अथ स्थापना—गीताछंद
उत्तम क्षमादी धर्म हैं , औ दया धर्म प्रधान है।
वस्तू स्वभाव सु धर्म है, औ रत्नत्रय गुणखान है।।
जो जीव को ले जाके धरता , सर्व उत्तम सौख्य में।
वह धर्म है जिनराज भाषित, पूजहूँ तिहुँकाल मैं।।१।।
—दोहा—
भरतैरावत क्षेत्र में, चौथे पांचवे काल।
शाश्वत रहे विदेह में, धर्म जगत् प्रतिपाल।।२।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीतजिनधर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीतजिनधर्म! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं ।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीतजिनधर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अष्टक—चाल—नंदीश्वर पूजा
रेवानदि को जल लाय, कंचन भृंग भरूँ।
त्रयधार करूं सुखदाय, आतम शुद्ध करूँ।।
जिनधर्म विश्व का धर्म , सर्व सुखाकर है।
मैं जजूँ सार्वहित धर्म , गुण रत्नाकर है।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीतजिनधर्माय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
मलयागिरी चंदन गंध , घिस कर्पूर मिला।
जजते ही धर्म अमंद , निज मन कमल खिला।।जिनधर्म०।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलि प्रणीत जिनधर्माय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
शशिकर सम तंदुल श्वेत, खंड विवर्जित हैं।
शिवरमणी परिणय हेत, पुंज समर्पित हैं।।जिनधर्म०।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीत—जिनधर्माय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
सित कुमुद नील अरविंद, लाल कमल प्यारे।
मदनारि विजयहित धर्म, पूजूँ सुखकारे।।जिनधर्म०।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीत—जिनधर्माय कामवाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
पूरणपोली पयसार१ , पायस मालपुआ।
जिनधर्म सुधासम पूज , आतम सौख्य हुआ।।जिनधर्म०।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीत—जिनधर्माय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
मणि दीप कपूर प्रजाल, ज्योति उद्योत करे।
अंतर में भेद विज्ञान, प्रगटे मोह हरे।।जिनधर्म०।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीत—जिनधर्माय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
दश गंध अग्नि में जार, सुरभित गंध करे।
निज आतम अनुभवसार, कर्म कलंक हरे।।जिनधर्म०।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीत—जिनधर्माय अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
एला केला फल आम्र, जंबू निंबु हरे।
शिवकांता संगम हेतु तुम ढिग भेंट करे।।जिनधर्म०
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीत—जिनधर्माय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
सलिलादिक द्रव्य मिलाय, कंचनपात्र भरें।
जिनवृष को अर्घ चढ़ाय, शिवसाम्राज्य वरें।।जिनधर्म०।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीत—जिनधर्माय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
—दोहा—
शांतिधारा मैं करूँ, जैन धर्म हितकार।
चउसंघ में शांति करो, हरो सर्व दु:ख भार।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पुष्पांजलि से पूजहूं, श्री जिनधर्म महान्।
दुःख दारिद संकट टले, बनूं आत्मनिधिमान।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
—सोरठा—
मंगल रूप महान् , जग में लोकोत्तम कहा।
श्री केवलि भगवान् , कथित धर्म सबको शरण।।१।।
इति मंडलस्योपरि प्रथम दले पुष्पांजलिं क्षिपेत्
(८ अर्घ्य)
(वस्तु स्वभाव धर्म अर्घ्य)
—नरेन्द्र छंद—
