श्री कुंदकुंददेव के समयसार आदि ग्रंथों के द्वितीय टीकाकार श्री जयसेनाचार्य भी एक प्रसिद्ध आचार्य हैं। इन्होंने समयसार की टीका में श्री अमृतचन्द्रसूरि के नाम का भी उल्लेख किया है और उनकी टीका के कई एक कलशकाव्यों को भी यथास्थान उद्धृकृत किया है अत: यह पूर्णतया निश्चित है कि श्री जयसेनाचार्य के सामने श्री अमृतचन्द्रसूरि की आत्मख्याति टीका आदि टीकायें विद्यमान थीं फिर भी शैली और अर्थ की दृष्टि से इनकी तात्पर्यवृत्ति टीकायें श्रीअमृतचन्द्रसूरि की अपेक्षा भिन्न हैं।
श्री जयसेनाचार्य पंचास्तिकाय ग्रंथ की टीका के प्रारंभ में लिखते हैं कि-
अथ श्री कुमारनंदिसिद्धान्तदेवशिष्यै: प्रसिद्धकथान्यायेन पूर्वविदेहं गत्वा वीतरागसर्वज्ञ-सीमंधरस्वामि-तीर्थंकरपरमदेवं दृष्टवा तन्मुखकमलविनिर्गतदिव्य-वाणीश्रवणावधारितपदार्थाच्छुद्धात्मतत्त्वादिसारार्थं गृहीत्वा पुनरप्यागतै: श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवै: पद्मनंद्याद्यपराभिधेयैरन्तस्तत्त्वबहिस्तत्त्वगौण-मुख्यप्रतिपत्त्यर्थं अथवा शिवकुमारमहाराजादिसंक्षेपरुचिशिष्यप्रतिबोधनार्थं विरचिते पंचास्तिकायप्राभृतशास्त्रे यथाक्रमेणाधिकारशुद्धिपूर्वकं तात्पर्यार्थव्याख्यानं कथ्यते।
श्री जयसेनाचार्य के इन शब्दों से यह स्पष्ट है कि श्री कुमारनंदि सिद्धान्तदेव के शिष्य श्रीमत् कुन्दकुन्दाचार्य जिनके पद्मनंदि, एलाचार्य, वक्रग्रीव नाम भी प्रसिद्ध हैं वे विदेहक्षेत्र में गए थे। वहाँ सर्वज्ञ सीमंधरस्वामी के श्रीमुख से शुद्धात्मतत्त्व का सार ग्रहण करके वापस भरतक्षेत्र में आकर शिवकुमार नामक किन्हीं भव्य शिष्य को आदि लेकर अन्य शिष्यों को समझाने के लिए इस पंचास्तिकाय प्राभृत शास्त्र की रचना की है। उस ग्रन्थ की तात्पर्यवृत्ति टीका मैं लिख रहा हूँ।
आचार्य श्री जयसेनस्वामी श्री अमृतचन्द्रसूरि के समान कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के टीकाकार हुए हैं। समयसार की टीका में इन्होंने अमृतचन्द्र के नाम का उल्लेख किया है इससे यह ज्ञात होता है कि जयसेन स्वामी ने अमृतचन्द्रसूरि की टीका का आधार लेकर ही किया है।
प्रवचनसार टीका के अंत में प्रशस्ति में आचार्य श्री जयसेन स्वामी ने गुरुपरम्परा का परिचय निम्न प्रकार से लिखा है-
अर्थात् मूलसंघ के निग्र्रन्थ तपस्वी वीरसेनाचार्य हुए। उनके शिष्य अनेक गुणों के धारी आचार्य सोमसेन हुए और उनके शिष्य आचार्य जयसेन हुए। सदा धर्म में रत प्रसिद्ध मालु नाम के साधु हुए हैं। उनका पुत्र साधु महीपति हुआ है, उनसे यह चारुभट नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ है जो सर्वज्ञ की पूजा तथा गुरुचरणों की सदा सेवा करता है। उस चारुभट अर्थात् जयसेनाचार्य ने अपने पिता की भक्ति के विलोप होने से भयभीत हो इस प्राभृत नामक ग्रन्थ की टीका की है।
इसके आगे भी इन्होंने कहा है-
श्रीमान् त्रिभुवनचन्द्र गुरु को नमस्कार करता हूँ जो आत्मा के भावरूपी जल को बढ़ाने के लिए चन्द्रमा के तुल्य हैं और कामदेव नामक प्रबल महापर्वत के सैकड़ों टुकड़े करने वाले हैं।
इस प्रशस्ति में श्री जयसेनाचार्य ने स्वयं अपने शब्दों में यह स्पष्ट किया है कि उनके गुरु का नाम सोमसेन तथा दादागुरु का नाम वीरसेन था। इन्होंने त्रिभुवनचन्द्र गुरु को भी नमस्कार किया है किन्तु प्रशस्ति से यह ज्ञात नहीं हो पाता है कि ये त्रिभुवनचन्द्र कौन हैं ? इतना स्पष्ट है कि जयसेनाचार्य गण के हैं। अन्य किसी टीका में जयसेनाचार्य ने अपना कोई परिचय नहीं दिया है।
