत है। इसके एक हजार ग्यारह पत्र हैं। इसकी नाल बयालीस कोश ऊंची, एक कोश मोटी है। इसका मृणाल तीन कोश मोटा रूप्यमय-श्वेतवर्ण का है अर्थात् इस कमल की नाल दश योजन तक जल में है और अर्धयोजन प्रमाण
जल के ऊपर में है। इस कमल की कर्णिका आधे योजन ऊंची और पाव योजन चौड़ी है।
इस कर्णिका के ऊपर श्रीदेवी का भवन बना हुआ है। यह भवन एक कोश लंबा, अर्ध कोश चौड़ा और पौन कोश ऊंचा है। इसमें श्रीदेवी निवास करती है। इसकी आयु एक पल्य प्रमाण है।
प्रश्न-क्या इस पद्म सरोवर में इस बड़े कमल से अतिरिक्त भी कमल हैं ?
उत्तर-हां, इस सरोवर में एक लाख चालीस हजार एक सौ पन्द्रह परिवार कमल हैं। इन कमलों का विस्तार आदि मुख्य कमलों से आधा-आधा है। इन सभी कमलों की नाल दश योजन प्रमाण ही है अर्थात् जल के बराबर ही है जल से ऊपर निकली हुई नहीं है। इन कमलों पर भी श्रीदेवी के भवन के प्रमाण से आधे प्रमाण वाले भवन बने हुए हैं। इन सभी भवनों में श्रीदेवी के परिवार देव निवास करते हैं।
प्रश्न-अन्य सरोवरों में भी ऐसे कमल हैं क्या ?
उत्तर-हां, महापद्म सरोवर में इस पद्म सरोवर की अपेक्षा दूने प्रमाण वाले कमल हैं अर्थात् मध्य का कमल दो योजन विस्तृत है और शेष परिवार कमल एक-एक योजन विस्तार वाले हैं। इनकी संख्या भी दूनी है अर्थात् दो लाख अस्सी हजार दो सौ तीस कमल हैं। इस सरोवर के मध्य के कमल में ह्री देवी का निवास है। ऐसे ही तिगिंछ सरोवर का कमल चार योजन विस्तार वाला है। इसके परिवार कमल दो योजन विस्तार वाले हैं और संख्या में ५,६०,४६० हैं। इस सरोवर के मुख्य कमल में धृति देवी निवास करती है। आगे के केसरी सरोवर में सारी व्यवस्था तिगिंछ के समान है। महापुण्डरीक के कमलों की रचना महापद्म सरोवर के समान है और पुण्डरीक सरोवर के कमल पद्म सरोवर के समान हैं। अन्तर इतना ही है कि इन पर कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी देवियों का निवास है।
प्रश्न-क्या ये ही देवियां भगवान की माता की सेवा करने के लिए आती हैं ?
उत्तर-हां, ये ही षट् कुलाचल पर रहने वाली श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी नाम की देवियां इन्द्र की आज्ञा से भगवान के गर्भ में आने के छह महीने पहले ही माता की सेवा करने के लिए आ जाती हैं।
प्रश्न-ये श्री आदि देवियां यहीं जम्बूद्वीप के कुलाचलों पर ही रहती हैं कि अन्य कहीं भी ?
उत्तर-जंबूद्वीप में जैसे छह कुल पर्वत हैं वैसे ही धातकीखण्ड में बारह हैं और पुष्करार्ध में भी बारह हैं क्योंकि वहां पर पूर्व धातकीखण्ड और पश्चिम धातकीखण्ड ऐसे दो विभाग हो गये हैं। ऐसे ही पुष्करार्ध में भी दो विभाग हो गए हैं अतः वहां पर हिमवान आदि कुलपर्वत भी पूर्वभाग में छह और पश्चिम भाग में छह होने से बारह हो जाते हैं।
इन पर्वतों पर भी पद्म आदि छह-छह सरोवर हैं और उनमें निवास करने वाली देवियों के नाम भी श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ही हैं। ये सभी देवियां माता की सेवा के लिए आती हैं और बराबर भगवान के जन्म लेने तक पन्द्रह मास तक माता की सेवा में तत्पर रहते हुए अपना परम सौभाग्य समझती हैं। ये देवियां माता से अनेक गूढ़ प्रश्नों को भी करती हैं और माता भी गर्भ के शिशु के प्रभाव से उन सभी प्रश्नों का बहुत ही सुन्दर समाधान देती हैं। प्रायः करके पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसरों पर यह दृश्य दिखाये जाते हैं।
इस प्रकार से यहां संक्षेप में छह कुलाचलों का वर्णन किया गया है।
गंगा आदि नदियां कहां हैं ?
