गीताछन्द
गिरि मेरु के उत्तर दिशी उत्तरकुरु शोभे अहा।
उसमें सुदिक् ईशान के जंबूतरू राजे महा।।
दक्षिण दिशा में देवकुरु नैऋत्य कोण सुहावनी।
तरु शाल्मलि शुभरत्नमय, सुन्दर दिखे शाखाघनी।।१।।
—सोरठा—
तरु की शाखा मांहि, रत्नमयी जिनबिंब हैं।
नमूं नमू तिहुंकाल, भक्ति भाव से मैं सदा।।१।।
—नरेन्द्र छंद—
जंबूतरु का स्वर्णिम स्थल, पांच शतक योजन है।
इस थल का परकोटा कांचन-मयी मनो मोहन है।।
पीठ आठ योजन का ऊँचा, मध्य माहिं चांदी का।
इस पर जम्बूवृक्ष अकृत्रिम, पृथ्वीमय रत्नों का।।२।।
यह तरु तुंग आठ योजन है, वङ्कामयी जड़ जानो।
मणिमय तना हरित मोटाई, एक कोश परमानो।।
तरु की चार दिशाओें में हैं, चार महाशाखायें।
छह योजन की लंबी इतने, अंतर से लहरायें।।३।।
मरकत कर्वेâतन मूँगा, कंचन के पत्ते उत्तम।
पांच वर्ण रत्नों के अंकुर, फल अरु पुष्प अनूपम।।
इसमें फल जामुन सदृश हैं, कोमल चिकने दिखते।
रत्नमयी हैं फिर भी अद्भुत पवन लगत ही हिलते।।४।।
उत्तर शाखा पर जिन मंदिर, सुरगृह त्रय शाखा पे।
सम्यक्त्वी आदर व अनादर, व्यंतर रहते उनपे।।
तरु को चारों तरफ घेर कर, बारह पद्म वेदियाँ।
उनके अंतराल में तरु की, परिकर वृक्ष पंक्तियां।।५।।
एक लाख चालीस हजार इक सौ उन्नीस कहाएं।
इन जंबू परिवार वृक्ष पर, सुर परिवार रहायें।।
मेरू की ईशान दिशा में नीलाचल के दाएं।
माल्यवन्त के पश्चिम में, सीता के पूर्व कहाएं।।६।।
तरु स्थल के चारों तरफे, त्रय वन खंड कहाते।
फल फूलों युत सुरमहलों युत, जल वापी युत भाते।।
इस द्रुम के जिनगृह में इक सौ-आठ जिनेश्वर प्रतिमा।
इसी तरह शाल्मली वृक्ष की जानो सारी रचना ।।७।।
शाल्मलि तरु के अधिपति व्यंतर, वेणु वेणुधारी हैं।
ये सुर सम्यक्त्वी जिन मत के, प्रेमी गुणधारी हैंं।।
जितने जंबू शाल्मलि तरु हैं, उतने जिन मंदिर हैंं।
क्योंकि सभी पर सुर रहते हैंं सबमें जिन मंदिर हैं।।८।।
दो चैत्यालय मुख्य अकृत्रिम, हैं स्वतन्त्र दो तरु के।
उनकी अरु सब जिन प्रतिमा की, करूँ वंदना रुचि से।।
सुर किन्नरियां नित गुण गातीं वीणा की लहरों से।
दर्शन करके नर्तन कीर्तन करतीं भक्ति स्वरों से ।।९।।
जय जय जिन प्रतिमा अद्भुत महिमा पढ़े सुने जो गुण गावें।
जय ‘ंज्ञानमती’ श्री सिद्धिवधू प्रिय सो नर सुखसम्पत्ति पावें ।।१०।।