जम्बूवृक्ष और शाल्मली वृक्ष का वर्णन एक सा ही है। विशेषता इतनी ही है कि शाल्मलीवृक्ष की दक्षिण शाखा पर जिनमन्दिर है और शेष तीन शाखाओं पर गरुड़पति वेणु और वेणुधारी देवों के आवास हैें तथा शाल्मली वृक्ष के परिवार वृक्षों पर वेणुधारी देवों के परिवारों के आवास हैं।
कमलों की संख्या एक लाख चालीस हजार एक सौ सोलह (१±३२०००±४००००±४८०००±७±४०००±१६०००±१०८·१४०११६) जानना चाहिये ।।१२६।। हिमवान् से लेकर निषध पर्वत पर्यन्त कमलों के विष्कम्भ व उत्सेधादिक में दुगुणी दुगुणी वृद्धि जानना चाहिये।।१२७।। इसी प्रकार जंबूवृक्षों के ऊपर जम्बूगृहों की भी संख्या हैं। यहां केवल इतना विशेष जानना चाहिये कि जंबूवृक्ष चार वृक्षों से अधिक हैं।।१२८।।जो देव जम्बूवृक्ष का अधिपति है उसकी चार पट्टदेवियां है। उन देवियों के चार जंबूवृक्ष निर्दिष्ट किये गये हैं।।१२९।।
इस कारण पद्मगृहों की अपेक्षा जंबूवृक्ष चार अधिक हैं। जैसा वर्णन सरोवर का किया गया है वैसा ही जम्बूवृक्षका भी बतलाया गया है।।१३०।।
जम्बूवक्ष के उत्तम परिवारवृक्ष एक लाख चालीस हजार एक सौ उन्नीस हैं।।१३१।।
वीसहियसयं णेया चालीससहस्स एगलक्खं च।
जंबूदुमपरिसंखा णिद्दिट्ठा सव्वदरिसीहिं।।१३२।।
जावदिय जंबुभवणा जावदिया तह य पउमवरभवणा।
तावदिया णिद्दिट्ठा जिणभवणा होंति रयणमया।।१३३।।
जावदिय जंबुगेहा णाणाविहकणयरयणपरिणामा।
तावदिया णायव्वा सामलिरुक्खाण परिगेहा।।१३४।।
णवएगएग सुण्णं चत्तारि य एग होंति परिसंखा।
थाणक्कमेण णेया सामलिरुक्खस्स परिवारा।।१३५।।
सुण्णदुगएक्कसुण्णं चत्तारि य एय होंति णिद्दिट्ठा।
सामलितरुवर सव्वा थाणाणुकमेण जाणाहि।।१३६।।
एवं महाघराणं परिसंखा ताण होंति णिद्दिट्ठा।
खुल्लयघरणिवहाणं को वण्णइ ताण परिसंंखा।।१३७।।
पुव्वाभिमुहा णेया उत्तमगेहा हंवति णिद्दिट्ठा।
ताणाभिमुहा सेसा जहण्णगेहा वियाणाहि।।१३८।।
जंबूवृक्षों की संख्या सर्वदर्शियों द्वारा निर्दिष्ट एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस जानना चाहिये ।।१३२।।
जितने जम्बूभवन और जितने पद्मभवन हैं उतने ही रत्नमय जिनभवन भी कहे गये हैं। ।।१३३।।
नाना प्रकार के सुवर्ण एवं रत्नों के परिणामरूप जितने जम्बूगृह हैं उतने ही शाल्मलिवृक्षों के भी गृह जानना चाहिये ।।१३४।।
नौ, एक, एक,शून्य, चार और एक (१४०११९) इस प्रकार स्थान (अंक-) क्रम से शाल्मलिवृक्ष के परिवारवृक्षों की संख्या जानना चाहिये ।।१३५।।
शून्य, दो, एक, शून्य, चार और एक, (१४०१२०) इस प्रकार स्थान (अंक) क्रम से सब शाल्मलिवृक्षों की संख्या निर्दिष्ट की गई जानना चाहिये ।।१३६।।
इस प्रकार उन महागृहों की संख्या निर्दिष्ट की है। उनके क्षुद्र घरों के समूहों की संख्या का वर्णन कौन कर सकता है। ।।१३७।।
उत्तम गृह पूर्वाभिमुख निर्दिष्ट किये गये हैं। शेष जघन्य गृह उनके सन्मुख जानना चाहिये ।।१३८।।
पउमेसु सामलीसु य जंबूरुक्खे य रयणपरिणामा।
जिणभवणा णिद्दिट्ठा अक्किट्ठिमा सासदसभावा।।१३९।।
भिंगारकलसदप्पण- बुव्वुदघंटादिधयवडाएहिं।
सोहंति जिणाण घरा मणिकंचणमंडिया दिव्वा।।१४०।।
वरचामरभामंडलछत्तत्तयकुसुमवरिसणिवहेहिं।
सव्वोवकरणसहिया जिणपडिमाओ विरायंति।।१४१।।
उववादघरा णेया अहिसेयघरा य मंडणघरा य।
अत्थाणवरा विउला गब्भवरा कीडणघरा य।।१४२।।
णाडयघरा विचित्ता वरतूरमुदिंगसद्दगंभीरा।
मोहणघरा विसाला कालागरुसुरहिगंधड्ढा।।१४३।।
डोलाघरा य रम्मा णाणामणिविप्फुरंतकिरणोहा।
संगीयघरा तुंगा सभाघरा होंति रमणीया।।१४४।।
एवं अवसेसाणं दीवाणं सुरवराण पउमेसु।
जंबूसु सामलीसु य संखापरिमाण णिद्दिट्ठा।।१४५।।
पद्मों, शाल्मलिवृक्षों और जम्बूवृक्षों के ऊपर रत्नों के परिणामरूप अकृत्रिम और शाश्वत स्वभाववाले जिनभवन निर्दिष्ट किये गये हैं।।१३९।।
मणियों और सुवर्ण से मण्डित ये दिव्य जिनभवन भृंगार, कलश, दर्पण, बुव्वुद, घंटादिक एवं ध्वजा-पताकाओं से शोभायमान होते हैं।।१४०।।
उन जिनभवनों में सब उपकरणों से सहित जिनप्रतिमायें उत्तम चामर, भामंडल, तीन छत्र और कुसुमवृष्टिके समूहों से विराजमान हैं।।१४१।।
