आधुनिक युग में जम्बूद्वीप सम्पूर्ण विश्व के लिये एक प्रश्नवाचक चिह्न बना हुआ है। परम पूज्य र्आियकाओं श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से हस्तिनापुर में दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के माध्यम से निर्माणाधीन जम्बूद्वीप की रचना हमें प्राचीन शास्त्रों में छिपे भूगोल की खोज करने के लिए प्रेरणा दे रही है। क्या ही अच्छा हो कि यदि हम श्रद्धा और युक्ति दोनों ही प्रकारों से जम्बूद्वीप के प्रत्येक हिस्से का मापदण्ड देखकर उसे विज्ञान की खोज का अंग बनायें।
दु:ख और खेद का विषय है कि वर्तमान में कई विशेषज्ञ, गणितज्ञ विद्वान् भी जैनाचार्यों की शास्त्रगत बातों को निराधार बताकर आधुनिक उपलब्ध विश्व में ही सारे जम्बूद्वीप का चित्रण दर्शा देते हैं यह सर्वविदित है कि तीन लोक अनादिनिधन अकृत्रिम हैं। इनको बनाने वाला भी ईश्वर आदि नहीं है। इसके मध्य भाग में कुछ कम राजु लम्बी, एक राजु चौड़ी और मोटी त्रसनाली है। इसमें सात राजु अधोलोक है एवं सात राजु ऊँचा ऊध्र्वलोक है।
तथा मध्य में निन्यानवें हजार चालीस योजन ऊँचा है। इसकी नींव एक हजार योजन है जो कि चित्रा पृथ्वी के अन्दर है। मध्यलोक के ठीक बीचोबीच में एक लाख योजन विस्तृत गोलाकार जम्बूद्वीप है। जम्बूद्वीप के ठीक बीच में सुमेरु पर्वत है जो कि तीनों लोकों में सर्वोन्नत और महान् है। इसके पाण्डुकवन की चार विदिशाओं में चार शिलायें हैं।
ईशान दिशा में पांडुकशिला है। जहाँ पर भरत क्षेत्र के तीर्थंकरों का जन्माभिषे होता है। आग्ने दिशा में पांडुकम्बला पर पश्चिमविदेह के तीर्थंकरों का, नैऋत्य में रक्ता शिला पर पूर्व विदेहस्थ तीर्थंकरों का तथा वायव्य में रक्तकम्बला पर ऐरावत के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। इस मेरु के जिनालयों के दर्शन आज हस्तिनापुर में हमें उपलब्ध हो रहे हैं।
जम्बूद्वीप की परिधि
तीन लाख, सोलह हजार, दो सौ सत्ताइस योजन तीन कोस, एक सौ अट्ठाइस धनुष और कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल है। ३१६२२७, ३ को. १२८ घ १३—१/२ अंगुल। लगभग १२६४९०—८००६ मील बनते हैं।
क्षेत्रफल
सात सौ नब्बे करोड़ छप्पन लाख, चौरानवे हजार, एक सौ पचास (७९०५६९४१५०) योजन है। मील—तीन नील सोलह खरब बाईस अरब सतहत्तर करोड़ छ्यासट लाख (३१६२२७७६६०००००) मील है।
यहाँ पर सम्बन्धित विषयानुसार योजन की परिभाषा भी आगमोक्त उल्लिखित कर देना आवश्यक है। पुद्गल के सबसे छोटे टुकड़े को अणु—परमाणु कहते हैं। इन अनन्त परमाणुओं का १ अवसन्नासन्न।
