हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप रचना में-
१. सुदर्शनमेरु नाम से सुमेरु पर्वत एक है।
२. अकृत्रिम ७८ जिनमंदिर में ७८ जिनप्रतिमाएँ हैं।
३. १२३ देवभवनों में १२३ जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं।
४. श्रीसीमंधर आदि तीर्थंकर के ६ समवसरण हैं।
५. हिमवान आदि ६ पर्वत हैं।
६. भरत, हैमवत, हरि, विदेह आदि ७ क्षेत्र हैं।
७. पर्वतों के गोमुख से नीचे जटाजूट सहित १४ जिनप्रतिमाएँ हैं।
हस्तिनापुर में निर्मित तेरहद्वीप रचना में-
१. ढाईद्वीप में पाँच मेरु पर्वत हैं।
२. तेरहद्वीप तक ४५८ जिनमंदिर में ४५८ जिन-प्रतिमाएँ हैं।
३. ८२१ देवभवनों में ८२१ जिनप्रतिमाएँ हैं।
४. १७० कर्मभूमियों में १७० समवसरण हैं।
५. लवण समुद्र, कालोदधि समुद्र ये दो समुद्र हैं।
६. एक सिंहासन में १०८ जिनप्रतिमाएँ हैं।
७. एक सिंहासन पर श्रीसीमंधर आदि २० जिन-प्रतिमाएँ हैं।
८. एक सिंहासन पर ऋषभदेव आदि २४ जिन-प्रतिमाएँ हैं।
९. भरत क्षेत्र, ऐरावत क्षेत्र आदि के तीर्थंकरों की शांतिनाथ आदि १६ प्रतिमाएँ हैं।
१०. तीस भोगभूमि हैं। दोनों समुद्रों में कुभोगभूमि हैं।
११. इस तेरहद्वीप रचना में २१२७ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं।
तीनलोक रचना-
१. तीनलोक में-अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक ये तीन भेद हैं।
२. अधोलोक में निगोद, नरक एवं देवों के स्थान हैं।
३. मध्यलोक में जम्बूद्वीप आदि असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। इसी में मनुष्य एवं पशु, पक्षी, ज्योतिषी देव आदि हैं।
४. ऊर्ध्वलोक में स्वर्ग हैं, वहाँ देव-देवियाँ हैं।
५. सबसे ऊपर सिद्धशिला के ऊपर सिद्ध भगवान हैं।
अनादिनिधन-मध्यलोक में असंख्यात द्वीप-समुद्रों के बीचों बीच में प्रथम द्वीप नाम जम्बूद्वीप है।
इसमें भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक्, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं।
हम और आप इस भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में हैं।
जम्बूद्वीप के शाश्वत ७८ जिनमंदिर-इस जम्बूद्वीप में बीचोंबीच में सुदर्शनमेरु पर्वत है।
इसमें भद्रसाल, नंदन, सौमनस और पाण्डुक ये चार वन अर्थात् सुन्दर-सुन्दर उद्यान हैं।
इनमें ४ दिशाओं के ४-४ जिनमंदिर ऐसे १६ जिनमंदिर हैं। इस पर्वत की विदिशा में चार गजदंत के ४ जिनमंदिर हैं। इस पर्वत के उत्तर-दक्षिण में जम्बूवृक्ष, शाल्मलि वृक्ष के दो मंदिर हैं।
इस सुमेरु के पूर्व-पश्चिम में ८-८ वक्षार ऐसे १६ वक्षारों के १६ जिनमंदिर हैं।
हिमवान आदि छह पर्वतोें-कुलाचलों के ६ जिनमंदिर है। सुमेरु के पूर्व में १६ विदेह देशों के १६ एवं पश्चिम में १६ विदेहों के १६ ऐसे ३२ विदेह क्षेत्रों में बीचोंबीच में एक-एक विजयार्ध ऐसे ३२ विजयार्ध पर्वतों के ३२ जिनमंदिर हैं।ऐसे ही भरत एवं ऐरावत क्षेत्र के बीच में १-१ विजयार्ध पर्वत के २ जिनमंदिर हैं।
इस प्रकार सुमेरु के १६±गजदंत के ४ ± जंबूवृक्ष आदि २±सोलह वक्षार के १६±छह कुलाचलों के ६±विदेह के बत्तीस विजयार्ध के ३२±भरत-ऐरावत के २·७८ जिनमंदिर हैं।
