-नरेन्द्र छंद-
जय जय श्री अरिहंत देव, तीर्थंकर प्रभु सुखकारी।
जय जय उनके गणधर गुरुवर, भव-भव दु:ख परिहारी।।
जय जिनधर्म जिनेश्वर वाणी, समवसरण सुख आलय।
गणधर गुरु को नित्य नमूँ मैं, ये हैं सर्व सुखालय।।१।।
जंबूद्वीप का भरतक्षेत्र है, पण शत छब्बिस योजन।
छह खण्डों में आर्यखण्ड इक, यहाँ काल परिवर्तन।।
चौथे युग में अर्हंतादिक, तीर्थंकर रहते हैं।
पंचम युग में आचार्यादिक, साधु साध्वि रहते हैं।।२।।
ऐरावत में भरतक्षेत्र सम, सर्व व्यवस्था मानी।
बत्तिस क्षेत्र विदेहोें में नित, वर्ते जिनवर वाणी।।
कच्छा देश विदेह दो सहस, दो सौ बारह योजन।
भरतक्षेत्र में चतुर्गुणाधिक, सब विदेह हैं उत्तम।।३।।
चौंतिस आर्यखण्ड में इक-इक, उपसागर हैं माने।
यहाँ भरत में उपसागर, उपनदियाँ बहुत बखाने।।
कर्मभूमि में मनुष धर्म कर, स्वर्ग-मुक्ति पद पाते।
रत्नत्रय से निज निधि पाकर, शाश्वत सुख पा जाते।।४।।
ऐसे ही धातकी खण्ड में, पुष्करार्ध में जानो।
सब मिल कर्मभूमियाँ इक सौ-सत्तर हैं सरधानो।।
शाश्वत कर्मभूमियाँ इक सौ-साठ विदेहों की हैं।
पाँच भरत पंचैरावत की, दश अशाश्वत की हैं।।५।।
शुभ से पुण्यास्रव पापास्रव, अशुभ भाव से होता।
इससे आठ कर्म बंध जाते, फल पाते दु:ख होता।।
कोई ज्ञान प्रशंसा करते, उसमें ईर्ष्या होती।
जानबूझकर ज्ञान छिपावे, तब निन्हव का दोषी।।६।।
नहीं बताना ज्ञान अन्य को, यह मात्सर्य दुखारी।
ज्ञान-ध्यान में विघ्न डालना, अंतराय है भारी।।
अन्य प्रकाशित ज्ञान रोककर, आसादन कर लेना।
सत्य ज्ञान में दोष लगा, उपघात दोष कर लेना।।७।।
ज्ञान विषय में इन कार्यों से, ज्ञानावरण बंधे है।
दर्शनविषयक इन कार्यों से, दर्शनरज चिपके है।।
हे प्रभु! मुझ घर कर्मशत्रु ये, प्रतिक्षण आते रहते।
रुक जाते फिर समय पायकर, ज्ञान दरस हैं ढकते।।८।।
नाथ! इन्हीं से मैं अज्ञानी, पूर्ण ज्ञान निंह प्रगटे।
गुरो! युक्ति ऐसी दे दीजे, ‘ज्ञानमती’ बन चमके।।
केवलज्ञान स्वभावी आत्मा, केवलदर्श स्वभावी।
नाथ! आपकी कृपा प्राप्तकर, बनूँ निजात्म स्वभावी।।९।।
-दोहा-
त्रैकालिक गणधर गुरू, कहे अनंतानंत।
तिन्हें अनंत नमोऽस्तु कर, पाऊं सौख्य अनंत।।१०।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितआर्यखंडेषु त्रैकालिकसर्वगणधरदेवेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
–शंभु छंद-
तीर्थंकर प्रभु के समवसरण में, प्रभु दिव्यध्वनी को सुनते हैं।
बारह अंगों में ग्रथित करें, श्रुततीर्थ प्रवर्तन करते हैं।।
इन गणधर देवों को यजते, संपूर्ण विघ्न व्याधी टलतीं।
सज्ज्ञानमती केवल होती, संपूर्ण ऋद्धि सिद्धी मिलती।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।