८ अवसन्नासन्न का १ सन्नासन ८ सन्नासन का १ त्रुटिरेणु ८ त्रुटिरेणु का १ त्रसरेणु ८ त्रसरेणु का १ रथरेणु ८ रथरेणु का उत्तम भोगभूमियों के बाल का १ अग्रभाग उत्तर भोगभूमियों के बाल के ८ अग्रभागों का मध्यम भोगभूमियों के बाल का १ अग्रभाग मध्यम भोगभूमियों के बाल के ८ अग्रभागों का जघन्य भोगभूमियों के बाल का १ अग्रभाग जघन्य भोगभूमियों के बाल के ८ अग्रभागों का कर्मभूमियों के बाल का १ अग्रभाग कर्मभूमियों के बाल के ८ अग्रभागों की १ लीख ८ लीख का १ जूं ८ जूं का १ जव ८ जव का १ अंगुल यह उत्सेधांगुल है
प्रमाणांगुल इससे ५०० गुणा होता है— ६ उत्सेधांगुल का १ पाद २ पाद का १ बालिस्त २ बालिस्त का १ हाथ २ हाथ का १ रिक्कू २ रिक्कू का १ धनुष २००० धनुष का १ कोस ४ कोस का १ लघुयोजन ५०० लघुयोन का १ महायोजन अर्थात् १ महायोजन में २००० कोस होते हैं।
(४०००) मील। द्वीप, समुद्र, कुलाचल, क्षेत्र, नदी आदि का वर्णन महायोजन से ही बताया गया है। जम्बूद्वीपपण्णत्ती की प्रस्तावना में पेज नं. २० पर प्रो. एल. सी. जैन ने योजन के बारे में कुछ स्पष्टीकरण किया है, वह पठनीय है।
देखिये— ‘इस योजन की दूरी आजकल के रेखिक माप में क्या होगी ?’ यदि हम २ हाथ ृ १ गज मानते हैं तो स्थूल रूप से १ योजन ८०००००० गज के बराबर अथवा ४५४५,४५ मील के बराबर प्राप्त होता है।
यदि हम १ कोस को आज के २ मील मानें तो १ योजन ४००० मील के बराबर प्राप्त होता है। कर्मभूमि के बालाग्र का विस्तार आधुनिक सूक्ष्म यन्त्रों द्वारा किए मापों के अनुसार १/५०० इंच से लेकर १/२०० इंच तक होता है। १/५०० इंच मानने पर एक योजन ४९६४८,४८ मील प्रमाण आता है।
१/३०० इंच मानने से योजन ८२७४७.४७ मील प्रमाण और भी बढ़ जाता है। अत: इन सब मापों के अनुसार जम्बूद्वीप के समस्त प्रमाण में जैनागम से अत्यधिक भिन्नता हो जायेगी। किन्तु जिनेन्द्र द्वारा कथित आगम कभी असत्य नहीं हो सकता है। यथा—
कुछ लोगों का कहना यह है कि जैनधर्म में जो लोक का वर्णन है, वह विज्ञान के साथ मेल नहीं खाता। वैज्ञानिक भूमि आदि की फोटो खींचकर प्रत्यक्ष रूप में दिखलाते हैं, अत: उसे मानना पड़ता है।
जैनशास्त्र परोक्ष है, इसे कैसे माना जाए ? किन्तु आप विचार—पूर्वक देखें— विज्ञानी केवलज्ञानी नहीं हैं सिर्पक अनुमान से खोज करते हैं। उन लोगों की खोज अभी तक पूरी नहीं हुई हैं। कब होती भगवान् जाने, उसमें भी एक वैज्ञानिक की खोज का दूसरा मानता नहीं है, बल्कि खण्डन भी करता है।
कुछ वर्षों पूर्व वैज्ञानिक ने भूमि को गोल बताया तो उसे दूसरे मूर्ख कहकर खण्डन करते हैं। फिर कहने लगे कि गोल नहीं—सन्तरे के आकार में है, और यही मान्यता आज भी है।
पहले एक ही सूर्य और एक ही चन्द्रमा मानते थे अब तो एक से अधिक सूर्य चन्द्रमा को मानने लगे। इस तरह वैज्ञानिकों की खोज दिनों—दिन होती जा रही है उसका निर्णय अभी पूरी तरह से नहीं हुआ है। अत: अनिश्चित विज्ञान को दृष्टि में रखकर जैनाचार्य के लोकवर्णन को अग्राह्य बताकर खण्डन करना उचित नहीं है।
