तीर्थंकर जन्मभूमियों के इतिहास में यह प्रथम अवसर था, जब भगवान शंातिनाथ-कुंथुनाथ-अरहनाथ जैसे तीन-तीन पद के धारी महान तीर्थंकरों की साक्षात् जन्मभूमि हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप स्थल पर ग्रेनाइट पाषाण की 31-31 फुट उत्तुंग तीन विशाल प्रतिमाएं अत्यन्त मनोरम मुद्राकृति में निर्मित करके राष्ट्रीय स्तर के पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के साथ विराजमान की गईं। 11 फरवरी से 21 फरवरी 2010 तक यह आयोजन भव्यतापूर्वक सम्पन्न हुआ, जिसमें देश के कोने-कोने से हजारों श्रद्धालुओं ने भाग लेकर पुण्य अर्जित किया। समापन के तीन दिवसों में तीनों भगवन्तों का ऐतिहासिक महामस्तकाभिषेक महोत्सव भी सम्पन्न हुआ।
भारत एक अद्भुत धनाढ्य देश है क्योंकि यहाँ सदैव आध्यात्मिक महापुरुषों ने जन्म लेकर अपनी त्याग, तपस्या एवं साहित्य लेखन आदि के द्वारा अमूल्य निधियाँ विश्व को प्रदान की है। इसे हम दूसरे शब्दों में ऐसे भी कह सकते हैं कि-India is the cradle of greatmen. यहाँ अयोध्या, हस्तिनापुर, बनारस, उज्जैन आदि अनेक पवित्रा नगरियाँ हैं जिन्हें आज से कोड़ाकोड़ी वर्ष पूर्व इन्द्र ने बसाया था। भगवान ऋषभदेव के प्रथम पुत्रा, प्रथम चक्रवर्ती सम्राट् भरत के नाम पर ही देश का नाम ‘भारतवर्ष’ पड़ा है, ऐसा प्राचीन इतिहास एवं वेदपुराणों के माध्यम से ज्ञात होता है। जैनधर्म के 24 तीर्थंकरों में से 16-17वें तीन तीर्थंकर श्री शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ का जन्म हस्तिनापुर में हुआ था। करोड़ों वर्ष पूर्व यहाँ पर इन तीर्थंकरों के चार-चार कल्याणक हुए थे और तीर्थंकर, चक्रवर्ती, कामदेव इन तीन पदों के धारक इन तीनों महापुरुषों ने हस्तिनापुर को राजधानी बनाकर यहाँ से छह खण्ड का राज्य संचालित किया था। आज से लगभग 86500 वर्ष पूर्व महाभारत काल में भी हस्तिनापुर नगरी भारत की राजधानी मानी जाती थी। तब दिल्ली और हस्तिनापुर को संभवतः एक ही माना जाता था। जैसा कि पं. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक The Discovery of India में लिखा है- Dilli or Delhi, not the modern city but ancient cities situated near the modern site, named Hastinapur and Indraprastha becomes the metropolis of India इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि आज जिसे हम दिल्ली नाम से जानते हैं वह कभी हस्तिनापुर एवं इन्द्रप्रस्थ कहलाता था अतः दिल्ली और हस्तिनापुर को एक दूसरे के पूरक ही समझना चाहिए।
सन् 1965 में श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) चातुर्मास के मध्य जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी परमपूज्य 105 गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी को विंध्यगिरि पर्वत पर भगवान बाहुबली के चरण सानिध्य में पिण्डस्थ ध्यान करते-करते मध्यलोक की सम्पूर्ण रचना, तेरहद्वीप का अनोखा दृश्य ध्यान की तरंगों में दिखाई दिया। पुनः दो हजार वर्ष पूर्व के लिखित तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार आदि ग्रंथों में उसका ज्यों का त्यों स्वरूप देखकर वह रचना कहीं धरती पर साकार करने की तीव्र भावना पूज्य माताजी के हृदय में आई और उसका संयोग बना हस्तिनापुर में। कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, बिहार, बंगाल, राजस्थान, मध्यप्रदेश, दिल्ली आदि प्रांतों में विहार करने के बाद सन् ॰ùझ्क्क में पूज्य आर्यिका श्री का ससंघ पदार्पण हस्तिनापुर तीर्थ पर हुआ। बस तभी से हस्तिनापुर ने नये इतिहास की रचना प्रारंभ कर दी। यह एक अनहोना संयोग ही है कि आज से करोड़ों वर्ष पूर्व तृतीय काल के अंत में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के प्रथम आहार दाता-हस्तिनापुर के युवराज श्रेयांस ने स्वप्न में सुमेरु पर्वत देखा था और आज पंचमकाल में उसी हस्तिनापुर की वसुंधरा पर सुमेरु पर्वत से समन्वित पूरे जम्बूद्वीप की ही रचना पूज्य माताजी की पावन प्रेरणा से साकार हो उठी है। 