-वसन्ततिलका-
जातिर्जरामरणमित्यनलत्रयस्य जीवाश्रितस्य बहुतापकृतो यथावत्।
विध्यापनाय जिनपादयुगाग्रभूमौ धारात्रयं प्रवरवारिकृतं क्षिपामि।।१।।
अर्थ —जीवों के आश्रित अर्थात् जीवों में होने वाली अत्यंत संताप को देने वाली ऐसी जन्म-जरा और मरण ये तीन प्रकार की अग्नि हैं, उन तीनों प्रकार की अग्नियों को यथावत् बुझाने के लिये श्री जिनेन्द्र भगवान के दोनों चरणों के अग्रभाग की भूमि में उत्तम जल से बनाई हुई तीन धाराओं का मैं क्षेप करता हूँ।
भावार्थ —जितने भर संसारी जीव हैं, उन जीवों को जिस प्रकार अग्नि अत्यंत संताप को देने वाली होती है, उसी प्रकार जन्म-जरा और मरण ये तीन अत्यंत संताप के देने वाले हैं इसलिये इन तीनों के विनाश के लिए श्री जिनेन्द्र भगवान के दोनों चरणों के अग्रभाग की भूमि में मैं उत्तम निर्मल जल से बनाई हुई तीन धाराओं का क्षेप करता हूँ अर्थात् तीन बार जल को चढ़ाता हूँ।।१।। जलम्।।
यद्वद्वचोजिनपतेर्भवतापहारि नाहं सुशीतलमपीह भवामि तद्वत्।
कर्पूरचंदनमितीव मयार्पितं सत्त्वत्पादपंकजसमाश्रयणं करोति।।२।।
अर्थ —जिस प्रकार भगवान के वचन समस्त संसार के संताप के हरण करने वाले हैं, उसी प्रकार अत्यंत शीतल भी मैं संसार के संतापों का हरण करने वाला नहीं हूँ इसीलिये ऐसा समझकर मेरे द्वारा चढ़ाया हुआ यह कपूर मिला हुआ चंदन हे भगवन्! आपके चरण-कमलों के आश्रय को करता है।
भावार्थ —यद्यपि संसार में चंदन भी अत्यंत शीतल पदार्थ है किंतु चंदन अपने को आपके वचनों के सामने अत्यंत शीतल नहीं समझता क्योंकि आपके वचन तो संसारसंबंधी समस्त संतापों के दूर करने वाले हैं किंतु चन्दन ऐसा नहीं करता इसीलिये हे भगवन्! मेरे द्वारा आपके चरण-कमलों में चढ़ाया हुआ यह कपूरमिश्रित चंदन आपके चरण-कमलों का आश्रय करता है।।२।।चंदनम्।।
राजत्यसौ शुचितराक्षतपुंजराजिर्दत्ताधिकृत्य जिनमक्षतमक्षधूर्तै:।
वीरस्य नेतरजनस्य तु वीरपट्टो वद्ध: शिरस्यतितरां श्रियमातनोति।।३।।
अर्थ —इन्द्रियरूपी जो धूर्त, उससे नहीं नष्ट किये गये ऐसे जो जिनेन्द्र भगवान हैं, उनको आश्रयकर दी गई अत्यंत निर्मल जो अक्षतों के पुंजों की पंक्ति है, वह अत्यंत शोभित होती है, सो ठीक ही है क्योंकि जो मनुष्य अत्यंत शूरवीर है, उसके मस्तक पर बंधा हुआ ही वीरपट्ट शोभा को प्राप्त होता है, डरपोक के मस्तक पर बंधा हुआ पट्ट शोभा को प्राप्त नहीं होता।
भावार्थ —जो मनुष्य शूरवीर है, उसके शिर पर बंधा हुआ वीरपट्ट जिस प्रकार शोभा को प्राप्त होता है, उस प्रकार डरपोक के शिर पर बंधा हुआ वीरपट्ट शोभा को नहीं प्राप्त होता, उसी प्रकार जो मनुष्य इन्द्रियरूपी धूर्तों से अक्षत हैं अर्थात् जो इन्द्रियों के वश में नहीं हैं, उन्हीं मनुष्यों को आश्रयकर दी हुई यह निर्मल अक्षतों के पुंजों की श्रेणी सुशोभित होती है किंतु जो मनुष्य इन्द्रियों के आधीन हैं, उन मनुष्य के लिये दी हुई अक्षतों के पुंजों की पंक्ति शोभित नहीं होती जिनेन्द्रदेव ने समस्त इन्द्रियों को वश में कर लिया है इसलिये उनको आश्रयकर दी हुई यह अक्षतों के पुंजों की पंक्ति शोभित होती है।।३।।अक्षतम्।।
साक्षादपुष्पशर एष जिनस्तदेनं संपूजयामि शुचिपुष्पसरैर्मनोज्ञै:।
नान्यं तदाश्रयतया किल यन्न तत्र तत्तत्र रम्यमधिकां कुरुते च लक्ष्मीम्।।४।।
