—त्रिभंगी छंद—
जय जय श्री गणधर, धर्म धुरंधर, जिनवर दिव्यध्वनी धारें।
द्वादश अंगों में, अंग बाह्य में, गूँथे ग्रन्थ रचें सारे।।
गुरु नग्न दिगंबर, सर्व हितंकर, तीर्थंकर के शिष्य खरे।
मैं नमूँ भक्ति धर, ऋद्धि निधीश्वर, मुझ शिवपथ निर्विघ्न करें।।१।।
—स्रग्विणी छंद—
मैं नमूँ मैं नमूँ नाथ गणधार को।
शील संयम गुणों के सुभंडार को।।
नाथ तेरे बिना कोई ना आपना।
शीघ्र संसार वाराशि से तारना।।२।।
ऋद्धियाँ सर्व तेरे पगों के तले।
सर्व ही सिद्धियाँ आप चरणों भले।।नाथ.।।३।।
हालाहल विष कभी पाणि में आवता।
शीघ्र अमृत बने ऋद्धि गुण गावता।।नाथ.।।४।।
दीप्ततप ऋद्धि से नित्य१ उपवास है।
देह की कांति फिर भी द्युतीमन्त है।।नाथ.।।५।।
सर्व चौंसठ ऋद्धी धरें गुण भरें।
भक्तगण की सभी आश पूरी करें।।नाथ.।।६।।
विघ्न बाधा हरो सर्व सम्पत भरो।
स्वात्मपीयूष दे नाथ तृप्ती करो।।नाथ.।।७।।
मोह का नाशकर क्रोध शत्रू हरो।
मृत्यु को मार दूँ ऐसी शक्ती भरो।।नाथ.।।८।।
चार ज्ञानी प्रभो! चार गति भय हरो।
दे चतुष्टय अनंती सदा सुख करो ।।नाथ.।।९।।
इन्द्रभूती महाज्ञान मद से भरे।
पास आते हि सम्यक्त्व निधि को धरें।।नाथ.।।१०।।
शिष्य होके दिगम्बर मुनी बन गये।
चार ज्ञानी हुये गणपती बन गये।।नाथ.।।११।।
वीर की ध्वनि छियासठ दिनों में खिरी।
इंद्र का हर्ष ना मावता उस घरी।।नाथ.।।१२।।
श्रावणी प्रतिपदा दिन प्रथम वर्ष का।
वीर शासन दिवस आज भी शर्मदा।।नाथ.।।१३।।
बारहों अंग पूर्वों कि रचना करी।
आज तक भी वही सार१ में है भरी।।नाथ.।।१४।।
गणधरों के बिना दिव्यध्वनि ना खिरे।
पद उन्हें जो प्रभू पास दीक्षा धरें।।नाथ.।।१५।।
गणधरों का सुमाहात्म्य मुनि गावते।
कीर्ति गाके कोई पार ना पावते।।नाथ.।।१६।।
धन्य मैं धन्य मैं धन्य मैं हो गया।
धन्य जीवन सफल आज मुझ हो गया।।नाथ.।।१७।।
आप गणइंद्र की भक्ति शोकापहा२।
आप की भक्ति ही सर्वसौख्यावहा३।।नाथ.।।१८।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना।
‘ज्ञानमती’ पूर्ण हो सुख असाधारणा।।नाथ.।।१९।।
—दोहा—
कर्मभूमि चौंतीस के, गणधर गुण आधार।
नमूँ नमूँ उनके चरण, मिले स्वात्मनिधिसार।।२०।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपद्वीपसंबंधिचतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थितसर्वतीर्थंकरपरमदेवानां वृषभसेनादिसर्वगणधरदेवेभ्य: जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—शंभु छंद—
तीर्थंकर प्रभु के समवसरण में, प्रभु दिव्यध्वनी को सुनते हैं।
बारह अंगों में ग्रथित करें, श्रुततीर्थ प्रवर्तन करते हैं।।
इन गणधर देवों को यजते, संपूर्ण विघ्न व्याधी टलती।
‘सज्ज्ञानमती’ केवल होती, संपूर्ण ऋद्धि सिद्धी मिलती।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।