-आर्यिका श्री सुपार्श्वमती माताजी
शास्त्रकारों ने ‘जाति’ शब्द का प्रयोग तीन अर्थों में किया है। एक अर्थ है-नाम कर्म के उदय से होने वाली जाति, जैसे-गतिजातिशरीरांगोपांग…….इत्यादि। इसके पाँच भेद हैं-१. एकेन्द्रिय जाति, २. द्वीन्द्रिय जाति, ३. त्रीन्द्रिय जाति, ४. चतुरिन्द्रिय जाति, ५. पंचेन्द्रिय जाति। इसमें पंचेन्द्रिय जाति की अपेक्षा मानव, देव, नारकों और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की जाति एक ही है। जाति का दूसरा अर्थ योनि है जिसके कुल चौरासी लाख भेद हैं। सात लाख पृथ्वीकाय, सात लाख जलकाय, सात लाख नित्य-निगोद, दस लाख वनस्पतिकाय, दो लाख दो इन्द्रिय, दो लाख तीन इन्द्रिय, दो लाख चतुरिन्द्रिय, चार लाख पंचेन्द्रिय पशु, चार लाख देव, चार लाख नारकी, चौदह लाख मनुष्य आदि। आठ मदों में एक जातिमद भी है, इसमें पिता की वंश-शुद्धि को कुल और माता की अन्वयशुद्धि को जाति कहा है। यह जाति का तीसरा अर्थ है।
जैन शास्त्रों में जाति और वर्ण का पृथक्-पृथक् उल्लेख मिलता है। यद्यपि कोई-कोई विचारक दोनों को एक मानते हैं परन्तु आदिपुराण के अनुसार जाति और वर्ण में अन्तर है। एक ही वर्ण के अन्तर्गत कई जातियाँ-उपजातियाँ होती हैं। अत: वर्ण व्यापक और जाति व्याप्य है१। वर्ण का आधार आजीविका है और जाति का आधार विवाह संंबंध। इसलिए जिनसेनाचार्य ने जाति व्यवस्था के लिए विवाह संबंधी नियमों का पालन आवश्यक माना है।२ त्रिलोकसार में लिखा है-
दुब्भाव-असुचि-सूदग-फुप्फवई-जाइसंकरादीहिं।
कयदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेसु जायंते।।९२४।।
(जो दुर्भावना, अपवित्रता, सूतक आदि से युक्त है, पुष्पवती हैं, जातिसंकर हैं ऐसे जो कोई स्त्री-पुरुष-आहारदान करते हैं तो वे मरकर कुभोगभूमि में जन्म लेते हैं) इसमें जातिसंकर शब्द आया है।३ इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि जाति अनादिकालीन है। वर्ण और जाति का विशेष वर्णन आदिपुराण में है। इस पुराण में वर्ण व्यवस्था जन्म से मानी है तथापि व्रताचरण की अपेक्षा उसकी दृढ़ता पर प्रकाश डाला है।आदिपुराण में वर्ण व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए वर्णानुसार आजीविका का कथन किया गया है।१ जो व्यक्ति अपने वर्ण की आजीविका छोड़कर अन्य वर्ण की आजीविका करने लगता था, उसे दण्ड देने के विधान का भी उल्लेख है। इसलिए जातियों की रचना न तो निष्कारण हे, न नवीन है और न इनकी कल्पना आजीविका पर ही की गई है। इसलिए जाति व गोत्र अनादिकालीन हैं।
शंका-जाति को अनादिकालीन वैâसे माना जा सकता है जबकि भोगभूमियों में जाति रहती ही नहीं है और कर्मभूमि के प्रारंभ में भगवान वर्ण और जाति की स्थापना करते हैं-ऐसा शास्त्रों में आता है।