250 फुट के व्यास में सफेद और रंगीन संगमरमर पाषाणों से निर्मित जैन भूगोल की अद्वितीय वृत्ताकार जम्बूद्वीप रचना का निर्माण हुआ है, जिसके बीचों बीच में हल्के गुलाबी संगमरमर के 101 फुट ऊँचे सुमेरु पर्वत की शोभा सभी के मन को आकर्षित करती है। सन् 1985 से राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय आकर्षण केन्द्र के रूप में उभरे प्राचीन जैन साहित्य एवं भूगोल के परिचायक, वैज्ञानिकों के लिए शोध केन्द्र, आध्यात्मिक उन्नयन के लिए पवित्रा स्थान, मानसिक शांति एवं जिनेन्द्र भगवान की पूजन-भक्ति के सम्पूर्ण साधनों तथा आधुनिक सुविधाओं की उपलब्धता सहित इस अनुपम तीर्थ की जनक संस्था का नाम है- दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान (रजि.) ईसवी सन् 1972 में सर्वोच्च जैन साध्वी पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से स्थापित उक्त संस्था के द्वारा जम्बूद्वीप रचना के निर्माण हेतु मेरठ (उ.प्र.) के ऐतिहासिक तीर्थ हस्तिनापुर में नशिया मार्ग पर जुलाई 1974 में एक छोटी-सी भूमि क्रय की गई, जहाँ सर्वप्रथम 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की अवगाहना प्रमाण सात हाथ (सवा दस फुट) ऊँची खड़गासन प्रतिमा विराजमान करने हेतु फरवरी ॰1975 में एक लघुकाय जिनालय का निर्माण किया गया जो सन् 1990 में एक अनोखे ‘कमल मंदिर’ के रूप में निर्मित हुआ है। यहाँ विराजमान कल्पवृक्ष भगवान महावीर के अतिशय से क्षेत्रा निरंतर प्रगति पथ पर अग्रसर होता हुआ नित्य नये निर्माणों के द्वारा संसार में अद्वितीय पर्यटन स्थल के रूप में प्रसिद्ध हुआ है। इस प्रतिमा के दर्शन करके भक्तगण अपनी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं जिससे उनके समक्ष निरंतर छत्रा चढ़ाने, दीपक जलाने एवं महावीर चालीसा करने का क्रम जारी रहता है। ==कमल मंदिर== सर्वप्रथम फरवरी सन् 1975 में इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा होने के बाद ही क्षेत्रा का विकास प्रगति को प्राप्त हुआ और आज भी जम्बूद्वीप ही नहीं अपितु पूरे हस्तिनापुर में तीर्थ विकास के प्रशंसनीय कार्य तीव्रगति के साथ सम्पन्न हो रहे हैं। यहाँ भक्तगण छत्रा चढ़ाकर अथवा दीपक जलाकर अपनी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।
कमल मंदिर में विराजमान कल्पवृक्ष भगवान महावीर की अतिशयकारी, मनोहारी एवं अवगाहना प्रमाण सवा दस फुट ऊँची खड्गासन प्रतिमा जम्बूद्वीप निर्माण का प्रथम चरण जुलाई सन् 1974 में रखी गई नींव के आधार पर जम्बूद्वीप के बीचोंबीच में सर्वप्रथम आगमवर्णित सुमेरुपर्वत (101 फुट ऊँचा) का निर्माण अप्रैल सन् 1979 में पूर्ण हुआ। सोलह जिनमंदिरों से समन्वित उस सुमेरुपर्वत में अन्दर से निर्मित 136 सीढ़ियों से चढ़कर श्रद्धालुभक्त समस्त भगवन्तों के दर्शन करके जब सबसे ऊपर पाण्डुकशिला के निकट पहुँचते हैं तो नीचे जम्बूद्वीप रचना के सभी नदी, पर्वत, मंदिर, उपवन आदि दृश्यों के साथ-साथ हस्तिनापुर के आसपास के सुदूरवर्ती ग्रामों का भी प्राकृतिक सौंदर्य देखकर फूले नहीं समाते हैं। जैन एवं वैदिक ग्रंथों के अनुसार यह सुमेरुपर्वत तीनों लोकों एवं तीनों कालों में सबसे पवित्रा तथा ऊँचा पर्वत माना जाता है, इसी पर्वत पर समस्त जैन तीर्थंकरों के जन्माभिषेक का वर्णन जैन शास्त्राों में मिलता है। 1 लाख 40 योजन अर्थात् 40 करोड़ मील (60 करोड़ किमी.) की ऊँचाई वाले उस अकृत्रिम सुमेरुपर्वत को विश्व में प्रथम बार हस्तिनापुर में 101 फुट ऊँची प्रतिकृति के रूप में निर्मित किया गया है।
(पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की गृहस्थावस्था की माँ मोहिनी देवी, जिन्होंने सन् 1971 में आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर 13 वर्ष तक कठोर तपस्या की और 15 जनवरी 1985 को सल्लेखनाविधि पूर्वक समाधिमरण प्राप्त किया।)
सन्1980 में साहू श्री अशोक कुमार जैन ने अपने परिवार सहित पधारकर जम्बूद्वीप रचना का शिलान्यास किया और जैन भूगोल को दर्शाने वाली उस रचना की एक-एक कृति का निर्माण होते-होते 5 वर्ष पश्चात् सम्पूर्ण रचना बनकर तैयार हो गई। इस मध्य 4 जून 1982 को पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से तत्कालीन प्रधानमंत्राी श्रीमती इन्दिरा गांधी के द्वारा संस्थान ने राजधानी दिल्ली के लालकिला मैदान से ‘जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति’ नामक रथ का प्रवर्तन कराया। उस रथ ने 1045 दिनों तक पूरे देश में भ्रमण करके जैन भूगोल एवं अहिंसा, सदाचार, व्यसनमुक्ति का प्रचार किया पुनः 28 अप्रैल सन् 1985 को जब हस्तिनापुर में ज्ञानज्योति रथ पहुँचा तब श्री पी.वी. नरसिंहराव (तत्कालीन रक्षामंत्राी-भारत सरकार) ने वहाँ उस ‘अखण्ड ज्ञान ज्योति’ को स्थाईरूप से स्थापित किया। उस अवसर पर संस्थान द्वारा 28 अप्रैल से 2 मई 1985 तक ‘जम्बूद्वीप जिनबिम्ब प्रतिष्ठापना महोत्सव’ में 205 भगवन्तों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के साथ ही उत्तरप्रदेश सरकार के सहयोग से धरती से लेकर सुमेरुपर्वत की ऊँचाई तक विशाल मचान का आकर्षक निर्माण हुआ, जिसमें पूरे देश से (ज्ञानज्योति में बोली लेकर इंद्र-इंद्राणी का पद प्राप्त करने वाले एवं अन्य प्रकार से सहयोग प्रदान करने वाले) लाखों नर-नारियों ने हस्तिनापुर पधारकर सुमेरुपर्वत पर होने वाले महामस्तकाभिषेक में भाग लिया। उस समय हस्तिनापुर के चप्पे-चप्पे पर जन सैलाब इस प्रकार उमड़ा जैसे मानों फिर से एक बार धरती पर स्वर्ग के इन्द्र-देवगण ही उतर आये थे। उस महोत्सव में धार्मिक अयोजनों के साथ-साथ ‘जैन गणित एवं त्रिलोक विज्ञान’ पर एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार भी संस्थान ने (मेरठ विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्त्वावधान में) आयोजित किया तथा उत्तरप्रदेश सरकार की ओर से तत्कालीन मुख्यमंत्राी श्री नारायणदत्त तिवारी ने अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए आगन्तुक समस्त यात्रियों की सुविधा हेतु सड़क निर्माण, बिजली, पानी, परिवहन आदि अनेक प्रकार का सरकारी सहयोग प्रदान किया। उसके पश्चात् से आज तक उत्तरप्रदेश सरकार का सदैव यथासंभव सहयोग प्राप्त होता रहता है तथा अनेक प्रादेशिक एवं केन्द्रीय राजनेता समय-समय पर जम्बूद्वीप स्थल पर पधारकर गौरव का अनुभव करते हैं।