देवभवन-यहाँ हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप में हिमवान् पर्वत के १० आदि ऐसे १२० देवभवन हैं। जम्बूद्वीप के प्रवेश में जम्बूद्वीप रक्षक अनावृत देव का एक भवन है। इन १२३ देवभवनों में गृह चैत्यालय के समान एक-एक जिनप्रतिमा विराजमान हैं अत: १२३ जिनप्रतिमाएँ हैं।
छह समवसरण-पूर्वविदेह में श्री सीमंधर स्वामी, श्री युगमंधर स्वामी एवं पश्चिम विदेह में श्री बाहु-स्वामी और श्री सुबाहुस्वामी तथा दक्षिण में भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड की अयोध्या में भगवान ऋषभदेव तथा ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में श्री बालचन्द्र तीर्थंकर भगवान ऐसे छह भगवन्तों के छह समवसरण के प्रतीक यहाँ गंधकुटी के रूप में चतुर्मुखी छह प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
जम्बूद्वीप में २२१ जिनप्रतिमाएं-इस प्रकार जम्बूद्वीप में ७८ जिनमंदिर १२३ देवभवन के जिनमंदिर व छह समवसरण की ६ चतुर्मुखी प्रतिमाएं ऐसी ७८±१२३± ६·२०७ जिनप्रतिमाएं विराजमान है तथा गंगा-सिंधु आदि १४ महानदियों के गोमुख से गिरने के नीचे गंगा-आदि देवी के महल की छत पर १४ जटाजूट सहित जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं। ऐसे कुल (२०७±१४·२२१) जिनप्रतिमाएं हैं।
इन सभी जिनप्रतिमाओं को मेरा नमस्कार होवे।
जम्बूद्वीप में ७८ जिनमंदिर, ६ भोगभूमि, ३४ कर्मभूमि के ३४ आर्यखण्ड, प्रत्येक भूमि में ५-५ म्लेच्छ खंड ऐसे १७० (३४±५·१७०) हैं। हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी छह पर्वतों पर १-१ ऐसे छह सरोवर हैं। पद्म, महापद्म, तिगिंछ, केशरी महापुंडरीक और पुण्डरीक ये उनके नाम हैं। इन छह सरोवरों के कमलों पर श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये देवियाँ रहती हैं, वे ही तीर्थंकर की माता की सेवा करने आती हैं।
तेरहद्वीप रचना में २१२७ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं।
४५८ अकृत्रिम जिनमंदिर-तेरहद्वीप रचना में प्रथम जम्बूद्वीप में ७८ जिनप्रतिमाएँ हैं। उसे घेरकर लवण समुद्र है। उसे घेरकर धातकीखण्ड द्वीप है। इसमें दक्षिण उत्तर में १-१ इष्वाकार पर्वत हैं। अत: दो खण्ड हो गये।
पूर्व धातकीखण्ड में विजयमेरु है एवं जंबूद्वीप के स्थान पर धात्रीवृक्ष-आंवले का वृक्ष है। शेष सारी रचना जम्बूद्वीप के समान है। अत: यहाँ भी
७८ जिनमंदिर हैं।
ऐसे ही पश्चिम धातकी खण्ड में बीच में अचलमेरु है। शेष रचना पूर्वधातकीखण्ड के समान होने से यहाँ भी ७८ जिनमंदिर हैं।
इस धातकीखण्ड को घेरकर कालोदधिसमुद्र है। इसे घेरकर पुष्करद्वीप है। इसके बीचों-बीच में मानुषोत्तर पर्वत है। अत: इस तरफ के आधे पुष्करद्वीप को पुष्करार्धद्वीप कहते हैं। इसमें भी दक्ष्िाण-उत्तर में इष्वाकार नाम के दो पर्वत है।
इस निमित्त से वहाँ भी पूर्व पुष्करार्धद्वीप और पश्चिम पुष्करार्ध द्वीप दो भेद हो गये हैं।
पूर्व पुष्करार्ध में मंदरमेरु है और पश्चिम पुष्करार्ध में विद्युन्माली मेरु है एवं धातकी वृक्ष की जगह पुष्कर वृक्ष हैं। शेष रचना धातकीखण्ड के समान होने से यहाँ भी ७८-७८ जिनमंदिर हैं।
