अनादिसिद्ध अनंतानंत आकाश के मध्य में चौदह राजू ऊँचा, सर्वत्र सात राजू मोटा, तलभाग में पूर्व पश्चिम सात राजू चौड़ा, घटते हुए मध्य में एक राजू चौड़ा, पुन: बढ़ते हुए ब्रह्म स्वर्ग तक पांच राजू चौड़ा और आगे घटते-घटते सिद्धलोक के पास एक राजू चौड़ा ऐसा पुरुषाकार लोकाकाश है।
इसमें मध्यलोक एक राजू चौड़ा और एक लाख चालीस योजन ऊँचा है।
मध्यलोक में असंख्यात द्वीप-समूहों से वेष्टित गोल तथा जंबूवृक्ष से युक्त जंबूद्वीप स्थित है। यह एक लाख योजन विस्तार वाला है।
जंबूद्वीप की परिधि-तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताइस योजन, तीन कोश, एक सौ अट्ठाइस धनुष और कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल है अर्थात् योजन ३,१६,२२७ योजन ३ कोश १२८ धनुष १३-(१/२) अंगुल है। लगभग १२६४९०८००६ मील।
जम्बूद्वीप का क्षेत्रफल-सात सौ नब्बे करोड़, छप्पन लाख, चौरानवे हजार, एक सौ पचास ७९०,५६,९४,१५० योजन है अर्थात् तीन नील, सोलह खबर, बाईस अरब, सतहत्तर करोड़, छ्यासठ लाख (३,१६,२२,७७,६६,००,०००) मील है।
१. हिमवान-हिमवानपर्वत भरतक्षेत्र की तरफ १४४७१-५/१९ योजन (५७८८५०५२-१२/१९ मील) लम्बा है और हैमवत क्षेत्र की तरफ २४९३२-१/१९ योजन (९९७२८२१०-१०/१९ मील) लम्बा है। इसकी चौड़ाई १०५२-१२/१९ योजन (४२०८४२१(१/१९मील) प्रमाण है। ऊंचाई १०० योजन (४००००० मील) प्रमाण है।
२. महाहिमवान-यह पर्वत ४२१०-१०/१९ योजन (१६८४२१०५-५/१९ मील) विस्तार वाला है। हैमवत की तरफ इसकी लंबाई ३७६७४-१६/१९ योजन (१५०६९९३६८-८/१९ मील) है और हरिक्षेत्र की तरफ इसकी लंबाई ५३९३१-६/१९ योजन (२१५७२५२६३-३/१९ मील) है। यह पर्वत २०० योजन (८००००० मील) ऊँचा है।
३. निषध-यह पर्वत १६८४२-२/१९ योजन (६७३६८०००-१/१९ मील) विस्तृत है। इसकी हरिक्षेत्र की तरफ लंबाई ७३९०१-१७/१९ योजन (२९५६०४३५७-१७/१९ मील) एवं विदेह की तरफ की लंबाई ९४१५६-२/१९ योजन (३७६६२४४२१-१/१९ मील) है। इसकी ऊंचाई ४०० योजन (१६०००००मील) है।
आगे का चौथा नील पर्वत निषध के प्रमाण वाला है। पाँचवां रुक्मी पर्वत महाहिमवान सदृश है और छठा शिखरी पर्वत हिमवान के प्रमाण वाला है।
पर्वतों के वर्ण-हिमवान् पर्वत का वर्ण सुवर्णमय है आगे क्रम से चांदी, तपाये हुये सुवर्ण, वैडूर्यमणि, चांदी और सुवर्ण सदृश है।
ये पर्वत ऊपर और मूल में समान विस्तार वाले हैं एवं इनके पार्श्वभाग चित्र- विचित्र मणियों से निर्मित हैं।
१.पद्म सरोवर-यह सरोवर हिमवान् पर्वत के मध्य भाग में है। ५०० योजन चौड़ा, इससे दुगुना १००० योजन लम्बा और १० योजन गहरा है। इसमें श्रीदेवी निवास करती है। इसकी आयु एक पल्य प्रमाण है।
श्रीदेवी के परिवार कमल-एक लाख चालीस हजार एक सौ पंद्रह (१,४०,११५) परिवार कमल हैं वे इसी सरोवर में हैं। इन परिवार कमलों की नाल दस योजन प्रमाण है अर्थात् इनकी नाल जल से दो कोश ऊपर नहीं है जल के बराबर है। इन कमलों का विस्तार आदि मुख्य कमल से आधा-आधा है। इनमें रहने वाले परिवार देवों के भवनों का प्रमाण भी श्रीदेवी के भवन के प्रमाण से आधा है।
२. महापद्म सरोवर-यह सरोवर महाहिमवान् पर्वत पर है। यह १००० योजन चौड़ा, २००० योजन लंबा और २० योजन गहरा है। इसके मध्य में जो मुख्य कमल है वह दो योजन विस्तृत है। इसके मुख्य कमल पर ह्रीदेवी निवास करती है। इसकी आयु भी एक पल्य प्रमाण है।
३. तिगिंछ सरोवर-यह सरोवर निषध पर्वत के मध्य में है। यह २००० यो. चौड़ा, ४००० योजन लंबा एवं ४० यो. गहरा है। इस सरोवर में जो मुख्य कमल है वह चार योजन विस्तृत है। इसके मुख्य कमल में ‘धृतिदेवी’ रहती है, इसकी आयु भी एक पल्य की है।
४. केसरी सरोवर-यह सरोवर नील पर्वत पर है। इस सरोवर का सारा वर्णन तिगिंछ के सदृश है। अन्तर इतना ही है कि यहाँ ‘बुद्धि’ नाम की देवी निवास करती है।