उक्त जिनभवनों में विशाल उपपादगृह, अभिषेकगृह, मण्डनगृह, आस्थानगृह, गर्र्भगृह और विस्तृत क्रीड़ागृह जानना चाहिये । इनके अतिरिक्त उत्तम तूर्य एवं मृदंग के शब्द से गंभीर विचित्र नाटकगृह, कालागरु की सुगंध से व्याप्त विशाल मोहनगृह (मैथुनगृह), नाना मणिओं के प्रकाशमान किरण समूह से युक्त रमणीय दोलागृह, उन्नत संगीत गृह और रमणीय सभागृह भी होते हैं ।।१४२-१४४।।
इसी प्रकार अवशेष द्वीपों के पद्मों, जम्बूवृक्षों और शाल्मलिवृक्षों पर स्थित उत्तम देवों की संख्याका प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है।।१४५।।
जंबूवृक्ष एवं उनके परिवार वृक्षों के जिनमंदिर
उत्तरकुरुम्मि मज्झे होइ महारयणजालपिंजरिओ।
उत्तरपुव्वदिसाए मेरुस्स सुदंसणो जंबू१।।५७।।
पंचेव जोयणसया विक्खंभायाम कणयमयपीढं।
बारहजोयणवहलं मज्झे अंते च दो कोसा।।५८।।
वरवेदिएहि जुत्तं मणिमयवरतोरणेहि रमणीयं।
णाणातरुगणणिवहं जिणभवणविहूसियं रम्मं।।५९।।
तस्स बहुमज्झदेसे जंबूणद अट्ठजोयणायामं।
चदुजोयणउत्तुंगं विक्खंभ हवंति चत्तारि।।६०।।
णिम्मलमणिमयपीढं बारसवेदीहि परिउढं दिव्वं।
णाणातोरणणिवहं कंचणमणिरयणसंछण्णं।।६१।।
तस्स दु मज्झे अवरं णायव्वं अट्ठजोयणुत्तुंगं।
चउजोयणवित्थिण्णं मणिमयवरभासुरं पीढं।।६२।।
तस्स दु पीढस्सुवरिं सुदंसणो णामदो हवे जंबू।
बेगाउवबाहल्लं अट्ठेव य जोयणुत्तुंगं।।६३।।
जंबूवृक्ष एवं उनके परिवार वृक्षों के जिनमंदिर
उत्तरकुरु के मध्य में मेरु के उत्तर-पूर्व (ईशान) दिशा में महारत्नों के समूह से पिंजरित सुदर्शन नामक जम्बूवृक्ष है ।।५७।।
पांच सौ योजन प्रमाण विष्कम्भ व आयाम से सहित, मध्यमें बारह योजन व अन्त में दो कोश बाहल्य से संयुक्त, उत्तम वेदिकाओं से युक्त, मणिमय उत्तम तोरणों से रमणीय, नाना तरुगणों के समूह से परिपूर्ण, और जिनभवनों से भूषित रमणीय सुवर्णमय पीठ है।।५८-५९।।
उसके बहुमध्य देश में आठ योजन आयात, चार योजन ऊंचा व चार योजन विस्तृत, बारह वेदियों से वेष्टित, नाना तोरणों से सहित तथा सुवर्ण, मणि एवं रत्नों से व्याप्त निर्मल मणिमय सुवर्ण पीठ है।।६०-६१।।
उसके मध्यमें आठ योजन ऊंचा और चार योजन विस्तीर्ण दीप्तिमान् उत्तम मणिमय दूसरा पीठ जानना चाहिये ।।६२।। उस पीठ के ऊपर दो कोश बाहल्यवाला व आठ योजन ऊंचा सुदर्शन नामक जम्बूवृक्ष है।।६३।।
छज्जोयणा य विडवी णाणामणिकणयकुसुमफलपउरं।
वेरुलियरयणमूलं मरगयवरपत्तरमणीयं।।६४।।
चदुसु वि दिसासु भागे चत्तारि हवंति तस्स वरसाहा।
छज्जोयणआयामा वित्थारा होंति बे कोसा।।६५।।
सव्वेसु होंति गेहा कोसायामा तदद्धविक्खंभा।
पादूणकोसतुंगा चदुसु वि साहेसु बोद्धव्वा।।६६।।
उत्तरदिसाविभागे जिणिंद इंदाण होंति वरभवणं।
अवसेसतिण्णिभवणा जक्खस्स यणाढियस्स हवे।।६७।।
जंबूदुमा वि णेया बत्तीससहस्स होंति धूमदिसे।
दक्खिणदिसे वि णेया चालीससहस्स दुमणिवहा।।६८।।
णेरिदिदिसाविभागे अडदालसहस्स होंति जंबुदुमा।
एदे तिण्णि वि संडा तिण्णि वि परिसाण णायव्वा।।६९।।
सत्ताणीयाणि तहा सत्तदुमा होंति पच्छिमदिसाए।
चदुसु वि दिसाविभागे चत्तारि हवंति महिसीणं ।।७०।।
छह योजन प्रमाण (मध्य शाखा(विडिमा) से संयुक्त) उक्त वृक्ष नाना मणि एवं सुवर्णमय कुसुमों व फलों की प्रचुरता से सहित , वैडूर्य रत्नमय मूलसे संयुक्त, और मरकतमय उत्तम पत्रों से रमणीय है।।६४।।
उसकी चारों ही दिशाओं में छह योजन लम्बी और दो कोश विस्तारवाली चार उत्तम शाखायें हैं।।६५।।
इन चारों ही शाखाओं पर एक कोश आयत, इससे आधे विस्तृत और पौन कोश ऊंचे प्रासाद जानना चाहिये ।।६६।।
इनमें से उत्तर दिशाभाग में स्थित श्रेष्ठ भवन जिनेन्द्र-इन्द्रों का तथा शेष तीन भवन अनादृत-अनावृत यक्ष के हैं ।।६७।।
जम्बूवृक्ष के परिवार वृक्ष भी बत्तीस हजार धूम (आग्नेय) दिशा में, चालीस हजार दक्षिण दिशामें और अड़तालीस हजार नैऋत्य दिशा विभाग में जानना चाहिये। ये तीनों समूह तीनों पारिषद देवों के समझना चाहिये।।६८-६९।।
पश्चिम दिशा में सात वृक्ष सात अनीकों के तथा चारों ही दिशाओं में स्थित चार वृक्ष अग्र देवियों के हैं।।७०।।
उत्तरपच्छिमभागे उत्तरभागे य पुव्वउत्तरदो।
चत्तारिसहस्सदुमा सामाणियाण बोधव्वा।।७१।।
चउरो चउरो य तहा सहस्सगुणिया दुमाण जंबूणं।
पुब्वुत्तरदक्खिणपच्छिमेसु कमसो मुणेयव्वा।।७२।।
अट्ठोत्तरसयसंखा अट्ठसु वि दिसासु होंति रमणीया।
