महाविदेह क्षेत्र के बहुमध्य भाग में सब तीर्थंकरों के जन्माभिषेक का आसनरूप मंदर नामक महापर्वत है। यह १००० योजन गहरा (नींव सहित), ९९००० योजन ऊँचा और नींव के तल भाग में १००९० योजन विस्तार वाला है। पृथ्वी तल पर इसका विस्तार १०००० योजन है और अंत में ९९००० योजन की ऊँचाई पर १००० योजन मात्र रह गया है। यह मेरु पर्वत क्रम से हानिरूप होता हुआ पृथिवी से (भद्रसाल वन से) ५०० योजन ऊपर जाकर उस स्थान में युगपत् (चारों ओर) ५०० योजन प्रमाण संकुचित हो गया। अर्थात् यह ५०० योजन की कटनी है। इसी का नाम नंदनवन है। इसके ऊपर ११००० योजन तक समान विस्तार है। पुन: क्रम से हानिरूप होते हुए ५१५०० योजन ऊपर जाकर सब ओर से युगपत् ५०० योजन संकुचित हो गया है। अर्थात् यह भी ५०० योजन की कटनी है, इसका नाम सौमनस वन है। इसके आगे ११००० योजन तक उसका समान विस्तार है। फिर ऊपर क्रम से हानिरूप होते हुए २५००० योजन जाने पर ४९४ योजन प्रमाण संकुचित हो गया है। अर्थात् यह चारों ओर से ४९४ योजन की कटनी है इसका नाम पांडुक वन है। ठीक बीच में इसकी चूलिका १२ योजन विस्तृत है और ४० योजन ऊँची है। इस प्रकार यह पर्वत एक लाख योजन ऊँचा है। यथा-१००० ± ५०० ± ११००० ± ५१५०० ± ११००० ± २५००० · १००००० योजन और इसकी चूलिका ४० योजन ऊँची है। पांडुक वन में १२ योजन विस्तृत है। क्रम से घटते हुए अग्र भाग में ४ योजन मात्र रह गई है।
सुमेरु पर्वत के घटने का क्रम
सुमेरु के विस्तार में मूल से ऊपर ११ प्रदेशों पर १ प्रदेश की हानि हुई है। इसी प्रकार पाद, हस्त, अंगुल और कोश आदि की ऊँचाई पर भी स्वयं जानना चाहिए।१ मेरु पर्वत की ऊँचाई ९९००० योजन है। अत: जब ९९००० योजन पर ९००० योजन की हानि होती है, तब १ योजन पर कितनी हानि होगी ? इस प्रकार त्रैराशिक करने पर योजन हानिचय का प्रमाण प्राप्त हुआ।१ इस सुमेरु पर्वत में नंदनवन और सौमनस वन की कटनी ५०० योजन है वहाँ पर एक साथ ५००-५०० योजन दोनों तरफ घट जाने से ही आगे ११००० योजन तक बिल्कुल समान सीधा गया है। अनन्तर घटना प्रारम्भ हुआ है। यह पर्वत मूल में (नींव में) १००० योजन पर्यंत वङ्कामय, पृथ्वीतल से ऊपर ६१००० योजन तक उत्तम रत्नमय, इससे ऊपर ३८००० योजन पर्यन्त सुवर्णमय है।२ इसकी चूलिका नीलवर्णमय वैडूर्यमणि की है। चूलिका पांडुकवन में १२ योजन विस्तृत है, ऊपर ४० योजन की ऊँचाई पर ४ योजन की रह गई है। इसमें हानि का घटने का प्रमाण योजन का पांचवाँ भाग है।३ (१२ — ४)४० है। यहाँ यह समझ में आ जाता है कि जब सुमेरु के घटने में ११ प्रदेश जाने पर १ प्रदेश घटा है जो कि बहुत ही सूक्ष्म है। इसलिए यह पर्वत धागे के डालने के समान बहुत ही चिकनाई से घटा है। यत्र-तत्र ऊँचा-नीचा कृत्रिम पर्वतों के समान नहीं है। इसमें जो भद्रशाल, नंदन, सौमनस और पांडुकवन हैं इन वनों में ही वृक्ष पंक्तियाँ हैं। ये वन भी पृथ्वीकायिक हैं ऐसा लगता है। यथा— ‘‘विविध पादपों से व्याप्त, वनवेदिकाओं से युक्त, नाना मणियों व रत्नों के परिणाम रूप, रत्नमय पीठ से शोभित, मणिमय तोरणों से मण्डित, मनोहर, सुवर्णमय कुसुमों से शोभित, मरकत मणिमय उत्तम पत्तों से व्याप्त, चम्पक व अशोक वृक्षों से गहन, सप्तच्छद व आम्र कल्पवृक्षों के समूह से परिपूर्ण, वैडूर्यमय फलों से समृद्ध और मूंगामय शाखाओं की शोभा से संयुक्त वनखण्ड जानना चाहिये। इन चारों वनों में ही चारों दिशाओं में एक-एक जिनमंदिर होने से सोलह जिनमंदिर हैं।