जैनधर्म के लोकवर्णन की हंसी मजाक उड़ाने वाले कुछ जैन लोग ही हैं, वैज्ञानिक नहीं। विज्ञानी की दृष्टि तोे मात्र खोज के ऊपर ही रहती है, उसे तो योग्य विषय की आवश्यकता होती है।
कुछ सुधारक नाम वाले तो यहाँ कह डालते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र के तीसरे और चौथे अध्याय को उसमें से हटा देना चाहिए, किन्तु उनसे प्रश्न है कि जीव धर्म—अधर्म आदि द्रव्यों को भी वैज्ञानिक नहीं मानते हैं और मोक्ष को भी नहीं मानते हैं, इस दिशा में जीव और मोक्ष का प्रचार आप करते हैं या नहीं। यदि करते हैं तो उसी प्रकार से अदृश्य और परोक्षलोक का वर्णन भी मान्य होना चाहिए।
यदि जीव और मोक्ष को भी आप नहीं मानोगे तो जीवत्व के अभाव में शून्यवाद ही रह जायेगा। आचार्य उमास्वामी ने जो बात सूत्र रूप से कही थी, उसी को आधार बनाकर पूज्यपाद अकलंक, विद्यानन्दि, और समन्तभद्र आदि आचार्यवयों ने भाष्य और महाभाष्य के रूप में वर्णन किया है। ये सबके सब स्वार्थी, लोलुपी और मूर्ख नहीं थे।
पूर्व आधार को आधारशिला बनाकर ही लिखते आए अत: इन महान् आचार्यों के वचनों में संशय करना मूर्खता ही होगी, बुद्धिमानी नहीं।
इस प्रकार से तिलोयपण्णत्ति, जम्बूद्वीपपण्णत्ती, त्रिलोकसार, श्लोकर्वाितक, राजर्वाितक आदि ग्रंथों पर दृढ़ श्रद्धा रखते हुए भौतिक चकाचौंध से बचकर अपने सम्यक्त्व को सदैव सुरक्षित रखना चाहिये।
जम्बूद्वीप के प्रमुख विषयों के लिये पूज्य र्आियकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित पुस्तके जम्बूद्वीप और त्रिलोकभाष्कर विशेष दृष्टव्य हैं। जम्बूद्वीप में पूर्व से पश्चिम को फैले हुए सात क्षेत्र तथा छह कुलाचल हैं।
सात क्षेत्रों के नाम
भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक्, हैरण्यवत अैर ऐरावत। भरत क्षेत्र के बीच में पूर्व पश्चिम लम्बा लवण समुद्र के तट को स्पर्श करता हुआ एक विजयार्ध पर्वत है। दक्षिण की तरफ इसकी लम्बाई ९७४८—११/१९ यो. (३८९९४३१५—११/१९ मील) है।
उत्तर की तरफ इस पर्वत की लम्बाई १०७२० ११/१र्९ े यो. (४२८८२३१५—१५/१९ मील) है। यह पर्वत पचास यो. (२००००० मील) चौड़ा ओर २५ यो. १००००० मील ऊँचा है। उसकी नींव सवा छह योजन है, इस पर्वत से १० योजन ऊपर जाकर दस योजन विस्तीर्ण उत्तर तथा दक्षिण में क्रमश: साठ और पचास विद्याधरों की ११० नगरियाँ हैं।
उसके दोनों तरफ दस योजन जाकर, दस योजन विस्तीर्ण श्रेणियों में आभियोग्य जाति के नगर हैं। तथा इससे ५ योजन ऊपर जाकर दस योजन (४००००) मील विस्तीर्ण पर्वत का उत्तम शिखर है। क्या आधुनिक विध्याचल ही उक्त विजयार्ध है ? यह प्रश्न भी वर्तमान में सम्भ्रान्त विषय बना हुआ है, किन्तु वहाँ से मिलती—जुलती कतिपय उपलब्धियों के द्वारा हम उसके अकृत्रिमपने को नकार नहीं सकते हैं।
