१.टिकेटनगर से महावीर जी।
२. महावीर जी का वर्णन।
३. महावीर जी से जयपुर।
४. विलक्षण प्रतिभा की धनी क्षुल्लिका वीरमती।
५. व्युत्पन्नमति क्षुल्लिका वीरमती।
६. व्याकरण का अध्ययन-लोहे के चनों को सत्तू बनाना।
बाराबंकी लखनऊ होकर, महावीर जी पहुँचा संघ।
वीरप्रभू के शुभ दर्शन का, फिर से आया पुण्य प्रसंग।
यह अति ही रमणीय क्षेत्र है, मूरत है अतिशयकारी।
प्राप्त नहीं अन्यत्र कहीं पर, ऐसी सूरत मनहारी।।२४२।।
पता नहीं कब से क्यों, वैâसे, यह टीले में दबी रहीं।
इक ग्वाले को सपना देकर, टीले से बाहर निकली।।
अपवाद लगा दीवान साब को, इनका ध्यान लगाया है।
तीन-तीन तोप गोलों से, प्रभु ने उन्हें बचाया है।।२४३।।
माताजी श्री वीरमती के, मन में छाया हर्ष अपार।
वीर प्रभू के दर्शन करने, पहुँची लेकर भक्ति ज्वार।।
तुम सचमुच अतिशयकारी हो, तुम्हीं बने मेरी पतवार।
तुम चरणों में दीक्षा पाई, परम्परा पाऊँ भव-पार।।२४४।।
जैन नगर जयपुरवासी जन, मन आया उत्साह अपार।
आचार्यश्री के श्रीचरणों में, किया नमोऽस्तु बारम्बार।।
हे करुणाधन! ज्ञान के सागर! हम पर इतनी कृपा करें।
अगला चातुर्मास मुनीश्वर, जयपुर का स्वीकार करें।।२४५।।
स्वीकृति पा आचार्यश्री की, जयपुरवासी हर्ष विभोर।
यथा मेघ ध्वनि को सुन करके, नर्तन करने लगते मोर।।
आचार्य संघ जयपुर पधराया, फिर निवाई-टोंक आया।
यत्र-तत्र करते प्रभावना, संघ नगर जयपुर भाया।।२४६।।
महाविलक्षण प्रतिभा धारी, पूज्य क्षुल्लिका वीरमती।
सिद्धांत-व्याकरण को पढ़ने की, रही बुभुक्षा तीव्र अती।।
मानों ज्ञानप्राप्त करने को, हुआ हो भस्मक रोग महान्।
ज्ञान बुभुक्षा बुझा न पाते, अल्प ज्ञान, शाक्तिक विद्वान्।।२४७।।
अद्भुत सुमरन शक्ति आपकी, मानों रहे पूर्व संस्कार।
तीव्र-तीक्ष्ण मेधा- सम्पन्ना, सकल, सहज प्राप्त उपहार।।
इकपाठी अकलंक योग्यता, ग्रहण शक्ति भी अतिशय मान।
फलत: इन्द्रलाल जी रक्खा, व्युत्पन्नमती जी सार्थक नाम।।२४८।।
व्याकरणविद्या लौह चने-सी, बड़ी कठिन से आती है।
लेकिन वीरमती के उर में, हलुआ-सी पच जाती है।।
दो वर्षीय कोर्स कातंत्र का, दो माह से कम में पूर्ण किया।
एक बार पढ़ लौह चने को, सत्तू-मीठा बना लिया।।२४९।।
अन्तराय आहार में हुये, अत: शक्ति तन क्षीण हुई।
ज्ञान बुभुक्षा वीरमती की, पर बढ़कर अक्षीण हुई।।
सपने में भी अध्ययन करतीं, करतीं सिद्ध व्याकरण रूप।।
दिन में पढ़तीं सपने रटतीं, करतीं विषय आत्मतद्रूप।।२५०।।
सर्वार्थसिद्धि-कातंत्रव्याकरण, अध्ययन जयपुर पूर्ण किया।
स्वाध्याय कर बढ़ो निरंतर, आचार्यश्री आशीष दिया।।
वीरमती की ज्ञान बुभुक्षा, भी अब हो गई िंकचित् शांत।
समय का पंछी उड़ते-उड़ते, बैठा चतुर्मास दिनांत।।२५१।।
छोटा संघ, सकल मन भाया, आचार्यश्री, इक क्षुल्लकजी।
दो ही मात्र क्षुल्लिका माता, विशालमती औ वीरमती।।
श्रावकजन के भक्ति अधिक थी, मन में उमड़ा अति उत्साह।
सौ-सौ चौके प्रतिदिन लगते, तदा कुतर्क, सुनी अफवाह।।२५२।।
चार साधु, सौ चौके लगना, उचित नहीं यह खर्च फिजूल।
तथाकथित सुधारवादीजन, दिया बात को अनुचित तूल।।
चौका लगना कार्य पुण्य का, मिलता भोजन करने शुद्ध।
पड़गाहन से पुण्य दान का, हों दाता के भाव विशुद्ध।।२५३।।