आज हम अपने नये विषय—‘सर्वोदयी जैनधर्म’ पर चलेंगे। तो सबसे पहली बात है कि जैन किसे कहते हैं ? क्योंकि कितने व्यक्ति ऐसे हैं जो इस उत्तर दे ही नहीं सकते। वैसे तो हर सम्प्रदाय की परिभाषा है कि जोे उसके अनुसार चलता है वह उसका अनुयायी माना जाता है। जैन की अन्वयार्थक परिभाषा है कि ‘जो जिन को माने या उनकी आज्ञा, उनके आदर्श, उनके दिखाए हुए पथ पर विश्वास करे और तदनुसार चलने का प्रयास करे, वह जैन है।’ अब दूसरा प्रश्न सामने आ गया कि जिन किसे कहते हैं ? आप ‘मेरी भावना’ में पढ़ते हैं— जसने राग—द्बेष कामादिक जीते सब जग जान लिया। सब जीवों को मोक्षमार्ग का नि:स्पृह हो उपदेश दिया।। इन पंक्तियों के पीछे ३ सिद्धान्त छिपे हुए हैं— (१) वीतरागी (२) सर्वज्ञ (३) हितोपदेशी। अर्थात् जो वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हैं वे जिन कहलाते हैं। वीतराग—‘जिसने राग—द्बेष कामादिक जीते’ तात्पर्य यह है कि जिसने राग—द्वेष, काम इत्यादि पर विजय पाई है। ‘इत्यादि’ से संसार में जितने भी छोटे या बड़े दोष होते हैं, उन्हें ग्रहण कर लेना चाहिए।
सर्वज्ञ — ‘सब जग जान लिया’ जो केवलज्ञानी है।, जिनके केवल ज्ञान में विश्व के त्रैकालिक चराचर पदार्थ युगपत् झलकते हैं, वे सर्वज्ञ कहे जाते हैं। हितोपदेशी — ‘सब जीवों को मोक्ष मार्ग का, नि:स्पृह हो उपदेश दिया’ जिन्होंने संसार के प्रत्येक प्राणी को नि:स्पृह भाव से मोक्षमार्ग का उपदेश दिया है, वे हितोपदेशी हैं। तो सीधा अर्थ हुआ कि ये तीन गुण जिनमें पाए जाते हैं, वे जिन या जिनेन्द्र हैं तथा जिनके नाम कुछ भी हो सकते हैं—
‘‘बुद्ध वीर जिन हरि हर ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो’’
भगवान महावीर, भगवान पार्श्वनाथ, बुद्ध आदि भी कह सकते हैं अर्थात् जितने अर्हंत परमेष्ठी हैं, वे जिन कहलाते हैं।
प्रत्येक धर्म के अपने—अपने अलग सिद्धान्त या आचरण पद्धतियाँ होती हैं। जिनसे उस धर्म या सम्प्रदाय का अनुयायी पहचाना जाता है। जैन की पहिचान निम्नलिखित तीन बाह्य लक्षणों से होती है—(१) नित्य देवदर्शन, (२) रात्रि भोजन त्याग, (३) पानी छानकर पीना।
देव बहुत हैं पर अपने इष्टदेव जिनेन्द्र, जिन या जिनदेव हैं। देवदर्शन प्रचलित रूढ़ि से चला आ रहा संक्षिप्त शब्द है जिसका पूरा नाम है जिनदेव दर्शन। यद्यपि जब देवदर्शन की बात आती है तो पुराने लोग इसे जिनदेव दर्शन के अर्थ में ही लेते हैं लेकिन नये व्यक्ति तर्व—कुतर्व या ऊहा—पोह खड़ी कर सकते हैं कि रास्ते में चाहे किसी देव का मंदिर मिले, हम दर्शन करके अपना देवदर्शन का नियम पूरा कर लेंगे। लेकिन वो जिनदेव दर्शन के अन्तर्गत नहीं आएगा, अत: जिनमन्दिर या जिनदेव के दर्शन करना ही देवदर्शन है। अब प्रश्न उठता है कि ‘जिनदर्शन के लिये कैसे जाएँ’ ? तो उत्तर यह है कि (१) स्नान करके (२) बिना कुछ खाये—पिये जाएँ। (३) खाली हाथ न जाएँ।