इस प्रकार ७८ को ५ से गुणा करने पर ७८²५·३९० तीन सौ नब्बे अकृत्रिम जिनमंदिर हो गये। पुनश्च धातकीखण्ड के २ इष्वाकार एवं पुष्करार्ध के २ इष्वाकार इन ४ पर्वतों के ४ जिनमंदिर तथा मानुषोत्तर पर्वत के ४ दिशाओं के ४ जिनमंदिर ये ३९०±४±४·३९८ अकृत्रिम जिनमंदिर ढाईद्वीप में हैं।
आगे चौथे, पाँचवें, छठे, सातवें में जिनमंदिर नहीं है। पुन: आठवें नंदीश्वर द्वीप में चारों दिशाओं में क्रम से १३-१३ ऐसे १३²४·५२ जिनमंदिर हैं।
इसके आगे ९वें, १०वें को छोड़कर ग्यारहवें द्वीप के बीच में कुण्डलवरपर्वत के ४ दिशाओं में ४ जिनमंदिर हैं।
इसके आगे १२वें को छोड़कर तेरहवें रुचकवर द्वीप के बीच में रुचकवर पर्वत पर चारों दिशाओं में १-१ ऐसे ४ मंदिर हैं।
इस प्रकार ढाई द्वीप के ३९८±आठवें द्वीप के ५२±ग्यारहवें द्वीप के ४±तेरहवें द्वीप के ४·४५८ (चार सौ अट्ठावन) ऐसे अकृत्रिम जिनमंदिर हैं।
यहाँ तेरहद्वीप की रचना में ८२१ देवभवनों के ८२१ जिनमंदिर में ८२ जिनप्रतिमाएं हैं।
प्रत्येक जिनमंदिर में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएँ हैं किन्तु यहाँ रचना में १-१ प्रतिमा विराजमान हैं, इसके प्रतीक में एक सिंहासन पर १०८ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं।
इस प्रकार स्वयं सिद्ध अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं के समान यहाँ रचना में ४५८±८२१±१०८·ऐसी १३८७ सिद्धप्रतिमाएं विराजमान हैं।
१७० समवसरण-तेरहद्वीप रचना में ढाईद्वीप तक १७० कर्मभूमि हैं। जैसे कि जम्बूद्वीप में ३२ विदेह क्षेत्र व एक भरत क्षेत्र तथा एक ऐरावत क्षेत्र ऐसी ३४ कर्मभूमि हैं। आगे पूर्वधातकीखण्ड, पश्चिमधातकी-खण्ड, पूर्व पुष्करार्ध और पश्चिम पुष्करार्ध में ३४-३४ कर्मभूमि होने से ३४²५·१७० कर्मभूमियाँ हो गई हैं। इन कर्मभूमियों के आर्यखण्डों में भगवान अजितनाथ के समय एक साथ तीर्थंकर उत्पन्न हुए हैं। अत: यहाँ पर १७० कर्मभूमियों में १७० समवसरण बनाये गये हैं। ४ समवसरण ८-८ भूमि सहित हैं। शेष समवसरण गंधकुटी के रूप में हैं। सभी में समवसरण में चतुर्मुखी तीर्थंकरों के प्रतीक में ४-४ जिनप्रतिमाएं होने से १७०²४·६८० जिनप्रतिमाएँ तीर्थंकरों की विराजमान हैं।
अन्य जिनप्रतिमाएं-यहाँ तेरहद्वीप रचना में एक सिंहासन पर विदेह क्षेत्रों के विद्यमान श्री सीमंधर आदि २० तीर्थंकरों की २० प्रतिमाएं विराजमान हैं तथा एक सिंहासन पर श्री ऋषभदेव आदि २४ तीर्थंकर प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
पुन: ५ भरत क्षेत्र की ५ प्रतिमाएं, श्री शांतिनाथ, श्री मुनिचंद्रनाथ, श्री बाहु स्वामी, श्री विमलेन्द्रनाथ एवं श्री सुसंयतनाथ की ५ प्रतिमाएँ हैं। पाँच ऐरावत क्षेत्रों की श्री अनंतवीर्यनाथ, श्री सर्वनाथ, श्री हरिवासवनाथ, श्री मरुदेवनाथ एवं श्री स्वच्छनाथ ऐसे ५ भगवन्तों की ५ प्रतिमाएँ हैं।
तथा च-श्री ऋषभदेव, श्री सीमंधर स्वामी, श्री सुबाहुस्वामी एवं श्री वीरसेन स्वामी इनकी ४ प्रतिमाएँ एवं श्री अजितनाथ एवं श्री महावीर स्वामी की प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
ये तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ ६८०±२०±२४±१६·४७० हैं।