५. पुंडरीक सरोवर-यह रुक्मी पर्वत पर है। इस सरोवर का सारा वर्णन ‘महापद्म’ के सदृश है। अन्तर इतना ही है कि इसके कमल पर ‘कीर्तिदेवी’ निवास करती है।
६. महापुंडरीक-यह शिखरी पर्वत पर है। इस सरोवर का सारा वर्णन पद्म सरोवर के सदृश है। यहाँ ‘लक्ष्मी’ नाम की देवी रहती है।
विशेष-सरोवरों के चारों ओर वेदिका से वेष्टित वनखण्ड हैं। वे अर्धयोजन चौड़े हैं। सरोवरों के कमल पृथ्वीकायिक हैं, वनस्पतिकायिक नहीं हैं। इनमें बहुत ही उत्तम सुगंधि आती है।
जिनमंदिर-इन सरोवरों में जितने कमल कहे हैं वे महाकमल हैं। इनके अतिरिक्त क्षुद्रकमलों की संख्या बहुत है। इन सब कमलों के भवनों में एक-एक जिनमंदिर है इसलिये जितने कमल हैं उतने ही जिनमंदिर हैं।
भरतक्षेत्र के बीच में पूर्व-पश्चिम लंबा विजयार्ध पर्वत है। दक्षिण की तरफ इसकी लम्बाई ९७४८-११/१९ योजन (३८९९४३१५-१५/१९) मील है। उत्तर भरत की तरफ इस पर्वत की लंबाई १०७२०-११/१९ योजन (४२८८२३१५-१५/१९ मील) है। यह पर्वत ५० योजन (२०००००मील) चौड़ा और २५ योजन (१००००० मील) ऊंचा है।
हिमवान पर्वत के पद्म सरोवर की चारों दिशाओं में चार तोरणद्वार हैं। उनमें पूर्व तोरण से गंगा नदी निकलती है। गंगा नदी का निर्गम स्थान वङ्कामय है। ६-१/४ योजन (२५००० मील) विस्तृत, १/२ कोस (५०० मील) अवगाह से सहित है।
भरतक्षेत्र के छ: खंड-बीच के विजयार्ध पर्वत और इन दोनों नदियों के निमित्त से भरतक्षेत्र के छह खंड हो गये हैं। भरत के ५२६-६/१९ योजन (२१०५२६३-३/१९ मील) में विजयार्ध की चौड़ाई ५० योजन (२,००००० मील) प्रमाण निकल आती है। यथा-(५२६-६/१९-५०)´२·२३८-३/१९ योजन दक्षिण भरत के मध्य का भाग आर्यखंड है और शेष पांच खंड म्लेच्छ खंड हैं अर्थात् दक्षिण भरत ९५२६३१-११/१९ मील है।
वृषभाचल-उत्तर भरत के मध्य के खंड में एक पर्वत है जिसका नाम ‘वृषभ’ है। यह पर्वत १०० योजन (४,००००० मील) ऊंचा है, २५ योजन (१,००००० मील) नींव से युक्त, मूल में १०० योजन (४,००००० मील) मध्य में ७५ योजन (३००००० मील) और उपरिभाग में ५० योजन (२,००००० मील) विस्तार वाला है, गोल है। इस भवन के ऊपर ‘वृषभ’ नाम से प्रसिद्ध व्यंतर देव का भवन है, उसमें जिनमंदिर है। इस पर्वत के नीचे तथा शिखर पर वेदिका और वनखंड हैं। चक्रवर्ती छह खंड को जीत कर गर्व से युक्त होता हुआ इस पर्वत पर जाकर प्रशस्ति लिखता है। उस समय इसे सब तरफ प्रशस्तियों से भरा हुआ देखकर सोचता है कि मुझ समान अनंतों चक्रियों ने यह वसुधा भोगी है अत: अभिमानरहित होता हुआ दण्डरत्न से एक प्रशस्ति को मिटाकर अपना नाम पर्वत पर अंकित करता है।
आर्यखण्ड-म्लेच्छ खण्ड की व्यवस्था- भरतक्षेत्र के और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंडों में सुषमासुषमा से लेकर षट्काल परिवर्तन होता रहता है। प्रथम, द्वितीय, तृतीय काल में यहाँ की व्यवस्था में चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलभद्र, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण ऐसे त्रेसठ शलाका पुरुष जन्म लेते हैं। इस बार यहाँ हुंडावसर्पिणी के दोष से नौ नारद और नौ रुद्र भी उत्पन्न हुए हैं। पुन: पंचम काल और छठा काल आता है। यहाँ अभी पंचम काल चल रहा है। इसमें धर्म का ह्रास होते-होते छठे काल में धर्म नहीं रहता है, प्राय: मनुष्य पाशविक वृत्ति के बन जाते हैं।
विद्याधर की दोनों श्रेणियों की एक सौ दस नगरियों में और पांच म्लेच्छ खंडों में चतुर्थ काल की आदि से लेकर अंत तक काल परिवर्तन होता है।
पद्म सरोवर के उत्तर तोरण द्वार से ‘रोहितास्या’ नदी निकल कर दो सौ छियत्तर योजन से कुछ अधिक २७६-६/१ योजन (११०४००० मील) दूर तक पर्वत के ऊपर बहती है और रोहित् नदी महाहिमवान पर्वत के महापद्म सरोवर के दक्षिण द्वार से निकलकर १६०५-५/१९ योजन (६४२१०५२-१२/१९ मील) प्रमाण पर्वत पर आकर नीचे गिरती है।