प्रश्न-गंगा आदि महानदियाँ कहाँ हैं ?
उत्तर-ये नदियां भरतक्षेत्र आदि क्षेत्रों में बहती हैं। इस जम्बूद्वीप में भरत, हैमवत, हरि आदि सात क्षेत्र हैं
और हिमवान, महाहिमवान आदि छह पर्वत हैं। इन पर्वतों पर पद्म, महापद्म, तिगिंछ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ये छह सरोवर हैं। इन छह सरोवर से ही ये गंगादि १४ नदियां निकलती हैं। उनके नाम हैं-गंगा, सिंधु, रोहित, रोहितास्या, हरित, हरिकांता, सीता, सीतोदा, नारी, नरकांता, सुवर्णवूâला, रूप्यवूâला और रक्ता, रक्तोदा।
प्रश्न-किस सरोवर से कौन-कौन सी नदियां निकलती हैं ?
उत्तर-पहले पद्म सरोवर की चारों दिशाओं में चार तोरण द्वार हैं, उनमें से पूर्व तोरण द्वार से गंगा नदी निकलती है। यह नदी निर्गम स्थान में ६१/४ योजन विस्तृत है और ५०० मील गहरी है। यह गंगा नदी इस पूर्व तोरणद्वार से निकलकर उसी पर्वत पर पूर्व दिशा में ही ५०० योजन तक चली जाती है पुनः दक्षिण की ओर मुड़कर पर्वत पर ही कुछ अधिक ५२३ योजन तक बहती हुई हिमवान् पर्वत के तट पर आ जाती है। उस जगह गोमुखाकार एक जिह्विका बनी हुई है जिसमें प्रवेश कर यह नदी पर्वत से नीचे गिरती है।
नीचे जहाँ गिरती है वहां पर तलहटी में पृथ्वी पर एक गोल कुण्ड है जो साठ योजन विस्तार वाला है और दस योजन गहरा है। इस कुण्ड में एक द्वीप है जो आठ योजन विस्तृत है और जल से ऊपर दो कोश तक ऊँचा उठा हुआ है। इस महाद्वीप के मध्य में एक वङ्कामय पर्वत है जो कि दस योजन ऊँचा है और मूल में चार योजन विस्तृत है और घटते हुए ऊपर एक योजन का रह गया है। इस पर्वत के ऊपर रत्नों से निर्मित गंगावूâट नाम से प्रसिद्ध एक दिव्य भवन है। उसमें स्वयं गंगादेवी निवास करती हैं।
इस भवन के ऊपर छत पर एक कमलासन बना हुआ है, जिस पर जिनेन्द्रदेव की अकृत्रिम प्रतिमा विराजमान है। इन प्रतिमाजी के मस्तक पर जटाजूट का आकार बना हुआ है।
हिमवान पर्वत के तट पर जो गोमुख के सदृश जिह्विका बनी हुई है उसमें से गंगा नदी गिरती हुई ठीक उस गंगादेवी के भवन की छत पर विराजमान जिनेन्द्र भगवान के मस्तक पर गिरती है जहाँ कि जटाजूट का आकार बना हुआ है। वहां पर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो यह गंगा नदी जिनेन्द्रदेव का अभिषेक कर रही है। पुनः नीचे तलहटी के कुण्ड में आ जाती है। इस कुण्ड में भी चारों दिशाओं में तोरण द्वार बने हुए हैं। वहाँ से यह नदी दक्षिण तोरणद्वार से निकलकर भरतक्षेत्र में बहती हुई आगे चलकर विजयार्ध पर्वत की गुफा में प्रवेश कर जाती है। इस विजयार्ध पर्वत की गुफा ५० योजन लम्बी है। गुफा में बहती हुई यह नदी आगे गुफा के बाहर निकलकर धनुषाकार होती हुई भरतक्षेत्र में बहकर पूर्व लवण समुद्र में प्रवेश कर जाती है। वहां पर भी एक तोरणद्वार बना हुआ है जो कि ६२१/२ योजन चौड़ा है और ९३३/४ योजन ऊँचा है। उस स्थान पर इस गंगा नदी का विस्तार ६२१/२ योजन हो गया है और इसकी गहराई एक हजार कोस प्रमाण मानी गई है।
प्रश्न-इस गंगानदी का वर्णन सुना, आगे सिन्धु नदी कहाँ से निकलती है ?