वस्तु स्वभाव हि धर्म कहाता, जल स्वभाव से शीतल।
आत्म स्वभाव ज्ञान दर्शन मय, शुद्ध भाव से निर्मल।।
यह स्वभाव है तर्क अगोचर, इसकी पूजा करके।
वस्तु स्वभावी शुद्धात्मा को, प्राप्त करूँ जिन वृष से।।१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानवस्तुस्वभावमय जिनधमार्य अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(सप्तभंग के ७ अर्घ्य)
सर्व वस्तु में धर्म अनंते , अस्ति नास्ति आदिक हैं।
सर्व परस्पर कहे विरोधी , फिर भी रहें युगपत् हैं।।
सप्त भंग युत स्याद्वाद ही, इन विरोध परिहारे।
स्यादस्ति वस्तु स्वचतुष्टय से , इसे जजूँ रुचिधारे।।२।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सप्तभंगस्याद्वादस्य स्यादस्तिधर्माय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नास्ति धर्म यह वस्तू में, अन्य चतुष्टय से नहिं।
अन्य द्रव्य औ क्षेत्र काल औ, अन्य भाव से वह नहिं।।
इस नास्तित्व धर्म से वस्तू , निज स्वरूप से रहती।
परस्वरूप से नास्ति रूप है, इसे जजूँ बहु भक्ती ।।३।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सप्तभंगस्याद्वादस्य स्या़न्नास्तिधर्माय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अस्ति नास्ति ये उभय धर्म भी, एक साथ ही रहते।
स्वपर चतुष्टय क्रम से कहते, नहीं विरोधी दिखते।।
स्यादस्तिनास्ति भंग तीसरा, सब वस्तु में तिष्ठे।
अर्घ चढ़ाकर इसको पूजूँ , वस्तु स्वभाव प्रतिष्ठे।।४।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सप्तभंगस्याद्वादस्य स्यादस्तिनास्तिधर्माय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एक साथ नहिं कह सकते इन, अस्ति नास्ति दोनों को।
चौथा भंग इसी से बनता , अवक्तव्य से समझो।।
स्वपर चतुष्टय से युगपत् यह, धर्म वस्तु में रहता।
इसको पूजूँ यह स्वभाव भी, अलग नहीं हो सकता।।५।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सप्तभंगस्याद्वादस्य स्यादवक्तव्यधर्माय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वद्रव्यादि से वस्तु अस्ति है , अवक्तव्य उस ही क्षण।
स्वपर चतुष्टय एक साथ लें नहिं कह सकते तत्क्षण।।
स्यादस्ति सह अवक्तव्य यह, भंग पांचवां माना।
इसे पूजते बनें स्वधर्मी, वस्तु स्वभाव सुहाना।।६।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सप्तभंगस्याद्वादस्य स्यादस्ति-अवक्तव्यधर्माय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वस्तु नास्ति पर द्रव्यादिक से, अवक्तव्य भी समझो।
स्वपर चतुष्टय से कहने में , नहिं आवें उस क्षण वो।।
भंग छठा स्यान्नास्ति अवक्तव्य इसे पूजूँ रूचि से।
वस्तु स्वभाव धर्म यह माना , कहा गया जिनवर से ।।७।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सप्तभंगस्याद्वादस्य स्या़न्नास्ति-अवक्तव्यधर्माय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वपर चतुष्टय से क्रम से कहने में अस्ति नास्ती।
एक साथ नहिं कह सकने से, अवक्तव्य होता भी।।
भंग सातवां अस्ति नास्ति सह अवक्तव्य यह आता।
इसे जजूँ मैं भक्ति भाव से, वस्तु स्वभाव कहाता।।८।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सप्तभंगस्याद्वादस्य स्यादस्तिनास्ति-अवक्तव्यधर्माय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—पूर्णार्घ्य—
वस्तु स्वभावी धर्म के , सात भंग अवदात।
स्याद्वादमय धर्म यह , जजूँ अर्घ ले हाथ।।१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सप्तभंगमयस्याद्वादस्वरुपवस्तु—स्वभावधर्माय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा । दिव्य पुष्पांजलि:।