समाधान-काल-परिवर्तन के कारण भरतक्षेत्र में तो भगवान के द्वारा जातियों की स्थापना होती है, आप ऐसा कह सकते हैं परन्तु विदेहक्षेत्र में भी क्या कोई तीर्थंकर जाति की स्थापना करते हैं ? वहाँ भी तो जातियाँ हैं तथा तत्रस्थ तीर्थंकर क्षत्रिय वर्ण के हैं। अनादिकाल से तीर्थंकर होते आए हैं और अनन्तकाल तक होते रहेंगे इसलिए भी जाति वर्ण अनादिनिधन हैं। शास्त्रीय दृष्टि से तीन वर्ण अनादि हैं। इस भरत क्षेत्र में भी तीर्थंकर आदिप्रभु के उत्पन्न होने के पूर्व भी इन्द्र ने नाभिराजा का विवाह क्षत्रियवंशज, काश्यप गोत्रोत्पन्न मरुदेवी के साथ किया था। इसलिए भगवान आदिनाथ ने वर्ण स्थापित किए हैं, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, कार्य के कारण जातियाँ हैं, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि देवों में भी जातियाँ हैं, उनकी व्यवस्था भी है। यद्यपि सर्व देव उच्चगोत्री ही हैं तथापि उनमें भेद है। किल्विष जाति के देव इन्द्र की सभा में प्रवेश नहीं कर सकते। सिद्धान्तग्रंथों में भी जाति और वर्ण का वर्णन है-
उच्चैर्गोत्रनीचैर्गोत्रयोरुत्तरोत्तरप्रकृतिविशेषोदयै: संजाता: वंशकुलानि।
(गोम्मटसार टीका)
शास्त्रों में जितने कुल बताए गये हैं वे ही वंश व कुल गोत्र हैं। गोत्र कर्म की उत्तरोत्तर अनेक प्रकृतियाँ होकर अनेक नाम हो जाते हैं किन्तु वे सब संग्रह नय से उच्च और नीच इन दो प्रकृतियों में गर्भित हो जाते हैं।
बहुविहवियप्पजुत्ता खत्तिय बइसाण तह य सुद्दाणं।
वंसा हवंति कच्छे तिण्णिच्चिय तत्थ ण हु अण्णे।।
ति.प. ४/२२५०
विदेहक्षेत्र के कच्छा देश में बहुत प्रकार के भेदों से युक्त क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र ये तीन वंश हैं-अन्य (ब्राह्मण) वंश नहीं है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि वर्ण अनादि है क्योंकि विदेहक्षेत्र में भरतक्षेत्र के समान षट्कालों का परिवर्तन नहीं है।
महापुराण में लिखा है-‘सामान्य मानव जाति की अपेक्षा सब मानव एक होते हुए भी वृत्ति की अपेक्षा उनमें भेद होता है।’
जस्स कम्मस्स उदयेण उच्चागोदं होदि तमुच्चा गोदं। गोत्रं कुलं वंशं संतानमित्येकोर्थ:।-वला ३/ सूत्र ४५
जिस कर्म के उदय से उच्च गोत्र में जन्म होता है वह उच्च गोत्र है। गोत्र वंश, कुल, सन्तान एकार्थवाची है। ये उच्च-नीच अनादिकालीन हैं। इनका संबंध जन्म से है कर्म से नहीं। यदि क्रिया से उच्च गोत्र या नीच गोत्र मानें तो जिस समय जन्म लिया है उस समय वह निर्गोत्र रहेगा अथवा उसके सात कर्मों का ही उदय होगा और जब वह कार्य करेगा, तब उच्च-नीच गोत्री बनेगा। इस प्रकार मानने से तो बहुत अव्यवस्था हो जाएगी।
गोत्र कर्म के अवान्तर भेद बहुत हैं, विस्तार-भय से उनका कथन नहीं किया गया है।
–ध. १२/४, २, १४, १९, ४८४ पृष्ठ
तीर्थंकर आदि उच्च गोत्र में ही जन्म लेते हैं-ऐसा कथन शास्त्रों में आता है। जितनी भी उपजातियाँ प्रचलित हैं उनका कथन भी शास्त्रों में आया है-
खण्डेलवाल, अग्रवाल, पोरवाल, बघेरवाल आदि जो नाम आज प्रचलित हैं वे हजार वर्ष पूर्व भी थे।
सागारधर्मामृत में उल्लेख है-
श्री रत्नीमुपपादि तत्र विमल व्याघ्रेरवालान्वयात्।
श्रीसल्लक्ष्यतो जिनेन्द्र समये श्रद्धालुराशाधर:।।
इसी प्रकार अनगारधर्मामृत की प्रशस्ति में लिखा है कि पण्डित आशाधर व्याघ्रेरवाल वंश में श्री रत्नी माता के उदर से उत्पन्न हुए।