महापद्म सरोवर के उत्तर तोरणद्वार से हरिकांता नदी निकलकर १६०५-५/१९ योजन प्रमाण (६४२१०५२-१२/१९ मील) पर्वत पर आती है पुन: सौ योजन (४००००० मील) पर्वत से दूर ही हरिकांता कुण्ड में गिरती है तथा हरित नदी निषध पर्वत के तिगिंछ सरोवर के दक्षिण तोरणद्वार से निकलकर ७४२१-१/१९ योजन (२९६८४२१०-१०/१९ मील)पर्वत पर आकर सौ योजन (४००००० मील) पर्वत को छोड़कर ही नीचे हरितकुण्ड में गिरती है। इन दोनों नदियों के उद्गम और प्रवेश के तोरणद्वार, कुण्ड, पर्वत और देवियों के भवनों का प्रमाण तथा नदी की धारा का प्रमाण रोहित नदी से दूना-दूना है, ऐसा समझना।
क्षेत्र तथा विस्तार पर्वतों की पर्वतों की पर्वतों
कुलाचलों योजन मील ऊँचाई ऊँचाई के
के नाम योजन से योजन से वर्ण
क्षेत्र भरत ५२६-६/१९ २१०५६३-१/१९ — — — पर्वत हिमवान १०५२-१२/१९
४२१०५२६-६-१९ १०० ४००००० सुवर्ण क्षेत्र हैमवत २१०५-५/१९ ८४२१०५२-१२/१९ —
— — पर्वत महाहिमवान ४२१०-१०/१९ १६८४२१०५-५/१९ २०० ८००००० रजत क्षेत्र
हरि ८४२१-१-१९ ३३६८४२१०-१०-१९ — — — पर्वत निषध १६८४२-२/१९
६७३६८४२१-१/१९ ४०० १६००००० तपा सोना
क्षेत्र विदेह ३३६८४-४/१९ १३४७३६८४२-२/१९ — — —
पर्वत नील १६८४२-२/१९ ६७३६८४२१-१/१९ ४०० १६००००० वैडूर्यमणि
क्षेत्र रम्यक ८४२१-१/१९ ३३६८४२१०-१०/१९ — — — पर्वत रुक्मी ४२१०-१०/१९
१६८४१०५-५/१९ २०० ८००००० रजत क्षेत्र हैरण्यवत २१०५ – ५/१९
८४२१०५२ — — — पर्वत शिखरी १०५२-१२/१९ ४२१०५२६-६/१९ १००
४००००० सुवर्ण क्षेत्र ऐरावत ५२६-६/१९ २१०५२६३-३/१९ — — —
सीतोदा नदी निषध के तिगिंछ सरोवर के उत्तर तोरण द्वार से निकलकर पर्वत पर ७४२१-१/१९ योजन (२९६८४२१०-१०/१९ मील) तक आकर पर्वत को दो सौ योजन (८००००० मील) छोड़कर नीचे सीतोदा कुंड में गिरी है। सीता नदी भी नील पर्वत के केसरी सरोवर के दक्षिण तोरणद्वार से निकलकर ७४२१-१/१६ योजन (२९६८४२१०-१०/१९ मील) तक पर्वत पर बहकर दो सौ योजन (८००००० मील) नीचे पर्वत को छोड़कर सीताकुंड में नीचे गिरी है। ये दोनों नदियां मेरु पर्वत को दो कोस दूर से ही छोड़कर प्रदक्षिणा के आकार की होती हुई विदेह क्षेत्र में चली जाती हैं। सीता नदी पूर्व विदेह में बहती हुई पूर्व समुद्र में प्रवेश करती है और सीतोदा नदी पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती है। सीता-सीतोदा नदियों की परिवार नदियां चौरासी-चौरासी हजार हैं। ये परिवार नदियां देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्र में ही बहती हैं।
सुमेरु पर्वत–विदेहक्षेत्र के बीचोंबीच में सुमेरु पर्वतहै। यह पृथ्वी से ९९००० योजन (३९६०,००००० मील) ऊंचा है। इसकी नींव पृथ्वी के नीचे १००० योजन (४०,०००००मील) गहरी है। इसकी चूलिका ४० योजन (१६०००० मील) है। सुमेरु पर्वत की चार वन है।
१. भद्रसाल वन- सुमेरु पर्वत के चारों तरफ पृथ्वी पर भद्रसाल वन है। यह पूर्व-पश्चिम में २२००० योजन (८८०००००० मील) है और दक्षिण-उत्तर में २५० योजन (१०००००० मील) चौड़ा है। इस भद्रसाल वन में चारों दिशाओं में चार१ चैत्यालय हैं। ये चैत्यालय सौ योजन लंबे, पचास योजन चौड़े और पचहत्तर योजन ऊंचे हैं। इनका वर्णन त्रिलोकसार आदि में बड़ा ही मनोरम है। इन चैत्यालयों में १०८-१०८ जिनप्रतिमायें हैं, जो बहुत ही सुन्दर हैं। भद्रसाल वन के बाह्य-अभ्यंतर दोनों पार्श्वभाग में वेदिका है जो एक योजन (४००० मील) ऊंची, अर्ध योजन (२००० मील) चौड़ी है।
२. नंदनवन-नंदनवन सर्वत्र पांच सौ योजन (२०००००० मील) विस्तृत है। इसकी चारों दिशाओं में भी भद्रसाल वन के चैत्यालय सदृश चार चैत्यालय हैं। नंदन वन में ईशान विदिशा में एक बलभद्र नाम का कूट है।