इति मंडलस्योपरि द्वितीयदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
(१० अर्घ्य)
(जीवदया धर्म अर्घ्य)
—रोलाछंद—
दया धर्म का मूल , सर्व प्रधान जगत में।
जीवन दान महान् , सर्व श्रेष्ठ त्रिभुवन में।।
गृहस्थ मुनि के भेद से दो भेद दया के।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय, मम चित बसे दया ये।।९।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानजीवदयापरमधर्माय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(रत्नत्रय धर्म अर्घ्य)
रत्नत्रय है धर्म , निश्चित मुक्ति प्रदाता।
सम्यग्दर्शन ज्ञान , चारित से सुखदाता।।
निश्चय औ व्यवहार, द्विविध धर्म रत्नत्रय।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय, निज को करूँ धर्म मय।।१०।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु कर्मभूमिषु प्रवर्तमानरत्नत्रयधर्माय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(आठ अंग के ८ अर्घ्य)
सम्यग्दर्शन रत्न, आठ अंग युत माना।
मोक्ष मार्ग का मूल , मुनियों ने है जाना।।
निःशंकित है अंग , जिन वच में नहिं शंका।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय, निज में हो दृढ़ श्रद्धा।।११।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यग्दर्शनस्य निःशंकित—अंगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इह भव में विभवादि , आगे चक्री आदिक।
नाना सुख की चाह, अथवा अन्य मतादिक।।
जो नहिं करते भव्य, नि:कांक्षित है उनके।
पूजूँ अंग द्वितीय , मिले आत्म सुख जिससे।।१२।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यग्दर्शनस्य नि:कांक्षित—अंगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नत्रय से पूत , मुनियों का तन मानो।
मलमूत्रादिक वस्तु , भरित घिनावन जानो।।
ग्लानि न करके भव्य, गुण में प्रीत बढ़ावें।
निर्विचिकित्सा अंग , इसे जजत सुख पावें।।१३।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यग्दर्शनस्य निर्विचिकित्सा—अंगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुत्सित मार्ग कुधर्म , कुपथ लीन जन बहुते।
इनको माने मूढ़, सम्यग्दृष्टी बचते।।
चौथा अंग अमूढ़—दृष्टि कहा जाता है।
इसे पूजते भव्य , उनने भव नाशा है।।१४।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यग्दर्शनस्य अमूढ़दृष्टि—अंगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सदा शुद्ध शिवमार्ग , अज्ञानी जन आश्रय।
दोष कदाचित् होंय, उन्हें ढकें शुभ आशय।।
निज आत्मा के धर्म, मार्दव आदि बढ़ावें।
उपगूहन यह अंग , इसे जजत सुख पावें।।१५।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यग्दर्शनस्य उपगूहन—अंगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक या चारित, से जो च्युत हो जावे।
उसमें सुस्थिर कर दे, युक्ती आदि उपाये।।
निज को भी शिवमार्ग में ही दृढ़ रक्खे जो।
स्थितिकरण यह अंग , इसे जजें सुख लें वो।।१६।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यग्दर्शनस्य स्थितिकरण—अंगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सह धर्मी जन संघ, कपट रहित हो प्रीति।
यथा योग्य सत्कार, यह वात्सल्य की रीती।।
गाय वत्सवत्प्रेम, वात्सल्य गुण माना।
सम्यग्दर्र्शन अंग , इसे जजत सुख पाना।।१७।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यग्दर्शनस्य वात्सल्य—अंगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाह।
निज प्रभावना करे, निज गुण तेज बढ़ावे।
पूजा दान तपादिक से, जिन धर्म दिपावे।।