जम्बूद्वीप की जगती-परकोटा
जम्बूद्वीप को चारों ओर से वेष्टित करके ८ योजन ऊँची जगती है। यह मूल में १२ योजन विस्तृत है, मध्य में ८ योजन और ऊपर में ४ योजन रह गई है। यह नीचे से क्रमश: घटती हुई है अर्थात् ८ योजन की ऊँचाई में जहाँ कहीं भी जगती के विस्तार के जानने की इच्छा हो, वहाँ जगती के शिखर से जितना नीचे उतरे हों उतने में एक का भाग देने पर जो प्राप्त हो उसमें चार को मिलाने पर जगती के अभीष्ट विस्तार का प्रमाण होता है। जैसे उपरिम भाग के १ योजन नीचे उतरकर यदि वहाँ का विस्तार जानना है तो वह १ ´ १ ± ४ · ५ इस प्रकार से पाँच योजन एक कोश होगा। इससे बिल्कुल स्पष्ट है कि यह परकोटा भी सूत के धागे को डालने से जैसे घटाया गया है वैसा ही क्रम से घटा है। यत्र-तत्र चाहे जैसा नहीं घटा है।
हिमवान् आदि पर्वत
हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी ये छह कुलपर्वत हैं। ये मूल में और ऊपर में समव्यास-विस्तार वाले हैं। इनके पाश्र्व भाग मणियों से रचित हैं और ये पूर्व-पश्चिम भाग में समुद्र का स्पर्श कर रहे हैं अर्थात् समुद्रपर्यन्त लम्बे हैं। ये पर्वत क्रम से सुवर्ण, चांदी, तपनीय सुवर्ण, वैडूर्यमणि, रजत और सुवर्ण के समान वर्ण वाले हैं। इनकी ऊँचाई क्रम से १००, २००, ४००, ४००, २०० और १०० योजन प्रमाण है। इससे स्पष्ट है कि ये हिमवान् आदि पर्वत दोनों पाश्र्व भाग में मूल से ऊपर तक समान हैं। अत: दीवाल के सदृश हैं, बिल्कुल चिकने हैं और नाना मणियों से चित्र-विचित्र हैं। जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्रकार ने कहा है कि ‘मणियों से निर्मित विचित्र रंग-बिरंगे पाश्र्वभाग वाले हैं और ऊपर तथा मूल में समान विस्तृत हैं।’ पुन: इन्हें पर्वत संज्ञा क्यों है ? इनके ऊपर क्रम से ११, ८, ९, ९, ८ और ११ ऐसे कूट हैं। उनसे ही ये पर्वताकार दिखते हैं। जैसे हिमवान् पर ११ कूट हैं, उनकी लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई आदि आकार पर्वत के सदृश है। वैसे ही सभी पर समझना। जैसे— ‘‘हिमवान् पर्वत पर पूर्व दिशा से लेकर सिद्धकूट, हिमवान्वूकूट, भकूट, इकूट, गंकूट, श्रीकूट, रोहिताकूट, सिकूट, कूट, हैकूट और वैकूटण सेकूट हैं। प्रकूटक की ऊँचाई २५ योजन, भूविस्तार २५ योजन और घटते हुए ऊपर में विस्तार १२ योजन हैकूट गोल हैं। इनमें सेकूट पर जिनभवन है तथा कूट पर उनकूट के नाम वाले व्यंतर देव तथा देवियों के भवन बने हुए हैं।’’ ऐसे ही महाहिमवान्कूट की ऊँचाई ५० योजन और मूल में चौड़ाई ५० योजन तथा ऊपर में चौड़ाई २५ योजन है। निषधकूटटों की ऊँचाई १०० योजन, मूल में विस्तार १०० योजन तथा ऊपर में विस्तार ५० योजन है। अर्थात् प्रत्येक पर्वत की ऊँचाई के चतुर्थ भाग प्रमाण उकूट की ऊँचाई है, उतना ही मूल में विस्तार है और उससे आधा ऊपर में विस्तार है। कूट गोल हैं। इन्हींकूट से ही ये छहों पर्वत शिखर वाले पर्वताकार दिखते हैं। कूटभी भी क्रम से ही घटते हैं। क्योंकि इनका मध्य व्यास पौन मात्र हुआ है। यथा २५ योजकूटचे का भू-व्यास २५ योजन मध्य व्यास १८ योजन और ऊपर का व्यास १२ योजन है।
गजदंत पर्वत
सुमेरु पर्वत की वायव्य दिशा से लेकर क्रम से सौमनस, विद्युत्प्रभ, गंधमादन और माल्यवान नाम के चार गजदंत पर्वत हैं। ये सुमेरु की विदिशा से प्रारम्भ होकर दो तो निषध पर्वत तक लम्बे हैं और दो नील पर्वत पर्यन्त तक लम्बे हैं। इनका विस्तार ५०० योजन का है। निषध और नील पर्वत के पास इनकी ऊँचाई ४०० योजन है। इसके आगे मेरु पर्वत पर्यन्त प्रत्येक की प्रदेश वृद्धि होती गई है। इस प्रकार प्रदेश वृद्धि से बढ़ते-बढ़ते हुए इनकी ऊँचाई मेरु पर्वत के पास में ५०० योजन की हो गई है। यहाँ प्रदेश वृद्धि से ऊँचाई बढ़ी है। इसलिए इन पर्वतों की यत्र-तत्र ऊँची पर्वताकार रचना न होकर बहुत ही व्यवस्थित रचना है। इन परकूटजो हैं वे पर्वत की ऊँचाई के चतुर्थ भाग हैं। यकूटइन की ऊँचाई अपने पर्वत की ऊँचाई के चतुर्थ भाग है। इनमें सेकूटथम वूâट की ऊँचाई १२५ योजन है औरकूटम वूâट की ऊँचाई १०० योजन हैकूटष वूâटों की ऊँचाई भी गणित से निकाल कर रखी है। अर्थाकूटनवकी ऊँचाई२ क्रम से—१२५, १२१ , ११८ , ११५ , ११२ , १०९ , १०६ , १०३ , १०० इतने योजन की है। इस प्रकरण से भी स्पष्ट है कि इन पर्वतों की ऊँचाई प्रदेश वृद्धि से होने से ये पर्वत भी कृत्रिम पर्वतों के सदृश ऊँचे-नीचे आदि नहीं हैं।
वक्षार पर्वत
पूर्व-पश्चिम विदेहों में एक-एक को व्यवहित करके वक्षारगिरि और विभंग नदियाँ स्थित हैं। सीता नदी के दोनों पाश्र्व भागों में चार-चार वक्षार पर्वत और तीन-तीन विभंग नदियों से सीमित आठ-आठ क्षेत्र हैं। इनके नाम क्रम सेकूटत्रवूकूटनलिनवूकूटपद्मवूâट और एकशैल आदि हैं। प्रत्येक वक्षार शैलों का विस्तार ५०० योजन है।३ ये वक्षार सीता नदी के किनारे ५०० योजन ऊँचे हैं और निषध-नील के पास ४०० योजन ऊँचे हैं। ये भी प्रदेशवृद्धि से ही ऊँचाई में वृद्धिंगत हुए हैं। प्रत्येक वक्षार पर कूटचार हैं कूट सब अपने पर्वत की ऊँचाई के चतुर्थ भाग प्रमाण ऊँचे हैं। अर्थात् इनमें भी प्रकूटद्ध१२५ योजन ऊँचाई का है और कूटम १०० योजन ऊँचा है। आज कुछ विद्वानों का ऐसा कहना रहता है कि सुमेरु पर्वत, हिमवान्, आदि पर्वतों में छोटे-छोटे, गोल-गोल पत्थर लगाकर पर्वत के समान दिखाना चाहिये। सीधे मीनार या दीवाल जैसे क्यों बनाये जा रहे हैं उन्हीं के समाधान के लिये ये सब आगम प्रमाण यहाँ उद्धृत किये गये हैं। इन प्रकरणों को पढ़कर विद्वानों को आगम का सही ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।