जम्बूद्वीप तीर्थ पर अनूठी कृतियों का संगम अद्भुत प्रस्तुति के साथ अति विशिष्ट जिनमंदिरों के रूप में देखा जा सकता है। इन्हीं में एक है-तेरहद्वीप जिनालय। जैन भूगोल के लगभग समग्र स्वरूप को प्रदर्शित करने वाली इस रचना का निर्माण होना पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी का एक दिव्य स्वप्न था, जो 27 अप्रैल से 2 मई 2007 के मध्य 5 दिनों तक आस्था चैनल पर सीधे प्रसारण के साथ सम्पन्न हुए भव्य पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सवपूर्वक साकार हुआ। इस रचना में भक्तों को मध्यलोक में स्थित 13 द्वीप के 458 अकृत्रिम जिनमंदिर, पंचमेरु पर्वत, 170 समवसरण, अनेक देवभवन आदि में विराजमान 2127 जिनप्रतिमाओं के दर्शन होते हैं। साथ ही विभिन्न सागर, नदी, पर्वत, भोगभूमि, कल्पवृक्ष आदि की अवस्थिति के संदर्भ में भी जानकारी प्राप्त होती है। यह रचना पूज्य माताजी द्वारा 2200 वर्ष प्राचीन तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार आदि ग्रंथों के गहन अध्ययन के आधार पर निर्मित कराई गई है। विश्व में प्रथम बार निर्मित इस अद्भुत रचना के दर्शन करके भक्तजन अपने मनोवांछित फल की प्राप्ति भी करते हैं। तेरहद्वीपों के नाम- जम्बूद्वीप, धातकीखण्डद्वीप, पुष्करवरद्वीप, वारुणीवर द्वीप, क्षीरवर द्वीप घृतवर द्वीप, क्षौद्रवर द्वीप नंदीश्वर द्वीप, अरुणवर द्वीप, अरुणाभास द्वीप, कुण्डलवर द्वीप, शंखवर द्वीप रुचकवर द्वीप।
तीर्थंकरों भगवन्तों की जन्मभूमियों के संदर्भ में जानकारी प्रस्तुत करने हेतु जम्बूद्वीप-हस्तिनापुुर में गणिनी ज्ञानमती हीरक जयंती एक्सप्रेस ‘तीर्थंकर जन्मभूमि यात्रा’ नामक रेल का निर्माण किया गया है। पूज्य माताजी की 75वीं जन्मजयंती-14 अक्टूबर 2008 के अवसर पर आयोजित हीरक जयंती महोत्सव में उद्घाटित इस रेल की एक बोगी में आकर्षक पेेटिंग्स द्वारा तीर्थंकर जन्मभूमियों के तत्कालीन वास्तविक स्वरूप तथा वर्तमान अवस्थिति को प्रकाशित किया गया है। इसके अवलोकन से भक्तों में तीर्थंकर जन्मभूमियों की यात्रा एवं उनके विकास के प्रति जागृति आ रही है। ज्ञातव्य है कि गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से अभी तक 12 तीर्थंकर जन्मभूमियों का विकास हो चुका है, जिनमें हस्तिनापुर, अयोध्या, कुण्डलपुर (नालंदा), काकंदी- गोरखपुर (उ.प्र.), राजगृही (नालंदा) तथा सारनाथ (वाराणसी) शामिल हैं। आगे भी तीर्थंकर जन्मभूमियों के विकासकार्य हेतु समिति प्रयासरत है। इस एक्सप्रेस रेल की दूसरी बोगी में जम्बूद्वीप थिऐटर का निर्माण किया गया है, जिसमें यात्रियों के लिए विभिन्न धार्मिक फिल्म तथा भजन आदि के माध्यम से ज्ञानवर्धक संदेश प्रस्तुत किया जाता है।
उत्तर भारत के गौरव का प्रतीक माना जाने वाला जम्बूद्वीप अपने आप में स्वयं एक परिपूर्ण आध्यात्मिक केन्द्र है, जिसके दर्शन के द्वारा देश-विदेश से आने वाले समस्त जाति के पर्यटक अद्वितीय शांति और प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। 78 अकृत्रिम जिनमंदिरों, 122 देवभवनों के जिनालयों एवं 6 समवसरण मंदिरों के धार्मिक वातावरण से परिपूर्ण जम्बूद्वीप के चारों ओर निर्मित गोलाकार लवण समुद्र में भरे जल के अन्दर यात्राी नौका विहार का आनंद लेते हैं तथा सायंकालीन बिजली-फौव्वारों का अलौकिक दृश्य देखने के लिए तो सभी विशेषरूप से एकत्रित होते हैं। प्राकृतिक एवं आध्यात्मिक सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति जम्बूद्वीप रचना यद्यपि मात्रा 250 फुट डायमीटर में बनी है किन्तु वर्तमान में दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा संचालित लगभग 35 एकड़ भूमि के परिसर में धार्मिक, शैक्षणिक, साहित्यिक आदि चहुँमुखी गतिविधियाँ निरन्तर चलती रहती हैं और मेरठ जनपद ही क्या पूरे देश में यह संस्था तथा इसका सम्पूर्ण कार्य ‘जम्बूद्वीप’ के संक्षिप्त नाम से ही विख्यात है। इस जम्बूद्वीप परिसर में कमल मंदिर, तीन मूर्ति मंदिर, शांतिनाथ मंदिर, वासुपूज्य मंदिर, ¬ मंदिर, सहस्रकूट जिनालय, विद्यमान बीस तीर्थंकर मंदिर, आदिनाथ मंदिर, ऋषभदेव कीर्तिस्तंभ, ध्यान