ग्रन्थ रचना
जयसेनाचार्य ने कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय इन तीनों ग्रन्थों पर अपनी टीकाएँ लिखी हैं। इन्होंने आचार्य अमृतचन्द्र सूरि की टीका से भिन्न शैली में अपनी टीकाएं लिखी हैं। इनकी टीकाओं की विशेषता यह है कि प्रत्येक गाथा के पदों का शब्दार्थ पहले स्पष्ट करते हैं, उसके पश्चात् अयमत्राभिप्राय: लिखकर उसका विशेष अर्थ खोलते हैं। सभी ग्रन्थों में इन्होंने अपनी टीका का नाम तात्पर्यवृत्ति रखा है। अमृतचन्द्र जी के क्लिष्ट शब्दों को ही सरल शब्दों में बतलाना इनका प्रमुख लक्ष्य रहा है। कहीं पर भी अमृतचन्द्र जी के विपरीत इनका अर्थ नहीं देखने में आता है। यह आज के मन्दबुद्धि शिष्या के लिए अनुकरणीय आदर्श है कि पूर्वाचार्यों के शब्दों में निजी स्वार्थवश तोड़-मरोड़ करना एक नैतिक अपराध भी है और नरक निगोद का द्वार तो खुल ही जाता है।
भगवान कुन्दकुन्द के भावों को नय शैली में और गुणस्थानों में खोलना जयसेन जी की प्रमुख विशेषता रही है। कोई भी प्राणी समयसार जैसे ग्रन्थों को पढ़कर बहक न जाए इसके लिए जयसेनाचार्य की टीका पढ़ना अति आवश्यक है। इन्होंने अपनी टीका में अनेक ग्रन्थों के उद्धरण भी दिए हैं जो कि पूर्वाचार्यों के प्रति उनकी श्रद्धा, आस्था और अध्ययनशीलता का परिचायक है।
समयसार में श्री अमृतचन्द्रसूरि ने जहाँ ४१५ गाथाओं पर आत्मख्याति टीका लिखी है, वहाँ जयसेनाचार्य ने ४४५ गाथाओं पर तात्पर्यवृत्ति टीका लिखी है। ये टीका करने से पूर्व प्रत्येक अधिकार की भूमिका में गाथाओं की संख्या खोल देते हैं जैसे कि प्रवचनसार के प्रारम्भ में ही इन्होंने बताया है कि मध्यम रुचि वाले शिष्यों को समझाने के लिए मुख्य तथा गौणरूप से अन्तरंग तत्त्व और बाह्य तत्त्व के वर्णन करने के लिए १०१ गाथाओं में ज्ञानाधिकार कहेंगे….. इत्यादि।
प्रवचनसार की भूमिका में श्रीजयसेनाचार्य ने यह भी बताया है कि किसी निकट भव्य शिवकुमार को सम्बोधित करने के लिए श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने यह ग्रन्थ लिखा है। इससे ज्ञात होता है कि महामुनिराज कुन्दकुन्द भी शिष्य परिकर रखते थे और शिष्यों का हित चिन्तन भी करते थे।
प्रवचनसार में नौवीं गाथा की टीका में श्री जयसेन स्वामी लिखते हैं-यथा
अर्थात् जिस प्रकार स्फटिक मणि का पत्थर निर्मल होने पर भी जपाकुसुम आदि रक्त, कृष्ण, श्वेत उपाधि के वश से लाल, काला, श्वेत रंगरूप परिणमन करता है उसी तरह यह जीव स्वभाव से शुद्ध, बुद्ध एक स्वभाव होने पर भी व्यवहारनय की अपेक्षा गृहस्थ के रागसहित सम्यक्त्वपूर्वक दान-पूजा आदि शुभ कार्यों को करता है तथा मुनिधर्म के मूलगुण और उत्तर गुणों का अच्छी तरह से पालन करता हुआ परिणामों को शुभ करता है।
इस प्रकार जयसेनाचार्य ने व्यवहार और निश्चय दोनों ही नयों का आलम्बन लेकर कुन्दकुन्द के तीनों प्राभृत ग्रन्थों की व्याख्या की है।
समयसार ग्रन्थ के निर्जरा अधिकार में सबसे प्रथम गाथा में कहा है कि सम्यग्दृष्टी के भोग निर्जरा के निमित्त हैं। उसकी टीका में श्री जयेसनाचार्य कहते हैं कि-
शिष्य ने प्रश्न किया कि-
‘‘राग, द्वेष और मोह का अभाव हो जाने पर निर्जरा के निमित्त हैं, ऐसा आपने कहा किन्तु सम्यग्दृष्टि के तो रागादि हैं पुन: किसी वस्तु का उपभोग करके निर्जरा का कारण वैसे होगा ?’’