यह प्रभावना अंग, तम अज्ञान हटावे।
इसको पूजें भव्य, धर्म महात्म्य दिखावें।।१८।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यग्दर्शनस्य प्रभावना—अंगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—पूर्णार्घ्य—
अष्ट अंगयुत दृष्टि यह, दोष पच्चीस विहीन।
परमानन्द अमृत भरे, करे दोष सब क्षीण।।२।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु अष्टांगसम्यग्दर्शनाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
इति मंडलस्योपरि तृतीयदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
(सम्यग्ज्ञान के ८ अर्घ्य)
—दोहा—
समकित होते ही हुआ, सम्यग्ज्ञान अपूर्व।
फिर भी ज्ञानाराधना , करो अष्टविध पूर्व।।
—नरेंद्र छंद—
स्वर व्यंजन से शुद्ध पूर्ण जो , करे प्रगट उच्चारण।
शब्दाचार करे वृद्धिंगत, शुद्ध ज्ञान आराधन।।
स्वपर भेद विज्ञान प्रकट हो, परमाह्लाद विधाता।
अर्घ चढ़ाकर मैं नित पूजूँ मिले सर्वसुख साता।।१९।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यग्ज्ञानस्य शब्दाचाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाह।
सूत्र आदि का अर्थ शुद्ध हो, गुरु की परंपरा से।
पूर्वापर संबंध जुड़ा हो, निह अनर्थ हो जिससे।।
स्वपर भेद विज्ञान प्रकट हो, परमाह्लाद विधाता।
अर्घ चढ़ाकर मैं नित पूजूँ मिले सर्वसुख साता।।२०।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यग्ज्ञानस्य अर्थाचाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शब्द अर्थ की पूर्ण शुद्धि हो, उभयाचार कहावे।
उभय नयों से भी सापेक्षित , ज्ञान ज्योति प्रगटावे।।स्वपर०।।२१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यग्ज्ञानस्य उभयाचाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रय संध्या उल्का ग्रहणादिक , बहुत अकाल बखाने।
इन्हें छोड़ सिद्धांत ग्रन्थ को, पढ़े जिनाज्ञा मानें।।स्वपर०।।२२।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यग्ज्ञानस्य कालाचाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हाथ-पैर आदि धोकर के ,शुभ स्थान में पढ़ते।
हाथ जोड़ श्रुत भक्ति आदिकर,विनय बहुत विध धरते।।स्वपर०।।२३।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यग्ज्ञानस्य विनयाचाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुछ रस आदि त्याग कर श्रुत को , पढ़े नियम धर रुचि से।
यह उपधान सहित आराधन, ज्ञान बढ़े नित इससे।।स्वपर०।।२४।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यग्ज्ञानस्य उपधानाचाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ग्रन्थ और गुरुजन का आदर , पूजा भक्ति करें जो।
यह बहुमान भावश्रुत करके, केवल ज्ञान करे वो।।स्वपर।।२५।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यग्ज्ञानस्य बहुमानाचाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस गुरु से या जिन शास्त्रों से, ज्ञान प्राप्त हो जाता।
उनका नाम छिपावे नहिं वह, कहा अनिह्नव जाता।।स्वपर।।२६।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यग्ज्ञानस्य अनिह्नवाचाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य—दोहा—
ज्ञान अष्टविध धारते, प्रगटे केवल ज्ञान।
अर्घ चढ़ाकर मैं करूँ , स्वात्म सुधारस पान।।३।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—दोहा—
सकल विकल के भेद से , चारित द्विविध महान्।
विकल चरित श्रावक धरें, बनें शील गुणवान्।।
इति मंडलस्योपरि चतुर्थदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