मंदिर, अष्टापद मंदिर एवं तेरहद्वीप जिनालय आदि हैं। इनमें से ध्यान मंदिर विशेष आकर्षक नूतन शैली में निर्मित है तथा प्रत्येक आगन्तुक को आध्यात्मिकता एवं ध्यानसाधना का जीवन्त संदेश प्रदान करता है। यहाँ ‘णमोकार महामंत्रा बैंक’ के नाम से में स्थापित बैंक में भक्तों द्वारा लिखे गये करोड़ों मंत्राों की कॉपियों का संग्रह है और वह लेखनक्रम निरंतर जारी है। इसमें एक वर्ष के अंदर सवालाख, पचास हजार, पच्चीस हजार मंत्रा लिखकर जमा करने वालों को क्रमशः हीरक, स्वर्ण एवं रजत पदक से शरदपूर्णिमा के दिन सम्मानित किया जाता है।
आबाल-वृद्ध सभी की रुचि का ध्यान रखते हुए संस्थान द्वारा इस परिसर के अन्दर हस्तिनापुर के प्राचीन इतिहास से संबंधित झाँकियाँ, चित्राप्रदर्शनी, हंसी के फव्वारे, जम्बूद्वीप रेल, झूले तथा मनोरंजन के अनेक साधन उपलब्ध कराये गये हैं। हरे भरे लॉन, फुलवारी एवं सुन्दर पार्क में बैठकर जहाँ लोग प्राकृतिक सौंदर्य का रसपान करते हैं, बच्चे खेलते हुए स्वयं पुष्पवाटिका का रूप दर्शाते हैं, वहीं होली, दीवाली, कार्तिकपूर्णिमा, अक्षयतृतीया, शरदपूर्णिमा आदि विशेष मेलों के अवसर पर दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदाय के संगठन का परिचय भी प्राप्त होता है। ‘जम्बूद्वीप महामहोत्सव’ के नाम से प्रति पाँच वर्षों में यहाँ विशेष उत्सव सम्पन्न होता है।
जैन भूगोल का ज्ञान कराने वाली जम्बूद्वीप रचना हमारी विशाल सृष्टि की प्रतिकृति है। इसके बीचों बीच में निर्मित सुमेरुपर्वत इस रचना का मध्य केन्द्र बिंदु माना जाता है और इस सुमेरुपर्वत के कारण जम्बूद्वीप रचना के अंदर पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण चार प्रकार से भिन्न-भिन्न रचना के रूपों का ज्ञान होता है जिसमें पूर्व और पश्चिम की रचना पूर्व विदेह क्षेत्रा और पश्चिम विदेह क्षेत्रा के नाम से जानी जाती है तथा दक्षिण दिशा में भरतक्षेत्रा की प्रमुखता के साथ अन्य विजयार्ध, हिमवान् आदि पर्वत, गंगा-सिंधु आदि नदियाँ, हैमवत आदि क्षेत्रा कल्पवृक्षों से सहित भोगभूमि के दृश्य, चैत्यालय, देवभवन, कुण्ड, उपवन आदि दिखाये गये हैं एवं इसी प्रकार उत्तर दिशा में ऐरावत क्षेत्रा की प्रमुखता के साथ ऐसी ही पृथक् नाम वाली सभी रचनाएं बनी हैं। सुमेरुपर्वत के बिल्कुल नजदीक धरती पर उत्तर में धातु का जम्बूवृक्ष और दक्षिण में शाल्मलिवृक्ष बनाकर उनमें भी मंदिर दिखाये गये हैं। इन सभी रचनाओं का वर्णन यदि पहले ठीक प्रकार से तिलोयपण्णत्ती, त्रिलोकसार, तत्त्वार्थसूत्रा आदि ग्रंथों में पढ़ लिया जावे पुनः जम्बूद्वीप के एक-एक हिस्से को देखें तो वास्तविक ज्ञान शीघ्र ही हो जाता है। शास्त्राों के अनुसार दिये गये पूर्वाचार्यों के निर्णयानुसार वर्तमान का सम्पूर्ण विश्व (छहों महाद्वीप) दक्षिणभाग के भरतक्षेत्रा में ही प्राप्य है, शेष विशाल सृष्टि तक आज हम पहुँच नहीं सकते हैं।
यात्राी सुविधा हस्तिनापुर तीर्थ में जम्बूद्वीप स्थल के पूरे परिसर में संस्थान द्वारा कार्यालय का सक्रिय संचालन किया जाता है। वहाँ यात्रियों के ठहरने हेतु आधुनिक सुविधायुक्त 200 कमरे, 50 से अधिक डीलक्स फ्लैट एवं अनेकों गेस्ट हाउस (बंगले) बने हुए हैं। इसके साथ ही यहाँ निःशुल्क भोजनालय है जहाँ यात्रियों को सुविधापूर्वक शुद्ध भोजन प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त 2 किमी. दूर हस्तिनापुर सेन्ट्रल टाउन में सरकारी अस्पताल, डाकखाना, बाजार, इंटरकालेज तथा अन्य शिक्षण संस्थाएं आदि सभी आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध हैं।
