(गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से तेरहद्वीप संबंधी एक वार्ता)
चन्दनामती- पूज्य माताजी! हस्तिनापुर में आपकी प्रेरणा से जैन भूगोल की अद्वितीय ‘‘तेरहद्वीप रचना’’ बनी है और उसमें लगभग दो हजार जिनप्रतिमाओं की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई है। सो उसके बारे में मैं जैन समाज के श्रद्धालु भक्तों तक सही जानकारी पहुँचाने हेतु आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहती हूँ।
गणिनी ज्ञानमती माताजी-ठीक है, पूछो जो पूछना है। तेरहद्वीप रचना तो करणानुयोग ग्रंथों के आधार से ही मैंने बताई है। मैं तो स्वयं चाहती हूँ कि सभी लोग उसकी पूरी व्यवस्था जाने-समझें, ताकि उन्हें ज्ञात हो कि इस वृहत ब्रह्माण्ड में हम लोग कहाँ निवास कर रहे हैं और पूरे ब्रह्माण्ड में कहाँ-क्या व्यवस्था है।
चन्दनामती- हाँ, मेरा भी प्रश्न करने का यही अभिप्राय है। माताजी! सर्वप्रथम प्रश्न यह है कि मध्लयोक में द्वीप-समुद्र तो असंख्यात हैं, फिर तेरहद्वीपों को ही प्रधानता से क्यों बनाया गया है?
गणिनी ज्ञानमती माताजी- इसका प्रमुख कारण यह है कि असंख्यात द्वीप-समुद्रों में प्रथम जम्बूद्वीप से लेकर तेरहवें रुचकवर द्वीप तक ही अकृत्रिम जिनमंदिर हैं, उसके आगे मंदिर नहीं हैं इसीलिए तेरहद्वीप तक के चैत्यालयों की पूजा-विधान करने की परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है।
चन्दनामती- तो तेरहद्वीपों के आगे वाले द्वीप-समुद्रों में क्या रहता है?
गणिनी ज्ञानमती माताजी-आगे के द्वीपों में केवल पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच जीव (युगलिया) रहते हैं और अंतिम स्वयंभूरमण द्वीप के आधे द्वीप तक (स्वयंप्रभ पर्वत के पूर्व भाग तक) जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था पाई जाती है, अर्थात् वहाँ सभी जगह पंचेन्द्रिय तिर्यंच युगलिया जीव भोगभूमि का जीवन व्यतीत करते हैं और उन द्वीपों में तथा समुद्रों में विकलत्रय जीव नहीं होते हैं।
चन्दनामती- फिर आधे स्वयंभूरमण द्वीप (स्वयंप्रभपर्वत के आगे) और अंतिम स्वयंभूरमण समुद्र की क्या व्यवस्था है?
गणिनी ज्ञानमती माताजी- वहाँ तो कर्मभूमि की व्यवस्था है और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के साथ विकलत्रय जीव भी वहाँ पाये जाते हैं। एक हजार योजन वाला महामत्स्य भी तो उसी स्वयंभूरमण समुद्र में रहता है।
चन्दनामती- ठीक है, यह तो हुई तेरहद्वीप से आगे की बात, अब जम्बूद्वीप से लेकर रुचकवर तक तेरहद्वीपों में कितने मंदिर आदि हैं उनके बारे में बताने की कृपा कीजिए?
गणिनी ज्ञानमती माताजी-तेरहद्वीप में कुल चार सौ अट्ठावन अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। इन अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना, अर्चना करने के लिए चारों प्रकार के देव-इन्द्र आदि हमेशा जाते रहते हैं।
चन्दनामती- पूज्यमाताजी!इन्द्रध्वज विधान में भी तो इन्हीं तेरहद्वीप के ४५८ मंदिरों की पूजा आपने लिखी है, सो उसका क्या विशेष महत्व है?