हाँ ! यदि कोशिश की जाए तो वैज्ञानिक अपने गतिशील यन्त्रों के द्वारा विजयार्ध तक पहुँचकर वस्तुस्थिति का ज्ञान कर सकते हैं। यदि यह कहा जाए कि काल के प्रभाव से वर्तमान विध्यप्रदेश में अनेक प्रकार के भौगोलिक परिवर्तन हो गए हैं फिर भी नाम साम्य अभी भी दृष्टिगोचर होता है।
नाम साम्य तो कहीं भी दृष्टिगोचर हो सकता है किन्तु सबकी तुलना बराकर नहीं की जा सकती है। आज का सम्पूर्ण विश्व भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में है और भरत क्षेत्र एवं ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में ही षट्काल परावर्तन होता है। अत: अकृत्रिम किसी भी रचना को हम यहाँ के आर्यखण्ड में नहीं कह सकते हैं।
अकृत्रिम न तो कभी नष्ट होता है और न कभी बनता है तभी तो उसके अकृत्रिमपने की सार्थकता है। आधुनिक परिस्थिति के अनुसार जहाँ जैनियों की अधिक संख्या हो उसे जैनपुरी या जहाँ धन सम्पन्न बड़े लोग रहते हो, उसे बड़ा गाँव आदि कहना अकृत्रिम रचनाओं के प्रति युक्त नहीं बैठता क्योंकि अनादिनिधन नाम वाले हैं। त्रिलोकसार में पृष्ठ ५०१ पर कहा है कि आर्यखण्ड में प्रलय होता है। अत: यहाँ कोई अकृत्रिम रचना नहीं है।
यही कारण है कि वर्तमान में जो गंगा, सिन्धु आदि नदियाँ हमें दिखतीं हैं। ये भी अकृत्रिम हिमवान् पर्वत से निकलने वाली महानदियाँ नहीं हैं, बल्कि बहुत सी कृत्रिम नदियों की गणना में आती हैं।
अत: आज का हिमालय पर्वत भी हिमवान पर्वत नहीं है क्योंकि श्लोकर्वाितककार आचार्यश्री विद्यानन्दस्वामी ने कहा है कि गंगा आदि महानदियाँ महाप्रमाण वाली हैं। आज वह अकृत्रिम पर्वत नदियाँ क्षेत्र आदि हमें प्रत्यक्ष नहीं दिखते किन्तु उन्हें असत्य नहीं कहा जा सकता।
जैसे—हमें अपनी हवेली के अन्दर बैठकर उसका बाह्य दृश्य नहीं दिखता, और तो क्या अपने शरीर के पूरे अवयव भी नहीं दिख रहे हैं, इसलिये बहुत सी वस्तुओं को समझने के लिये आगम की शरण लेनी पड़ती है। गंगा की परिवार नदियाँ ढ़ाई म्लेच्छखण्डों में ही हैं आर्यखण्ड में नहीं।’ ऐसा तिलोयपण्णत्ती पृष्ठ १७१ पर कहा है। वर्तमान की गंगा नदी अकृत्रिम कथमपि सिद्ध नहीं हो सकती। यूँ तो अकृत्रिम में भी कई नाम बार—बार आ जाते हैं।
तत्त्वार्थ राजर्वाितक के तृतीय अध्याय में अकलंक देव ने कहा है कि मध्यलोक में जब संख्यात द्वीप समुद्रों के नाम समाप्त हो जाते हैं, तब पुन: वे ही जम्बूद्वीप आदि नाम आते हैं। ऐसे अनेक बार जम्बूद्वीप, नन्दीश्वर द्वीप आदि नाम आयेंगे। क्योंकि शब्दाक्षर संख्यात ही हैं, उनके द्वारा असंख्यात का वर्णन कैसे किया जा सकता है। लेकिन प्रथम जो जम्बूद्वीप है। वहाँ पर मेरु कुलाचल नदियाँ भोग भूमि कर्म भूमि आदि हैं।