(श्रावक धर्म के २ मुनिधर्म के १३ ऐसे १५ अर्घ्य)
—पद्धड़ी—छंद—
सम्यक्त्व सहित अणुव्रत सुपांच, गुणव्रत शिक्षाव्रत कहे सात।
ये बारहव्रत हैं गृहीधर्म , इनको पूजें वो लहें शर्म।।२७।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु विकलचारित्रस्य सम्यक्त्वसहित- अणुव्रतादिद्वादशविधश्रावकधर्माय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो दर्शन व्रत सामायिकादि , ग्यारह प्रतिमा व्रत हैं अनादि ।
इनसे श्रावक बनते महान् , यह प्रथम धर्म पूजें सुजान।।२८।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु विकलचारित्रस्य दर्शनव्रतादि—एकादशप्रतिमारूपश्रावकधर्मेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(मुनिधर्म के १३ अर्घ्य)
—सोरठा—
मुनिधर्म के भेद , तेरह विध श्रुत में कहे।
उन्हें धरें बिन खेद , वे साधु भवदधि तिरें।।
—भुजंगप्रयात छंद—
महाव्रत अहिंसा , प्रथम है जगत में।
सभी प्राणियों की , दया है प्रगट में।।
दिगंबर मुनी ही , इसे पालते हैं।
जजें जो अहिंसा , वो अघ टालते हैं।।२९।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सकलचारित्रस्य अहिंसा—महाव्रताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
असत् अप्रशस्ते, वचन जो न बोलें।
हितंकर मधुर मित , सदा सत्य बोलें।।
यही सत्य व्रत , दूसरा व्रत कहाता।
इसे पूजहूँ , ये वचनसिद्धि दाता।।३०।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सकलचारित्रस्य सत्यमहाव्रताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पराया धनं शिष्य आदि न लेना।
महाव्रत अचौर्य निधि वो बखाना।।
इसे पूजते स्वात्म संपत्ति मिलती।
जिसे प्राप्त करते महासाधु गण ही।।३१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यक्चारित्रस्य अचौर्य—महाव्रताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुता मात भगिनी, सदृश सर्व महिला।
महाव्रत सुब्रह्मचर, धरे कोई विरला।।
त्रिजग पूज्य इंद्रादिवंदित ये व्रत है।
इसी से परमब्रह्म होता प्रगट है।।३२।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यक्चारित्रस्य बह्मचर्य—महाव्रताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परिग्रह सभी , मुक्ति जाने में बाधे।
दिगंबर मुनी ही , सभी वस्तु त्यागें।।
जगत भार से, छूटते ही विदेही।
जजूँ पाँचवां व्रत, बनूँ मुक्तिगेही।।३३।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यक्चारित्रस्य अपरिग्रह—महाव्रताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चतुर्युग प्रमाणे, धरा देख चलना।
बिना कार्य के, एक भी पग न धरना।।
सुगुरुदेव तीर्थादि-वंदन निमित से ।
गमन हो समिति ईरिया, को जजूँ मैं।।३४।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यक्चारित्रस्य ईर्यासमित्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वपर हित व मित मिष्ट, वच नित्य भाषें ।
सुभाषासमिति को, मुनिगण प्रकाशें।।
इसे धारते मुक्तिकन्या भि हो वश।
जजूँ भक्ति से प्राप्त, निर्दोष हों वच।।३५।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यक्चारित्रस्य भाषासमित्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
कृतादि रहित अन्न, प्रासुक स्वहितकर।
गृहस्थी के द्वारा, ही लेवें मुनिवर।।
स्वकर पात्र में लें , खड़े एक बारे।
यही एषणा समिति, क्षुध व्याधि टारे।।३६।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यक्चारित्रस्य एषणासमित्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कमंडलु व शास्त्रादि, जो वस्तु धरना।
उठाना यदि प्राणियों, पे हो करुणा।।