उत्तर-सिंधु नदी इस पद्म सरोवर के पश्चिम द्वार से निकलती है और नीचे सिंधुदेवी के भवन की छत पर विराजमान जिनप्रतिमा का अभिषेक करते हुए ही वह पश्चिम लवण समुद्र में प्रवेश कर जाती है। निर्गमस्थान, कुण्ड और प्रवेश स्थान के तोरणद्वार आदि सभी चीजों का वर्णन उपर्युक्त गंगानदी के समान ही है।
ये दोनों नदियां भरतक्षेत्र में बहती हैं। ऐसे ही आगे की दो-दो नदियां आगे-आगे के एक-एक क्षेत्र में बहती हैं।
प्रश्न-सरोवर तो छह ही हैं और नदियां चौदह हैं पुनः एक-एक सरोवर से दो-दो नदियां वैâसे निकलती हैं ?
उत्तर-पहले पद्म के उत्तर तोरणद्वार से रोहितास्या नदी निकली है और वह नीचे हैमवत क्षेत्र में स्थित कुण्ड में रोहितास्या देवी के भवन की छत पर स्थित जिनप्रतिमा का अभिषेक करते हुए के सदृश ही वहां गिरती है पुनः हैमवत क्षेत्र में बहती हुई पश्चिम लवण समुद्र में प्रवेश कर जाती है। ऐसे ही महाहिमवान् पर्वत के महापद्म सरोवर के दक्षिण तोरणद्वार से रोहित नदी निकलती है। वह नदी भी हैमवत क्षेत्र के कुण्ड में रोहित देवी की छत पर गिरकर वहां क्षेत्र में बहती हुई पूर्वलवण समुद्र में प्रवेश कर जाती है।
आगे महापद्म सरोवर के उत्तर तोरणद्वार से हरिकांता नदी निकलती है और निषध पर्वत के तिगिंछ सरोवर के दक्षिण तोरणद्वार से हरित नदी निकलती है। ये दोनों नदियां हरिक्षेत्र में बहती हैं। तिगिंछ सरोवर के उत्तर तोरण द्वार से सीतोदा नदी निकलती है एवं नील पर्वत के केसरी सरोवर के दक्षिण तोरणद्वार से सीता नदी निकलती है। ये दोनों नदियां विदेहक्षेत्र में बहती हैं। केसरी सरोवर के उत्तर तोरण द्वार से नरकान्ता नदी निकलती है और रुक्मी पर्वत के महापुण्डरीक सरोवर के दक्षिण तोरणद्वार से नारी नदी निकलती है। ये दोनों नदियां सम्यक् क्षेत्र में बहती हैं। महापुण्डरीक सरोवर के उत्तर दक्षिण तोरण द्वार से सुवर्णकूला नदी निकलती है। ये दोनों नदियां हैरण्यवत क्षेत्र में बहती हैं। आगे पुण्डरीक सरोवर के पूर्व पश्चिम तोरण द्वार से रक्ता-रक्तोदा नदियां निकलती हैं, वे दोनों नदियां ऐरावत क्षेत्र के गुफा द्वार से बाहर आकर ऐरावत क्षेत्र में बहते हुए पूर्व पश्चिम लवण समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं।
इस प्रकार प्रथम पद्म और अन्तिम पुण्डरीक इन दो सरोवरों से तीन-तीन नदियां निकलती हैं तथा शेष चार सरोवरों से दो-दो नदियां निकलती हैं। इस तरह छह सरोवरों से चौदह नदियां निकलती हैं और दो-दो नदियां एक-एक क्षेत्र में बहती हैं।
प्रत्येक नदियों के गिरने के स्थान में नीचे कुण्ड बने हुए हैं और उनमें द्वीपों के मध्य पर्वत के ऊपर अपनी-अपनी नदी के नाम वाली देवियों के भवन बने हुए हैं। प्रत्येक भवन की छत पर कमलासन पर जटाजूट समेत जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा विराजमान हैं। प्रत्येक नदी जिनप्रतिमा का अभिषेक करते हुए के समान वहां कुण्ड में गिरकर आगे क्षेत्र में बहती हुई पूर्व-पश्चिम लवण समुद्र में प्रवेश कर जाती है।
प्रश्न-इन नदियों के तट वैâसे हैं ?