पवित्र होकर दर्शनार्थ जाना चाहिए। अपनी शक्ति सामथ्र्य के अनुसार उत्तम, मध्यम व (जघन्य) तरीके हो सकते हैं। उत्तम तरीका है स्नान करके शुद्ध धोती—दुपट्टा धारण करें, मध्यम तरीका है शुद्ध वस्त्र नहीं पहन सकते तो कम से कम अशुद्ध तो न पहनें अर्थात् भले सोले के न हो पर दीर्घशंका आदि के वस्त्र नहीं होना चाहिए। अधम (जघन्य) तरीका यह है कि कोई इतना अस्वस्थ है कि डॉक्टर ने स्नान र्विजत कर दिया है तो वह पानी के छीटें लगा ले या हाथ पैर मुँह तो अवश्य धोकर जाए। बाह्य (तन की) शुद्धि के साथ—साथ मन शुद्धि के साथ—साथ मन शुद्धि का भी ध्यान रखें अर्थात् मन निराकुलित, प्रसन्न, संक्लेशता रहित हो। यह अंतरंग प्रक्रिया है।
इसके पीछे यह सिद्धान्त छिपा है कि संसार में आम व्यक्ति को भोजन सबसे प्रिय होता है। व्यक्ति एक बार कपड़े, मकान, धन, कुटुम्ब आदि के बिना रह जाता है लेकिन भोजन के बिना नहीं रह सकता। फिर भी धार्मिक, धर्म श्रद्धालु को भोजन क्या, जीवन से भी प्रिय अपने आराध्य देव होते हैं। इसलिए वह श्रद्धा रखे हुए है कि हे भगवान ! आपके सम्मुख भोजन इतना प्रिय नहीं, भोजन के बिना रह सकते हैं लेकिन भगवान की भक्ति दर्शन के बिना नहीं, रह सकते।) जिनकी आत्मा में श्रद्धा होती है, घनिष्ठ समर्पण होता है तो (प्राण जाए पर वचन न जाए), उनके लिए भोजन भगवान के सामने कुछ नहीं है। एक व्यक्ति भोजन करके दर्शनार्थ जा रहा है, मतलब उसे भोजन प्रिय है भगवान नहीं। तो इसका र्धािमक पहलू है भोजन से प्रिय भगवान है, इसलिए बिना खाये—पिये जाना चाहिए। दूसरा है—स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भोजन के बाद आलस्य, तंद्रा आती है। अकसर देखा जाता है कि व्यक्ति भोजन के बाद थोड़ा विश्राम चाहता है। कदाचित् विश्राम न मिले तो झपकी आने लगती है। इसे ही तंद्रा कहते हैं। कारण क्या है ? भोजन का रस भाग बनता है जो यथास्थान पहुँचता है, जिसे मस्तिष्क भी ग्रहण करता है, इसलिए तंद्रा आना सहज है। उपवास की पारणा के बाद इतनी गहरी नींद आती है कि आँख नहीं खुलती। लम्ब उपवासों की पारण होती है तो देरी से रस भाग पहुँचता है। जैसे हरे—भरे वृक्ष में जल्दी पानी पहुँचता है, सूखे में देरी से। अत: भोजन के बाद आलस्य आता है, इसलिए भी बिना खाये पिये दर्शन की पद्धति रखी गई है। साथ ही व्यक्ति खाली पेट होता है तो सावधान (व्यवस्थित) रहता है। लेकिन इसमें भी दो प्रकार की स्थितियाँ रहती हैं—एक कमजोर व्यक्ति होते हैं दूसरे स्वस्थ। कमजोर व्यक्ति कहते हैं कि हम बिना खाये—पिये खड़े नहीं रह पाते, ठीक से बैठ भी नहीं पाते, सिर चकराने लगता है। ये बीमारी के लक्षण हैं, जो स्वस्थ व्यक्ति में नहीं पाए जाते। इसलिए सिद्धान्त, स्वस्थ व्यक्ति की दृष्टि से बनाए जाते हैं। इस प्रकार खाली पेट तंद्रा नहीं आती, स्तुति में मन लगता है, क्योंकि मस्तिष्क भी हल्का रहता है और पेट भी।
