शास्त्रकारों ने ‘जाति’ शब्द का प्रयोग तीन अर्थों में किया है। एक अर्थ है-नाम कर्म के उदय से होने वाली जाति, जैसे-गतिजातिशरीरांगोपांग…….इत्यादि। इसके पाँच भेद हैं-१. एकेन्द्रिय जाति, २. द्वीन्द्रिय जाति, ३. त्रीन्द्रिय जाति, ४. चतुरिन्द्रिय जाति, ५. पंचेन्द्रिय जाति। इसमें पंचेन्द्रिय जाति की अपेक्षा मानव, देव, नारकों और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की जाति एक ही है। जाति का दूसरा अर्थ योनि है जिसके कुल चौरासी लाख भेद हैं। सात लाख प्रथ्वीकाय, सात लाख जलकाय, सात लाख नित्य-निगोद, दस लाख वनस्पतिकाय, दो लाख दो इन्द्रिय, लाख तीन इन्द्रिय, दो लाख चतुरिन्द्रिय, चार लाख पंचेन्द्रिय पशु, चार लाख देव, चार लाख नारकी, चौदह लाख मनुष्य आदि। आठ मदों में एक जातिमद भी है, इसमें पिता की वंश-शुद्धि को कुल और माता की अन्वयशुद्धि को जाति कहा है। यह जाति का तीसरा अर्थ है। जैन शास्त्रों में जाति और वर्ण का पृथक्-पृथक् उल्लेख मिलता है। यद्यपि कोई-कोई विचारक दोनों को एक मानते हैं परन्तु आदिपुराण के अनुसार जाति और वर्ण में अन्तर है। एक ही वर्ण के अन्तर्गत कई जातियाँ-उपजातियाँ होती हैं। अत: वर्ण व्यापक और जाति व्याप्य है । वर्ण का आधार आजीविका है और जाति का आधार विवाह संंबंध। इसलिए जिनसेनाचार्य ने जाति व्यवस्था के लिए विवाह संबंधी नियमों का पालन आवश्यक माना है।