इस प्रकार यहाँ तेरहद्वीप रचना में ४५८±८२१± १०८±६८०±२०±२४±५±५± ४±२·२१२७ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं।
पुनश्च यहाँ भगवान ऋषभदेव की दीक्षा-कल्याणक की प्रतिमा, आहारदान की प्रतिमा, भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ की प्रतिमा आदि अन्य प्रतिमाएँ भी विराजमान हैं।
इन सभी जिनप्रतिमाओं को मेरा नमस्कार होवे।
इस प्रकार तेरहद्वीप रचना में पाँच मेरुपर्वत हैं, ४५८ जिनमंदिर हैं। ८२१ देवभवन हैं। १७० कर्मभूमि हैं, जिनमें १७० समवसरण हैं। ३० भोगभूमियाँ हैं। लवणसमुद्र व कालोदधि समुद्र में कुभोगभूमि के प्रतीक में कुछ कुभोगभूमिज मनुष्य दिखाये गये हैं। सुमेरुपर्वत आदि सभी पर्वतों के वर्ण शास्त्र के आधार से दिखाये गये हैं। पर्वतों के सरोवरों में कमलों पर श्री आदि देवियाँ दिखाई गई हैं। यथा स्थान नदी, सरोवर, पर्वत, भोगभूमि, कर्मभूमि दिखाई गई हैं। नंदीश्वर द्वीप अंजनगिरि आदि पर्वत भी शास्त्र के आधार से हैं।
ये तीन लोक १४ राजु ऊँचा, ७ राजू मोटा-गहरा है। चौड़ाई में नीचे ७ राजु चौड़ा पुन: घटते हुए मध्य में १ राजु पुन: बढ़ते हुए ब्रह्मस्वर्ग के पास (साढ़े तीन राजु ऊपर जाकर) ५ राजु, पुन: घटते हुए १ राजु हो गया है।
इसके ठीक बीच में कुछ कम १३ राजु ऊँची, १ राजु चौड़ी, १ राजु मोटी त्रसनाड़ी है।
अधोलोक-इसमें ७ राजु में १० भाग कीजिए। सबसे नीचे निगोद है। पुन: सातवें, छठे आदि ७ नरक हैं। पुन: दो भाग के नाम हैं-खरभाग, पंकभाग।
इन दोनों भागों में भवनवासी देवों के भवनों में ७७२००००० जिनमंदिर हैं एवं व्यंतर देवों के भवनों में असंख्यात जिनमंदिर हैं।
अधोलोक से ऊपर के ७ राजु में २१ भाग कीजिए।
मध्यलोक-प्रथम भाग १ लाख योजन ऊँचा एवं १ राजु चौड़ा है, यही मध्यलोक है। इसी में असंख्यातद्वीप समुद्रों में सर्वप्रथम द्वीप का नाम जम्बूद्वीप है एवं प्रथम समुद्र का नाम लवणसमुद्र है तथा अंतिम द्वीप का नाम स्वयंभूरमणद्वीप पुन: सबसे अंत में स्वयंभूरमण समुद्र है।
इसी मध्यलोक में तेरहद्वीपों तक ४५८ जिनमंदिर हैं। असंख्यात द्वीप-समुद्रों तक भवनवासी देवों के अगणित भवनपुर, आवास हैं। व्यंतर देवों के असंख्यात भवनपुर, आवास हैं। ये पर्वतों पर देवभवनों के रूप में हैं तथा समुद्र, नदी, सरोवर, वृक्ष आदि पर आवास बने हुए हैं। इन सभी में अगणित एवं असंख्यातों जिनमंदिर हैं।
सूर्य, चन्द्रमा नक्षत्र आदि ज्योतिषी देवों के भी मध्यलोक में असंख्यात विमानों में असंख्यात जिनमंदिर हैं।
इस मध्यलोक में ही ढाई द्वीपों तक तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण आदि महापुरुष होते हैं। मनुष्यों का अस्तित्व यहीं तक है। पशु, पक्षी, कीट, पतंगे आदि इस मध्यलोक में ही होते हैं।
अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और जिनचैत्यालय ये नवदेवता इन ढाईद्वीपों में ही हैं। कृत्रिम जिनमंदिर, जिन-प्रतिमाएं, भूत, भविष्यत्, वर्तमानकाल की अपेक्षा अनंतानंत हैं। पंंचकल्याणक तीर्थ, सिद्धक्षेत्र एवं अतिशय क्षेत्र भी तीनकाल की अपेक्षा अनंतानंत हैं। अधोलोक एवं ऊर्ध्वलोक में केवल जिनचैत्य, चैत्यालय ये दो देवता ही हैं।