अन्यत्र जम्बूद्वीप में मात्र जघन्य भोग भूमि है। और वहाँ केवल तिर्यंच रहते हैं। ऐसे ही यहाँ नंदीश्वर द्वीप में ५२ जिनमन्दिर हैं। अन्यत्र नन्दीश्वर द्वीप में जघन्य भोगभूमिज तिर्यंच हैं। मात्र नाम साम्य के कृत्रिम विनश्वर वस्तुओं को अकृत्रिम अविनश्वर नहीं कहना चाहिए। इस प्रकार जैनागम के तथ्यों से यह बात पूर्णत: सिद्ध हो जाती है कि जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र के आर्य क्षेत्र में षट्काल परावर्तन होने से यहाँ अकृत्रिम कोई रचना नहीं है।
श्लोकर्वाितकालंकार में तो यहाँ तक कहा है—परिवर्तन केवल वहाँ पर जन्म लेने वाले जीवों में ही नहीं प्रत्युत भूमि में भी हानि वृद्धि रूप परिवर्तन होते हैं यही कारण है कि प्रत्यक्ष में यह दृष्टिगोचर होता है कि कुछ वर्षों के अन्तराल में ही पर्वतों के स्थान पर बड़े—बड़े मकान, नदियों की जगह पर्वत खण्ड आदि उत्पन्न हो जाया करते हैं।
भरत क्षेत्र के बीच में विजयार्ध और हिमवान पर्वत से निकलने वाली गंगा सिंधु इन दो नदियों के निमित्त से ही पाँच म्लेच्छ खण्ड और एक आर्यखण्ड ऐसे छह खण्ड हो जाते हैं। यहाँ पर कर्मभूमि की व्यवस्था है।
विदेह क्षेत्र में शाश्वत कर्मभूमि है। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है और हरिवर्ष तथा रम्यक क्षेत्र में मध्यम भोगभूमि होती है। सुमेरु के उत्तर दक्षिण में देवकुरु और उत्तकुरु हैं। जहाँ पर उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था है। जम्बूद्वीप में यह छह शाश्वत भोगभूमियाँ हैं। यहाँ पर कभी परिवर्तन नहीं होता है।
जम्बू और शाल्मली वृक्ष
उत्तरकुरु की ईशान दिशा में जम्बूवृक्ष तथा देवकुरु की नैऋत्य दिशा में शाल्मलि वृक्ष है। इस जम्बू वृक्ष के निमित्त से इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप अथवा श्लोकर्वाितक के अनुसार ‘‘शुभनामानो द्वीप समुद्रा:’’ अर्थात् शुभ अनादि—निधन नाम वाले द्वीप समुद्र हैं।
चौंतस आर्यखण्ड
एक भरत में एक ऐरावत में और विदेहों में बत्तीस, ये जम्बूद्वीप में चौंतीस आर्यखण्ड हैं। यहाँ विशेष यह है कि विदेह के आर्यखण्डों में शाश्वत कर्मभूमि है। क्योंकि वहाँ पर चतुर्थ काल के आदि के समान ही सदैव काल रहता है। और भरत ऐरावत के आर्य खण्डों में छहों काल का परिवर्तन होता है। अत: वे परिवर्तशील कर्मभूमियाँ हैं। म्लेच्छ खण्डों और विजयार्ध की श्रेणियों में चतुर्थकाल के आदि से अन्त तक की व्यवस्था रहती है।
जम्बूद्वीप में म्लेच्छ खण्ड कितने हैं
जिस प्रकार से भरत और ऐरावत में ५—५ म्लेच्छ खण्ड हैं उसी प्रकार से विदेहों में प्रत्येक में ५—५ म्लेच्छ खण्ड हैं। इन ३२ विदेहों में सारी रचना भरत ऐरावत के समान ही है। अत: ५ भरत के ५ म्लेच्छ खण्ड, ५ ऐरावत के, ५ + ५ १० और ३र्२ ५ १६० + १० १७० म्लेच्छ खण्ड पूरे जम्बूद्वीप में है।
जम्बूद्वीप में अकृत्रिम चैत्यालय कितने हैं ?