प्रथम चक्षु से देख, पिच्छी से शोधें।
ये आदान निक्षेप, समिति सपूजें।।३७।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यक्चारित्रस्य आदान-निक्षेपणसमित्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हरितकाय जंतू, रहित भूमि पर जो।
स्वमलमूत्र आदि, विकृति को तजें वो।।
विउत्सर्ग समिति, धरें जैन साधू।
जजूँ मैं इसे फिर, स्वशुद्धात्म साधू।।३८।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यक्चारित्रस्य व्युत्सर्गसमित्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महादोष रागादि, से चित्त दूरा।
मनोगुप्ति ये, पालते साधु शूरा।।
पुन: शुभ अशुभ, भाव दोनों निरोधे।
निजानंद रसलीन, गुप्ती सुपूजे।।३९।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यक्चारित्रस्य मनोगुप्त्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वचनगुप्ति आगम के, अनुकूल बोलें।
पुन: मौन धर, मुक्ति का द्वार खोलें।।
इसी से वचनसिद्धि, दिव्य ध्वनि भी।
मिलेगी अत:, पूजहूँ धार भक्ति।।४०।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यक्चारित्रस्य वचोगुप्त्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वतन की क्रिया सर्व, शुभ ही करें जो।
पुन: काय से मोह, तज सुस्थिरी हों।।
उभय कायगुप्ती, शुकल ध्यान पूरे।
जजूँ मैं इसे, नंतबल मुझ प्रपूरे।।४१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु सम्यक्चारित्रस्य कायगुप्त्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—चौबोलछंद—पूर्णार्घ्य—
पाँच महाव्रत पाँच समिति औ, तीन गुप्ति ये तेरह विध।
सम्यक् चारित मुक्ति प्रदायक, अठबिस मूलगुणों से युत।।
द्वादश तप बाईस परीषह, चौंतिस उत्तर गुण जानों।
लाख चौरासी गुण सर्वाधिक, पूजत ही भव दु:ख हानो।।४।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु त्रयोदशविधसर्वोत्कृष्टाचतुर—शीतिलक्षगुणयुतसम्यक्चारित्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
इति मंडलस्योपरि पंचमदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
(दशधर्म के १० अर्घ्य)
—गीताछंद—
क्रोध के बहु निमित मिलते, हो न मन में कलुषता।
निज अशुभ कर्मोदय निमित लख, पियें समरसमय सुधा।।
उत्तम क्षमा यह धर्म जग में, वैर निज पर का हरे।
यह पूर्ण शांति सौख्यदाता, पूजतें मन खुश करे।।४२।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु उत्तमक्षमाधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मृदुभाव मार्दव मान हरता , विनय गुण चित में भरे।
हो उच्चगोत्री मनुष चक्री, सुरपति के पद धरे।।
कुल जाति बल रूपादिमद से, मिलत है नीची गती।
अतएव मार्दव गुण बड़ा है, पूजते दे शिवगति।।४३।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु उत्तममार्दवधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मन वचन तन की कुटिलता से, योनि तिर्यक् की मिले।
मन वचन तन की सरलता से, ऋजू शिवगति भी मिले।।
विश्वासघात समान नहिं है, पाप जग में अन्य कुछ।
अतएव आर्जव धर्म उत्तम, पूजहूँ मैंं भक्ति युत।।४४।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु उत्तम-आर्जवधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सच हैं प्रशस्त सुवचन निंदा, पाप कलहादिक रहित।
हो जाय विपदा धर्म पर, ऐसा न सच बोले क्वचित।।
जिनकथित मेरू आदि हैं, अपमृत्यु भी हो लोक में।
यह सत्य वच सर्वोच्च जग में, पुजहूँ दे धोक मैं।।४५।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु उत्तमसत्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह लोभ पाप महान् जग में, सर्व पापों का जनक।
