प्रणाली के वृषभाकारत्व को सार्थक करते हैं :—
गाथार्थ :— उस प्रणालिका अर्थात् कूट का मुख, कान, जिह्वा और नेत्रों का आकार तो सिंह के सदृश है किन्तु भौंह और मस्तक का आकार गौ के सदृश है; इसी कारण उस नाली को (मुख्य रूप से) वृषभाकार कहा गया है।।५८५।। अब गिरी हुई नदी और उसके गिरने का स्वरूप पाँच गाथाओं द्वारा कहते हैं—
गाथार्थ—भरत क्षेत्र में पञ्चकृति—(पच्चीस योजन) हिमवान् पर्वत को छोड़कर काहला (एक प्रकार का बाजा) के आकार को धारण करने वाली तथा दश योजन है विस्तार जिसका, ऐसी गंगा हिमवान् पर्वत के मूल में दश योजन गहरे और साठ योजन चौड़े गोल कुण्ड में गिरती है। उस कुण्ड के मध्य में जल से ऊपर अर्ध योजन ऊँचा द्विघन—आठ योजन चौड़ा गोल द्वीप (टापू) है। उस द्वीप के मध्य में वङ्कामयी—दश योजन ऊँचा पर्वत है। उस पर्वत का व्यास अर्थात् नीचे, मध्य में एवं ऊपर क्रमशः चार, दो और एक योजन है। उस पर्वत के ऊपर श्रीदेवी का गृह है। वह गृह (भू. मध्य और अग्र में क्रमशः) तीन हजार, दो हजार और एक हजार धनुष व्यास वाला है तथा उसकी ऊँचाई दो हजार धनुष है। उस श्रीदेवी के गृह का अभ्यन्तर व्यास पाँच सौ और उसके आधे भाग को मिलाकर अर्थात् (५०० ± २५०) ·साढ़े सात सौ धनुष प्रमाण है तथा उस गृह के द्वार का व्यास चालीस धनुष और ऊँचाई अस्सी धनुष है जिसके दोनों किवाड़ वङ्कामयी हैं। इस प्रकार श्रीगृह का प्रमाण सर्वत्र धनुष प्रमित है। श्रीगृह के अग्र भाग पर कमलर्किणका में सिंहासन पर स्थित जटा ही है मुकुट जिनका, ऐसे जिनबिम्ब पर मानों अभिषेक करने का ही है मन जिसका ऐसी गंगा मस्तक पर गिरती है।।५८६-५९०।।
विशेषार्थ—भरतक्षेत्र में हिमवान् पर्वत को २५ योजन छोड़कर काहला की उपमा को धारण करती हुई दश योजन व्यास वाली गंगा नदी, गोल कुण्ड में स्थित जिनमस्तक पर गिरती है। हिमवान् पर्वत के मूल में जो १० योजन गहरा, ६० योजन चौड़ा गोल कुण्ड है, उसके मध्य में जल से ऊपर अर्ध योजन ऊँचा और ८ योजन चौड़ा गोल टापू (द्वीप) है। उस द्वीप के मध्य में वङ्कामयी १० योजन ऊँचा पर्वत है। उस पर्वत का व्यास नीचे चार योजन, मध्य में दो योजन और ऊपर एक योजन प्रमाण है, उस पर्वत के ऊपर श्रीदेवी का गृह अर्थात् गंगा कूट है, जिसका व्यास नीचे ३००० धनुष, मध्य में २००० धनुष और ऊपर १००० धनुष है। इसकी ऊँचाई का प्रमाण २००० धनुष है तथा इस गृह (गंगावूâट) का अभ्यन्तर व्यास पाँच सौ और उसके अर्ध भाग को मिलाकर अर्थात् (५०० ± २५०) · ७५० धनुष है। इस श्रीगृह के द्वार का व्यास ४० धनुष और उदय ८० धनुष है जिसके दोनों किवाड़ वङ्कामयी हैं। श्रीगृह का प्रमाण सर्वत्र धनुष प्रमित जानना चाहिए। इस श्रीगृह अर्थात् गंगाकूट के अग्रभाग पर स्थित कमलर्किणका में जो सिंहासन है उस पर है अवस्थिति जिनकी तथा जटा ही है मुकुट जिनका ऐसे जिनेन्द्र प्रभु के अभिषेक करने की इच्छा रखने वाली गंगा नदी उनके मस्तक पर गिरती है।