सुमेरु पर्वत के चार वन सम्बन्धी ४—४ चैत्यालय १६ चैत्यालय, हिमवान आदि छह कुलाचलों के ६ चैत्यालय, सुमेरु की चारों विदिशाओं में चार गजदंत के ४ चैत्यालय, भरतैरावत के २ विजयार्ध तथा ३२ विदेहों के मध्य में ३२ विजयार्ध पर्वत ३४ चैत्यालय, जम्बू और शाल्मलि वृक्षों के २। इस प्रकार १६ + ६ + ४ + १६ + ३४ + २= ७८ ये जम्बूद्वीप के ७८ जिन चैत्यालय हैं। इनमें प्रत्येक में १०८, १०८ स्वयं सिद्ध जिन प्रतिमाएं हैं। उन्हें मेरा शत—शत वंदन।
जम्बूद्वीप में हम कहाँ हैं ?
भरत क्षेत्र जो कि जम्बूद्वीप का १९० वां भाग है, ५२६—६/१९ यो. प्रमाण है। इसके छह खण्डों में जो आर्य खण्ड है उसका प्रमाण निम्न प्रकार है— दक्षिण का भरत क्षेत्र २३८—३/१९ योजन का है। हिमवान् पर्वत के पद्म सरोवर की लम्बाई १००० योजन है तथा गंगा सिन्धु नदियाँ ५—५ सौ योजन पर्वत पर पूर्व पश्चिम बहकर दक्षिण में मुड़ती हैं। यह आर्य खण्ड उत्तर दक्षिण में २३८ योजन चौड़ा है। पूर्व पश्चिम में १००० + ५०० २००० योजन लम्बा है।
इसको आपस में गुणा करने पर २३र्८ २०० ४७६००० योजन प्रमाण आर्यखण्ड का क्षेत्रफल हो जाता है। इसके मील बनाने से ४७६००र्० ४००० १९०४०००००० ड एक सौ नब्बे करोड़ चालीस लाख ़ मील प्रमाण क्षेत्रफल हो जाता है। इस आर्यखण्ड के मध्य में अयोध्या नगरी है। इस अयोध्या के दक्षिण में ११९ योजन की दूरी पर लवण समुद्र की वेदी है और उत्तर की तरफ इतनी ही दूरी पर विजयार्ध पर्वत की वेदिका है। अयोध्या से पूर्व में १००० योजन की दूरी पर गंगा नदी की तट वेदी है।
अर्थात् आर्यखण्ड की दक्षिण दिशा में लवण समुद्र, उत्तर दिशा में विजयार्ध पर्वत, पूर्व दिशा में गंगा नदी एवं पश्चिम दिशा में सिन्धू नदी है। ये चारों आर्यखण्ड की सीमा रूप हैं। अयोध्या से दक्षिण में ४७६००० मील जाने से लवण समुद्र है और उत्तर में ४७६००० मील जाने से विजयार्ध आता है। इसी प्रकार अयोध्या में पूर्व में ४०००००० (चालीस लाख) मील दूर पर गंगा नदी और पश्चिम में ४०००००० मील दूर पर सिन्धु नदी है।
आज के वैज्ञानिकों के लिए अवश्य ही यह अनुसंधान का विषय है जिनके द्वारा अवश्य ही कुछ तथ्यों की प्राप्ति हो सकती है। अन्य अनुमान ज्ञान से कोई लाभ नहीं निकल सकता है। इन आर्य खण्डों में ही तीर्थंकर आदि त्रेसठ शलाका पुरुष जन्म लेते हैं अन्यत्र नहीं। मोक्ष परम्परा भी साक्षात् रूप से आर्य खण्ड में जन्म लेने वाले मनुष्यों के द्वारा चलती है। विदेहक्षेत्र के आर्यखण्डों में आज भी सतत् मोक्ष परम्परा चल रही है।