गणिनी ज्ञानमती माताजी- हाँ, तुमने ठीक कहा है कि इन्द्रध्वज विधान में भी इन्द्रगण इन्हीं तेरहद्वीपों के ४५८ अकृत्रिम मंदिरों की पूजा करते हैं। उसमें खास बात यह है कि इन्द्र उन सभी मंदिरों पर ध्वजा चढ़ाते हुए पूजा करते हैं इसलिए उस विधान का नाम ‘‘इन्द्रध्वज’’ सार्थक हुआ है।
चन्दनामती-यह कैसा सुखद संयोग है कि आपको सन् १९६५ में तेरहद्वीप रचना की उपलब्धि ध्यानसाधना करके हुई और सन् १९७६ में आपने उन्हीं चैत्यालयों के चिन्तनस्वरूप इन्द्रध्वज विधान बनाया पुन: सन् १९९३ में हस्तिनापुर के जम्बूद्वीप परिसर में तेरहद्वीप रचना बनाने हेतु विशाल जिनालय का शिलान्यास हुआ और अब वह रचना साकार हो गई है। इसे देख-देखकर तो आपको बहुत संतोष होता होगा?
गणिनी ज्ञानमती माताजी-हाँ, इस रचना को साकार हुआ देखकर मुझे अतिप्रसन्नता हो रही है दरअसल सबसे पहले सन् १९६७ में मेरी प्रेरणा से ब्र. मोतीचंद जी (वर्तमान क्षुल्लक मोतीसागर) ने सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्र पर तेरहद्वीप रचना बनाने के लिए बहुत बड़ी भूमि देख ली थी किन्तु वहाँ मेरे न रुकने के कारण वह रचना नहीं बन सकी पुन: सन् १९७४ में संयोग बना हस्तिनापुर तीर्थ दर्शन का।
इस तीर्थ के दर्शन करके मेरे मन में भावना हुई कि यहाँ तेरहद्वीपों में से एक द्वीप ‘‘जम्बूद्वीप’’ का निर्माण खुले मैदान में किया जावे, तो भगवान शांतिनाथ-कुंथुनाथ-अरहनाथ की जन्मभूमि का विकास भी हो जायेगा और जैनभूगोल के एक भाग का ज्ञान भी भौतिक जगत् को प्राप्त होगा। मेरी भावना साकार हुई और सन् १९८५ में जम्बूद्वीप बनकर तैयार हुआ, तब से लाखों तीर्थयात्री जम्बूद्वीप दर्शन के साथ हस्तिनापुर की यात्रा करके महान पुण्यार्जन करते हैं।
उसके बाद मैंने प्रेरणा दी कि एक जिनालय में मेरी मूलयोजना के रूप में तेरहद्वीप की रचना का भी निर्माण अवश्य हो। वह शीघ्र बन जाती, किन्तु पिछले सन् १९९० से मेरा भ्रमण देश के विभिन्न भागों में चलता रहा, इसलिए रचना बनने में व्यवधान पड़ा। अब एक वर्ष से मैंने ब्र.रवीन्द्र जी को तिलोयपण्णत्ति-त्रिलोकसार आदि ग्रंथों के आधार से पूरी रचना का रूपक बताया, उन्होंने पूरी रुचि लेकर कारीगरों से काम शुरू कराया तभी वह रचना बन सकी है।
चन्दनामती-मैंने तो स्वयं देखा है कि आपने इस तेरहद्वीप रचना के चैत्यालय आदि की संख्या, आकार, डिजाइन आदि हम लोगों को बताने में कितना परिश्रम किया है। आप तो वास्तव में हम लोगों की प्रेरणास्रोत हैं कि आज ७३ वर्ष की उम्र में रूखा-सूखा अल्प आहार लेकर भी कभी खाली न रहकर काम में लगी हैं।
गणिनी ज्ञानमती माताजी- (हँसकर) पता नहीं मेरे पूर्व जन्म के क्या संस्कार हैं कि मैं जब जम्बूद्वीप या तेरहद्वीप के १-१ भाग का अध्ययन करने लगती हूँ तो मैं भावों से साक्षात् उन्हीं अकृत्रिम चैत्यालयों के पास पहुँच जाती हूँ। अभी भी मैंने एक-एक दिन में ७-८ घंटे बैठकर जब पर्वतों एवं चैत्यालयों के डिजाइन, साइज आदि इंच और फुट में निकालती थी तो भले ही शारीरिक थकान बहुत हो जाती थी, किन्तु मानसिक संतुष्टि इतनी अधिक मिलती थी कि जैसे अमृत का पान कर लिया हो।
चन्दनामती-धन्य है आपकी तपस्या और लगनशीलता। पूज्य माताजी! अब मैं आपसे जानना चाहती हूँ कि इस तेरहद्वीप पंचकल्याणक में पाँच भगवन्तों को विधिनायक क्यों बनाया गया, क्या इसका कोई विशेष महत्त्व है?