यानि दर्शन करने जाएँ तो हाथ में कुछ लेकर जाना चाहिए क्योंकि आप त्याग र्मूित के सम्मुख जा रहे हैं। जैनदर्शन में जितनी ऊँची त्याग—तपस्या कही गई है, उतनी कहीं नहीं कही। बताओ सही, न खाने के लिए भोजन, न पहनने के लिए वस्त्र, ऐसे हमारे साधु ही आगे जाकर अर्हंत बनते हैं। देश—विदेश यदि भगवान महावीर को या जैनधर्म का जानता है तो इसी त्याग से जानता है। जैन र्मूित या जैन साधु त्याग के उपदेशक होते हैं। सारे प्रवचन अथवा शास्त्रों में त्याग की ही बात कहीं गई है जैसे आलू—प्याज मत खाओ, रात्रि में मन खाओ, हिंसादि पाँच पापों का त्याग करो आदि। यद्यपि ये सब बाह्य त्याग हैं। अंतरंग त्याग राग द्वेष, काम, क्रोध, मद, लोभ इत्यादि का होता है। जो संसारी अवस्था में बहुत मुश्किल होता है तो कम से कम एक मुट्ठी चावल तो घर से ले जा सकते हैं। यह रूढ़ि (परम्परा) है।
तमिलनाडू, कर्नाटक इत्यादि प्रान्तों में लोगों का मुख्य भोजन चावल ही है। वहाँ के लोग बताते थे कि हम सप्ताह में एक दिन रोटी बनाते हैं या जैन होटल से लाते हैं, प्रतिदिन का भोजन तो चावल ही है। अन्य स्थानों पर भी देखा जाता है कि भोजन के अंत में चावल अनिवार्य रूप से चाहिए। बिना चावल के भोजन अधूरा लगता है, पेट नहीं भरत। अत: चावल सबसे प्रिय अन्न हैं। दूसरी बात है कि चावल प्रासुक, अचित्त होते हैं। गेहूँ, चना आदि तो बोये जाने पर अंकुरित हो जाते हैं लेकिन चावल बोने पर अंकुरित नहीं होते। अत: सामान्य अर्थ हो गया कि हे भगवान् ! जैसे ये चावल अंकुरित नहीं होते। इन्हें अक्षत कहा जाता है। हम भी ऐसे बन जाएँ, अक्षय पद (मोक्ष) प्राप्त कर लें यानि वह पद चाहते हैं, जिसका क्षय न हो। जैसे चावल अंकुरित नहीं होते, वैसे ही हमारे कर्म भी पुन: अंकुरित न हों, यह चावल चढ़ाने का सिद्धान्त है। यद्यपि यह भी रूढ़ि है। शास्त्रों में कहीं नहीं लिखा कि चावल ही चढ़ाना अर्थात् कोई भी मांगलिक द्रव्य चढ़ा सकते हैं। जैसे—कोई श्रीफल, कोई बदाम, काजू आदि भी लेकर आता है। कितनी बार लोग प्रमाद करते हैं कि चावल कहाँ रखेंगे, बाजार भी जाना है। और किसी ने पूछ लिया कि क्या है ? कच्चे चावल क्यों रखते हो ? इत्यादि प्रकार से हँसी कर सकते हैं। तो आप लौंग भी ले जा सकते हैं, जो २४ घण्टे भी जेब में पड़ी रहें, तो भी परेशानी नहीं है। इसे मन्दिर में भी प्रयोग किया जा सकता है अथवा किसी के स्वागत सम्मान में भी प्रयोग हो सकता है। हाँ, चावल सबसे उत्कृष्ट हैं, यदि उपलब्ध न हो सवें तो लौंग चढ़ा सकते हैं। आज इन तीन बातों का पूरा—पूरा ध्यान रखना है क्योंकि जैनधर्म का पाठ यही से शुरू होता है।