खंंडिल्यान्वयकल्याणमाणिक्यं विनयादिमान।
साधु: पापाभिध: श्रीमानासीत् पापपराङ्मुख:।।
खण्डेलवाल वंश में पापा नाम का भव्य पापों से पराङ्मुख हुआ।
श्रीमान् श्रेष्ठिसमुद्धरस्य तनय: श्रीपोरवालान्वय:।
व्योमेन्दुसुकृतेन नन्दतु महीचन्द्रो यदभ्यर्थनात्।।
पोरवाल वंश की वृद्धि करने वाला महीचन्द्र जयवन्त हो।
आशाधर जी ने परमार जाति का भी उल्लेख किया है-
प्रमारवंशवार्धीन्दु देव पाटनयात्मजे।
इस प्रकार आजकल की प्रचलित जातियों के भी अनेक प्रमाण मिले हैं।
धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य के कर्ता आचार्य हरिचन्द्र ने अपने को कायस्थ वंशका बताया है। आज यह कायस्थ जाति के नाम से प्रसिद्ध है। कायस्थों में निगम गोत्र होता है। ‘त्रैलोक्यदीपक’ में एक कायस्थ के नैगम गोत्र का वर्णन है।
इस प्रकार जैन ग्रंथों में जाति की अनादिकालीनता को सिद्ध करने वाले अनेक प्रमाण मिलते हैं। किन्हीं विद्वानों का कथन है कि जाति और वर्ण कल्पित हैं परन्तु कल्पना भी मूलभूत वस्तु के बिना नहीं हो सकती।
तन्निर्बीजाया: कल्पनाया एवासम्भवात् क्वचित् कस्यचित् तत्त्वत: प्रसिद्धस्यान्यत्रारोप्यो हि कल्पना दृष्टा।
-श्लोकवार्तिक तृतीयोऽध्याय:
‘निर्बीज कल्पना की असंभवता है। क्वचित् कस्यचित् वास्तविक प्रसद्धि वस्तु का अन्य पदार्थ में आरोपण करना ही कल्पना है।’ अत: कल्पना भी सर्वथा असत्य नहीं हो सकती। कहीं-कहीं ग्रंथों में जो ब्राह्मणत्व आदि जाति का निराकरण किया है वे सर्वगत जाति को मानते हैं अथवा जो ब्राह्मणत्व का अभिमान करते हैं उसका खण्डन किया है, जाति व्यवस्था का निषेध नहीं किया है। इस प्रकार शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर जाति-वर्ण की व्यवस्था जाननी चाहिए।
आचार्य गुणभद्र स्वामी ने वर्ण की व्याख्या करते हुए लिखा है-
जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतव:।
येषु ते स्युस्त्रयो वर्णा: शेषा: शूद्रा: प्रकीर्तिता:।।
-उत्तरपुराण पर्व ७४
जो जाति, गोत्र आदि कर्म शुक्लध्यान के कारण हैं, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण वाले कहलाते हैं और जो जातिगोत्रादि कर्म शुक्ल ध्यान के कारण नहीं है वे शूद्र कहलाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि शुक्लध्यान में भी जाति आदि कारण हैं और शुक्लध्यान अनादिकालीन होने से जाति आदि भी अनादिकालीन हैं।
हमारे शास्त्रों में उल्लेख है कि एक वर्ण के साथ विवाह संबंध तो हो सकता है यदि जाति एक हो तो, जैसे-वैश्य वर्ण में ओसवाल ओसवाल के साथ, पोरवाल पोरवाल के साथ, खण्डेलवाल खण्डेलवाल के साथ, माहेश्वरी माहेश्वरी के साथ परन्तु एक जाति का मनुष्य दूसरी जाति (ओसवाल, माहेश्वरी) के साथ संबंध करता है तो उसकी सन्तान संकरता के कारण नीच गोत्री ही होगी। भिन्न जाति होने पर विवाह संबंध का निषेध है।
महापुराण के ३९वें अध्याय में अजैनों को जैनधर्म की दीक्षा देने का विधान कहा है। जब वह जैन हो जाता है तब उसकी अपनी जाति के लोग जैन नहीं होते हैं तब वह मिथ्यादृष्टियों के साथ (अन्य धर्मावलम्बियों के साथ) विवाह संबंध करता है।