ऊर्ध्वलोक-मध्यलोक से ऊपर यह २० भागों में विभक्त है।
सौधर्म, ईशान आदि १६ स्वर्ग, दो-दो युगल एक साथ हैं, अत: ८ भागों में १६ स्वर्ग हैं। नव भागों में ९ ग्रैवेयक हैं। एक भाग में नव अनुदिश एवं एक भाग में पाँच अनुत्तर हैं। ऐसे १९ भागों में इन स्वर्ग, ग्रैवेयक आदि में ८४९७०२३ जिनमंदिर हैं।
सिद्धशिला-ऊर्ध्वलोक में दूसरे भाग में सिद्धशिला है। यह ४५ लाख योजन विस्तृत अर्धगोलक सदृश बीच में ८ योजन ऊँची ऐसी सिद्धशिला है।
ढाई द्वीप तक मानुषोत्तर पर्वत तक ही मनुष्यों का आवास है। यह ढाईद्वीप भी ४५ लाख योजन विस्तृत है। इसे मनुष्यलोक भी कहते हैं। यहीं से मनुष्य मुनि बनकर कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त करते हैं और एक समय में ऊर्ध्वगमन कर सिद्धशिला के ऊपर विराजमान हो जाते हैं।
सिद्धशिला के ऊपर सिद्ध भगवान हैं-
सिद्धशिला से ऊपर ३७०००००, ८६०००, ९७५ धनुष ऊपर जाकर ५२५ धनुष की उत्कृष्ट अवगाहना वाले सिद्ध भगवान विराजमान हैं। जैसे कि श्री बाहुबली ५२५ धनुष ऊँचे थे। एक धनुष में ४ हाथ होते हैं।
जघन्य अवगाहना वाले मनुष्य सिद्धशिला से ३७ लाख, ८७ हजार, ४९९ धनुष अर्घ हाथ प्रमाण ऊपर जाकर विराजमान हैं। मध्यम अवगाहना वाले उत्कृष्ट से नीचे और जघन्य के ऊपर अनेक अवगाहना से सहित हुए सिद्धशिला से ऊपर विराजमान हैं।
इन सभी सिद्ध भगवन्तों को मेरा अनंत-अनंतबार नमस्कार होवे।
तीनलोक के अकृत्रिम जिनमंदिर-तीनों लोकों में ७७२०००००±४५८± ८४९७०२३·८५६९७४८१ अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। ९२५ करोड़, ५३ लाख, २७ हजार, ९४८ जिनप्रतिमाएँ हैं। व्यंतर देव व ज्योतिष्क देवों के असंख्यात जिनमंदिर हैं। सभी में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएँ हैं।
नवनिर्मित तीनलोक रचना-यहाँ जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में नवनिर्मित तीनलोक रचना में अधोलोक में नारकी दिखाये गये हैं। इसी अधोलोक में प्रथम पृथ्वी के खरभाग और पंकभाग में भवनवासी के १० भेद व व्यंतर देवों के ८ भेदों के १-१ मंदिर ऐसे १०±८·१८ मंदिर स्थापित हैं। उन १८ प्रकार के इंद्रों के महल के आगे के प्रतीक में १८ चैत्यवृक्ष हैं। उनमें भी ४-४ प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
मध्यलोक में-ढाईद्वीप में पाँच मेरु दिखाये गये हैं एवं श्री ऋषभदेव, शांतिनाथ आदि की प्रतिमाएँ विराजमान हैं। यहाँ मध्यलोक में मनुष्य और तिर्यंच दिखाये गये हैं। यहीं पर सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र व ताराओं के विमान दिखाये गये हैं।
मध्यलोक के ऊपर सोलह स्वर्गों में १-१ मंदिर हैं। सौधर्मेन्द्र के महल आदि बने हैं। इंद्र सभा बनाई गई हैं। चैत्यवृक्ष एवं मानस्तंभ तथा नीलांजना आदि नृत्यांगनाएँ हैं। यथास्थान इंद्र-इन्द्राणी, देव-देवियाँ दिखाये गये हैं।
इनसे ऊपर नवग्रैवेयक में ९ मंदिर, नव अनुदिश के ९ मंदिर एवं पाँच अनुत्तर के ५ मंदिर हैं। यथास्थान अहमिन्द्र दिखाये गये हैं।
अनंतर सिद्धशिला पर पद्मासन एवं खड्गासन सिद्धप्रतिमाएँ विराजमान हैं।