आणाढियजक्खस्स य णायव्वा आदरक्खाणं।।७३।।
चालीसं च सहस्सा संद च वीसहिय तह य णायव्वा।
एयं च सयसहस्सं जंबूणं होइ परिसंखा।।७४।।
जिणभवणाण वि संखा तेत्तियमत्ता हवंति जंबूसु।
णाणारयणमयाणं अकिट्टिमाणं समुद्दिट्ठा।।७५।।
जंबूपायवसिहरे छत्तत्तयचामरादिसंजुत्ता।
बहुविहकेदुपडाया पलंबमाणा विरायंति।।७६।।
जक्ंिखदो वि महप्पा सिंहासणसंठिओ महसत्तो।
वरचामरधुव्वंतो बहुविहसुरसमिदिपणदंगो।।७७।।
उत्तर-पश्चिम (वायव्य) भाग में, उत्तर भाग में और पूर्वोत्तर (ईशान) भागमें सामायिक देवों के चार हजार वृक्ष जानना चाहिये ।।७१।।
(आत्मरक्षक देवों के ) चार चार हजार जंबूवृक्ष क्रम से पूर्व, उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दिशामें जानना चाहिये ।।७२।।
आठोें ही दिशाओं में रमणीय एक सौ आठ वृक्ष अनावृत यक्ष के आत्मरक्षक (प्रतीहार,मंत्री व दूत ) देवों के हैं।।७३।।
जंबूवृक्षों की संख्या एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस जानना चाहिये (१± ३२,००० ± ४०,००० ± ४८,००० ± ७ ± ४ ± ४०००± १६,००० ± १०८ · १,४०,१२०)।।७४।।
जंबूवृक्षों पर स्थित नाना रत्नमय अकृत्रिम जिनभवनों की भी संख्या उतनी मात्र अर्थात् एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस कही गई है ।।७५।।
जम्बूवृक्ष के शिखर पर तीन छत्र व चामरादि से संयुक्त लटकती हुई बहुत प्रकार की ध्वजा-पताकायें विराजमान हैं।।७६।।
सिंहासन पर स्थित, महाबलवान् , उत्तम चामरों से वीज्यमान, बहुत प्रकार के देवों के समूहों से नमस्कृत, हार से शोभायमान वक्षस्थलवाला, उत्तम कुण्डलों से मण्डित, विशाल भुजाओं से संयुक्त, नीलोत्पल के सदृश प्रभावाला, धवल आतपत्र से
हारविराइयवच्छो वरकुंडलमंडिओ विउलबाहू।
णीलुप्पलसंकासो सिदादवत्तेण रमणीओ।।७८।।
सम्मद्दंसणसुद्धो सम्मादिट्ठीण वच्छलो धीरो।
सयलं जंबूदीवं सो भुंजइ एयछत्तेण।।७९।।
पुव्वं कदेण धम्मे सो भुंजइ उत्तमं विसयसोक्खं।
एवं णाऊण णरा धम्मम्मि सुआढिया होह।।८०।।
शाल्मलीवृक्ष एवं उनके परिवार
वृक्षों के जिनमंदिर
देवकुरुम्मि दु वंसे सीदोदापच्छिमे तडे रुक्खो।
मंदरगिरिस्स णेया ईसाणदिसाए हवे सादी।।१४८।।
पंचेव जोयणसदा विक्खंभायामदिव्वमणिपीढं।
मज्झे बारहबहलं जोयणअद्धं तु अंतम्मि।।१४९।।
वरवेदिएहि जुत्तं मणितोरणमंडियं मणभिरामं।
बहुविहपायवणिवहं सरवरवावीहिं रमणीयं।।१५०।।
रमणीय, सम्यग्दर्शन से शुद्ध व सम्यग्दृष्टियों का प्रेमी, ऐसा वह धीर महात्मा यक्षेन्द्र भी समस्त जम्बूद्वीप को एकाधिपत्य से भोगता है।।७७-७९।।
वह यक्षेन्द्र पूर्वकृत धर्म से उत्तम विषयसुख को भोगता है, इस प्रकार जानकर मनुष्यों को धर्म में अतिशय आदर युक्त होना चाहिये ।।८०।।
शाल्मलीवृक्ष एवं उनके परिवार वृक्षों के जिनमंदिर
देवकुरु क्षेत्र में मन्दरगिरि की ईशान (नैऋत्य) दिशामें सीतोदा के पश्चिम तटपर स्वाति (शाल्मलि) वृक्ष जानना चाहिये ।।१४८।। पांच सौ योजन प्रमाण विष्कम्भ व आयाम से सहित तथा मध्य में बारह व अंत में अर्ध योजन बाहल्यवाला दिव्य मणिमय पीठ है।।१४९।। यह मणिपीठ उत्तम वेदियों से सहित मणिमय तोरणों से मण्डित, मन को अभिराम , बहुत प्रकार के वृक्षों के समूह से सहित , और सरोवर एवं वापियों से रमणीय है ।।१५०।।
तस्स बहुमज्झदेसे होइ तहा दक्खिणुत्तरायामं।
अट्ठेव जोयणाइं तदद्धउत्तुंग मणिपीढं।।१५१।।
चउजोयणविक्खंभं बारहवेदीहिं परिउडं दिव्वं।
मणिगणजलंत भासुरतोरणअडदालसंछण्णं।।१५२।।
तं मज्झगयं पीढं मणिमय अट्ठद्धजोयणुत्तुंग।
जोयणसमचदुरस्सं णाणामणिरयणसंछण्णं।।१५३।।
तस्स दु उविंर होदि य सामलिरुक्खो महब्भसंकासो।
साहोवसाहगहणो मणिकंचणरयणपरिणामो।।१५४।।
बेगाउयअवगाढो अट्ठेव जोयणसमुत्तुंगो।
बे चेव कोसरुंदो रमणमओ ण्म्मिलो दिव्वो।।१५५।।
बेजोयणउप्पइया धरणीदो तस्स होंति साहाओ।
छज्जोयणतुंगाओ मरगयपत्तेहिं छण्णाओ।।१५६।।
साहोवसाहसहिओ मज्झे छज्जोयणा हवे बहलो।
सिहरे चत्तारि हवे बहुविहमणिकुसुमफलणिवहो।।१५७।।
उसके बहुमध्य भाग में आठ योजन दक्षिण-उत्तर लंबा, इससे आधा ऊंचा, चार योजन विस्तृत, बारह वेदियों से वेष्टित, मणिसमूह की दीप्ति से भासुर तथा अड़तालीस तोरणों से व्याप्त दूसरा मणिमय दिव्य पीठ है।।१५१-१५२।।