गणिनी ज्ञानमती माताजी- देखो चन्दनामती! इस विशेष रहस्य को बड़ी सूक्ष्मता से समझने की आवश्यकता है इसलिए तुम ठीक से इस विषय पर खुलासा करना।
तेरहद्वीपों में प्रारंभिक जो ढाईद्वीप (जम्बूद्वीप-धातकीखण्ड और पुष्करार्ध) हैं, वहाँ पाँच मेरु स्थित हैं, जिनका क्रम इस प्रकार है-जम्बूद्वीप के बीचों बीच में सुमेरु पर्वत, पूर्वधातकीखण्ड में-विजयमेरु पर्वत, पश्चिम धातकीखण्ड में-अचलमेरु पर्वत, पूर्व पुष्करार्ध द्वीप में-मंदरमेरु पर्वत और पश्चिम पुष्करार्ध द्वीप में विद्युन्माली मेरु पर्वत है। इन सभी मेरु संबंधी अलग-अलग भरत-ऐरावत-विदेह आदि क्षेत्र हैं जहाँ तीर्थंकरों के जन्म होते हैं और सबसे बड़ी बात यह है कि जिस द्वीप में जिस तीर्थंकर का जन्म होता है उनका जन्माभिषेक उसी द्वीप में स्थित मेरु पर्वत की पाण्डुकशिला पर होता है।
दूसरे द्वीप के मेरुपर्वत की पाण्डुकशिला पर उनका अभिषेक नहीं हो सकता है। यहाँ पर चूँकि तेरहद्वीप के पंचकल्याणक हुए हैं, उस रचना में पाँचों मेरु तो हैं ही अत: वहाँ-वहाँ के ५ भरतक्षेत्रों में जन्में पाँच तीर्थंकरों को इसमें विधिनायक के रूप में रखने की मैंने प्रेरणा दी, इसीलिए पाँचों तीर्थंकर के पाँच माता-पिता के रूप में पाँच सौभाग्यशाली दम्पत्तियों का चयन किया गया। श्री जयसेन प्रतिष्ठापाठ (पृ. २३३) में शरीर, कुल, जाति से शुद्ध कुलांगना को तीर्थंकर माता बनाने का विधान है।
यहाँ यह जरूर ध्यान देने योग्य है कि यदि तुम सोचो कि हम किसी भी पंचकल्याणक में किन्हीं पाँच तीर्थंकरों को विधिनायक करके उनके पाँच माता-पिता बना लें तो वह गलत हो जायेगा, क्योंकि एक मेरु संबंधी एक द्वीप के एक भरत क्षेत्र में एक बार में तो एक ही तीर्थंकर का जन्म होता है, उनके निर्वाण के बाद ही दूसरे भगवान का जन्म हो सकता है इसलिए वर्तमानकालीन एक तीर्थंकर से अधिक को विधिनायक और उनके एक माता-पिता के अतिरिक्त दूसरे को माता-पिता नहीं बनाया जा सकता है। तेरहद्वीप की अलौकिक रचना के कारण ही मैंने यहाँ ५-५ की व्यवस्था रखी है।
चन्दनामती-पूज्य माताजी! इस तेरहद्वीप की रचना में जो ४५८ चैत्यालय हैं वे किस क्रम से उसमें विराजमान किये गये हैं?