अर्थ —ये जिनेन्द्र भगवान साक्षात् अपुष्पशर हैं अर्थात् मदन करके हैं इसीलिये मैं इन जिनेन्द्र भगवान का अत्यंत मनोहर ऐसे फूलों के हारों से पूजन करता हूँ किंतु भगवान से जो अन्य हैं, वे मदन कर रहित नहीं हैं, सहित ही हैं इसलिये फूलों के हारों से उनकी पूजा नहीं करता क्योंकि जो चीज जहाँ पर नहीं होती है, वही वहाँ पर मनोहर समझी जाती है और वह वहां पर अत्यंत शोभा को प्राप्त होती है किंतु जो चीज जहाँ पर होती है, वह वहाँ पर मनोहर नहीं होती और न वहाँ पर अत्यंत शोभा को ही धारण कर सकती है।
भावार्थ —यह नियम है कि जो चीज जहाँ पर नहीं होती है वही वहाँ पर मनोहर समझी जाती है तथा वहीं वहाँ पर शोभा को प्राप्त होती है किंतु जो चीज जहाँ पर होती है, वह वहां पर मनोहर नहीं समझी जाती और वह वहाँ पर शोभा को भी प्राप्त नहीं होती। श्रीजिनेन्द्र से भिन्न जितने भर देव हैं, उन सबके पास पुष्पशर हैं अर्थात् वे सब ‘‘मदन सहित’’ हैं इसलिये उनकी पुष्पों की मालाओं से मैं पूजन नहीं करता क्योंकि उनके चरणों में चढ़ाई हुई फूलों की माला न मनोहर ही समझी जा सकती है और न वहाँ पर शोभा को ही प्राप्त हो सकती हैं किंतु श्री जिनेन्द्र भगवान पुष्पशररहित (मदनरहित) हैं इसलिये उनके चरण- कमलों में चढ़ाई हुई फूलों की माला मनोहर होती है तथा शोभा को भी प्राप्त हो सकती है इसलिये श्री जिनेन्द्रदेव का ही मैं फूलों की मालाओं से पूजन करता हूँ।।४।।पुष्पम्।।
देवोयमिन्द्रियबलं प्रलयं करोति नैवेद्यमिन्द्रियबलप्रदखाद्यमेतत्।
चित्रं तथापि पुरत: स्थितमर्हतौऽस्य शोभां विभर्ति जगतो नयनोत्सवाय।।५।।
अर्थ —यह श्रीजिनेन्द्र देव तो समस्त इन्द्रियों के बल को नष्ट करते हैं और यह नैवेद्य इन्द्रियों के बल को बढ़ाने वाला है तथा खाने योग्य है तो भी श्री अर्हंत भगवान के सामने चढ़ाया हुआ यह नैवेद्य समस्त जगत के नेत्रों के उत्सव के लिये शोभा को धारण करता है, यह आश्चर्य है।
भावार्थ —संसार में यह देखने में आता है कि जो पुरुष जिस व्यसन वâा विरोधी होता है, यदि वह व्यसनों को उत्पन्न करने वाली वस्तु उसके सामने रख दी जावे तो उस वस्तु को देखकर वह मनुष्य अवश्य ही विकृत हो जाता है किंतु भगवान में यह आश्चर्य है कि नैवेद्य भगवान के सामने रक्खा हुआ भी भगवान को विकृत नहीं करता क्योंकि नैवेद्य इन्द्रियों के बल को बढ़ाने वाला है तथा सुस्वादु है और भगवान समस्त इन्द्रियों के बल को प्रलय करने वाले हैं इसलिये ऐसा नैवेद्य भगवान के सामने रखा हुवा लोगों के नेत्रों को उत्सव का करने वाला है।।५।। नैवेद्यम्।।
आरार्तिकं तरलवन्हिशिखं विभाति स्वच्छे जिनस्य वपुषि प्रतिविम्बितं सत्।
ध्यानानलो मृगयमाण इवावशिष्टं दग्धुं परिभ्रमति कर्मचयं प्रचंड:।।६।।
अर्थ —चंचल है अग्नि की शिखा जिसमें, ऐसी तथा श्री जिनेन्द्र भगवान के स्वच्छ शरीर में प्रतिबिम्बित हुई आरती ऐसी मालूम होती है मानो प्रचंडध्यानरूपी अग्नि, बचे हुवे कर्मों को भस्म करने के लिये जहाँ-तहाँ ढूँढती हुई भ्रमण करती है।
भावार्थ —उन्नत शिखा को धारण करने वाली जो आरती की ज्वाला भगवान के शरीर में प्रतिबिम्बित है, वह आरती की ज्वाला नहीं है किंतु भगवान की ध्यानरूपी अग्नि है तथा बचे हुवे समस्त घातिया कर्मों को नाश करने के लिये ढूँढती फिरती है, ऐसी मालूम होती है।।६।।दीपम्।।
कस्तूरिका रसमयीरिव पत्रवल्ली: कुर्वन् मुखेषु चलनैरिव दिग्बधूनाम्।
हर्षादिव प्रभुजिनाश्रयणेन वातप्रेङ्खद्वपुर्नटति पश्यत धूपधूम्रम्।।७।।