उत्तर-इन नदियों के दोनों तट बहुत ही सुन्दर रत्नों से बने हुए हैं, दोनों तटों पर वेदिका (बाउंड्रीवाल) बनी है और उसके बाद सुन्दर-सुन्दर वनखण्ड बने हुए हैं।
प्रश्न-इन नदियों के अतिरिक्त और भी नदियां हैं क्या ?
उत्तर-प्रत्येक नदियों की परिवार नदियां मानी गई हैं, उनका वर्णन इस प्रकार है-गंगा-सिंन्धु की परिवार नदियां चौदह-चौदह हजार हैं। रोहित, रोहितास्या की अट्ठाईस-अट्ठाईस हजार हैं। हरित, हरिकांता की परिवार नदियां ५६-५६ हजार हैं। सीता-सीतोदा की परिवार नदियां ८४-८४ हजार हैं। नारी-नरकांता की परिवार नदियां ५६-५६ हजार हैं। सुवर्णवूâला-रूप्यवूâला की परिवार नदियां २८-२८ हजार हैं तथा रक्ता-रक्तोदा की परिवार नदियां १४-१४ हजार हैं। यहां की गंगा-सिन्धु की परिवार नदियां म्लेच्छ खण्डों में ही बहती हैं, आर्यखंड में नहीं हैं।
प्रश्न-यहां जो गंगा-सिन्धु नदियां दिख रही हैं यह वो ही हैं क्या ?
उत्तर-नहीं, यहां पर दिख रहीं गंगा-सिंधु नदियां कृत्रिम नदियां हैं और ये ऊपर में कही गई गंगा सिन्धु नदियां महानदियां हैं ये अकृत्रिम हैं, अनादिनिधन हैं। भरतक्षेत्र के इस आर्यखण्ड में दक्षिण की तरफ लवण समुद्र है, पूर्व की तरफ गंगा नदी है, पश्चिम की तरफ सिन्धु नदी है और उत्तर की तरफ विजयार्ध पर्वत है अतः ये आर्यखण्ड के मध्य में यत्र-तत्र दिख रही गंगा-सिन्धु नदियां वो नहीं हैं।
श्लोकवार्तिक ग्रन्थ में पंडित श्री माणिकचन्द्र जी न्यायाचार्य ने भी लिखा है-‘छह खंड वाले भरतक्षेत्र संबंधी आर्यखण्ड के मध्य में जो छोटा सा यह भरत खण्ड
(हिन्दुस्तान) है’ इसके उत्तर में हिमालय है और पश्चिम में सिन्धु नदी तथा पूर्वभाग में गंगा नदी बह रही है। न तो यह हिमालय हिमवान पर्वत है और न ये क्षुद्र गंगानदी, सिंधुनदी ही महागंगा नदी, महासिंधु नदी हैं किन्तु आर्यखण्ड की अयोध्या नगरी से उत्तर दिशा की ओर लगभग चार सौ सात योजन चलने पर हिमवान् पर्वत मिल सकता है और आर्यखण्ड से पूर्व या दक्षिण की ओर कई सौ योजन चलकर महागंगा नदी मिल सकती है। उससे पहले यहीं बीस, पच्चीस कोस चलकर ही महागंगा नदी नहीं मिल जाती है। यदि कोई मनुष्य विमान द्वारा इतना चल सके तो वह जैन सिद्धान्त के करणानुयोग शास्त्रों के अनुसार गंगा को पा सकता है१।
इस प्रकार से यहां तक गंगा आदि चौदह महानदियों का वर्णन हुआ है जिसका विस्तार तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रन्थों से जानना चाहिए।
विजयार्ध पर्वत कहाँ-कहाँ हैं ?