योजन का माप
जो द्रव्य आदि, अंत एवं मध्य से रहित है, एकप्रदेशी है, इन्द्रिय द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता है और जिसका दूसरा विभाग नहीं हो सकता, ऐसे पुद्गल के सब से छोटे हिस्से को अणु या परमाणु कहते हैं। जैसे— अनंतानंत परमाणु का १ अवसन्नासन्न ८ अवसन्नासन्न का १ सन्नासन्न ८ सन्नासन्न का १ त्रुटिरेणु ८ त्रुटिरेणु का १ त्रसरेणु ८ त्रसरेणु का १ रथरेणु ८ रथरेणु का उत्तम भोगभूमिज का १ बाल का १ अग्र भाग उत्तम भोगभूमिज के बाल के मध्यम भोगभूमिज के बाल का ८ अग्रभागों का १ अग्र भाग मध्यम भोगभूमिज के बाल के जघन्य भोगभूमिज के बाल का ८ अग्र भागों का १ अग्र भाग जघन्य भोगभूमिज के बाल का कर्मभूमिज के बाल का १ अग्र भाग ८ अग्र भागों का कर्मभूमिज के बाल के ८ अग्रभागों की १ लीख ८ लीख का १ जूँ ८ जूँ का १ जव (पड़ी जव) ८ जव का १ अंगुल इसे ही उत्सेधांगुल कहते हैं, इससे ५०० गुणा प्रमाणांगुल होता है। ६ उत्सेधांगुल का १ पाद २ पाद का १ बालिस्त २ बालिस्त का १ हाथ २ हाथ का १ रिक्वू २ रिक्वू का १ धनुष २००० धनुषों का १ कोस ४ कोस का १ लघु योजन ५०० लघु योजनों का १ महायोजन एक महायोजन में २००० कोस होते हैं। अंगुल के तीन भेद हैं—उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल। उत्सेधांगुल—उपर्युक्त बालाग्र, लीख आदि परिभाषा से निर्मित जो अंगुल होता है वह उत्सेधांगुल है। प्रमाणांगुल—पाँच सौ उत्सेधांगुल प्रमाण एक प्रमाणांगुल होता है। यह अवसर्पिणी काल के प्रथम भरत चक्रवर्ती का एक अंगुल होता है। आत्मांगुल—जिस-जिस काल में भरत और ऐरावत क्षेत्र में जो-जो मनुष्य हुआ करते हैं, उस-उस काल में उन्हीं मनुष्यों के अंगुल का नाम आत्मांगुल है। उत्सेधांगुल से देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं नारकियों के शरीर की ऊँचाई का प्रमाण, चारों प्रकार के देवों के निवास स्थान व नगर आदि का प्रमाण जाना जाता है। द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुण्ड या सरोवर, जगती और भरत आदि क्षेत्र इन सबका प्रमाण प्रमाणांगुल से ही हुआ करता है।१ अर्थात् प्रमाणांगुल से निर्मित बड़े योजन से होता है जो कि २००० कोस का है। झारी, कलश, दर्पण, वेणु, भेरी, युग, शय्या, शकट (गाड़ी), हल, मूसल, शक्ति, तोमर, सिंहासन, बाण, नालि, अक्ष, चामर, दुंदुभि, पीठ, छत्र, मनुष्यों के निवास स्थान व नगर और उद्यान आदिकों की संख्या आत्मांगुल से समझना चाहिये।