तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृत्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीप:१।।९।। तेषां द्वीपसमुद्राणां मध्यस्तन्मध्य: तस्मिन् तन्मध्ये सर्वद्वीपसमुद्राणां मध्यप्रदेशे जम्बूद्वीपो वर्तत इत्यर्थ:। कथम्भूतो जम्बूद्वीप: ? मेरुनाभि:, मेरु: सुदर्शननामा कनक पर्वत: एकसहस्रयोजनभूमिमध्ये स्थित: नवनवतिसहस्रयोजनबहिरुन्नत:। श्रीभद्रशालवनादुपरि पञ्चशतयोजनलभ्यनन्दनवन:, नन्दनवनात्त्रिषष्टियोजनसहस्रं सम्प्राप्य सौमनसवन:।सौमनसवनात् साद्र्धपञ्चिंत्रशत्सहस्रयोजनगम्यपाण्डुकवन:।चत्वारिंशद्योजनोन्नतचूलिक:, सा चूलिका साद्र्धपञ्चिंत्रशत्सहस्रयोजनमध्य एव गणनीया।स एवंविधो मेरुनाभिर्मध्यप्रदेशो यस्य जम्बूद्वीपस्य मेरुनाभि:। पुनरपि कथम्भूतो जम्बूद्वीप: ? वृत्त: वर्तुल:।आदित्यबिम्बवद्वर्तुलाकार इत्यर्थ:। पुनरपि कथम्भूतो जम्बूद्वीप: ? योजनशतसहस्रविष्कम्भ:।शतानां सहस्रं शतसहस्रम् , योजनानां शतसहस्रं योजनशतसहस्रम् , योजनशतसहस्रं विष्कम्भो विस्तारो यस्य जम्बूद्वीपस्य स भवति योजनशतसहस्रविष्कम्भ:, एकलक्षयोजनविस्तार इत्यर्थ:।उपरिस्थितवेदिकेन सालेन सह लक्षयोजनविष्कम्भ: इति भाव:।स जम्बूद्वीपसाल: अष्टयोजनोच्च:, मूले द्वादशयोजनविस्तार:, मध्येऽष्टयोजनविस्तार:, उपरि चाष्टयोजनविस्तार:। तत्सालोपरि रत्नसुवर्णमयी वेदिका चोभयपाश्र्वे वत्र्तते। सा वेदिका क्रोशद्वयोन्नता वत्र्तते। तस्या वेदिकाया विस्तारो योजनमेवंâ क्रोशश्चैक: धनुषां सहस्रं सप्तशतानि पञ्चाशद्युतानि च। तद्वेदिकाद्वयमध्ये सालस्योपरि महोरगदेवप्रासादा: सन्ति। ते प्रासादा: रत्नमया वनवृक्षवापीतडागजिनभवनमण्डिता अनादिनिधनास्तिष्ठन्ति। तस्य दुर्गस्य पूर्व दक्षिणपश्चिमोत्तरेषु चत्वारि द्वाराणि वत्र्तन्ते। तन्नामानि-विजयवैजयन्तजयन्तापराजितानि क्रमाद्विज्ञेयानि। तद्द्वारोच्चत्वमष्टयोजनानि, विस्तारश्चतुर्योजनानि, चतुद्र्वाराग्रे जिनप्रतिमा अष्टप्रातिहार्यसंयुक्ता वर्तन्ते। तस्य जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपस्त्रीणि योजनलक्षाणि सप्तविंशत्यग्रे द्वे शते च योजनानां त्रय: क्रोशा अष्टाविंशत्यग्रं धनु:शतं च अङ्गुलयस्रयोदश च किञ्चिदधिकमद्र्धाङ्गुलं च।
उन असंख्यात द्वीप-समुद्रों के मध्य में मेरु है नाभि जिसकी ऐसा वर्तुलाकार (गोल) एक लाख योजन विस्तार वाला जम्बूद्वीप है ।।९।। उन द्वीप-समुद्रों के मध्य को तन्मध्य कहते हैं। उन असंख्यात द्वीप-समुद्रों के मध्य में जम्बूद्वीप कैसा है ? मेरु है नाभि जिसकी ऐसा जम्बूद्वीप है । मेरु-एक हजार योजन भूमि के मध्य में स्थित निन्यानवे हजार योजन उन्नत कनक (सुवर्ण) मय सुदर्शन नामक मेरु है। उस मेरु की भूमि पर भद्रशालवन है, उस भद्रशालवन से पाँच सौ योजन ऊपर जाने पर नन्दनवन है, नन्दनवन से त्रेसठ हजार योजन ऊपर सौमनसवन है और सौमनसवन से साढ़े पैंतीस हजार योजन ऊपर पाण्डुकवन है, उसके ऊपर चालीस योजन ऊँची मेरु की चूलिका है । वह चूलिका साढ़े पैंतीस हजार पाण्डुकवन में र्गिभत है। इस प्रकार का मेरु जिस जम्बूद्वीप की नाभि है, वह मेरुनाभि कहलाता है । वह जम्बूद्वीप सूर्य बिम्ब के समान गोल है और एक लाख योजन विस्तार वाला है। एक लाख योजन है विष्कम्भ जिसका उसको योजन शतसहस्र विष्कम्भ कहते हैं।
इस जंबूद्वीप को घेरे हुए एक वेदिका (परकोटा या जगती ) है, जो आठ योजन ऊँची, मूल में १२ योजन, मध्य में आठ योजन और उपरिभाग में आठ योजन विस्तार वाली है। इसका १२ योजन का विस्तार जंबूद्वीप के एक लाख योजन में र्गिभत है । उस परकोटा के ऊपर दोनों पाश्र्वभागों में रत्न और सुवर्ण निर्मित वेदिका है । वह वेदिका दो कोस ऊँची है और उसका विस्तार (विष्कम्भ) एक योजन एक कोस एक हजार साढ़े सात सौ धनुष है। उस वेदिका के मध्य में साल के ऊपर महोरग देव के महल (प्रासाद) हैं। वे प्रासाद रत्नों से निर्मित हैं, वन, वृक्ष, वापिका, तालाब और जिनभवनों से मंडित तथा अनादिनिधन हैं। उस जगती के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर में चार द्वार हैं-क्रमश: उनके नाम विजय, वैजयन्त , जयन्त और अपराजित जानने चाहिये । उन द्वारों की ऊँचाई आठ योजन और विष्कम्भ चार योजन है । चारों द्वारों के अग्रभाग में आठ प्रातिहार्यों से युक्त जिनप्रतिमा है । उस जंबूद्वीप की परिधि तीन लाख दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोस एक सौ अठ्ठाईस धनुष साढ़े १३ अंगुल से कुछ अधिक है ।