वह मध्यगत मणिमय पीठ आठ के आधे अर्थात् चार योजन ऊंचा, एक योजन समचतुष्कोण और नाना मणियों व रत्नों से व्याप्त है।।१५३ ।।
उसके ऊपर महामेघ के सदृश , शाखा-उपशाखाओं से गहन ; मणि , सुवर्ण एवं रत्नों के परिणामरूप, दो कोश अवगाह से युक्त, आठ योजन उंचा, दो कोश विस्तार से सहित, रत्नमय, निर्मल और दिव्य शाल्मलि वृक्ष स्थित है।।१५४-१५५।।
पृथिवी से दो योजन ऊपर जाकर उसकी छह योजन ऊंची और मरकतमय पत्तों से व्याप्त शाखायें है।।१५६।।
शाखा-उपशाखाओं से सहित वह वृक्ष मध्य में छह योजन व शिखर पर चार योजन बाहल्य से सहित और बहुत प्रकार के मणिमय कुसुमों एवं फलों के समूह से संयुक्त है ।।१५७।।
साहासु होंति दिव्वा पासादा कणयरयणपरिणामा।
दक्खिणदिसाविभागे जिणइंदाणं समुद्दिट्ठा।।१५८।।
कोसं आयामेण य कोसद्धं तह य होंति विक्खंभा।
देसूणयं च कोसं उच्छेहा होंति पासादा।।१५९।।
णामेण वेणुदेवो गरुडाणं अहिवई महासत्तो।
सामलितरुम्मि णेया अच्छइ दिव्वाणुभावेण।।१६०।।
साहासिहरेसु तहा णाणाविहधयवडा समुत्तुंगा।
वरचामरछत्तत्तयसंजुत्ता होंति णायव्वा।।१६१।।
चदुसु वि दिसाविभागे सामलिरुक्खा हवंति णायव्वा।
चदु चदु चेव सहस्सा तह चेव य आदरक्खाणं।।१६२।।
दक्खिणपुव्वदिसाए अब्भंतरपारिसाण अमराणं।
सामलिपादवसंखा बत्तीससहस्स णिद्दिट्ठा।।१६३।।
तह दक्खिणे वि णेया चालीससहस्स संवलीरुक्खा।
मज्झिमपरिसाण तद्दा णायव्वा होंति णियमेण।।१६४।।
इन शाखाओं पर सुवर्ण एवं रत्नों के परिणामरूप दिव्य प्रासाद हैं। इनमें से दक्षिण दिशा विभाग में स्थित प्रासाद जिनेन्द्रों के कहे गये हैं।।१५८।।
ये प्रासाद एक कोश आयत, अर्ध कोश विस्तृत और कुछ कम एक कोश ऊंचे है।।१५९।।
शाल्मलि वृक्ष पर गरुड़कुमारों का स्वामी वेणु नामक महाबलवान् देव दिव्य प्रभाव से रहता है, ऐसा जानना चाहिये ।।१६०।।
शाखाशिखरों पर उत्तम चामरों व तीन छत्रों से संयुक्त उन्नत नाना प्रकार की ध्वजा-पताकायें जानना चाहिये ।।१६१।।
चारों ही दिशाविभागों में स्थित चार चार हजार शाल्मलि वृक्ष आत्मरक्ष देवों के जानना चाहिये ।।१६२।।
दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) दिशा में अभ्यन्तर पारिषद देवों के बत्तीस हजार शाल्मलिवृक्ष निर्दिष्ट किये गये हैं।।१६३।।
तथा दक्षिण दिशा में नियम से मध्यम पारिषद देवों के चालीस हजार शाल्मलिवृक्ष हैं, ऐसा जानना चाहिये ।।१६४।।
अट्ठेदालसहस्सा बाहिरपरिसाण होंति णायव्वा।
दक्खिणपच्छिमभागे णिद्दिट्ठा सव्वदरिसीहिं।।१६५।।
पच्छिमदिसे वि णेया सत्ताणीयाण सत्त रुक्खा य।
अट्ठोत्तरसयरुक्खा अट्ठसु वि दिसासु ते होंति।।१६६।।
पच्छिमउत्तरकोणे उत्तरभागे य पुव्वउत्तरदो।
सामाणियाण होंति हु चत्तारिसहस्स मणिरुक्खा।।१६७।।
चत्तारि तुंग पायव देवीणं होंति चदुसु वि दिसासु।
सव्वेसु पायवेसु य पासादा होंति णायव्वा।।१६८।।
सव्वेसु य पासादे जिणपडिमा होंति रूवसंपण्णा।
सीहासणछत्तत्तयभामंडलसंजुया सव्वे।।१६९।।
दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य) भागमें सर्वदर्शियों द्वारा निर्दिष्ट किये गये बाह्य पारिषद देवों के अड़तालीस हजार शाल्मलि वृक्ष जानना चाहिये ।।१६५।।
पश्चिम दिशा में भी सात अनीक देवों के सात वृक्ष जानना चाहिये ।( मंत्री व प्रतीहारादि रूप देवों के जो ) एक सौ आठ वृक्ष हैं वे आठों ही दिशाओं में स्थित हैं।।१६६।।
पश्चिम-उत्तर (वायव्य) कोण में, उत्तर भाग में और पूर्व-उत्तर (ईशान) दिशा में सामानिक देवों के चार हजार मणिमय वृक्ष हैं।।१६७।।
चार अग्र देवियों के उन्नत चार वृक्ष चारों ही दिशाओं में स्थित हैं। इन सब वृक्षों पर प्रासाद होते हैं, ऐसा जानना चाहिये।।१६८।।
सभी प्रासादों में सुन्दर रूप से सम्पन्न जिनप्रतिमायें हैं। ये सब प्रतिमायें, सिंहासन, तीन छत्र एवं भामण्डल से संयुक्त होती हैं।।१६९।।
मंदरगििंरदंदक्खिणविभागगद भद्दसालवेदीदो।
दक्खिणभायम्मि पुढं णिसहस्स य उत्तरे भागे।।२१३८।।
विज्जुप्पहपुव्वदिसा सोमणसादो य पच्छिमे भागे।
पुव्वावरतीरेसुं सीदोदे होदि देवकुरू।।२१३९।।
णिसहवणवेदिपासे तस्स य पुव्वावरेसु दीहत्तं।
तेवण्णसहस्साणिं जोयणमाणं विणिद्दिट्ठं।।२१४०।।