प्रश्न-विजयार्ध पर्वत कहाँ-कहाँ हैं ?
उत्तर-भरतक्षेत्र के बीच में एक विजयार्ध पर्वत है। ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र में एक विजयार्ध पर्वत है तथा बत्तीस विदेहक्षेत्र में बत्तीस, ऐसे ३४ विजयार्ध पर्वत हैं।
प्रश्न-भरतक्षेत्र के विजयार्ध का क्या प्रमाण है ?
उत्तर-भरतक्षेत्र के बीच में जो विजयार्ध पर्वत है वह पूर्व-पश्चिम लम्बा है। दक्षिण की तरफ इसकी लम्बाई ९७४८११/१९) योजन (३८९९४३१५११/१९ मील) है। उत्तर की तरफ इसकी लम्बाई १०७२०११/१९ योजन (४२८८२३१५१५/१९ मील)है। यह पर्वत ५० योजन (२००००० मील) चौड़ा और २५ योजन (१००००० मील) ऊँचा है। उसकी नींव ६१/४ योजन है। इस पर्वत के दक्षिण उत्तर दोनों तरफ पृथ्वी से १० योजन (४०००० मील) ऊपर जाकर १० योजन विस्तीर्ण उत्तमश्रेणी है। उनमें दक्षिण श्रेणी में पचास और उत्तर श्रेणी में साठ ऐसी विद्याधरों की ११० नगरियां हैं। उसके ऊपर दोनों तरफ १० योजन जाकर १० योजन विस्तीर्ण श्रेणियाँ हैं। इसमें आभियोग्य जाति के देवों के नगर हैं। इन आभियोग्यपुरों से ५ योजन (२०००० मील) ऊपर जाकर दस योजन (४०००० मील) विस्तीर्ण विजयार्ध पर्वत का उत्तम शिखर है।
उस समभूमि भाग में सुवर्ण मणियों से निर्मित दिव्य नववूâट है। उन वूâटों में पूर्व की ओर से सिद्धवूâट, भरतवूâट, खण्डप्रपात, मणिभद्र, विजयार्ध कुमार, पूर्णभद्र, तिमिस्रगुह, भरतवूâट और वैश्रवणवूâट ये नववूâट हैं। ये सब ६१/४ योजन (२५००० मील) ऊँचे, मूल में इतने ही चौड़े और ऊपर भाग में कुछ अधिक ३ योजन (१२००० मील) चौड़े हैं। सिद्धवूâट में जिनभवन हैं एवं शेष वूâटों के भवनों में देव-देवियों के निवास हैं।
प्रश्न-इस पर्वत के नीचे से गंगा, सिन्धु नदी निकलती है सो उनकी क्या व्याख्या है ?
उत्तर-इस विजयार्ध पर्वत में ८ योजन (३२००० मील) ऊँची, ५० योजन (२००००० मील) लम्बी और १२ योजन (४८००० मील) विस्तृत दो गुफायें हैं। इन गुफाओं के दिव्य युगल कपाट ८ योजन (३२००० मील) ऊँचे, ६ योजन (२४००० मील) विस्तीर्ण हैं। गंगा, सिन्धु नदियां इन गुफाओं से निकलकर बाहर आकर लवण समुद्र में प्रवेश करती हैं। इन गुफाओं के दरवाजे को चक्रवर्ती अपने दण्डरत्न से खोलते हैं और गुफा के भीतर कांकिणीरत्न से प्रकाश करके सेना सहित उत्तर म्लेच्छों में जाते हैं। चक्रवर्ती द्वारा इस पर्वत तक इधर के तीन खण्ड जीत लेने से आधी विजय हो जाती है अत: इस पर्वत का ‘विजयार्ध’ यह नाम सार्थक है। यह पर्वत रजतमयी है अत: इसे रजताचल भी कहते हैं।
बिल्कुल ऐसे ही प्रमाण वाला विजयार्ध पर्वत ऐरात क्षेत्रों के बीचोंबीच में है। वहां की गुफाओं से रक्ता-रक्तोदा नदियाँ निकलती हैं।
प्रश्न-विदेहक्षेत्र के विजयार्ध पर्वतों का क्या प्रमाण है ?