भारत की राजधानी दिल्ली से 110 किमी. पश्चिमी उत्तरप्रदेश में जिला-मेरठ से 40 किमी. दूर हस्तिनापुर तीर्थ है। राजधानी दिल्ली से हस्तिनापुर के लिए अंतर्राज्यीय बस अड्डे अथवा आनंद विहार बस अड्डे से उत्तरप्रदेश रोडवेज तथा डी.टी.सी. बसों की निरंतर सेवा उपलब्ध है। मेरठ से भी प्रति आधे घंटे के अंतराल से जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर पहुँचने हेतु रोडवेज की बसें सुलभता के साथ उपलब्ध रहती हैं। ‘जम्बूद्वीप’ के नाम से ये बसें चलती हैं जो सीधे जम्बूद्वीप के सामने ही रुकती हैं और जम्बूद्वीप से ही मेरठ, दिल्ली, तिजारा आदि यात्रा हेतु बसें उपलब्ध रहती हैं। दिल्ली और मेरठ के बीच रेल सेवा भी है। देश-विदेश के यात्राीगण हस्तिनापुर पधारकर इस धरती का स्वर्ग मानी जाने वाली ‘जम्बूद्वीप रचना’ के दर्शन करें और मानसिक शांति का अनुभव करते हुए मनवांछित फल प्राप्त करें, यही मंगलकामना है। कहते हैं कि सन् 1948 में स्वतंत्रा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने हस्तिनापुर सेन्ट्रल टाउन की पुनर्स्थापना की थी। वहाँ से पूर्व दिशा में 2 किमी. जाकर मीरापुर रोड से बाईं ओर मुड़ने पर जैन तीर्थ का परिसर प्रारंभ होता है। जहाँ दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी जैन समाज की संस्थाएं अपने-अपने मंदिर परिसरों में विभिन्न गतिविधियों का संचालन करती हैं। ऊँचे टीले पर निर्मित लगभग 200 वर्ष पुराना दिगम्बर जैन मंदिर यहाँ का सबसे प्राचीन मंदिर है। वर्तमान में इस संस्था के द्वारा भी नंदीश्वर द्वीप, समवसरण एवं कैलाशपर्वत आदि अनेक मंदिरों का निर्माण कर यात्रियों के लिए आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं। प्राचीन मंदिर से ही आधा फर्लांग आगे नसिया मार्ग पर ‘जम्बूद्वीप’ नामक तीर्थ है।
पूज्य माताजी की प्रेरणा से हस्तिनापुर का यह संस्थान ‘तीर्थंकर जन्मभूमि विकास समिति’ के माध्यम से 24 तीर्थंकर भगवन्तों की 16 जन्मभूमि तीर्थों के विकास का कार्य कर रहा है। वर्तमान में 9वें तीर्थंकर भगवान पुष्पदंतनाथ की जन्मभूमि काकंदी (निकट गोरखपुर-उ.प्र.) तथा अयोध्या में भगवान ऋषभदेव की वास्तविक जन्मभूमि प्रथम टोंक का विकासकार्य किया गया है। आगे भी तीर्थंकर जन्मभूमियों के विकास हेतु समिति प्रयासरत है।
शिक्षाप्रेमियों के लिए यहाँ लगभग 15 हजार पुस्तकों के भण्डारण का ‘जम्बूद्वीप-पुस्तकालय’ है तथा ‘गणिनी ज्ञानमती शोध पीठ’ के द्वारा विभिन्न जैन साहित्य पर शोधकार्य चलता है। हजारों मुद्रित ग्रंथों के साथ-साथ उक्त पुस्तकालय में अनेक प्राचीन प्राकृत एवं संस्कृत की पांडुलिपियाँ भी धरोहर के रूप में विद्यमान हैं।
पूज्य माताजी की प्रेरणा से करोड़ों वर्ष प्राचीन भगवान ऋषभदेव की दीक्षा एवं केवलज्ञान भूमि प्रयाग-इलाहाबाद का सन् 2001 में विकास किया गया। यहाँ मध्य में झरने आदि प्राकृतिक सौंदर्य से युक्त 50 फुट ऊँचा विशाल कैलाशपर्वत निर्मित है, जिस पर ॰क्क फुट उत्तुुंग भगवान ऋषभदेव की पद्मासन प्रतिमा विराजमान की गई है। पर्वत पर त्रिकाल चौबीसी के 75 जिनमंदिरों के दर्शन भी एक साथ होते हैं। नीचे गुफा मंदिर में भी सुन्दर वेदी पर भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा विराजमान है। कैलाशपर्वत के एक ओर भगवान ऋषभदेव केवलज्ञान कल्याणक समवसरण मंदिर है, जिसमें समवसरण श्रीविहार रथ के माध्यम से देशभर में प्रवर्तित समवसरण की रचना को स्थापित किया गया है। दूसरी ओर भगवान ऋषभदेव दीक्षाकल्याणक तपोवन है, जिसमें धातुु से निर्मित वटवृक्ष के नीचे मुनि अवस्था में भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा विराजमान की गई है। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के दीक्षा एवं ज्ञानकल्याणक का प्राचीन इतिहास साकार करने हेतु उक्त तीर्थ का निर्माण कर संस्थान ने एक ऐतिहासिक कार्य किया है। जहाँ सम्पूर्ण व्यवस्था जम्बूद्वीप के समान ही संचालित हो रही हैं। तीर्थ पर पहुँचने हेतु इस कार्यालय से संपर्क करें- तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली प्रयाग दिगम्बर जैन तीर्थ, ऋषभदेवपुरम्, इलाहाबाद-बनारस हाइवे, पो.-इलाहाबाद (उ.प्र.),
भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा) में ‘नंद्यावर्त महल’ नाम से निर्मित तीर्थ परिसर में 108 फुट ऊँचा कलात्मक शिखर वाला विश्वशांति भगवान महावीर मंदिर है तथा उसके आजू-बाजू में भगवान ऋषभदेव मंदिर, नवग्रहशांति मंदिर बने हैं। महल के ठीक सामने तीन मंजिल ऊंँजा विशाल त्रिकाल चौबीसी मंदिर है। इनके अतिरिक्त वहाँ के सुंदर सर्वार्थसिद्धि द्वार में प्रवेश करते ही दाईं ओर कल्पवृक्ष कार्यालय है और अन्दर जाकर आधुनिक सुविधायुक्त ‘गणिनी ज्ञानमती निलय’ नाम से दो मंजिली धर्मशाला में 35 फ्लैट्स हैं। संुंदर भोजनशाला, पानी की टंकी, बिजली आदि सभी सुविधाओं से सम्पन्न भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर तीर्थ सभी भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करता है। दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के अन्तर्गत संचालित इस तीर्थ पर पहुँचने हेतु इस पते पर संपर्क करें- भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर, नंद्यावर्त महल, पो.-कुण्डलपुर (नालंदा) बिहार-803111, फोन नं.-(06112) 281846, फोन नं.-09431022376
अनादिनिधन जैन संस्कृति के दीर्घकालिक संरक्षण हेतु पूज्य माताजी की प्रेरणा से मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र (नासिक) महा. में पर्वत की अखण्ड पाषाण शिला पर 108 फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की खड्गासन प्रतिमा का निर्माणकार्य किया जा रहा है। समाज का यह महान पुण्योदय है कि जैन संस्कृति को हजारों वर्षों के लिए जीवंत स्वरूप प्रदान करने वाली इस प्रतिमा को विश्व की सबसे ऊँची प्रतिमा होने का गौरव प्राप्त होगा। इस कार्य को सम्पन्न करने में सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज का प्रशंसनीय सहयोग प्राप्त हुआ है। मात्रा 1,08,000/-रुपये की राशि प्रदान करके अनेक दिगम्बर जैन परिवारों ने इस प्रतिमा निर्माण में सहयोग कर पुण्य प्राप्त किया है। अतः 99 करोड़ महामुनियों की निर्वाणभूमि तथा लघु सम्मेदशिखर के नाम से प्रसिद्ध इस तीर्थ पर हुए इस आश्चर्यजनक कार्य में अपना सहयोग अवश्य प्रदान किया है। यह कार्य पूज्य माताजी की प्रेरणा से उनके शिष्य कर्मयोगी स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी की अध्यक्षता में बनी विशेष कमेटी द्वारा देश के वरिष्ठ इंजीनियर्स, आर्कीटेक्ट, माइंस विशेषज्ञ, मूर्तिकार, जियोलॉजिस्ट आदि का सहयोग प्राप्त हुआ है ।
पूज्य माताजी की प्रेरणा से भगवान पुष्पदंतनाथ की जन्मभूमि काकंदी में भव्य जिनमंदिर का निर्माण कर 17 जून से 21 जून 2010 में पंचकल्याणकपूर्वक भगवान की 9 फुट उत्तुंग पद्मासन प्रतिमा विराजमान की गई है। तीर्थ परिसर में नवनिर्मित कीर्तिस्तंभ एवं प्राचीन जिनमंदिर भी दर्शनीय है। यात्रियों के लिए यहाँ आवास, भोजन, बिजली, पानी आदि सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं। काकंदी गोरखपुर (उ.प्र.) से 70 किमी. व जिला-देवरिया रेलवे स्टेशन से कि०मी० की दूरी पर स्थित है। तीर्थ पर संपर्क – 09451097770.