अर्थ —दिशारूपी स्त्रियों के मुख में कस्तूरी के रस से बनाई हुई पत्ररचना के समान पत्ररचना को करता हुआ प्रभु श्रीजिनेन्द्र भगवान के आश्रय से, पवन से कंम्पित है शरीर जिसका, ऐसा धूप का धुआं, हर्ष से मानों नृत्य ही कर रहा है, ऐसा मालूम होता है।
भावार्थ —धूप का धुआं सब जगह पर पैâल रहा है इससे तो यह मालूम पड़ता है मानो वह दिशारूपी स्त्रियों के मुखों पर कस्तूरी के रस से रची हुई पत्ररचना के समान पत्ररचना को कर रहा हो क्योंकि कस्तूरी के रस का रंग तथा धुआं का रंग एकसा ही होता है तथा निकलते समय पवन से कंपित होता है उससे ऐसा मालूम पड़ता है कि वह मानो श्रीजिनेन्द्र के आश्रय के करने से हर्ष से नृत्य ही कर रहा हो।।७।। धूपम्।।
उच्चै: फलाय परमामृतसंज्ञकाय नानाफलैर्जिनपतिं परिपूजयामि।
तद्भक्तिरेव सकलानि फलानि दत्ते मोहेन तत्तदपि याचत एव लोक:।।८।।
अर्थ —सबसे ऊँचे तथा उत्तम अमृत है संज्ञा जिसकी, ऐसे उस फल के लिये अर्थात् मोक्षफल के लिये मैं श्री जिनेन्द्र भगवान की भाँति-भाँति के अनेक प्रकार के फलों से पूजा करता हूँ यद्यपि श्रीजिनेन्द्र भगवान की भक्ति ही समस्त फलों को देने वाली है, तो भी लोक मोह से फलों की याचना करता ही है।
भावार्थ —यद्यपि भगवान की भक्ति में ही यह सामर्थ्य है कि जो मनुष्य भगवान की भक्ति को करता है, उसको उत्तमोत्तम समस्त प्रकार के फलों की प्राप्ति होती है तो भी मनुष्य मोह के वश होकर फलों की याचना करता है, उसी प्रकार मुझे भक्ति करने से अविनाशी सुख के भंडार मोक्षरूपी सुख की प्राप्ति हो सकती है, तो भी मैं मोह के वश होकर उस मोक्षरूप फल की प्राप्ति के लिये श्रीजिनेन्द्र भगवान की नाना प्रकार के फलों को चढ़ाकर पूजा करता हूँ।।८।। फलम्।।
पूजाविधिं विधिवदत्र विधाय देवे स्तोत्रं च संमदरसाश्रितचित्तवृत्ति:।
पुष्पाञ्जलिं विमलकेवललोचनाय यच्छामि सर्वजनशांतिकराय तस्मै।।९।।
अर्थ —श्रेष्ठ जो हर्ष, वही हुआ रस उससे आश्रित है चित्त की वृत्ति जिसकी, ऐसा मैं (पूजक) शास्त्रानुुसार भगवान की भलीभांति पूजा को करके तथा भली भांति स्तोत्र को भी पढ़कर के निर्मल केवलज्ञानरूपी नेत्र के धारण करने वाले और समस्त जीवों को शांति के देने वाले उन श्री जिनेन्द्र भगवान के लिये पुष्पों की अंजलि को समर्पण करता हूँ।।९।।पुष्पांजलि:।।
श्रीपद्मनंदितगुणौघ न कार्यमस्ति पूजादिना यदपि ते कृतकृत्यताया:।
स्वश्रेयसे तदपि तत्कुरुते जनोऽर्हन् कार्या कृषि: फलकृते न तु भूपकृत्यै।।१०।।
अर्थ —श्री पद्मनंदि आचार्य द्वारा गान किया गया है गुणों का समूह जिनका, ऐसे हे अर्हन् ! हे वीतराग ! यद्यपि आप कृतकृत्य हैं इसलिये उस कृतकृत्यपनेरूप हेतु से आपको पूजा आदिक से कुछ भी कार्य नहीं है तो भी लोक अपने कल्याण के लिये ही आपकी पूजा करता है क्योंकि खेती अपने कल्याणों की प्राप्ति के लिये ही की जाती है किंतु राजा के काम के लिये नहीं की जाती।
भावार्थ —जिस प्रकार किसान लोग खेती को अपने ही कल्याणों के लिये करते हैं, राजा के कल्याणों के लिये नहीं, उसी प्रकार हे समस्त गुणों के भंडार श्री जिनेन्द्र देव ! जो मनुष्य आपकी पूजा करते हैं, वे अपने कल्याणों के लिये ही करते हैं आपके लिये नहीं करते क्योंकि आप समस्त कर्मों को कर चुके हैं इसलिये कृतकृत्य हैं अत: आपको पूजन आदि कार्य से किसी प्रकार का कोई भी प्रयोजन नहीं है।।१०।।
इस प्रकार श्री पद्मनंदि आचार्यद्वारा विरचित श्री पद्मनंदिपंचविंशतिका
में पूजाष्टकनामक अधिकार समाप्त हुआ।