अट्ठसहस्सा चउसयचउतीसा मेरुदक्खिणदिसाए।
सिरिभद्दसालवेदियपासे तक्खेत्तदीहत्तं।।२१४१।।
।८४३४।
एक्करससहस्साणिं पंचसया जोयणाणि बाणउदी।
उणवीसहिदा दुकला तस्सुत्तरदक्खिणे रुंदो।।२१४२।।
।११५९२ २/१९।
पणुवीससहस्साइं णवसयइगिसीदिजोयणा रुंदो ।
दोगयदंतसमीवे वंकसरूवेण णिद्दिट्ठं।।२१४३।।
। २५९८९।
शाल्मली वृक्ष पर जिनमंदिर
मन्दरपर्वत के दक्षिण भाग में स्थित भद्रशालवेदी से दक्षिण , निषध से उत्तर, विद्युत्प्रभ के पूर्व और सौमनस के पश्चिम भाग में सीतोदा के पूर्व-पश्चिम किनारों पर देवकुरु है ।।२१३८-२१३९।।
निषधपर्वत की वनवेदी के पास में उसकी पूर्व-पश्चिम लंबाई तिरेपन हजार योजनप्रमाण बतलाई गई है।।२१४०।। मेरु की दक्षिण दिशा में श्री भद्रशाल वेदी के पास उस क्षेत्र की लंबाई आठ हजार चारसौ चौंतीस योजनमात्र है ।।२१४१।। ।८४३४।
उसका विस्तार उत्तर-दक्षिण में ग्यारह हजार पांच सौ बानबै योजन और उन्नीस से भाजित दो कलामात्र है।।२१४२।। ।११५९२ २/१९।
दोनों गजदन्तों के समीप में उसका विस्तार वक्ररूप से पच्चीस हजार नौसौ इक्यासी योजन-प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है ।।२१४३।। ।२५९८१।
णिसहवरवेदिवारणदंताचलपासकुंडणिस्सरिदा।
चउसीदिसहस्साणिं णदीउ पविसंति सीदोदं।।२१४४।।
। ८४०००।।
सुसमसुसमम्मि काले जा भणिदा वण्णणा विचित्तयरा।
सा हाणीए विहीणा एदस्ंिस णिसहसेले य।।२१४५।।
णिसहस्सुत्तरपासे पुव्वाए दिसाए विज्जुपहगिरिणो।
सीदोदवाहिणीए पच्छिल्लदिसाए भागम्मि।।२१४६।।
मंदरगिरिंदणइरिदिभागे खेत्तम्मि देवकुरुणामे।
सम्मलिरुक्खाण थलं रजदमयं चेट्ठदे रम्मं।।२१४७।।
पंचसयजोयणाणिं हेट्ठतले तस्स होदि वित्थारो।
पण्णारस परिहीए एकसीदिजुदा य तस्सधिया।।२१४८।।
।५००। १५८१।
मज्झिमउदयपमाणं अट्ठं चिय जोयणाणि एदस्स।
सव्वंतेसुं उदओ दो दो कोसं पुढं होदि।।२१४९।।
।८।२।
सम्मलिरुक्खाण थलं तिण्णि वणा वेढिदूण चेट्ठंति।
विविहवररुक्खछण्णा देवासुरमिहुणसंकिण्णा।।२१५०।।
निषधपर्वत की उत्तम वेदी और गजदन्तपर्वतों के पास में स्थित कुण्डों से निकली हुई चौरासी हजार नदियां सीतोदा नदी में प्रवेश करती हैं ।।२१४४।। ।।८४०००।।
सुषमसुषमाकाल के विषय में जो विचित्रतर वर्णन किया गया है, वही वर्णन हानि से रहित इस निषधशैल से परे देवकुरुक्षेत्र में समझना चाहिये ।।२१४५।।
देवकुरुक्षेत्र के भीतर निषध पर्वत के उत्तरपार्श्वभाग में , विद्युत्प्रभपर्वत से पूर्वदिशा में , सीतोदा नदी की पश्चिमदिशा में और मन्दरगिरि के नैऋत्यभाग में रमणीय रजतमय शाल्मलीवृक्षों का स्थल स्थित है ।।२१४६-२१४७।।
उसका विस्तार नीचे पांचसौ योजन और परिधि पन्द्रह सौ इक्यासी योजन से अधिक है ।।२१४८।। ।५००।१५८१।
इसकी मध्यम उंचाई का प्रमाण आठ योजन और सबके अन्त में पृथव्äा्â-पृथव्â दो दो कोस मात्र है।।२१४९।। । यो.८।को.२।
विविध प्रकार के उत्तम वृक्षों से व्याप्त और सुरासुरयुगलों से संकीर्ण तीन वन शाल्मलीवृक्षों के स्थल को वेष्टित करके स्थित हैं।।२१५०।।
उवरिं थलस्स चेट्ठदि समंतदो वेदिया सुवण्णमई।
दारोवरिमतलेसुं जिणिंदभवणेहिं संपुण्णा।।२१५१।।
अडजोयणउत्तुंगो बारसचउमूलउड्ढवित्थारो।
समवट्टो रजदमओ पीढो वेदीए मज्झम्मि।।२१५२।।
।८।१२।४।
तस्स बहुमज्झदेसे सपादपीढो य सम्मलीरुक्खो।
सुप्पहणामोबहुविहवररयणुज्जोयसोहिल्लो।।२१५३।।
।८।२।
उच्छेहजोयणेणं अट्ठं चिय जोयणाणि उत्तुंगो।
तस्सावगाढभागो वज्जमओ दोण्णि कोसाणिं।।२१५४।।
।८।२।
सोहेदि तस्स खंधो फुरंतवरकिरणपुस्सरागमओ।
इगिकोसबहलजुत्तो जोयणजुगमेत्तउत्तुंगो।।२१५५।।
। को १। २।
जेट्ठाओ साहाओ चत्तारि हवंति चउदिसाभाए।
छज्जोयणदीहाओ तेत्तियमेत्तंतराउ पत्तेक्कं।।२१५६।।
।६।६।
स्थल के ऊपर चारों और द्वारों के उपरिम भाग में स्थित जिनेन्द्रभवनों से परिपूर्ण सुवर्णमय वेदिका स्थित है ।।२१५१।।
इस वेदी के मध्यभाग में आठ योजन ऊंचा और मूल में बारह तथा ऊपर चार योजन प्रमाण विस्तार से सहित समवृत्त रजतमय पीठ है ।।२१५२।। ।८।१२।४।
उस पीठ के बहुमध्यभाग में पादपीठ सहित और बहुत प्रकार के उत्कृष्ट रत्नों के उद्योत से सुशोभित सुप्रभ नामक शाल्मलीवृक्ष स्थित है।।२१५३।।