क्योंकि वहाँ उत्तम संहनन, उत्कृष्ट अवगाहना आदि सभी कुछ विद्यमान है। हम पूजा में नित्य ही विदेह क्षेत्र के विहरमाण २० तीर्थंकरों के अघ्र्य चढ़ाते हैं। उनमें से चार तीर्थंकर, जम्बूद्वीप के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर विदेहों के हैं। और ८—८ तीर्थंकर धातकी खण्ड और पुष्करार्ध द्वीप के विदेहक्षेत्र सम्बन्धी होते हैं। सिद्धांतसार दीपक के पंचम अधिकार के तीन श्लोकों में कहा है—
विजयार्ध पर्वत और गंगा सिन्धु दो नदियों से समस्त भरत क्षेत्र के छह खण्ड होते हैं। इनमें विजयार्ध के दक्षिण में, लवण समुद्र के उत्तर में, गंगा सिन्धु इन दोनों के मध्य में, शुभ क्रियाओं का आकर आर्यखण्ड है। स्वर्ग लक्ष्मी और मुक्ति लक्ष्मी के सुख का आधार यह उत्तम आर्यखण्ड ही है, अत: यहाँ आर्यजन अपने तपोबल से स्वर्ग और मोक्ष का साधन करते हैं। ये गंगा और सिन्धु नदियाँ म्लेच्छ खण्डों में ही बहती हैं आर्यखण्ड में नहीं।
हाँ ! आर्यखण्ड की राजधानी अयोध्या और लवण समुद्र के बीच में नाना प्रकार के जलचर जीवों से आकीर्ण और कल्लोम मालाओं से व्याप्त अर्धचन्द्र के सदृश एक उपसमुद्र है जो कि आधुनिक युग में भी समुद्र के नाम से ही प्रसिद्ध है।
इसी प्रकार से कतिपय भिन्नताओं को लिए हुए बौद्ध धर्म एवं में वैदिक सम्प्रदाय में भी जंबूद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों और पर्वतों का वर्णन दृष्टिगत होता है। वर्तमान में भारतवर्ष में भ्रमण कर रही प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी द्वारा प्रर्वितत ‘जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति’ भी हमें अपने—अपने पौराणिक ग्रंथों को अवलोकन करने की प्रेरणा दे रही है।
व्यापक दृष्टिकोणों से देखने पर हमें यह ज्ञात होता है कि भूगोल का जितना विस्तृत वर्णन जैनाचार्यों ने किया है उतना अन्य किसी ने नहीं किया है। अत: प्राचीन आगम ग्रंथ तत्त्वार्थ सूत्र, राजर्वाितक, श्लोकर्वाितक, तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, जम्बूद्वीपपण्णत्ति, सिद्धान्तसार दीपक आदि करणानुयोग साहित्य इस युग की अमूल्य निधि हैं।
आधुनिक विज्ञान यदि इनके एक एक विषयों पर भी बारीकी से खोज करें तो निश्चित ही आचार्यों की वाणी का प्रत्यक्ष दिग्दर्शन हो सकेगा और हम सभी यह विश्वास पूर्वक कह सकेगे, कि हम जम्बूद्वीप के एक कोने आर्यखण्ड में है यहाँ पर जो कुछ भी उपलब्ध है सब कृत्रिम है। अकृत्रिम वस्तुएं हमसे सुदूर होते हुए भी आगम ज्ञान के प्रत्यक्ष विषय हैं। यही विषय का मूल उपसंहार है।