इस प्रकार यहाँ तीनलोक रचना में अधोलोक में १०±८·१८ मंदिर, मध्यलोक में पाँच मेरु में प्रतिमाएँ, मध्यलोक में प्रतिमाएँ एवं सूर्य, चंद्र में प्रतिमा विराजमान हैं। ऊर्ध्वलोक में १६±९±९±५·३९ मंदिर हैं। ऐसे १०±८±१६±९±९±५·५७ मंदिरों में प्रत्येक में ४-४ प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
अधोलोक में १८ एवं १६ स्वर्गों में १६ ऐसे १८±१६·३४ चैत्यवृक्षों में ४-४ प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
इस प्रकार ५७ मंदिर में ५७²४·२२८ पुन: ३४ चैत्यवृक्षों की ३४²४·१३६, मध्यलोक में मेरु की ४०±२ सूर्य, २ चंद्र की ४ तथा अन्य २८ प्रतिमाएँ एवं सिद्धशिला की ४ पद्मासन एवं ८ खड्गासन ऐसी १२ प्रतिमाएँ हैं। कुल मिलाकर २२८±१३६±४०±४±२८±१२· ४४८ प्रतिमाएँ यहाँ विराजमान हैं। इन सभी ४४८ जिनप्रतिमाओं को तीनलोक भ्रमण समापन हेतु मेरा मन, वचन, कायपूर्वक अनंत-अनंत बार नमस्कार होवे।
तीनलोक का ध्यान-प्रतिदिन खड़े होकर दोनों पैर पैâलाकर कमर पर दोनों हाथ रखकर अपने आप को तीन लोक बनाकर ध्यान करना चाहिए। ध्यान में तीन लोक के जिनमंदिरों को, प्रतिमाओं को, नवदेवताओं को स्थापित करने से यह शरीर पवित्र हो जायेगा। मन पवित्र होगा, वचन पवित्र होंगे। शरीर पवित्र होकर स्वस्थ होगा पुन: अपने आपको सिद्धशिला तक ले जाना चाहिए। जिससे एक न एक दिन अपनी आत्मा नियम से सिद्ध परमात्मा बन जायेगी। यही इस तीनलोक के ध्यान का सार है।
जंबूद्वीप की ३० एकड़ पवित्र भूमि पर संस्थान के द्वारा संचालित विभिन्न योजनाओं/रचनाओं का संक्षिप्त विवरण निम्नांकित है-
१. जंबूद्वीप रचना-जिनेन्द्र भगवान की २०७ प्रतिमाओं से पावन भारतीय शिल्प और जैन भूगोल का अद्वितीय उदाहरण, आधुनिक आकर्षणों-बिजली के फौव्वारे, नौका-विहार इत्यादि सहित।
२. कमल मंदिर-भगवान महावीर की अतिशयकारी खड्गासन प्रतिमा इस मंदिर में विराजमान हैं।
३. ध्यान मंदिर–२४ तीर्थंकर भगवन्तों की प्रतिमाओं सहित ‘ह्रीं’ रचना इस मंदिर में विराजमान हैं, जो कि ‘ध्यान’ (श्ग्ूaूग्दह) करने हेतु उत्तमोत्तम माध्यम हैं।
४. त्रिमूर्ति मंदिर-भगवान आदिनाथ, भरत एवं बाहुबली की खड्गासन प्रतिमाओं से इस मंदिर का नाम सार्थक है। कमल पर विराजमान भगवान नेमिनाथ एवं पार्श्वनाथ से इस मंदिर की शोभा द्विगुणित हो गयी है। इस मंदिर के शिखर में भगवान ऋषभदेव विराजमान हैं एवं आजू-बाजू के शिखर में भी जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं।
५. वासुपूज्य मंदिर-इस मंदिर में १२वें तीर्थंकर-वासुपूज्य स्वामी की खड्गासन प्रतिमा विराजमान हैं।
६. शांतिनाथ मंदिर-जिन भगवन्तों के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान कल्याणकों से हस्तिनापुर की भूमि परम-पावन हुई है, उन शांति-कुंथु और अरहनाथ भगवंतों की खड्गासन प्रतिमाएँ इस मंदिर में विराजमान हैं।
७. ॐ मंदिर-अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठियों की प्रतिमाओं सहित ॐ (ओम) रचना इस मंदिर में विराजित है।
८. विद्यमान बीस तीर्थंकर मंदिर-इस मंदिर में विदेह क्षेत्र के विद्यमान २० तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ बीस कमलों पर विराजमान हैं।
