मेरु पर्वत के ईशान दिशा भाग में, नीलगिरि के दक्षिण पार्श्व भाग में, माल्यवंत के पश्चिम भाग में एवं सीता नदी के पूर्व तट पर उत्तम पीठ से सहित सुवर्णमय जम्बूवृक्ष का स्थल है।
इस स्थल का विस्तार नीचे पाँच सौ योजन और परिधि १५८१ योजन से कुछ अधिक है। इसकी मध्यम ऊँचाई का प्रमाण ८ योजन एवं अंत में मोटाई दो कोस मात्र है। उत्तम वृक्षों से व्याप्त तीन वन इस स्थल को वेष्टित करके स्थित है। स्थल के ऊपर चारों ओर द्वारों के उपरिम भाग में स्थित जिनेन्द्र भवनों से परिपूर्ण सुवर्णमय वेदिका स्थित है जो कि अर्ध योजन ऊँची एवं १/१६ योजन मात्र विस्तृत है। इस वेदी के मध्य भाग में आठ योजन ऊँचा, मूल में १२ तथा ऊपर ४ योजन प्रमाण विस्तृत समवृत रजतमय पीठ है। इस पीठ के बहुमध्य भाग में पाद पीठ सहित उत्कृष्ट रत्नों से खचित जम्बूवृक्ष स्थित है। यह वृक्ष उत्सेध योजन से आठ योजन ऊँचा है। उसकी वङ्कामय जड़ दो कोस मात्र है। इस वृक्ष का स्कंध एक कोस मोटा एवं दो योजन ऊँचा है और हरित मणिमय स्थित है। इस वृक्ष की चारों दिशाओं में चार महाशाखायें हैं इनमें से प्रत्येक शाखा छ:योजन लंबी और इतने मात्र अंतर से सहित है। शाखाओं में मरकत, वैडूर्य, कर्वेâतन, सुवर्ण और मूंग से निर्मित विविध प्रकार के पत्ते हैं एवं पंच वर्ण रत्नों से निर्मित अनुपमरूप वाले अंकुर, फल एवं पुष्प शोभायमान होते हैं। यह वृक्ष अनादिनिधन पृथ्वीकायिक है और चामर किंकणी आदि से शोभित है।
उसकी उत्तर दिशागत शाखा के ऊपर उत्तम जिनभवन तथा अन्य तीन शाखाओं के ऊपर आदर-अनादर नामक व्यंतर देवों के भवन हैं। जिन मंदिर का वर्णन पांडुकवन जिन भवन सदृश है। एवं देवों के भवन एक कोस लंबे अर्ध कोस विस्तृत पोन कोस ऊँचे हैं। ये रत्नमय प्रासाद अनेक वैभव से युक्त हैं। इनमें रहने वाले देव दस धनुष ऊँचे व एक पल्य प्रमाण आयु से सहित होते हुए अनुपम दिव्य सुखों का उपभोग करते हैं।इस वृक्ष के चारों तरफ चार गोपुरों से युक्त उत्तम रत्नों से सुशोभित बारह दिव्य वेदियाँ हैं। ये वेदियाँ उत्सेध कोस से दो कोस मात्र ऊँची और पाँच सौ धनुष प्रमाण विस्तृत हैं। उपर्युक्त बारह पद्म वेदिकाओं में बाह्य वेदिका की ओर प्रारंभ करके प्रथम और द्वितीय अंतराल में शून्य हैं अर्थात् उपवनखंड, वापी, पुष्करिणी, पुष्पलता, सारस आदि से मनोरम हैं, किन्तु इनमें जम्बू वृक्ष के परिवार वृक्ष नहीं हैं। तृतीय अंतराल में भूमि के चारों ओर एक सौ आठ जम्बू वृक्ष हैं। चतुर्थ अंतराल में पूर्व दिशा में देवियों के चार वृक्ष, पंचम अंतराल में वन व चतुष्कोण गोल आदि वापियाँ, छठे अंतराल में शून्य हैं। सातवें अंतराल में चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में तनुरक्षक देवों के सुंदर चार-चार हजार वृक्ष (सोलह हजार) आठवें अंतराल में ईशान, उत्तर और वायव्य दिशाओं में सामानिक देवों के सब मिलकर चार हजार वृक्ष हैं। नवें अंतराल में आग्नेय दिशा में अभ्यंतर पारिषद देवों के बत्तीस हजार वृक्ष हैं। दसवें में दक्षिण भाग में पारिषद के चालीस हजार वृक्ष एवं ग्यारहवें अंतराल में नैऋत्य दिशा में बाह्य पारिषद देवों के अड़तालीस हजार वृक्ष हैं। बारहवीं भूमि में पश्चिम दिशा की ओर सात अनीकों के अधिपति देवों के सात ही वृक्ष हैं। रमणीय अकृत्रिम ये सब जम्बूवृक्ष के १४०१२० प्रमाण हैं।
इस जम्बूवृक्ष स्थल के चारों ओर विविध फल-फूलों से व्याप्त तीन वन खंड हैं। प्रथम वन खंड में चारों दिशाओं में चार प्रासाद हैं। इन प्रत्येक भवनों की विदिशाओं में दस योजन गहरी चार-चार पुष्करिणी हैं इन पुष्करिणियों का विस्तार २५ योजन एवं लम्बाई ५० योजन है। इनमें मणिमय सोपान हैं, इनका जल स्वच्छ है एवं जल जंंतुओं से रहित है। पुष्करिणियों के चारों ओर पृथक्-पृथक् आठ कूट हैं इन पर स्थित प्रासादों पर आदर-अनादर देवों के परिवार देव रहते हैं इस प्रकार से जम्बू वृक्ष का वर्णन हुआ। इसमें अनादिनिधन जामुन फल जैसे फल लटक रहे हैं अत: इसका ‘जम्बू’ यह नाम सार्थक है। इन सभी जम्बू वृक्षों पर प्रत्येक पर एक-एक जिन भवन स्थित हैं।