इस ग्रन्थ में वास्तव में वीतराग सम्यग्दृष्टि का ग्रहण है चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सराग सम्यग्दृष्टि का ग्रहण तो गौणरूप से है तथा मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा अविरतसम्यग्दृष्टि के भी अनंतानुबंधी कषायचतुष्क और मिथ्यात्वजनित रागादि नहीं है अत: उतने अंश में उसके भी निर्जरा है।
इस ग्रन्थ में पंचम गुणस्थान से ऊपर के गुणस्थान वाले वीतराग सम्यग्दृष्टियों का ही मुख्यरूप से ग्रहण है, सराग सम्यग्दृष्टियों का तो गौणरूप से ग्रहण है। सम्यग्दृष्टि के व्याख्यान के समय सर्वत्र ऐसा ही तात्पर्य समझना चाहिए।
श्री अमृतचन्द्रसूरि द्वारा भी इसी अर्थ की पुष्टि हो रही है। देखिए-
श्री कुन्दकुन्ददेव ने गाथा १७० में कहा है कि अबन्धोत्ति णाणी दु ज्ञानी तो अबंधक ही है। पुन: आगे १७१ वीं गाथा में कहते हैं कि-
‘‘जिस कारण ज्ञानगुण पुनरपि जघन्य ज्ञानगुण से अन्यरूप परिणमन करता है इसी कारण वह ज्ञानगुण बन्ध करने वाला कहा गया है।’’ इसकी टीका करते हुए श्री अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं-
स तु यथाख्यातचारित्रावस्थायां अधस्तादवश्यंभाविरागसद्भावात् बंधहेतुरेव स्यात्।
वह (ज्ञानगुण) यथाख्यातचारित्र के नीचे अवश्यंभावी राग परिणाम का सद्भाव होने से बंध का कारण ही है।
श्री अमृतचन्द्रसूरि की इस एक पंक्ति से ही सारे समयसार का अभिप्राय समझा जा सकता है कि ग्यारहवें गुणस्थान के पहले-पहले राग का सद्भाव रहने से अवश्यमेव बन्ध होता ही होता है अत: चतुर्थ, पंचम गुणस्थानवर्ती गृहस्थ यदि अपने को वीतरागी और अबन्धक मान रहे हैं सो कोरी असत् कल्पना ही है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि समयसार में वीतराग सम्यग्दृष्टि को लक्ष्य करके ही सब कथन है अत: इस ग्रन्थ का विषय भी साधुवर्गों के लिए ही है न कि श्रावकों के लिए। यही समयसार ग्रन्थ का रहस्य है।
श्री जयसेनाचार्य का काल
इनकी टीकाओं में उद्धृत श्लोकों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि इन्होंने द्रव्यसंग्रह, तत्त्वानुशासन, चारित्रसार, त्रिलोकसार और लोकविभाग आदि ग्रन्थों का उद्धरण देकर अपनी टीकाओं में प्रयुक्त किया है। चारित्रसार के रचयिता चामुण्डराय हैं और इन्हीं के समकालीन आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने त्रिलोकसार की रचना की है। चामुण्डराय ने अपना चामुण्डपुराण शक संवत् ९०० (ईसवी सन् ९७८) में समाप्त किया है अत: निश्चित है कि जयसेन ईसवी सन् ९७८ के पश्चात् ही हुए हैं। उनके समय की यह सीमा पूर्वार्ध सीमा के रूप में मानी जा सकती है।
जयसेन ने पंचास्तिकाय की टीका (पृष्ठ ८) में वीरनन्दि के आचारसार ग्रन्थ के दो पद्य उद्धृत किए हैं। कर्नाटक कवि चारिते के अनुसार इन वीरनन्दि ने अपने आचारसार पर एक कन्नड़ टीका शक संवत् १०७६ (ईसवी सन् ११५४) में लिखी है अत: जयसेन ईस्वी सन् ११५४ के पश्चात् ही हुए होंगे।
डॉ. ए. एन उपाध्ये ने लिखा है कि नयकीर्ति के शिष्य बालचन्द्र ने कुन्दकुन्द के तीनों प्राभृतों पर कन्नड़ में टीका लिखी है और उनकी टीका का मूल आधार जयसेन की टीकाएँ हैं। इनकी टीका का रचनाकाल ईस्वी सन् की ११वीं शताब्दी का उत्तरार्ध या १२वीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जा सकता है। कुल मिलाकर श्री जयसेन स्वामी ने साहित्य जगत में अपना अपूर्व योगदान दिया है और आज की दिग्भ्रमित जनता का सन्मार्ग निर्देशन किया है।
”ऐसे श्रीगुरु के चरणों में सिद्ध, श्रुत, आचार्यभक्ति पूर्वक शत-शत नमोस्तु।”