९. सहस्रकूट मंदिर-जिनेन्द्र भगवान की १००८ प्रतिमाओं सहित।
१०. भगवान ऋषभदेव मंदिर-धातु निर्मित भगवान ऋषभदेव की मूलनायक प्रतिमा एवं अन्य जिन प्रतिमाओं सहित।
११. भगवान ऋषभदेव कीर्तिस्तंभ-‘भगवान ऋषभदेव अन्तर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव वर्ष’ में निर्मित, भगवान के जीवन चरित्र को प्रदर्शित करने वाला, ८ प्रतिमाओं से समन्वित ३१ फुट ऊँचा कीर्तिस्तंभ।
१२. तेरहद्वीप जिनालय-इस मंदिर के अंदर मध्यलोक के तेरहद्वीपों की अकृत्रिम रचना का अति सुन्दरता के साथ दिग्दर्शन कराया गया है, जिसमें पंचमेरु पर्वतों के साथ-साथ कुल २१२७ प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
१३. अष्टापद दिगम्बर जैन मंदिर-इस मंदिर के अंदर प्रथम जैन तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की निर्वाणभूमि अष्टापद-वैâलाशपर्वत की आकर्षक प्रतिकृति विराजमान है। वैâलाशपर्वत का ही दूसरा नाम अष्टापद है। ४ फरवरी २००० को लाल किला मैदान, दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा इस प्रतिकृति के समक्ष निर्वाणलाडू चढ़ाकर इसका उद्घाटन किया गया।
१४. नवग्रह शान्ति जिनमंदिर-उत्तर भारत में प्रथम बार निर्मित इस नवग्रहशांति जिनमंदिर में नवग्रह अरिष्ट निवारक नव तीर्थंकरों की धातु निर्मित सुन्दर प्रतिमाएँ विराजमान हैं, जिनके दर्शन-पूजन करके भक्तगण अपने ग्रहों की शांति करते हुए देखे जाते हैं।
१५. तीर्थंकरत्रय की विशाल प्रतिमाएँ-हस्तिनापुर में जन्मे तीर्थंकर श्री शांतिनाथ-कुंथुनाथ-अरहनाथ भगवान की ३१-३१ फुट की खड्गासन प्रतिमाएँ जम्बूद्वीप स्थल पर विराजमान हुई हैं। इनके विशाल मंदिर का निर्माण कार्य द्रुतगति से चल रहा है।
१६. तीनलोक की भव्य रचना-त्रिलोकसार, तिलोयपण्णत्ति आदि करणानुयोग ग्रंथों के अनुसार तीन लोक की सुन्दर रचना का निर्माण मेरी प्रेरणा से हुआ है। इसमें अत्याधुनिक सुविधा के लिए लिफ्ट लगाई गई है, जिससे सभी भक्तगण सिद्धशिला तक के दर्शन प्राप्त कर लेते हैं।
१७. चौबीसी मंदिर-इस मंदिर में २४ भगवन्तों की ४-४ ऐसी ९६ प्रतिमाएँ एवं धातु की अनेक प्रतिमाएँ तथा इन्द्रध्वज विधान में विराजमान की जाने वाली ४५८ प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
-आर्यिका चन्दनामती
शांतिनाथजी की जन्मभूमि को नमूँ,
भूमि को नमूँ, जन्मभूमि को नमूँ।।
हस्तिनापुरी शुभ धाम है, जहाँ जम्बूद्वीप महान है।।शांति.।।टेक.।।
माता ऐरावती को स्वप्न दिखे जहाँ,
विश्वसेन पितु दान किमिच्छक दें जहाँ।
धनकुबेर ने रत्नवृष्टि की थी जहाँ,
उत्सव करने इन्द्र स्वयं आये जहाँ।।
उस तीर्थ को, वन्दन करो-२,
हस्तिनापुरी शुभ धाम है, जहाँ जम्बूद्वीप महान है।।शांतिनाथ…।।१।।
ऐसे ही प्रभु कुंथु अरह के जन्म से,
इस नगरी के नर-नारी सब धन्य थे।
मात-पिता उनके भी सुर-नर वंद्य थे,
आत्मगुणों से जिनवर खुद अभिवंद्य थे।।
उस तीर्थ को, वंदन करो-२,
हस्तिनापुरी शुभ धाम है, जहाँ जम्बूद्वीप महान है।।शांतिनाथ…।।२।।
गणिनी माता ज्ञानमती की प्रेरणा,
पाकर तीरथ में आई नवचेतना।
धरती का यदि स्वर्ग तुम्हें है देखना,
तो इसकी ‘‘चंदनामती’’ छवि देखना।।
उस तीर्थ को, वंदन करो-२