गणिनी ज्ञानमती माताजी-उनकी संख्या का क्रम ध्यानपूर्वक सुनो। मैं क्रम से तुम्हें बता रही हूँ-सबसे पहले हॉल में निर्मित की गई इस रचना के अंदर बीचोंबीच में जम्बूद्वीप दिखाया गया है। उसमें बीच में सुदर्शनमेरु (सुमेरुपर्वत) के चार वनों में ४-४ मंदिर ऐसे १६ मंदिर हैं पुन: मेरु की चारों विदिशा में गजदंतपर्वतों पर १-१ ऐसे ४ मंदिर, आगे मेरु के उत्तर-दक्षिण में उत्तरकुरु-देवकुरु में जम्बूवृक्ष-शाल्मलिवृक्ष पर १-१ ऐसे २ मंदिर पुन: सुमेरु के पूर्व-पश्चिम में ८-८ वक्षार ऐसे १६ वक्षार पर्वत के १६ मंदिर पुन: पूर्व-पश्चिम में ही १६-१६ विदेह क्षेत्रों के मध्य में ३२ विजयार्ध + भरत-ऐरावत के २ विजयार्ध पर्वत ऐसे कुल ३४ विजयार्धों पर ३४ मंदिर और मेरु के दक्षिण-उत्तर में छह कुलाचल पर्वतों पर ६ मंदिर इस प्रकार १६+४+२+१६+३४+६=७८ अकृत्रिम जिनमंदिर जम्बूद्वीप में हैं।
इसी प्रकार पूर्वधातकीखण्ड में विजयमेरु के साथ ७८ जिनमंदिर हैं, पश्चिमधातकीखण्ड में अचलमेरु के साथ ७८ मंदिर एवं २ इष्वाकार के ऐसे कुल १५८ मंदिर हैं और पूर्व पुष्करार्धद्वीप मे मंदर मेरु संबंधी ७८ मंदिर, पश्चिम पुष्करार्ध में विद्युन्माली मेरु संंबंधी ७८ एवं इष्वाकार के २ ऐसे कुल १५८ मंदिर हैं। मानुषोत्तर पर्वत पर ४ मंदिर है पुन: उसके आगे चौथे, पाँचवे, छठे और सातवें द्वीप में मंदिर नहीं है इसलिए इस रचना में भी उन्हें केवल १-१ लाइन मात्र में दिखाया गया है
और आठवें नंदीश्वरद्वीप में ५२ मंदिर हैं पुन: नवमें-दशवें द्वीप में मंदिर नहीं है और ग्यारहवें कुण्डलवरद्वीप के मध्य में स्थित वलयाकार कुण्डलवर पर्वत पर ४ मंदिर हैं, बारहवें द्वीप को छोड़कर तेरहवें रुचकवर द्वीप के मध्य में स्थित गोलाकार रुचकवर पर्वत पर ४ मंदिर हैं। इस प्रकार ७८+१५८+१५८+४+ ५२+४+४=४५८ अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। ये सभी मंदिर इस रचना में बहुत सुन्दर स्वर्णिम वर्ण के तथा कलाकृतिपूर्ण दर्शाये गये हैं। इन मंदिरों में स्वयं सिद्ध भगवन्तों की प्रतिमा विराजमान होंगी।
चन्दनामती-लेकिन इस तेरहद्वीप रचना में तो आपने और बहुत सारे मंदिर बनवाए हैं वे कैसे, कहाँ-कहाँ विराजमान किये गये हैं?
गणिनी ज्ञानमती माताजी-इन ४५८ अकृत्रिम मंदिरों के अतिरिक्त सैकड़ों देवभवन हैं उनमें देव-देवी रहते हैं और उनके गृहचैत्यालय में सिद्ध भगवान की प्रतिमा रहती हैं ऐसे लगभग ८०० देवभवन इस रचना में बने हैं जो धातु से निर्मित रंग-बिरंगे हैं।
चन्दनामती-इनके अतिरिक्त वहाँ और क्या-क्या है?
गणिनी ज्ञानमती माताजी-देखो! ढाईद्वीप में १७० कर्मभूमियों में तीर्थंकरों के १७० समवसरण भी बनाने की मैंने प्रेरणा दी है। उनमें समवसरण के प्रतीक में कमलासन चार-चार भगवान विराजमान हैं। इनके अतिरिक्त पूरी रचना में यथास्थान कुण्ड, नदी, सरोवर, गुफा, पर्वत, नाभिगिरि, वृषभाचल आदि के साथ भोगभूमियों में कल्पवृक्ष भी दिखाए गये हैं। इसमें भरत-ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्डों में कर्मभूमि के प्रतीक में मुनि-आर्यिका, श्रावक-श्राविका भी दिखाए गये है।
चन्दनामती- इस अभूतपूर्व रचना को तो आपके मुख से सुनकर ही रोमांच हो रहा है तो पूरी रचना को देखने वालों को तो बहुत ही प्रसन्नता होगी।
गणिनी ज्ञानमती माताजी- हाँ, इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह रचना बहुत मनोहारी है। जैसे संसार में जम्बूद्वीप की रचना अभूतपूर्व है, उसी प्रकार यह तेरहद्वीप की रचना भी अभूतपूर्व ही है। पर्यटक और तीर्थयात्री तो इसके दर्शन का पुण्यलाभ लेंगे ही, शोधकर्ता विद्वानों को भी जैनभूगोल का ज्ञान प्राप्त करके असीम प्रसन्नता होगी।