२ विशेष—यहाँ पर २००० धनुष का १ कोस माना है, अत: १ धनुष में ४ हाथ होने से ८००० हाथ का १ कोस हुआ। १ कोस में २ मील मानने से ४००० हाथ का १ मील होता है। एक महायोजन में २००० कोस होते हैं। १ कोस में २ मील मानने से १ महायोजन में ४००० मील हो जाते हैं। अत: ४००० मील के हाथ बनाने के लिए १ मील सम्बन्धी ४००० हाथ से गुणा करने पर ४००० ² ४००० · १६०००००० अर्थात् एक महायोजन में १ करोड़, ६० लाख हाथ हुए। वर्तमान रैखिक माप में १७६० गज का १ मील मानते हैं। यदि १ गज में २ हाथ मानें तो १७६० ² २ · ३५२० हाथ का एक मील हुआ। पुन: उपर्युक्त १ महायोजन के हाथ १६०००००० में ३५२० हाथ का भाग देने से १६०००००० ´ ३५२० · ४५४५ मील हुए। आजकल कुछ लोग ऐसा कह देते हैं कि पता नहीं आचार्यों के समय कोस का प्रमाण क्या था ? और योजन का प्रमाण भी क्या था ? किन्तु जब परमाणु से लेकर अवसन्नासन्न आदि परिभाषाओं में आगे बढ़ते हुए जघन्य भोगभूमि के बाल में आठ अग्रभागों का एक कर्मभूमि का बालाग्र होता है। तब इससे स्पष्ट है कि कर्मभूमिज के प्रारम्भ का बालाग्र भी भोगभूमिज के बालाग्र से आठगुणा मोटा था। पुन: आज पंचम काल के मनुष्यों का बाल तो उससे भी मोटा ही होगा। आज के अनुसंधान प्रिय विद्वान् यदि आज के बाल की मोटाई के हिसाब से भी आगे के अंगुल, पाद, हाथ आदि बनाकर योजन के प्रमाण को समझेंगे तो भी अनेक शंकायें निर्मूल हो जायेंगी। जम्बूद्वीपण्णत्ति की प्रस्तावना में अच्छा स्पष्टीकरण है। यथा— ‘‘इस योजन की दूरी आजकल के रैखिक माप में क्या होगी ? यदि हम २ हाथ · १ गज मानते हैं तो स्थूल रूप से १ योजन ८०००००० गज के बराबर अथवा ४५४५.४५ मील ( ) के बराबर प्राप्त होता है। यदि हम १ कोश को आजकल के मील के समान मान लें, तो १ योजन ४००० मील ( ) के बराबर प्राप्त होता है। कर्मभूमि के बालाग्र का विस्तार आजकल के सूक्ष्म यंत्रों द्वारा किये गये मापों के अनुसार १/५०० इंच से लेकर १/२०० इंच तक होता है। यदि हम इस प्रमाण के अनुसार योजन का माप निकालें तो उपर्युक्त प्राप्त प्रमाणों से अत्यधिक भिन्नता प्राप्त होती है। बालाग्र का प्रमाण १/५०० इंच मानने पर १ योजन ४९६४८.४८ मील प्रमाण आता है। कर्मभमि का बालाग्र १/३०० इंच मानने से योजन ७४४७२.७२ मील के बराबर पाया जाता है। बालाग्र को १/२०० इंच प्रमाण मानने से योजन का प्रमाण और भी बढ़ जाता है। ऐसी स्थिति में हम १ योजन को ४५४५.४५ मील मानना उपयुक्त समझकर इस प्रमाण को आगे उपयोग में लावेंगे। आजकल जो प्राचीन अयोध्या, हस्तिनापुर आदि के प्रमाण के बारे में आशंकायें होती हैं वे सब इन ग्रन्थ के आधारों को देखकर दूर हो जाती हैं। इसमें मनुष्यों के नगर, आवास, उद्यान आदि का माप आत्मांगुल से बतलाया है। अत: भरत चक्रवर्ती के समय अयोध्या का माप उन्हीं के आत्मांगुल से बनाये कोस से किये जाने से बहुत बड़ा था। अन्य चक्रवर्तियों के समय उन्हीं के आत्मांगुल के माप से छोटा होता गया है। पुन: भगवान महावीर के समय उनकी जन्मभूमि कुण्डलपुर का माप भी उन्हीं के आत्मांगुल से लिया जाना चाहिये। अकृत्रिम द्वीप, समुद्र, पर्वत, क्षेत्र, नदी, सरोवर आदि का माप तो सदा ही प्रमाणांगुल से बढ़े हुए महायोजन से ही माने गये हैं। अत: इस गणित को समझकर महायोजन के बारे में समाधान प्राप्त करके अपने सम्यक्त्व को निर्मल रखते हुए सम्यग्ज्ञान को वृद्धिंगत करते रहना ही प्रत्येक मानव का कर्तव्य है।