हस्तिनापुरी शुभ धाम है, जहाँ जम्बूद्वीप महान है।।शांतिनाथ…।।३।।
-आर्यिका चन्दनामती
शांतिनाथ की जन्मभूमि, हस्तिनापुरी विख्यात।
जम्बूद्वीप की रचना से, पावन हुई वो धरती आज।। टेक.।।
विश्वसेन नृप ऐरा देवी, का था महल जहाँ पर।
धनकुबेर ने पन्द्रह पहिने, रत्नवृष्टि की जहाँ पर।।
उसी तीर्थ का वंदन करके, करूँ जनम साकार।
जम्बूद्वीप की रचना से, पावन हुई वो धरती आज।।१।।
चक्रवर्ति अरु कामदेव की, पदवी उन्हें मिली थी।
आत्मज्ञान की ज्योती उनके, मन में यहीं जली थी।।
नश्वर जग को छोड़ा क्षण में, षट्खंड का साम्राज।
जम्बूद्वीप की रचना से, पावन हुई वो धरती आज।।२।।
शांति कुंथु अरनाथ प्रभू के, जन्म से है यह पावन।
तीनों प्रभु के चार चार, कल्याणक से मनभावन।।
तीनों ही तीर्थंकर चक्री, कामदेव से ख्यात।
जम्बूद्वीप की रचना से, पावन हुई वो धरती आज।।३।।
इसी भूमि पर ऋषभदेव का, हुआ प्रथम आहार।
जुड़ा यहीं से है समझो, रक्षाबंधन त्योहार।।
मुनि उपसर्ग दूर करने को, आये विष्णुकुमार।
जम्बूद्वीप की रचना से, पावन हुई वो धरती आज।।४।।
गणिनी माता ज्ञानमती, जब से तीरथ पर आईं।
नई-नई रचनाएं देकर, महिमा खूब बढ़ाई।।
करे ‘‘चंदनामती’’ वंदना, गुरु पद में भी आज।
जम्बूद्वीप की रचना से, पावन हुई वो धरती आज।।५।।
-आर्यिका चन्दनामती
शान्ति-कुंथु-अरहनाथ, तीन लोक के हैं नाथ,
तीनों जिनवर को तीन बार नमन है।।टेक.।।
जैनधर्म के ये तीन तीर्थंकर।
हस्तिनापुर में जन्में तीनों जिनवर।।
तीन पदवी से सनाथ, तीन लोक के हैं नाथ,
तीनों जिनवर को तीन बार नमन है।।१।।
तीर्थंकर चक्रवर्ती कामदेव हैं।
ये तो सभी देवताओं के भी देव हैं।।
जग को करते ये सनाथ, तीन लोक के हैं नाथ,
तीनों जिनवर को तीन बार नमन है।।२।।
चौदह रत्न नव निधि के ये स्वामी।
छह खण्डों के अधिपति नामी।।
चक्ररत्न से सनाथ, तीन लोक के हैं नाथ,
तीनों जिनवर को तीन बार नमन है।।३।।
राज्य किया फिर तज दिया सबको।
वन में गये दीक्षा धारी किया तप को।।
केवलज्ञान से सनाथ, तीन लोक के हैं नाथ,
तीनों जिनवर को तीन बार नमन है।।४।।
जम्बूद्वीप में हैं इनकी बड़ी प्रतिमा।
‘‘चंदनामति’’ बहुत जिनकी महिमा।।
इनसे तीर्थ है सनाथ, तीन लोक के हैं नाथ,
तीनों जिनवर को तीन बार नमन है।।५।।
-आर्यिका चन्दनामती
जहाँ जन्मे तीन भगवान जी, श्री शांति कुंथु अरहनाथ जी।
उस हस्तिनापुरी की करूँ वंदना, जय हो तीन तीर्थंकर महान की।।टेक.।।
चौबिस तीर्थंकर में केवल, तीन तीर्थंकर ऐसे हैं।
जो तीर्थंकर-कामदेव-चक्री तीनों पद धरते हैं।।
उनके वैभव से धरती महान थी, जिसकी दूजी न कोई मिशाल थी।
उस हस्तिनापुरी की करूँ वंदना, जय हो तीन तीर्थंकर महान की।।१।।
चक्रवर्ति साम्राज्य त्यागकर, तीनों ने दीक्षा धारी।
योगलीन हो आत्मध्यान कर, केवलज्ञान निधी पा ली।।
उनकी समवसरण लक्ष्मी महान थी, जिसकी दूजी न कोई मिशाल थी।
उस हस्तिनापुरी की करूँ वंदना, जय हो तीन तीर्थंकर महान की।।२।।
ज्ञानमती माताजी ने, जहाँ जम्बूद्वीप बनाया है।
वहीं ‘चंदनामती’ तीन, प्रतिमा विशाल पधराया है।।
करो जय जय सभी जिनराज की, जिनवर के पिता अरु मात की।
उस हस्तिनापुरी की करूँ वंदना, जय हो तीन तीर्थंकर महान की।।३।।