यह १०० योजन (४००००० मील) ऊंचा, १०० योजन चौड़ा और ऊपर में ५० योजन (२०००००मील) विस्तृत है। नंदनवन में नंदन, मंदर, निषध, हिमवान् ,रजत, रुचक, सागर और वङ्का ये आठ कूट हैं। ये सुवर्णमयी, ५०० योजन (२००००००मील) ऊंचे, ५०० योजन (२००००००मील) मूल में विस्तृत हैं और २५० योजन (१००००००मील) ऊपर में विस्तृत हैं। बलभद्र कूट में बलभद्र नाम का देव और इन कूटों में दिक्कुमारी देवियां रहती हैं।
३. सौमनस वन-सौमनसवन में भी चारों दिशाओं में चार चैत्यालय हैं वे प्रमाण में नंदनवन२ से आधे हैं। वहाँ भी नौ कूट हैं।
४. पांडुकवन-पांडुक वन की चारों दिशाओं में चार चैत्यालय हैं जो कि प्रमाण में १०० कोश लंबे, ५० कोश चौड़े और ७५ कोश ऊंचे हैं।
पांडुकशिला-इस वन की चारों विदिशाओं में चार शिलायें हैं। ईशान दिशा में पांडुकशिला, आग्नेय में पांडुकंबला, नैऋत्य में रक्ता और वायव्य में रक्तकंबला नाम वाली हैं। ये शिलायें अर्ध चन्द्राकार हैं। १०० योजन (४००००० मील) लंबी, ५० योजन (२०००००मील) चौड़ी और ८ योजन (३२००० मील) मोटी हैं। इन शिलाओं के ऊपर बीच में तीर्थंकर के लिये सिंहासन है और उसके आजू-बाजू सौधर्म-ईशान इन्द्र के लिये भद्रासन हैं। ये आसन गोल हैं।
पांडुकशिला पर भरतक्षेत्र के तीर्थंकरों का और पांडुकंबला पर पश्चिम विदेह के तीर्थंकरों का, रक्ता शिला पर पूर्व विदेह के तीर्थंकरों का और रक्तकंबला पर ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों का अभिषेक होता है।
विदेह क्षेत्र का विस्तार-इस विदेहक्षेत्र का विस्तार ३३६८४-४/१९ योजन (१३४७३६८४२-२/१९ मील) है। इस क्षेत्र के मध्य की लंबाई १००००० योजन (४०००००००० मील) चालीस करोड़ मील है।
गजदंत पर्वत-भद्रसालवन में मेरु की ईशान दिशा में माल्यवान्, आग्नेय में महासौमनस, नैऋत्य में विद्युत्प्रभ और वायव्य विदिशा में गंधमादन ये चार गजदंत पर्वत हैं। दो पर्वत निषध और मेरु का तथा दो पर्वत नील और मेरु का स्पर्श करते हैं।
बत्तीस विदेह-मेरू की पूर्व दिशा में पूर्वविदेह और पश्चिम दिशा में पश्चिमविदेह हैं। पूर्व विदेह के बीच में सीता नदी है। पश्चिम विदेह के बीच में सीतोदा नदी है। इन दोनों नदियों के दक्षिण-उत्तर तट होने से चार विभाग हो जाते हैं। इन एक-एक विभाग में आठ-आठ विदेह देश हैं।
पूर्व-पश्चिम में भद्रसाल की वेदी है उसके आगे वक्षार पर्वत, उसके आगे विभंगा नदी, उसके आगे वक्षार पर्वत, उसके आगे विभंगा नदी, उसके आगे वक्षार पर्वत, उसके आगे विभंगा नदी, उसके आगे वक्षार पर्वत, उसके आगे देवारण्य व भूतारण्य की वेदी, ये नव हुए। इन नव के बीच-बीच में आठ विदेहदेश हैं। इस प्रकार सीता-सीतोदा के दक्षिण-उत्तर तट संबंधी बत्तीस विदेह हो जाते हैं।
सोलह वक्षार और बारह विभंगा नदियाँ-सीतानदी के उत्तर तट में भद्रसाल की वेदी से लेकर आगे क्रम से चित्रकूट, पद्मकूट, नलिनकूट और एकशैल ये चार वक्षार पर्वत हैं। गाधवती, द्रहवती,पंकवती ये तीन विभंगा नदियाँ हैं।
सीतानदी के दक्षिण तट में देवारण्य वेदी से लगाकर क्रम से त्रिकूट, वैश्रवण, अंजनात्मा, अंजन ये वक्षारपर्वत और तप्तजला, मत्तजला, उन्मत्तजला ये तीन विभंगा नदियाँ हैं।
पश्चिम विदेह की सीतोदा नदी के दक्षिण तट में भद्रसाल वेदी से लगाकर क्रम से श्रद्धावान् , विजटावान् , आशीविष, सुखावह ये चार वक्षार और क्षारोदा, सीतोदा, स्रोतोवाहिनी ये तीन विभंगा नदियाँ हैं।
इसी पश्चिम विदेह की सीतोदा नदी के उत्तर तट में देवारण्य की वेदी से लगाकर क्रम से चंद्रमाल, सूर्यमाल, नागमाल, देवमाल ये चार वक्षार पर्वत हैं। गंभीरमालिनी, फेनमालिनी, ऊर्मिमालिनी ये तीन विभंगा नदियाँ हैं।