उत्तर-सुमेरु के पास सीतानदी के उत्तर तट में भद्रसाल से लगाकर कच्छा, सुकच्छा आदि देश हैं। ये प्रत्येक देश पूर्व-पश्चिम २२१२ ७/८ योजन (८८५१५०० मील) विस्तृत हैं। इनकी दक्षिण उत्तर लम्बाई १६५९२ २/१९ योजन प्रमाण है। इन विदेह देशों के बहुमध्य भाग में ५० योजन (२००००० मीटर) चौड़ा और देश के विस्तार समान लम्बा अर्थात् २२१२ ७/८ योजन लम्बा विजयार्ध पर्वत है। इन विजयार्धों पर भी दोनों पाश्र्व भागों में दो-दो श्रेणियां हैं। अंतर इतना ही है कि इनमें विद्याधर श्रेणियों में दोनों तरफ पचपन-पचपन नगरियाँ हैं। इन विजयार्धों पर भी नव-नव वूâट हैं और दो-दो महागुफायें हैं जो पूर्वोक्त प्रमाण वाली हैं। इनमें से दो-दो नदियाँ निकलती हैं जिनके निमित्त से प्रत्येक देश में छह-छह खण्ड हो जाते हैं। जिनमें से एक-एक आर्यखण्ड और पाँच-पाँच म्लेच्छ खण्ड हैं।
प्रश्न-इन नदियों के क्या नाम हैं ?
उत्तर-सीता-सीतोदा के दक्षिण तट के देशों में दो-दो नदियाँ हैं उनके गंगा-सिन्धु नाम हैं। नील पर्वत के पास कुण्ड बने हुए हैं। ये नदियाँ उन कुण्डों से निकलकर सीधे दक्षिण ाqदशा में आती हुई विजयार्ध की गुफा से निकलकर आगे आकर सीता-सीतोदा नदी में मिल जाती हैं। इनके उद्गम स्थान में तोरण द्वार ६ १/४ योजन (२५००० मील)चौड़ा है। ऐसे ही सीता-सीतोदा के उत्तर तट में दो-दो नदियां हैं उनके नाम रक्ता-रक्तोदा हैं। ये नदियां निषध पर्वत के पास के कुण्डों से निकलकर उत्तर दिशा में जाती हुई विजयार्ध पर्वत की गुफा में प्रवेश कर आगे निकल कर सीता-सीतोदा नदियों में मिल जाती हैं। इनके उद्गम-प्रवेश के तोरण द्वार पूर्वोक्त गंगा-सिंधु के समान हैं।
प्रश्न-जंबूद्वीप में कुल आर्यखण्ड कितने हैं ?
उत्तर-भरत-ऐरावत का एक-एक और विदेह के बत्तीस, ऐसे कुल आर्यखण्ड इस जंबूद्वीप के चौंतीस हैं। पूर्वाेक्त कच्छा आदि देशों की मुख्य राजधानी इन आर्यखण्डों में ही है। उनके नाम क्षेमा, क्षेमपुरी आदि हैं। भरतक्षेत्र की राजधानी अयोध्या है।
प्रश्न-इस जंबूद्वीप में वृषभाचल पर्वत कितने हैं ?
उत्तर-प्रत्येक क्षेत्र के पांच-पांच म्लेच्छखंडों में मध्य का जो म्लेच्छ खण्ड है वहीं पर वृषभाचल है अत: ये सब वृषभाचल चौंतीस हैं। चक्रवर्ती छह खण्ड पृथ्वी पर दिग्विजय प्राप्त करने के बाद इन वृषभाचल पर्वतों पर अपनी प्रशस्ति लिखते हैं।
प्रश्न-इस जंबूद्वीप में अधिक से अधिक कितने तीर्थंकर एक साथ हो सकते हैं ?
उत्तर-अधिक से अधिक तीर्थंकर चौंतीस हो सकते हैं और कम से कम चार, जो कि विदेहक्षेत्र में सदा काल विद्यमान रहते हैं जिनके नाम हैं सीमंधर, युगमंधर, बाहु और सुबाहु। ये विद्यमान अथवा विहरमाण तीर्थंकर कहलाते हैं। इन सबको मेरा नमस्कार होवे।