जम्बूद्वीप भरतक्षेत्र भूतकालीन तीर्थंकर स्तोत्र
गीता छंद
जंबूद्रुमांकित प्रथम जंबूद्वीप में दक्षिण दिशी।
वर भरत क्षेत्र प्रधान तहं षट्कालवर्तें नितप्रती।।
जहं भूतकाल चतुर्थ में चौबीस तीर्थंकर भये।
मैं भक्ति श्रद्धा भाव से वंदन करूँ हर्षित हिये।।१।।
कर्मनाश निर्वाण महालक्ष्मी वरी।
तीर्थंकर ‘निर्वाण’ सौख्य अमृत झरी।।
वंदूँ शीश नमाय चित्तहरषाय के।
तिरूँ भवाम्बुधि भक्ती नौका पाय के।।१।।
भवसागर तिरकर भी ‘सागर’ सिद्ध हैं।
मुनिगण वंदें नितप्रति हर्ष समृद्ध हैं।।वंदूँ..।।२।।
महासाधु मिल नित्य प्रभू वंदन करें।
ऐसे ‘महासाधु’ जिनवर भव दुख हरें।।वंदूँ..।।३।।
त्रिविधकर्म मल नाश विमल पद पा लिये।
तीर्थंकर ‘विमलप्रभ’ को नित वँदिये।।वंदूँ..।।४।।
लक्ष्मी अंतर बाह्य उभय से शोभते।
‘श्रीधर’ वर जिनराज भविक मन मोहते।।वंदूँ..।।५।।
मोक्षगतीप्रद श्री ‘सुदत्त’ जिनराज हैं।
मुनिगण गणधर वंदित जग सिरताज हैं।।वंदूँ..।।६।।
मोक्ष महल है अमल कांतिधर सोहता।
श्री जिनेश ‘अमलप्रभ’ से मन मोहता।।वंदूँ..।।७।।
भव्यजनों का नित करते उद्धार जो।
‘उद्धर’ प्रभु को वंदूँ भवोदधि पार जो।।
वंदूँ शीश नमाय चित्तहरषाय के।
तिरूँ भवाम्बुधि भक्ती नौका पाय के।।८।।
‘अंगिर’ जिनवर भव-भव दुख से दूर हैं।
भवि भव अग्नी शमन हेतु जलपूर हैं।।वंदूँ..।।९।।
‘सन्मति’ जिनवर जग को सन्मति दे रहे।
निज भक्तों की नौका भव से खे रहे।।वंदूँ..।।१०।।
‘सिंधु’ जिनेश्वर गुणसिंधू जग में कहे।
जो नमते सो स्वात्मसुधा बिंदू लहें।।वंदूँ..।।११।।
‘कुसुमांजलि’ जिननाथ भविकजन दु:ख हरें।
भक्ति कुसुम अँजलि से जन अर्चन करें।।वंदूँ..।।१२।।
शिवसुखभर्ता ‘शिवगण’ जिनवर लोक में।
शिवसुख साधन हेतु वंदें जन धोक दें।।वंदूँ..।।१३।।
श्री ‘उत्साह’ जिनेश्वर गुण रत्नों भरे।
निजसुख के उत्साही जन वंदन करें।।वंदूँ..।।१४।।
प्रभु ‘ज्ञानेश्वर’ पूर्ण ज्ञान के नाथ हैं।
जो वंदें धर प्रीति बनें शिवनाथ हैं।।वंदूँ..।।१५।।
परमपिता ‘परमेश्वर’ त्रिभुवन ईश हैं।
गणधर भी नित नमें नमावें शीश हैं।।वंदूँ..।।१६।।
‘विमलेश्वर’ तीर्थंकर को जो वंदते।
उन आतम से सकल कर्ममल छूटते।।वंदूँ..।।१७।।
जिनकी यशवल्ली तिहुँजग में विस्तरी।
नाथ ‘यशोधर’ को मैं वंदूँ शुभघरी।।वंदूँ..।।१८।।
‘कृष्णनाथ’ जिन कृत्स्न कर्म को चूर के।
पहुँचे शिवपुर धाम सर्वगुण पूर के।।वंदूँ..।।१९।।
तीर्थंकर का नाम ‘ज्ञानमति’ नाथ है।
उनको वंदत ज्ञान अतीन्द्रिय प्राप्त है।।वंदूँ..।।२०।।
नाथ ‘शुद्धमति’ तीर्थंकर भवमल हरें।
उनको वंदत शुद्ध स्वात्म संपति वरें।।वंदूँ..।।२१।।
जो भव्यों का भद्र करें करुणा लिये।
परमकारुणिक ‘श्रीभद्र’ सबके लिये।।वंदूँ..।।२२।।
सब दोषों को उलंघ नाम ‘अतिक्रांत’ है।
मृत्युमल्लहर मुक्तिवल्लभाकांत हैं।।वंदूँ..।।२३।।
कर्म शांत कर परम शांति को पा लिये।
‘शांत’ जिनेश्वर शांति करो सबके लिये।।वंदूँ..।।२४।।
निर्वाण आदी शांत तीर्थंकर सुअंतिम जानिये।
शिर नमाकर चौबीस जिन की वंदना विधि ठानिये।।
मैं भक्ति श्रद्धा भाव से, तीर्थेश का वंदन करूँ।
फिर ज्ञानमति को पूर्ण कर, निज आत्म का दर्शन करूँ।।२५।।