वह वृक्ष उत्सेधयोजन से आठ योजन ऊंचा है। उसका वङ्कामय अवगाढ़भाग दो कोस मात्र है ।। २१५४। यो.८।को.२।
उस वृक्षका एक कोस बाहल्य से सहित, दो योजनमात्र ऊंचा और प्रकाशमान उत्तम किरणों से संयुक्त पुष्यरागमय (पुखराजमय) स्कन्ध शोभायमान है।।२१५५।।
।को.१। यो.२।।
इस वृक्षकी चारोंं दिशाओं में चार महाशाखायें हैं । इनमें से प्रत्येक शाखा छह योजन लंबी और इतने मात्र अन्तर से सहित है ।।२१५६।। ।६।६।
साहासुं पत्ताणिं मरगयवेरुलियणीलइंदाणिं।
विविहाइं कक्केयणचामीयरविद्दुममयाणिं।।२१५७।।
सम्मलितरुणो अंकुरकुसुमफलाणिं विचित्तरयणाणिं।
पणवण्णसोहिदाणिं णिरुवमरूवाणि रेहंति।।२१५८।।
जीउप्पत्तिलयाणं कारणभूदो अणाइणिहणो सो।
सम्मलिरुक्खो चामरकिंकिणिघंटादिकयसोहो।।२१५९।।
तद्दक्खिणसाहाए जिणिंद भवणं विचित्तरयणमयं।
चउहिदतिकोसउदयं कोसायामं तदद्धवित्थारं।।२१६०।।
।को.३/४। १।१/२।
जं पंडुगजिणभवणे भणियं णिस्सेसवण्णणं किं पि।
एदस्ंिस णादव्वं सुरदुंदुभिसद्दगहिरयरे।।२१६१।।
सेसासुं साहासुं कोसायामा तदद्धविक्खंभा।
पादोणकोसतुंगा हवंति एक्केक्कपासादा।।२१६२।।
। को १।१/२।३/४।
शाखाओं में मरकत, वैडूर्य , इन्द्रनील , कर्वेâतन, सुवर्ण और मूंगे से निर्मित विविध प्रकार के पत्ते हैं।।२१५७।।
शाल्मली वृक्ष के विचित्र रत्नस्वरूप और पांच वर्णों से शोभित अनुपम रूपवाले अंकुर, फूल एवं फल शोभायमान हैं।।२१५८।।
वह शाल्मलीवृक्ष स्वयं अनादिनिधन होकर भी जीवों की उत्पत्ति एवं नाश का कारण होता हुआ चामर, किंकिणी और घंटादि से शोभायमान है ।।२१५९।।
उसकी दक्षिण शाखा पर चार से भाजित तीन कोस प्रमाण ऊंचा, एक कोस लंबा और लंबाई से आधे विस्तार वाला विचित्र रत्नमय जिनभवन है।।२१६०।।
। को. ३/४। १/२।
पाण्डुक वन में स्थित जिनभवन के विषय में जो कुछ भी वर्णन किया गया है वही सम्पूर्ण वर्णन देवदुंदुभी बाजों के शब्दों से अतिशय गंभीर इस जिनेन्द्रभवन के विषय में जानना चाहिये ।।२१६१।।
अवशिष्ट शाखाओं पर एक कोस लंबे , इससे आधे विस्तारवाले और पौन कोस ऊंचे एक एक प्रासाद हैं।।२१६२।। । को.१।१/२।३/४।
चउतोरणवेदिजुदा रयणमया विविहदिव्वधूवघडा।
पजलंतरयणदीवा ते सव्वे धयवदाइण्णा।।२१६३।।
सयणासणपमुहाणिं भवणेसुं णिम्मलाणि विरजाणिं।
पकिदिमउवाणि तणुमणण यणाणदणसरूवाणिं।।२१६४।।
चेट्ठदि तेसु पुरेसुं वेणू णामेण वेंतरो देओ।
बहुविहपरिवारजुदो दुइज्जओ वेणुधारि त्ति।।२१६५।।
को.३/४।१।१/२।
सम्मद्दंसणसुद्धा सम्माइट्ठीण वच्छला दोण्णि।
ते दसचाउत्तुंगा पत्तेक्कं पल्लएक्काऊ।।२१६६।।
सम्मलिदुमस्स बारस समंतदो होंति दिव्ववेदीओ।
चउगोउरजुत्ताओ फुरंतवररयणसोहाओ।।२१६७।।
उस्सेधगाउदेणं बेगाउदमेत्तउस्सिदा ताओ।
पंचसया चावाणिं रुंदेणं होंति वेदीओ।।२१६८।।
कुलगिरिसरिया सुप्पहणामस्स य सम्मलिदुमस्स।
चेट्ठदि उववणसंडाइण्णो स खु सम्मलीरुक्खो।।२१६९।।
वे सब रत्नमय प्रासाद चार तोरणवेदियों से सहित, विविध प्रकार के दिव्य धूपघटों से संयुक्त, जलते हुए रत्नदीपकों से प्रकाशमान और ध्वजा-पताकाओं से व्याप्त हैं।।२१६३।।
इन भवनों में निर्मल , धूलिसे रहित, शरीर, मन एवं नयनों को आनन्ददायक और स्वभाव से मृदुल शय्यायें व आसनादिक स्थित हैं।।२१६४।।
उन पुरों में बहुत प्रकार के परिवार से सहित वेणु नामक व्यन्तर देव और द्वितीय वेणुधारी देव रहता है।।२१६५।।
सम्यग्दर्शन से शुद्ध और सम्यग्दृष्टियों से प्रेम करने वाले उन दोनों देवों में से प्रत्येक दश धनुष ऊँचे व एक पल्यप्रमाण आयु से सहित हैं।।२१६६।।
शाल्मलीवृक्ष के चारों तरफ चार गोपुरों से युक्त और प्रकाशमान उत्तम रत्नों से सुशोभित बारह दिव्य वेदियां है।।२१६७।।
वे वेदियां उत्सेधकोस से दो कोसमात्र ऊंची और पांचसौ धनुषप्रमाण विस्तार से सहित हैं।।२१६८।।
इस प्रकार कुलगिरिवेदिकासदृश ही ये सुप्रभ नामक शाल्मलीवृक्ष की वेदिकायें हैं। वह शाल्मलीवृक्ष (प्रथम वेदिका के भीतर) उपवनखंडों से आकीर्ण स्थित है।।२१६९।।
तत्तो बिदिया भूमी उववणसंडेहिं विविहकुसुमेहिं।
पोक्खरणीवावीहिं सारसपहुदीहिं रमणिज्जा।।२१७०।।
बिदियं व तदियभूमी णवरि विसेसो विचित्तरयणमया।
अट्ठुत्तरसयसम्मलिरुक्खा तीए समंतेणं।।२१७१।।
अद्धेण पमाणेणं ते सव्वे होंति सुप्पहाहिंतो।
