(सुधा जिनेन्द्रदेव का दर्शन करते हुए दर्शन पाठ पढ़ रही है। उसके मध्य में एक श्लोक आता है जिसे वह बहुत ही भावपूर्ण शब्दों में पढ़ती है। कुछ क्षण के लिए चिंतन मुद्रा में खड़ी हो जाती है।)
वह श्लोक इस प्रकार है-
जिनधर्म विनिर्मुक्तो मा भवञ्चक्रवर्त्यपि।
स्याच्चेटोऽपि दरिद्रोऽपि जिनधर्मानुवासित:।।
जब वह जिनबिम्ब का दर्शन कर वंदना करके स्वाध्यायशाला में आकर बैठ जाती है। दोनों में बातचीत प्रारंभ हो जाती है।
सुमन-बहन सुधा! जिनधर्मविनिर्मुक्तो…..इस श्लोक का अर्थ तो बताओ?
सुधा-हे देव! मैं जिनधर्म को छोड़कर चक्रवर्ती भी नहीं होना चाहता हूँ किन्तु जिनधर्म को धारण करते हुए मैं भले ही नौकर हो जाऊँ अथवा दरिद्री ही क्यों न हो जाऊँं!
सुमन-इसको पढ़ने के बाद आप क्या सोच रही थीं?
सुधा-बहन! क्या बताऊँ! आजकल धर्म को निभाना बहुत ही कठिन है। इस समय मैं बहुत बड़े धर्मसंकट में पड़ी हुई हूँ, मेरा मस्तिष्क बहुत ही अशांत है, कुछ समझ में नहीं आता है कि क्या करूँ?
सुमन-कहो बहन! मन की चिंता मुझसे कहो, हो सकता है कुछ भार हल्का हो जाये!
सुधा-बहन! मेरे पतिदेव बहुत ही धर्मात्मा हैं, यह बात तो आप अच्छी तरह जानती हैं। वे तो कुछ ग्रंथों की गाथाओं को रटे हुए, उन पर खूब अच्छा विवेचन करते रहते हैं।
सुमन-हाँ, हाँ बहन! सो तो सभी को मालूम है फिर भी इसमें अशान्ति की क्या बात है?
सुधा-(इधर-उधर देखकर धीरे से) बहन! क्या कहूँ, कहते हुए भी शर्म आती है। आजकल उन्होंने अण्डे खाना शुरू कर दिया है और कहते हैं कि हमें पकाकर देओ किन्तु मैं तो अण्डे घर में भी नहीं आने देना चाहती हूँ। इसी बात पर अपना मधुर दाम्पत्य जीवन कलहपूर्ण अशान्त बनता जा रहा है। क्या करूँ? अपने पतिसेवा व्रत को वैâसे निभाऊँ?
सुमन-बहन! ऐसा क्यों? वे तो बड़े सात्त्विक थे!
सुधा-आजकल डाक्टर ने कह दिया है कि तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए वह बहुत ही हितकर है।
सुमन-ओह! स्वास्थ्य के लिए भी ली गई मधु (शहद) की एक बिन्दु तो कितना पाप का कारण है देखो ना, शास्त्र में लिखा है कि एक बिन्दु मात्र मधु के भक्षण से सात गाँव के जलाने का पाप लगता है। पुन: मांस, अरे! यह तो महापाप का कारण है। देखो बहन! कथा प्रसिद्ध है कि खदिरसार भिल्ल ने दिगम्बर मुनि के पास कौवे का माँस छोड़ दिया था। बीमारी में चिकित्सक ने कह दिया कि यदि तू कौवे का माँस खायेगा, तभी जीवित रहेगा अन्यथा तेरा मरण निश्चित है। परिवार के सभी लोगों के अति आग्रह के बाद भी उसने नहीं खाया, तब उसके साले को बुलाया गया। साला वन मार्ग से आ रहा था। वहाँ एक यक्षिणी रुदन कर रही थी। उसके पूछने पर उस यक्षिणी ने कहा कि वह भिल्ल कौवे का माँस न खाने से मरकर व्यंतर देवों में आकर मेरा पति होने वाला है और तू जाकर यदि उसे कौवे का माँस खिला देगा, तो वह मरकर नरक में चला जायेगा, इसलिए मैं रो रही हूँ। इतना सुनकर उसने जाकर पहले तो अपने बहनोई खदिरसार भिल्ल को कौवे का माँस खाने के लिए समझाया। जब वह भिल्ल अपने व्रत में दृढ़ रहा, तो उसने उसे रास्ते की घटना सुना दी। सुनकर भिल्ल बहुत ही आश्चर्यचकित हुआ पुन: प्रसन्न होकर उसने सम्पूर्ण माँसों का त्याग कर दिया। जिसके फलस्वरूप मरकर वह सौधर्म स्वर्ग में देव हो गया। पुन: जब वह साला उधर से निकला तब भी वह यक्षिणी रुदन कर रही थी, पूछा अब क्यों रो रही है? तब उसने कहा कि आपने जाकर उसे सर्वमाँसों का त्याग करा दिया जिसके फलस्वरूप वह मेरा पति न होकर स्वर्ग में उत्तम जाति के देवों में देव हो गया है। बहन! कालांतर में यही जीव राजा श्रेणिक हुआ है, जो कि आगे तीर्थंकर होने वाला है अत: आपको पति के हिंसा कार्य में कभी सहयोगिनी नहीं बनना चाहिए प्रत्युत् चेलना का उदाहरण हमेशा अपने सामने रखना चाहिए।
सुधा-बहन! मैंने तो उन्हें बहुत कुछ समझा लिया किन्तु वे कहते हैं कि मरे हुए अण्डे में क्या दोष है? मैंने तो किसी जीव को मारा नहीं है!