देवकुरु-उत्तरकुरु भोगभूमि-मेरु और निषध पर्वत के मध्य में देवकुरु और मेरु तथा नील पर्वत के मध्य में उत्तरकुरु हैं। कुरुक्षेत्र का विस्तार ११८४२-२/१९ योजन (४७३६४२१-१/१९ मील) प्रमाण है। कुरुक्षेत्रों का वृत्त विस्तार ७११४३-४/१९ योजन (२८४५७२८४२-२/१९ मील) तथा एक कला का नौवां अंश ( १/१९ x ९) है। कुरुक्षेत्र की जीवा ५३००० योजन (२१२०००००० मील) और उसके धनुष का प्रमाण ६०४१८-१२/१९ योजन (२४१६७४५२६-६/१९ मील) प्रमाण है। इसमें उत्तर भोगभूमि की व्यवस्था है।
जंबूवृक्ष- मेरु पर्वत के ईशान कोण में सीता नदी के पूर्व तट पर नील पर्वत के पास में जंबूवृक्ष का स्थल है। यह वृक्ष पृथ्वीकायिक है, जामुन के वृक्ष के समान इनमें फल लटकते हैं अत: यह जंबूवृक्ष कहलाता है
सुमेरु के उत्तर भाग में उत्तरकुरु भोगभूमि है इसमें अर्थात् मेरु की ईशान दिशा में स्थित जंबूवृक्ष और उसकी बारह पद्म वेदिकायें।
शाखा पर जिनमंदिर-जंबूवृक्ष की उत्तरदिशा संबंधी, नील कुलाचल की तरफ जो शाखा है उस शाखा पर जिनमंदिर है।
शाल्मलीवृक्ष-इसी प्रकार सीतोदा नदी के पश्चिम तट में निषध कुलाचल के पास मेरु पर्वत से नैऋत्य दिशा में देवकुरु क्षेत्र में रजतमयी स्थल पर शाल्मलिवृक्ष है। इसका सारा वर्णन जंबूवृक्ष सदृश है। इसकी दक्षिण शाखा पर जिनमंदिर है।
इस रम्यक् क्षेत्र का सारा वर्णन हरिक्षेत्र के सदृश है। यहाँ पर नील पर्वत के केसरी सरोवर के उत्तर तोरण द्वार से नरकांता नदी निकली है और रुक्मि पर्वत के महापुंडरीक सरोवर के दक्षिण तोरणद्वार से नारी नदी निकलती है। ये नदियाँ नारी-नरकांता कुंड में गिरती हैं। यहाँ के नाभिगिरि का नाम पद्मवान् है, इस पर पद्म नाम का व्यंतर देव रहता है।
इस हैरण्यवत क्षेत्र का सारा वर्णन हैमवत क्षेत्र के सदृश है। यहाँ पर रुक्मि पर्वत के महापुंडरीक सरोवर के उत्तर तोरणद्वार से रूप्यकूला नदी एवं शिखरी पर्वत के पुंडरीक सरोवर के दक्षिण तोरणद्वार से सुवर्णकूला नदी निकलती है। यहाँ पर नाभिगिरि का गंधवान् नाम है उस पर प्रभास नाम का देव रहता है।
इस ऐरावत क्षेत्र का सारा वर्णन भरतक्षेत्र के सदृश है। इसमें बीच में विजयार्ध पर्वत है। उस पर नव कूट हैं-सिद्धकूट, उत्तरार्धऐरावत, तमिस्रगुह, माणिभद्र, विजयार्धकुमार, पूर्णभद्र, खंडप्रपात, दक्षिणार्ध ऐरावत और वैश्रवण। यहाँ पर शिखरी पर्वत के पुंडरीक सरोवर के पूर्व-पश्चिम तोरणद्वार से रक्ता-रक्तोदा नदियाँ निकलती हैं जो कि विजयार्ध की गुफा से निकलकर पूर्व-पश्चिम समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं अत: यहाँ पर भी छह खंड हैं। उसमें भी मध्य का आर्यखंड है।
सुमेरु पर्वत विदेह के मध्य में है। छह कुलाचल-सात क्षेत्रों की सीमा करते हैं। चार गजदंत मेरु की विदिशा में हैं। सोलह वक्षार विदेह क्षेत्र में हैं। बत्तीस विजयार्ध बत्तीस विदेह देश में हैं और दो विजयार्ध, भरत और ऐरावत में एक-एक हैं अत: चौंतीस विजयार्ध हैं। बत्तीस विदेह के ३२, भरत-ऐरावत के दो ऐसे चौंतीस वृषभाचल हैं। हैमवत, हरि तथा रम्यक और हैरण्यवत में एक-एक नाभिगिरि ऐसे चार नाभिगिरि हैं।सीता नदी के पूर्व-पश्चिम तट पर एक-एक ऐसे चार यमकगिरि हैं। देवकुरु-उत्तरकुरु में दो-दो तथा पूर्व-पश्चिम भद्रसाल में दो-दो ऐसे आठ दिग्गज पर्वत हैं। सीता-सीतोदा के बीच बीस सरोवरों में प्रत्येक सरोवर के दोनों तटों पर पाँच-पाँच होने से दो सौ कांचनगिरि हैं।
भरतक्षेत्र की गंगा-सिंधु २ + इनकी सहायक नदियां २८००० + हैमवतक्षेत्र की रोहित-रोहितास्या २ + इनकी सहायक नदियां ५६००० + हरिक्षेत्र की हरित्-हरिकांता २ + इनकी सहायक १,१२००० + विदेहक्षेत्र की सीता-सीतोदा २ + इनकी सहायक १,६८००० (८४००० x २) + विभंगा नदी १२ + इनकी सहायक ३,३६,००० (२८०००²१२) बत्तीस विदेह देशों की गंगा-सिंधु और रक्ता-रक्तोदा नाम की ६४ + इनकी सहायक नदियां ८९६००० (१४००० x ६४)। रम्यकक्षेत्र की नारी-नरकांता २ + इनकी सहायक नदियां १,१२,००० + हैरण्यवत क्षेत्र की सुवर्णकूला २ + इनकी सहायक ५६००० + ऐरावत क्षेत्र की रक्ता-रक्तोदा २ + इनकी सहायक नदियां २८००० = १७,९२,०९०।
