-दोहा-
निजानंद पीयूषरस, निर्झरणी निर्मग्न।
गाऊँ तुम गुणमालिका, होऊँ गुण सम्पन्न।।१।।
-नरेन्द्र छंद-
चिन्मय ज्योति चिदंबर चेतन चिच्चैतन्य सुधाकर।
जय जय चिन्मूरत चिंतामणि चिंतितप्रद रत्नाकर।।
मरुदेवी के पौत्र आप हे यशस्वती के नंदन।
हे स्वामिन्! स्वीकार करो अब मेरा शत-शत वंदन।।२।।
आदिब्रह्मा ऋषभदेव से विद्या शिक्षा पाई।
संस्कारों से संस्कारित हो आतम ज्योति जगाई।।
भक्तिमार्ग के आदि विधाता सोलहवें मनु विश्रुत।
चौथा वर्ण किया संस्थापित पूजा दान धरम हित।।३।।
गृह में रहते भी वैरागी जल से भिन्न कमलवत्।
छहों खंड पृथ्वी को जीता फिर भी निज आतम रत।।
वृषभदेव के समवसरण में श्रोता मुख्य तुम्हीं थे।
दिव्यध्वनी से दिव्यज्ञान पर श्रद्धामूर्ति तुम्हीं थे।।४।।
कल्पद्रुम पूजा के कर्ता दान चतुर्विध दाता।
व्रत उपवास शील के धारी देशव्रती विख्याता।।
श्रावक होकर अवधिज्ञानी राजनीति के नेता।
चातुर्वर्णिक सर्व प्रजा हित गृही धर्म उपदेष्टा।।५।।
दीक्षा ले अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्रकाशा।
उत्तम ज्ञानज्योति में तब ही त्रिभुवन अणुवत् भासा१।।
श्रीविहार से भव्यजनों को उपदेशा शिवमारग।
फिर वैâलाशगिरी पर जाकर हुए पूर्ण शिवसाधक।।६।।
सर्व कर्म निर्मूल आप त्रिभुवन साम्राज्य लिया है।
मृत्यु मल्ल को जीत लोक मस्तक पर वास किया है।।
मन से भक्ति करें जो भविजन वे मन निर्मल करते।
वचनों से स्तुति को पढ़ के वचन सिद्धि को वरते।।७।।
काया से अंजलि प्रणमन कर तन का रोग नशाते।
त्रिकरण शुचि से वंदन करके कर्म कलंक नशाते।।
इस विधि तुम यश आगम वर्णे श्रवण किया है जब से।
तुम चरणों में प्रीति जगी है शरण लिया है तब से।।८।।
हे भरतेश कृपा अब ऐसी मुझ पर तुरतहिं कीजे।
‘सम्यग्ज्ञानमती’ लक्ष्मी को देकर निजपद दीजे।।
आप भरत के पुण्य नाम से ‘भारतदेश’’ प्रसिद्धी।
नमूँ नमूँ मैं तुमको नितप्रति, प्राप्त करूँ सब सिद्धी।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
श्री भरत चक्रवर्ती विधान, जो भव्य भक्ति से करते हैं।
वे नवनिधि ऋद्धि सुज्ञान प्राप्त-कर ध्यान सिद्धि भी लभते हैं।।
सांसारिक सब अभ्युदय प्राप्त, कर चक्रवर्ति पद पा जाते।
वैâवल्य ‘ज्ञानमति’ प्राप्त करें, त्रिभुवन साम्राज्य स्वयं पाते।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।