प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी की प्रेरणा एवं दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के सहयोग से श्री ऋषभदेव जनसेवा संस्थान, माधोराजपुरा (जयपुर) राज. द्वारा पूज्य माताजी की आर्यिका दीक्षा भूमि माधोराजपुरा में विशाल भूखण्ड पर अति सुन्दर भव्य तीर्थ का निर्माण करके सम्मेदशिखर पर्वत की रचना निर्मित की गई है। पर्वत पर 24 तीर्थंकरों के जिनालय एवं चोटी पर 15 फुट उत्तुंग भगवान पार्श्वनाथ की खड्गासन प्रतिमा वंदनीय है। इस तीर्थ का पंचकल्याणक दिनाँक 21 से 26 नवम्बर 2010में सम्पन्न हुआ। माधोराजपुरा तीर्थ जयपुर से मालपुरा रोड पर 50किमी., सांगानेर से 35 किमी., पद्मपुरा से 50 किमी व तहसील फागी से 8 किमी. दूर स्थित है। तीर्थ पर संपर्क – 09829228700, 0931105559.
उत्तरप्रदेश के बाराबंकी जिले में ‘टिकैतनगर’ नामक नगर के श्रेष्ठी श्री छोटेलाल जैन की धर्मपत्नी श्रीमती मोहिनी देवी की प्रथम संतान के रूप में 22 अक्टूबर सन् 1934, आश्विन शुक्ला पूर्णिमा (शरदपूर्णिमा) की रात्रि में 9 बजकर 15 मिनट पर ‘मैना’ नामक एक कन्या का जन्म हुआ। पूर्व जन्म के संस्कार एवं इस भव के पुरुषार्थ के फलस्वरूप मैना ने सन् 1952 में गृह त्याग कर सन् 1953 में आचार्य श्री देशभूषण महाराज से क्षुल्लिका दीक्षा एवं सन् 1956 में बीसवीं सदी के प्रथम आचार्य चारित्राचक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज के प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागर महाराज से आर्यिका दीक्षा धारणकर ‘ज्ञानमती’ नाम प्राप्त किया। उनके विश्वव्यापी कार्यकलापों, विशाल साहित्य सृजन, जनकल्याणक आदि के महान कार्यों का मूल्याकंन करते हुए जहाँ समाज एवं विभिन्न आचार्यों ने उन्हें गणिनीप्रमुख, चारित्राचन्द्रिका, युगप्रवर्तिका, वात्स ल्यमूर्ति, वाग्देवी, राष्ट्रगौरव आदि उपाधियों से अलंकृत किया है, वहीं डॉ. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय-फैजाबाद (उ.प्र.) ने सन् 1995 में ‘डी.लिट्.’ की मानद उपाधि प्रदान कर अपने गौरव को बढ़ाया है। पूज्य माताजी के द्वारा दो हजार वर्ष प्राचीन षट्खण्डागम ग्रंथ के सूत्राों की सोलहों पुस्तकों की सरल संस्कृत टीका का लेखन पूर्ण हो चुका है तथा उपेक्षित तीर्थंकर जन्मभूमियों के उद्धार एवं विकास का इनका प्रमुख लक्ष्य रहता है। जैनधर्म की प्राचीनता, भगवान ऋषभदेव का विश्वस्तरीय प्रचार, स्कूली पाठ्य पुस्तकों में प्रकाशित जैनधर्म संबंधी भ्रांतियों के संशोधन का प्रबल पुरुषार्थ आदि समसामयिक कार्य आपकी विशेष ज्ञानप्रतिभा के परिचायक हैं। ऐसी प्राचीन आर्षमार्ग की संरक्षिका एवं बीसवीं सदी के प्रथम दिगम्बर जैनाचार्य चारित्राचक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज (दक्षिण) की निर्दोष परम्परा का जीवन्तरूप दर्शाने वाली जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी चिरकाल तक भव्यों को अपनी छत्राछाया प्रदान करती रहें, यही मंगलभावना है।