अर्थात् सम्पूर्ण जंबूद्वीप में सत्रह लाख, बानवे हजार, नब्बे नदियां हैं। इनमें विदेह की नदियां चौदह लाख, अठहत्तर हैं। सीता-सीतोदा की जो परिवार नदियाँ हैं, वे देवकुरु-उत्तरकुरु में ही बहती हैं। आगे पूर्वविदेह-पश्चिम विदेह में विभंगा तथा गंगा सिंधु और रक्ता-रक्तोदा हैं। जितनी परिवार नदियां हैं वे सभी अपने-अपने कुण्डों से उत्पन्न होती हैं।
भरतक्षेत्र के आर्यखंड की एक कर्मभूमि, वैसे ही ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंड की एक कर्मभूमि तथा बत्तीस विदेहों के आर्यखंड की ३२ कर्मभूमि ऐसे चौंतीस कर्मभूमि हैं। इनमें से भरत-ऐरावत में षट्काल परिवर्तन होने से ये दो अशाश्वत कर्मभूमि हैं एवं विदेहों में सदा ही कर्मभूमि व्यवस्था होने से वे शाश्वत कर्मभूमि हैं।
हैमवत और हैरण्यवत में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है। वहाँ पर मनुष्यों की शरीर की ऊँचाई एक कोस है, एक पल्य आयु है और युगल ही जन्म लेते हैं युगल ही मरते हैं। दस प्रकार के कल्पवृक्षों से भोग सामग्री प्राप्त करते हैं।
हरिवर्ष क्षेत्र और रम्यक क्षेत्र में मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था है। वहाँ पर दो कोस ऊँचे, दो पल्य आयु वाले मनुष्य होते हैं। ये भी भोग सामग्री को कल्पवृक्षों से प्राप्त करते हैं।
देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्र में उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था है। यहाँ पर तीन कोस ऊंचे, तीन पल्य की आयु वाले मनुष्य होते हैं। ये छहों भोगभूमियां शाश्वत हैं,यहाँ पर परिवर्तन कभी नहीं होता है।
उत्तरकुरु में ईशान दिशा में जंबूवृक्ष एवं देवकुरु में नैऋत्य दिशा में शाल्मलिवृक्ष हैं।
एक भरत में, एक ऐरावत में और बत्तीस विदेहदेशों में बत्तीस ऐसे आर्यखंड चौंतीस हैं।
भरत क्षेत्र के पाँच, ऐरावत क्षेत्र के पाँच और बत्तीस विदेह के प्रत्येक के पाँच-पाँच ५ + ५ + (३२ x ५) =१७० म्लेच्छ खंड हैं।
यह भरतक्षेत्र, जंबूद्वीप के १९० वें भाग (५२६-६/१९) योजन प्रमाण है। इसके छह खंड में जो आर्यखंड है उसका प्रमाण लगभग निम्न प्रकार है।
दक्षिण का भरतक्षेत्र २३८-३/१९ योजन का है। पद्मसरोवर की लम्बाई १००० योजन है तथा गंगा-सिंधु नदियां ५-५ सौ योजन पर्वत पर पूर्व-पश्चिम बहकर दक्षिण में मुड़ती हैं। यह आर्यखंड उत्तर-दक्षिण २३८ योजन चौड़ा है। पूर्व-पश्चिम में १००० + ५०० + ५०० = २००० योजन लम्बा है। इनको आपस में गुणा करने से २३८ x २००० = ४,७६,००० योजन प्रमाण आर्यखंड का क्षेत्रफल हो जाता है। इसके मील बनाने से ४,७६,००० x ४००० = १९०,४०,००,००० (एक सौ नब्बे करोड़ चालीस लाख) मील प्रमाण क्षेत्रफल हो जाता है।
इस आर्यखण्ड के मध्य में अयोध्या नगरी है। इस अयोध्या के दक्षिण में ११९ योजन की दूराr पर लवण समुद्र की वेदी है और उत्तर की तरफ इतनी ही दूर पर विजयार्ध पर्वत की वेदिका है। अयोध्या से पूर्व में १००० योजन की दूरी पर गंगानदी की तटवेदी है अर्थात् आर्यखंड की दक्षिण दिशा में लवण समुद्र, उत्तर दिशा में विजयार्ध, पूर्व दिशा में गंगा नदी एवं पश्चिम दिशा में सिंधु नदी है ये चारोें आर्यखण्ड की सीमारूप हैं।
अयोध्या से दक्षिण में ४,७६,००० मील (चार लाख छियत्तर हजार मील) जाने से लवण समुद्र है और उत्तर में, ४,७६,००० मील जाने से विजयार्ध पर्वत है। उसी प्रकार अयोध्या से पूर्व में ४०,००००० (चालीस लाख) मील दूर गंगानदी तथा पश्चिम में इतनी ही दूर पर सिंधु नदी है।