एदेसुं चेट्ठंते वेणुदुगाणं महामण्णा।।२१७२।।
तदियं व तुरिमभूमी चउतोरणउवरिसम्मलीरुक्खा।
पुव्वदिसाए तेसुं चउदेवीओ य वेणुजुगलस्स।।२१७३।।
।४।२।२।
तुरिमं व पंचममही णवरि विसेसो ण सम्मलीरुक्ख।
तत्थ भंवति विचित्ता वावीओ विविहरूवाओ।।२१७४।।
छट्ठीए वणसंडो सत्तमभूमीए चउदिसाभागे।
सोलससहस्सरुक्खा वेणुजुगलस्संगरक्खाणं।।२१७५।।
।८०००।८०००।
सामाणियदेवाणं चत्तारो होंति सम्मलिसहस्स।
पवणेसाणदिसासुं उत्तरभागम्मि वेणुजुगलस्स।।२१७६।।
।२०००।२०००।
इसके आगे द्वितीय भूमि विविध प्रकार के फूलों वाले उपवनखण्डों , पुष्करिणियों, वापियों और सारसादिकों से रमणीय है।।२१७०।।
द्वितीय भूमि के समान तृतीय भूमि भी है। परन्तु विशेषता केवल यह है कि तृतीय भूमि में चारों ओर विचित्र रत्नों से निर्मित एक सौ आठ शाल्मलीवृक्ष हैं।।२१७१।।
वे सब वृक्ष सुप्रभवृक्ष की अपेक्षा आधे प्रमाण से सहित हैं। इनके ऊपर वेणु और वेणुधारी इन दोनों के महामान्य देव निवास करते हैं।।२१७२।।
तृतीय भूमि के समान चतुर्थ भूमि भी है । इसकी पूवदिशा में चार तोरणोंपर शाल्मलीवृक्ष हैं, जिनपर वेणुयुगल की चार देवियां रहती हैं।।२१७३।। ४।२।२।
चतुर्थ भूमि के समान पांचवी भूमि भी है। विशेष केवल यह है कि इस भूमि में शाल्मलीवृक्ष तो नहीं है, परन्तु विविध रूपवाली विचित्र वापियां हैं।।२१७४।।
छठी भूमि में वनखण्ड और सातवीं भूमि के भीतर चारों दिशाओं में वेणुयुगल के अंगरक्षक देवों के सोलह हजार वृक्ष हैं। ।२१७५।। । ८०००।८०००।
(आठवीं भूमि में ) वायव्य, ईशान और उत्तरदिशाभाग में वेणुयुगल के सामानिक देवों के चार हजार शाल्मलीवृक्ष हैं।।२१७६।। ।२०००।२०००।
बत्तीससहस्साणिं सम्मलिरुक्खाणि अणलदिब्भाए।
भूमीए णवमीए अब्भंतरदेवपरिसाणं।।२१७७।।
।१६०००।१६०००।।
पुह पुह वीससहस्सा सम्मलिरुक्खाण दक्खिणे भागे।
दसमखिदीए मज्झिमपरिससुराणं च वेणुजुगे।।२१७८।।
।२००००।२००००।
पुह चउवीससहस्सा सम्मलिरुक्खाण णइरिदिविभागे।
एक्कारसममहीए बाहिरपरिसामराण दोण्णं पि।।२१७९।।
सत्तेसु य अणिएसुं अधिवइदेवाण सम्मलीरुक्खा।
बारसमाए महीए सत्त च्चिय पच्छिमदिसाए।।२१८०।।
।७।
लक्खं चालसहस्सा वीसुत्तरसयजुदा य ते सव्वे।
रम्मा अणाइणिहणा संमिलिदा सम्मलीरुक्खा।।२१८१।।
।१४०१२०।।
तोरणवेदीजुत्ता सपादपीढा अकिट्टिमायारा।
वररयणखचिदसाहा सम्मलिरुक्खा विरायंति।।२१८२।।
वज्जिंदणीलमरगयरविकंतमयंककंतपहुदीहिं।
णिण्णासिअंधयारं सुप्पहरुक्खस्स भादि थलं।।२१८३।।
नवमी भूमि के भीतर अग्निदिशा में अभ्यन्तर पारिषद देवों के बत्तीस हजार शाल्मलीवृक्ष हैं।।२१७७।। ।१६०००।१६०००।
दशवीं पृथिवी के दक्षिणभाग में वेणुयुगलसम्बन्धी मध्यम पारिषद देवों के पृथव्äा्â पृथव्â बीस हजार शाल्मलीवृक्ष हैं।।२१७८।। ।२००००।२००००।
ग्यारहवीं भूमि के नैऋत्य दिग्विभाग मेंं उक्त दोनों देवों के बाह्य पारिषद देवों के पृथव्â-पृथव्â चौबीस हजार शाल्मलीवृक्ष है।।२१७९।। २४०००।२४००००।
बारहवीं भूमिमें पश्चिमदिशा की ओर सात अनीकोंं के अधिपति देवों के सात ही शाल्मलीवृक्ष हैं ।।२१८०।। । ७।
रमणीय और अनादिनिधन वे सब शाल्मलीवृक्ष मिलकर एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस हैं।।२१८१।। ।१४०१२०।
तोरणवेदियों से युक्त, पादपीठों से सहित, अकृत्रिम आकार के धारक और उत्तम रत्नों से खचित शाखाओं से संयुक्त वे सब शाल्मलीवृक्ष विराजमान हैं।।२१८२।।
सुप्रभवृक्ष का स्थल वङ्का, इन्द्रनील, मरकत, सूर्यकान्त और चन्द्रकान्तप्रभृति मणिविशेषों से अन्धकार को नष्ट करता हुआ सुशोभित होता है।।२१८३।।
सुप्पहथलस्स विउला समंतदो तिण्णि होंति वणसंडा।
विविहफलकुसुमपल्लवसोहिल्लविचित्ततरुछण्णा।।२१८४।।
तेसुं पढमम्मि वणे चत्तारो चउदिसासु पासादा।
चउहिदतिकोसउदया कोसायामातदद्धवित्थारा।।२१८५।।
।३/४।१।१/२।।
भवणाणं विदिसासुं पत्तेक्कं होति दिव्वरूवाणं।
चउ चउ पोक्खरणीओ दसजोयणमेत्तगाढाओ।।२१८६।।
पणवीसजोयणाइं रुंदं पण्णास ताण दीहत्तं।
विविहजलणिवहमंडिदकमलुप्पलकुमुदसंछण्णं।।२१८७।।
मणिमयसोवाणाओ जलयरचत्ताओ ताओ सोहंति।
अमरमिहुणाण कुंकुमपंकेणं पिंजरजलाओ।।२१८८।।
पुह पुह पोक्खरणीणं समंतदो होंति अट्ठ कूडाणिं।