युष्मादृशामलाभे तु मिथ्यादृष्टिभिरित्यमा।
समानाजीविभि: कर्तुं सम्बन्धोऽभिमतो हि नं:।।७०।।
इसलिए समान जाति वाले के साथ ही विवाह संबंध करना चाहिए।
वर्ण क्रियागुणनिबन्धन है और जाति क्रिया गुण निबन्धना न होकर शरीर-जन्म निबन्धना है। विवाह संबंध स्वजाति में ही करना चाहिए। धर्म विरुद्ध के साथ तो संबंध कर सकते हैं परन्तु जाति विरुद्ध करना योग्य नहीं है।
तप: श्रुतं च जातिश्च, त्रयं ब्राह्मणकारणम्।
तप: श्रुताभ्यां यो हीनो, जातिब्राह्मण एव स:।।
ब्राह्मणत्व का कारण तप, श्रुत और जाति है। जो श्रुत और तप से रहित है वह केवल जाति से ब्राह्मण है, क्रिया से नहीं। इससे भी जाना जा सकता है कि जातियाँ भी अनादि हैं।
जैन शास्त्रों में सप्त परम स्थान बताये गये हैं, उनमें भी सर्वप्रथम सज्जातित्व ही है-
सज्जाति: सद्गृहित्वं च, पारिव्राज्यं सुरेन्द्रता।
साम्राज्यं परमार्हन्त्यं, परिनिर्वाणमित्यपि।।
-आदिपुराण, पर्व ३८, श्लोक ६७
१. सज्जाति, २. सद्गृहित्व, ३. दीक्षा, ४. सुरेन्द्रता, ५. साम्राज्य,
६. अर्हन्तपद और ७. निर्वाणपद, ये सात परम स्थान हैं। इन सातों में भी ‘सज्जाति’ का स्थान प्रथम है उसका अर्थ है-
पितुरन्वयशुद्धिर्या, तत्कुलं परिभाष्यते।
मातुरन्वयशुद्धिस्तु जातिरित्यभिलप्यते।।८५।।
विशुद्धिरुभयस्यास्य, सज्जातिरनुवर्णिता।
यत्प्राप्तौ सुलभा बोधिरयत्नोपनंतैर्गुणै:।।८६।।
-आदिपुराण, पर्व ३९
पिता के वंश की जो शुद्धि है वह कुल है। माता के वंश की जो शुद्धि है वह जाति है। माता और पिता के कुल की शुद्धि वह सज्जाति है। सज्जाति के प्राप्त होने पर यह प्राणी संसार समुद्र से पार हो जाता है। इसलिए सर्वप्रथम सज्जाति की रक्षा करने का प्रयत्न करना चाहिए।
द्वौ हि धर्मौ गृहस्थानां लौकिक: पारलौकिक:।
लोकाश्रयो भवेदाद्य: पर: स्यादागम्ााश्रय:।।
जातयोऽनादय: सर्वास्तत्क्रियापि तथाविधा।
श्रुति शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र न क्षति:।।
स्वजात्यैव विशुद्धानां वर्णानामिह रत्नवत्।
तत्क्रियाविनियोगाय जैनागमविधि: परं।।
-यशस्तिलकचम्पू, उच्छ्वास ८, श्लोक १६-१८।
गृहस्थों के दो धर्म हैं-एक लौकिक और दूसरा पारलौकिक। लौकिक धर्मलोक के अधीन है, पारलौकिक शास्त्र के अधीन है। जातियाँ अनादि हैं और उनकी क्रिया भी अनादि हैं। अंगशास्त्र या अंगबाह्यशास्त्र में यदि जातियों का प्रमाण मिले तो हमारी क्या हानि है ? इसलिए अपनी जाति के अनुसार ही विवाह संबंध करना चाहिए।
इस प्रकार जाति की अनादिनिधनता प्ररूपक अनेक ग्रंथ हैं। उसका अवलोकन करके जाति-वर्ण का लोप करने वालों को रोकने चाहिए।
हमारी बुद्धि शास्त्र के अनुसार होनी चाहिए, बुद्धि के अनुसार शास्त्र का अर्थ नहीं करना चाहिए।
भौतिक सभ्यता में आकण्ठ निमग्न विषय लोलुप मनुष्य येन-केन प्रकारेण विषयाभिलाषाओं की पूर्ति करने में तत्पर रहते हैं, जिनेश्वरी आज्ञा का लोप करके यद्वा-तद्वा प्रवृत्ति करते हैं, उन्हें शास्त्रों का अवलोकन करना चाहिए।