आज का सारा विश्व इस आर्यखंड में है। हम और आप सभी इस आर्यखंड में ही भारतवर्ष में रहते हैं।
लवणसमुद्र—जंबूद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए खाई के सदृश गोल है, इसका विस्तार दो लाख योजन प्रमाण है। एक नाव के ऊपर अधोमुखी दूसरी नाव के रखने से जैसा आकार होता है उसी प्रकार वह समुद्र चारों ओर आकाश में मण्डलाकार से स्थित है। उस समुद्र का विस्तार ऊपर दस हजार योजन और चित्रा पृथ्वी के समभाग में दो लाख योजन है। समुद्र के नीचे दोनों तटों में से प्रत्येक तट से पंचानवे हजार योजन प्रवेश करने पर दोनों और से एक हजार योजन की गहराई में तल विस्तार दस हजार योजन मात्र है।
जम्बूद्वीप में ७८ अकृत्रिम जिन चैत्यालय हैं यथा—सुमेरु पर्वत सम्बन्धी १६ चैत्यालय हैं।
सुमेरु पर्वत की विदिशा में ४ गज दंत के ४ चैत्यालय हैं।
हिमवदादि षट्कुलाचल के ६ चैत्यालय हैं।
विदेह के १६ वक्षार पर्वतों के १६ चैत्यालय हैं।
३२ विदेहस्थ विजयार्ध के ३२ चैत्यालय हैं।
भरत, ऐरावत के २ विजयार्ध के २ चैत्यालय हैं।
देवकुरू, उत्तर कुरू के जम्बू, शाल्मलि २ वृक्षों के २ चैत्यालय हैं।
इस प्रकार १६ + ४ + ६ + १६ + ३२ + २ + २ = ७८ जिन चैत्यालय जम्बूद्वीप सम्बन्धी हैं।
हस्तिनापुर में निर्मित विश्व की प्रथम जम्बूद्वीप रचना में-
१. सुदर्शनमेरु नाम से सुमेरु पर्वत एक है।
२. अकृत्रिम ७८ जिनमंदिर में ७८ जिनप्रतिमाएँ हैं।
३. १२३ देवभवनों में १२३ जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं।
४. श्रीसीमंधर आदि तीर्थंकर के ६ समवसरण में चतुर्मुखी प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
५. हिमवान आदि ६ पर्वत हैं।
अत: कुल मिलाकर ७८ + १२३ + ६ = २०७ प्रतिमाएँ विराजमान हैं तथा पर्वतों के गोमुख से नीचे जटाजुट सहित १४ जिनप्रतिमाएँ हैं।
कोई आधुनिक विद्वान कहते हैं कि जैनियों की मान्यता के अनुसार यह पृथ्वी वलयाकार चपटी गोल नहीं है किन्तु यह पृथ्वी गेंद या नारंगी के समान गोल आकार की है तथा सूर्य, चन्द्र, शनि, शुक्र आदि ग्रह, अश्विनी, भरिणी आदि नक्षत्रचक्र, मेरु के चारों तरफ प्रदक्षिणारूप से अवस्थित हैं, घूमते नहीं हैं। यह पृथ्वी एक विशेष वायु के निमित्त से ही घूमती है। इस पृथ्वी के घूमने से ही सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि का उदय, अस्त आदि व्यवहार बन जाता है इत्यादि।
दूसरे कोई वादी पृथ्वी का हमेशा अधोगमन ही मानते हैं एवं कोई-कोई आधुनिक पंडित अपनी बुद्धि में यों मान बैठे हैं कि पृथ्वी दिन पर दिन सूर्य के निकट होती चली जा रही है। इसके विरुद्ध कोई-कोई विद्बान् प्रतिदिन पृथ्वी को सूर्य से दूरतम होती हुई मान रहे हैं। इसी प्रकार कोई-कोई परिपूर्ण जलभाग से पृथ्वी को उदित हुई मानते हैं।
किन्तु उक्त कल्पनायें प्रमाणों द्वारा सिद्ध नहीं होती हैं। थोड़े ही दिनों में परस्पर एक-दूसरे का विरोध करने वाले विद्वान् खड़े हो जाते हैं और पहले-पहले के विद्वान् या ज्योतिष यन्त्र के प्रयोग भी युक्तियों द्वारा बिगाड़ दिये जाते हैं। इस प्रकार छोटे-छोटे परिवर्तन तो दिन-रात होते ही रहते हैं।
भूगोल का वायु के द्वारा भ्रमण मानने पर तो समुद्र, नदी, सरोवर आदि के जल की जो स्थिति देखी जाती है उसमें विरोध आता है।
जैसे कि पाषाण के गोले को घूमता हुआ मानने पर अधिक जल ठहर नहीं सकता है अत: भू अचला ही है भ्रमण नहीं करती है। पृथ्वी तो सतत घूमती रहे और समुद्र आदि का जल सर्वथा जहाँ का तहाँ स्थिर रहे, यह बन नहीं सकता अर्थात् गंगा नदी जैसे हरिद्वार से कलकत्ता की ओर बहती है, पृथ्वी के गोल होने पर उल्टी भी बह जायेगी, समुद्र और कुओं के जल गिर पड़ेगे। घूमती हुई वस्तु पर मोटा अधिक जल नहीं ठहर कर गिरेगा ही गिरेगा।