सुमन-बहन! अमृतचन्द्रसूरि ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रंथ में लिखा है कि-‘‘यद्यपि स्वयं ही मरे हुए भैंसे, बैल आदि का मांस है, तो भी उसमें भी बहुत ही हिंसा होती है क्योंकि उसके आश्रित अनन्त निगोद जीवों का घात हो जाता है। माँस कच्चा हो, चाहे पकाया हुआ हो, चाहे पक रहा हो, प्रति समय उसमें उसी जीव की जाति के अनन्त निगोद जीवों का जन्म होता रहता है१ अर्थात् यदि माँस मुर्गे का है तो उसी जाति के पंचेन्द्रिय निगोद जीव (सम्मूर्च्छन जीव) जन्म लेते रहते हैं इसलिए जो भी कच्चे या पके हुए वैâसा भी माँस खाते हैं, अथवा छूते हैं, तो वे बहुत ही जीवों के समूह की हिंसा करते हैं।
बहन! इस िंहसा का फल कितना बुरा है। देखो! जो एक बार भी किसी जीव को मारता है, वह भव-भव में उसके द्वारा मारा जाता है और फिर अण्डे के जीव जो बेचारे अपने शरीर को पूर्णकर बाहर आ भी नहीं पाते हैं भला उनके मारने वाले और खाने वाले कितने महापापी हैं। ओह! निश्चित ही वे असंख्य बार गर्भावस्था में ही मरण को प्राप्त होवेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है। क्या तुमने यशोधर चरित्र नहीं पढ़ा है? मात्र आटे का मुर्गा बनाकर बलि देने वाले यशोधर ने भी कितना पाप बंध किया था जिसके फलस्वरूप कई भवों तक बलि के लिए मारा गया, काटा गया, पकाया गया और मांसाहारियों के द्वारा खाया गया। अपने पतिदेव को यशोधर चरित्र पढ़ने को देवो। यदि वे पढ़ेंगे तो अवश्य ही हिंसा के पाप से, मांसाहार के पाप से भयभीत हो जायेंगे।
सुधा-जब मैं उन्हें ज्यादा ऐसी कथाएँ सुनाती हूँ और समझाती हूँ तो वे कहते हैं कि मुझे इस क्रियाकांड में विश्वास नहीं है। आपको मालूम नहीं है कि आत्मा कर्मों का कर्ता नहीं है।
सुमन-ग्रंथों के सार को हर कोई नहीं समझ सकता है, तभी तो ये शास्त्र आजकल मूढ़ लोगों के लिए शस्त्र बन गये हैं। अस्तु! इस पर मैं फिर कभी चर्चा करूँगी, अभी तो मैं तुम्हें एक विशेष बात बताए देती हूँ। देखो, श्री अमृतचन्द्रसूरि ने समयसार की टीका की है। वे अपने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रंथ में लिखते हैं कि-
अष्टावनिष्ट दुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवर्ज्य।
जिनधर्मदेशनाया भवंति पात्राणि शुद्धधिय:।।७४।।
मद्य, मांस, मधु और पंच उदुम्बर फल ये आठ अनिष्ट हैं, दुस्तर पापों के स्थान हैं, जो इन आठों का त्याग कर देते हैं वे ही शुद्ध बुद्धि वाले जीव जिनधर्म के उपदेश के पात्र होते हैं।