धन स्वास्थ्य इंद्रिय आदि का भी, लोभ है दुखकर प्रगट।।
गंगा-यमुना स्नान से नहिं, आत्म शुद्धी हो कभी।
तज लोभ उत्तम शौच से हो, स्वात्मशुचि पूजूँ अभी।।४६।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु उत्तमशौचधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रस और स्थावर सभीr, षट्काय जीवों पर दया।
पंचेंद्रियों औ चपल मन का, शास्त्रविधि से वश किया।।
संयम सकल या देशसंयम, देवगति ही देयगा।
जो भव्य धारेंगे इसे, उन जन्म दुःख हर लेयगा।।४७।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु उत्तमसंयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप बाह्य आभ्यंतर उभय, बारह प्रकार प्रसिद्ध हैं।
जो करें उपवासादि उनको, ऋद्धि सिद्धि प्रगट हैं।।
स्वाध्याय प्रायश्चित विनय, व्युत्सर्ग वैयावृत्य तप।
औ ध्यान आत्म विशुद्धि करते, इन बिना नहिं मुक्तिपद।।४८।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु उत्तमतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुचि रत्नत्रय का दान उत्तम, त्याग आगम में कहा।
आहार औषधि अभय ज्ञान, सुदान चउविध भी कहा।।
इन दान में खर्चा गया , धन कूप जलसम बढ़ेगा।
फल भी अनंते गुणा देकर, मोक्ष में ले धरेगा।।४९।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु उत्तमत्यागधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुछ भी न मेरा यह अकिंचन , धर्म सब सुख देयगा।
मुनिवर अकिंचन धर्म पाले, निजगुण अनंते ले सदा।।
जो भी अणुव्रत धारते , क्रम से ममत्व घटाइये।
त्रैलोक्य संपति के धनी बन, स्वात्मरस सुख पाइये।।५०।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु उत्तम-आकिंचन्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब नारियों को मातृवत , गिन ब्रह्मचारी जो बनें।
महिलायें भी ब्रह्मचारिणी, बन पूज्य होती जगत में।।
निज ब्रह्म में रति ब्रह्मचर्य , सुरेन्द्रगण भी नमत हैं।
इकदेश व्रत ब्रह्मचर्य से यहां, अनल भी जल बनत हैं।।५१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य—चौबोलछंद—
वैराग्य त्याग दो काष्ठ खंड से, निर्मित सुघड़ नसैनी है।
दशधर्मों की दश पैड़ी से युत, मोक्षमहल की सीढ़ी हैं।।
मुमुक्ष मुनिगण इससे चढ़कर, मुक्तिरमा ढिंग जाते हैं।
दशधर्मों को मैं नित पूजूँ, ये निज राज्य दिलाते हैं।।५।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु केवलिप्रज्ञप्तदशधर्माय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(भरत-ऐरावत-विदेह के ५ पूर्णार्घ्य)
शंभुछंद
पण भरतक्षेत्र आरजखंड में, जब चौथा काल वरतता है।
तब धर्मतीर्थ प्रकटित होता, पाँचवें अंत तक चलता है।।
इस हुंडावसर्पिणी के कारण, तिसरे के अंत से शुरू हुआ।
यह धर्म अनादिअनिधन भी, त्रयकालिक इसको जजूँ यहाँ।।६।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थपंच—भरतक्षेत्रसंबंधिभूतभाविवर्तमानकालिक—केवलिप्रज्ञप्तजिनधर्माय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पण ऐरावत आरजखंड में , चौथे व पांचवें कालों में।
जिनधर्म प्रगट होता फिर भी, नहिं इसका आदि अंत जग में।।
पर्याय दृष्टि से सादि सांत, यह धर्मचक्र मंगलकारी।
यह लोकोत्तम औ शरणभूत, इसको पूजूँ सब सुखकारी।।७।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थपंच—ऐरावतक्षेत्रसंबंधिभूतभाविवर्तमानकालिक—केवलिप्रज्ञप्तजिनधर्माय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेरू के पूरब दिश सोलह, सोलह विदेह के देश कहे।