एदाण उदयपहुदिसु उवएसो संपइ पणट्ठो।।२१८९।।
वणपासादसमाणा पासादा होंति ताण उवरिम्मिं।
एदेसु चेट्ठंते परिवारा वेणुजुगलस्स।।२१९०।।
सुप्रभस्थल के चारों ओर विविध प्रकार के फल , फूल और पत्तोंसे शोभित ऐसे नाना प्रकार के वृक्षों से व्याप्त तीन विस्तृत वनखण्ड हैं।।२१८४।।
उनमें से प्रथम वन के भीतर चारों दिशाओं में चार से भाजित तीन कोस प्रमाण ऊंचे, एक कोस लंबे और इससे आधे विस्तार वाले चार प्रासाद हैं।।२१८५।।
।को.३/४।१।१/२।
दिव्य स्वरूप के धारक इन प्रत्येक भवनों की विदिशाओं में दश योजनमात्र गहरी चार चार पुष्करिणी हैं।।२१८६।।
जलसमूह से मंडित विविध प्रकार के कमल, उत्पल, और कुमुदों से व्याप्त उन पुष्करिणियों का विस्तार पच्चीस योजन व लंबाई पचास योजन मात्र है।।२१८७।।
वे पुष्करिणियां मणिमय सोपानों से सुंदर, जलचर जीवों से परित्यक्त और देवयुगलों के कुकुमपंक से पीतजलवाली हैं।।२१८८।।
पुष्करिणियों के चारों ओर पृथव्â-पृथव्â आठ कूट हैं। इन कूटों की उंचाई आदि का उपदेश इस समय नष्ट हो चुका है।।२१८९।।
उन कूटों के ऊपर वनप्रासादों के समान प्रासाद हैं। इनमें वेणुयुगल के परिवार रहते हैं।।२१९०।।
मंदरउत्तरभागे दक्खिणभागम्मि णीलसेलस्स।
सीदाय दोतडेसुं पच्छिमभागम्मि मालवंतस्स।।२१९१।।
पुव्वाए गंधमादणसेलाए दिसाय होदि रमणिज्जो।
णामेण उत्तरकुरू विक्खादो भोगभूमि त्ति।।२१९२।।
देवकुरुवण्णणाहिं सरिसाओ वण्णणाओ एदस्स।
णवरि विसेसो सम्मलितरुवणप्फदी तत्थ ण हवंति।।२१९३।।
मंदरईसाणदिसाभाए णीलस्स दक्खिणे पासे।
सीदाए पुव्वतडे पच्छिमभायम्मि मालवंतस्स।।२१९४।।
जंबूरुक्खस्स थलं कणयमयं होदि पीढवरजुत्तं।
विविहवररयणखचिदा जंबूरुक्खा भवंति एदस्स्ािं।।२१९५।।
सामलिरुक्खसरिच्छं जंबूरुक्खाण वण्णणं सयलं।
णवरि विसेसा वेंतरदेवा चेट्ठंति अण्णण्णा।।२१९६।।
तसु पहाणरुक्खे जिणिंदपासादभूसिदे रम्मे।
आदरअणादरक्खा णिवसंते वेंतरा देवा।।२१९७।।
सम्मद्दंंसणसुद्धा सम्माइट्ठीण वच्छला दोण्णि।
सयलं जंबूदीवे भुंजंति एक्कछत्ती णं।।२१९८।।
(लोक विभाग ग्रंथ से१)
मेरोः पूर्वोत्तरस्यां वै सीतापूर्वतटात्परम्।
आसन्नं नीलशैलस्य स्थलं जम्ब्वाः प्रकीर्तितम्।।१२६।।
अर्धयोजनमुद्विद्धा उद्वेधाष्टमरुंध्रिकाः।
वेदिका रत्नसंकीर्णा स्थलस्योपरि सर्वतः।।१२७।।
। १/१६।
स्थले सहस्रार्धपृथौ मध्येऽष्टबहले पुनः।
अन्ते द्विकोशबहले जाम्बूनदमये शुभे।।१२८।।
द्वादशष्टौ च चत्वारि मूलमध्योर्ध्वविस्तृता।
पीठिकाष्टोच्छ्रिता तस्या द्वादशाम्बुजवेदिकाः।।१२९।।
द्वियोजनोच्छ्रितस्कन्धा मूले गव्यूतिविस्तृता।
अष्टयोजनशाखा सा त्ववगाढार्धयोजनम्।।१३०।।
। क्रो १।
अश्मगर्भस्थिरस्कन्धा वङ्काशाखा मनोरमा।
भ्राजते राजितैः पत्रैरङकुरैर्मणिजातिभिः।।१३१।।
फलैर्मृदङ्गसंकाशैर्जम्बूः स्तूपसमाकृतिः।
पृथिवीपरिणामा सा जीवावक्रान्तिजातिका (?)।।१३२।।
उत्तरस्यां तु शाखायामर्हदायतनं शुभम्।
तिसृष्वन्यासु वेश्मानि याद्दरा नादराख्ययोः।।१३३।।
मेरु पर्वत के पूर्व-उत्तर (ईशान) कोण में सीता नदी के पूर्व तट पर नील पर्वत के पास में जंबूवृक्ष का स्थल बतलाया गया है।।१२६।। इस स्थल के ऊपर सब ओर आधा योजन ऊँची और ऊँचाई के आठवें भाग (१/१६ यो.) प्रमाण विस्तारवाली रत्नों से व्याप्त एक वेदिका है।।१२७।। पाँच सौ योजन विस्तार वाले और मध्य में आठ योजन तथा अन्त में दो कोस बाहल्य से संयुक्त उस सुवर्णमय उत्तम स्थल के ऊपर मूल में, मध्य में और ऊपर यथाक्रम से बारह, आठ और चार योजन विस्तृत तथा आठ योजन ऊँची जो पीठिका है उसके बारह पद्मवेदिकाएँ हैं।।१२८-१२९।। इस स्थल के ऊपर जो जंबूवृक्ष स्थित है उसका स्कंध (तना) दो योजन ऊँचा, मूल में एक कोस विस्तृत और आधा योजन अवगाह से संयुक्त है। उसकी आठ योजन दीर्घ चार शाखाएँ हैं।।१३०।।
हरित् मणिमय स्थिर स्कन्धवाला एवं वङ्कामय शाखाओं से मनोहर वह वृक्ष विविध मणिभेदों से शोभायमान पत्रों एव अंकुरों से सुशोभित है।।१३१।।
मृदंग जैसे फलों से स्तूप के समान आकृति को धारण करने वाला वह जंबूवृक्ष पृथिवी के परिणामस्वरूप है।।१३२।।
उसकी उत्तर दिशागत शाखा के ऊपर उत्तम जिनभवन तथा अन्य तीन शाखाओं के ऊपर आदर और अनादर नामक व्यन्तर देवों के भवन हैं।।१३३।।