दूसरी बात यह है कि पृथ्वी स्वयं भारी है। अध:पतन स्वभाव वाले बहुत से जल, बालू, रेत आदि पदार्थ हैं जिनके ऊपर रहने से नारंगी के समान गोल पृथ्वी हमेशा घूमती रहे और यह सब ऊपर ठहरे रहें, पर्वत, समुद्र, शहर, महल आदि जहाँ के तहाँ बने रहें यह बात असंभव है।
यहाँ पुन: कोई भूभ्रमणवादी कहते हैं कि घूमती हुई इस गोल पृथ्वी पर समुद्र आदि के जल को रोके रहने वाली एक वायु है जिसके निमित्त से समुद्र आदि ये सब जहाँ के तहाँ ही स्थिर बने रहते हैं।
इस पर जैनाचार्यों का उत्तर-जो प्रेरक वायु इस पृथ्वी को सर्वदा घुमा रही है, वह वायु इन समुद्र आदि को रोकने वाली वायु का घात नहीं कर देगी क्या ? यह बलवान् प्रेरक वायु तो इस धारक वायु को घुमाकर कहीं फेंक देगी। सर्वत्र ही देखा जाता है कि यदि आकाश में मेघ छाए हैं और हवा जोरों से चलती है तब उस मेघ को धारण करने वाली वायु को विध्वंस करके मेघ को तितर-बितर कर देती है, वे बेचारे मेघ नष्ट हो जाते हैं या देशांतर में प्रयाण कर जाते हैं।
उसी प्रकार अपने बलवान् वेग से हमेशा भूगोल को सब तरफ से घुमाती हुई जो प्रेरक वायु है, वह वहाँ पर स्थित हुए समुद्र, सरोवर आदि को धारने वाली वायु को नष्ट-भ्रष्ट कर ही देगी अत: बलवान् प्रेरक वायु भूगोल को हमेशा घुमाती रहे और जल आदि की धारक वायु वहाँ बनी रहे, यह नितांत असंभव है।
पुन: भूभ्रमणवादी कहते हैं कि पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है अतएव सभी भारी पदार्थ भूमि के अभिमुख होकर ही गिरते हैं। यदि भूगोल पर से जल गिरेगा तो भी वह पृथ्वी की ओर ही गिरकर वहाँ का वहाँ ही ठहरा रहेगा अत: वह समुद्र आदि अपने-अपने स्थान पर ही स्थिर रहेंगे।
इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि-आपका कथन ठीक नहीं है। भारी पदार्थों का तो नीचे की ओर गिरना ही दृष्टिगोचर हो रहा है अर्थात् पृथ्वी में एक हाथ का लम्बा चौड़ा गड्ढा करके उस मिट्टी को गड्ढे के एक ओर ढलाऊ ऊँची कर दीजिये। उस पर गेंद रख दीजिये, वह गेंद नीचे की ओर गड्ढे में ही लुढ़क जायेगी। जबकि ऊपर भाग में मिट्टी अधिक है तो विशेष आकर्षण शक्ति के होने से गेंद को ऊपर देश में ही चिपकी रहना चाहिये था, परन्तु ऐसा नहीं होता है अत: कहना पड़ता है कि भले ही पृथ्वी में आकर्षण शक्ति होवे किन्तु उस आकर्षण शक्ति की सामर्थ्य से समुद्र के जलादिकों का घूमती हुई पृथ्वी से तिरछा या दूसरी ओर गिरना नहीं रुक सकता है।
जैसे कि प्रत्यक्ष में नदी, नहर आदि का जल ढलाऊ पृथ्वी की ओर ही यत्र-तत्र किधर भी बहता हुआ देखा जाता है और लोहे के गोलक, फल आदि पदार्थ स्वस्थान से च्युत होने पर गिरने पर नीचे की ओर ही गिरते हैं।
इस प्रकार जो लोग आर्यभट्ट या इटली, यूरोप आदि देशों के वासी विद्वानों की पुस्तकों के अनुसार पृथ्वी का भ्रमण स्वीकार करते हैं और उदाहरण देते हैं कि-जैसे अपरिचित स्थान में नौका में बैठा हुआ कोई व्यक्ति नदी पार कर रहा है। उसे नौका तो स्थिर लग रही है और तीरवर्ती वृक्ष, मकान आदि चलते हुए दिख रहे हैं परन्तु यह भ्रम मात्र है, तद्वत् पृथ्वी की स्थिरता की कल्पना भी भ्रममात्र है।
इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि- साधारण मनुष्य को भी थोड़ा सा ही घूम लेने पर आखों में घूमनी आने लगती है (चक्कर आने लगता है), कभी-कभी खंड देश में अत्यल्प भूकम्प आने पर भी शरीर में कंपकंपी, मस्तक में भ्रांति होने लग जाती है तो यदि डाकगाड़ी के वेग से भी अधिक वेगरूप पृथ्वी की चाल मानी जायेगी तो ऐसी दशा में मस्तक, शरीर,पुराने ग्रह, कूपजल आदि की क्या व्यवस्था होगी। बुद्धिमान् स्वयं इस बात पर विचार कर सकते हैं।