उनमें पांचों कल्याणक या, दो तीन सहित जिनराज रहें।।
वह शाश्वत जैनधर्म रहता, नहिं अंतर कभी पड़े उनमें।
सीमंधर जिन वह पर विहरें, जिनधर्मसासता उसे जजें।।८।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थपंच—पूर्वविदेहक्षेत्रसंबंधिशाश्वतत्रयकालिककेवलि—प्रज्ञप्तजिनधर्माय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेरू के पश्चिम दिश सोलह, सोलह विदेह शाश्वत मानें।
वहां धर्मचक्र चलता संतत, भव्यों के भवभय दु:ख हाने।।
यह समवसरण में गंधकुटी, की तिसरी कटनी पर राजे।
इसमें हजार आरे चमकें , चक्री भी पूजें भव नाशें।।९।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थपंच—पश्चिमविदेहक्षेत्रसंबंधिशाश्वतत्रयकालिककेवलिप्रज्ञप्त—जिनधर्माय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ये कर्मभूमि इक सौ सत्तर, जिनधर्म सदा चलता रहता।
सब जीव दयामय धर्म और, यह स्याद्वाद से भी रहता।।
रत्नत्रय है धर्म व दशविध , धर्म कहा दशलक्षण मय।
मैं जजूँ नित्य पूर्णार्घ लिये, यह शाश्वत सौख्य सुधारसमय।।१०।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थएकशतसप्ततिकर्मभूमिसंजातजीवदयामयवस्तु—स्वभावस्वरूपरत्नत्रयरूपदशलक्षणधर्मस्वरूपत्रैकालिकजिनधर्मेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र—ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलि- प्रणीत-जिनधर्माय नम:। अथवा
ॐ ह्रीं श्री केवलिप्रणीतजिनधर्माय नम:।
—शंभुछंद—
तीर्थंकर प्रभु के श्री विहार में , धर्मचक्र आगे आगे।
चलता रहता जिससे भू पर, जीवों के दु:ख दारिद भागे।।
सर्वाण्ह यक्ष चारों दिश में , यह धर्मचक्र शिर पर धारें।
जिनधर्म अनादि औ अनंत, इसकी जयमाला भव टारें।।१।।
—पंचचामरछंद—
जयो जिनेन्द्र धर्म जीव की दया प्रधानमय।
जयो जिनेन्द्र धर्म वस्तु का स्वभाव शुद्धमय।।
जयो जिनेन्द्र धर्म जो क्षमादि दश प्रकार हैं।
जयो जिनेन्द्र धर्म तीन रत्न रूप सार है।।१।।
इसे धरें स्वयंवरा अनंत ऋद्धियाँ वरें।
हितंकरा अनंत सिद्धियां स्वयं पगे परें।।
शुभंकरा ध्वनी अनंत भव्य को सुखी करे।
समस्त जीव राशि को प्रियंवदा सुखी करे।।२।।
गणेश धारते इसे महा प्रमोद भाव से।
मुनीश धारते इसे बचें विभाव भाव से।।
सुरेश नित्य चाहते मनुष्य जन्म में मिले।
नरेश नित्य गावते यही धरम हमें मिले।।३।।
महान् धर्म इन्द्रवंद्य केवली प्रणीत है।
महान् धर्म चक्रिवंद्य सर्व मंगलीक है।।
महान् धर्म साधु पूज्य लोक में सुश्रेष्ठ है।
महान् धर्म भव्य को सदैव शर्ण देत है।।४।।
अनादि जैन धर्म ये समस्त सौख्य खान ही ।
अनादि जैन धर्म को मनीषि धारते यहीं।।
अनादि जैन धर्म से विनाशते करम सभी।
अनादि जैन धर्म के लिए नमोऽस्तु हो अभी।।५।।
अनादि जैन धर्म से बड़ा न कोई मित्र है।
अनादि जैन धर्म का दया हि मूल इष्ट है।।
अनादि जैन धर्म में सदैव चित्त को धरो।
अहो अनादि जैन धर्म ! मुझपे नित कृपा करो।।६।।
जिनेन्द्र धर्म से सुचक्रवर्ति संपदा मिले।
जिनेन्द्र धर्म से सुरेन्द्र की भि संपदा मिले।।
जिनेन्द्र धर्म से हि तीर्थनाथ संपदा मिले।
जिनेन्द्र धर्म से हि शीघ्र मुक्ति वल्लभा मिले।।७।।
दोहा
जन्म मरण व्याधी महा, उसके नाशन हेत।
धर्म महौषधि मैं नमूं, ‘ज्ञानमती’ शिव हेत।।८।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीतजिनधर्माय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—शेरछंद—
जो भव्य जिनधर्म का विधान करेंगे।
संपूर्ण रोग शोक अमंगल को हरेंगे।।
जिनदेवदेव भक्ति से निजसौख्य भरेंगे।
आर्हन्त्य ‘ज्ञानमती’ से ही सिद्ध बनेंगे।।१।।
इत्याशीर्वाद:।