अथ बिम्बं जिनेन्द्रस्य, कर्तव्यं लक्षणान्वितम्।
ऋज्वायतसुसंस्थानं, तरूणांगं दिगम्बरम्।।१।।
अर्थ-जिनेन्द्र भगवान का प्रतिबिम्ब सरल, लंबा, सुंदर, समचतुरस्र संस्थान तरुण अवस्थाधारी, नग्न जातलिंगधारी सर्व लक्षणसंयुक्त करना योग्य है।।१।।
श्रीवत्सभूषितोरस्कं, जानुप्राप्तकराग्रजं।
निजांगुलप्रमाणेन, साष्टांगुलशतायुतम्।।२।।
अर्थ-श्रीवत्सचिन्ह से भूषित है वक्षस्थल जिनका और गोड़े पर्यंत (घुटने पर्यंत) लंबायमान हैं भुजा जिनकी, ऐसे निजांगुल के प्रमाण से १०८ भागप्रमाण जिनबिम्ब बनाना-बनवाना चाहिए।।२।।
मानं प्रमाणमुन्मानं, चित्रलेपशिलादिषु।
प्रत्यंगपरिणाहोध्र्वं, यथासंख्यमुदीरितम्।।३।।
अर्थ-जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा चित्र की, लेप की, शिला की, धातु की बनावें। उसके अंग-अंग की गोलाई तथा ऊँचाई यथाक्रम कहते हैं एवं उनका मान, प्रमाण, उन्मान भी कहते हैं।।३।।
न मृत्तिकाकाष्ठविलेपनादि-जातं जिनेन्द्रै: प्रतिपूज्यमुक्तम्।।
अर्थ-मृत्तिका, काष्ठ और विलेपन आदि की प्रतिमाएँ पूज्य नहीं हैं।
कक्षादिरोमहीनांगं, श्मश्रुरेखाविवर्जितम्।
ऊध्र्वं प्रलंबकं दत्वा, समात्यन्तं च धारयेत्।।४।।
अर्थ-कांख आदि स्थानों में रोमों से रहित तथा मूँछ-दाढ़ी के केश से रहित प्रारंभ से अंत तक प्रलंबक-ऊँचाई को लिए हुए प्रतिबिम्ब बनावें।।४।।
वृद्धत्वबाल्यरहितांगमुपेतशान्तिम्।
श्रीवृक्षभूषितहृदं नखकेशहीनम्।।
सद्धातुचित्रदृषदां समसूत्रभागं।
वैराग्यभूषितगुणं तपसि प्रशक्तम्।।
अर्थ-वृद्ध, बाल अंग से रहित, शांतमुद्रा, श्रीवृक्ष करके हृदय से सुशोभित, नख-केश रहित, धातु या चित्र-विचित्र पाषाण में वैराग्य से विभूषित तपश्चरण में तत्पर ऐसा जिनबिम्ब बनावें।।७।।
तालं मुखं वितस्ति स्या-देकार्थं द्वादशांगुलम्।
”तेन मानेन तद्बिम्बं, नवधाप्रविकल्पयेत्।।५।।
अर्थ-ताल, मुख, वितस्ति, द्वादशांगुल ये शब्द एकार्थवाची हैं। इस मान से जिनबिम्ब को नव भागों में कल्पित करना।।५।।
तालमात्रं मुखं तत्र-ग्रीवाधश्चतुरंगुला।
कंठतो हृदयं याव-दन्तरं द्वादशांगुलम्।।६।।
अर्थ-वहाँ १०८ भाग में १२ भाग मुख रखे, ४ भाग ग्रीवा रखे और ग्रीवा से हृदयपर्यंत १२ भाग रखना।।६।।
तालमात्रं ततो नाभि-र्नाभिमेढ्रान्तरं मुखं।
मेढ्र जान्वन्तरं तज्ज्ञै-र्हस्तमात्रं प्रकीर्तितम्।।७।।
अर्थ-हृदय से १२ भाग के अन्तर से नाभि रखे, नाभि से लिंग का मूल गुदापर्यंत १२ भाग पेडू रखे। लिंग के मूल से गोडे तक जंघा २४ भाग रखे।।७।।
वेदांगुलं भवेज्जानु, जानुगुल्फांतरं कर:।
वेदांगुलं समाख्यातं, गुल्फपादंतलान्तरम्।।८।।
अर्थ-४ भाग प्रमाण गोड़ा-घुटने रखे, घुटने से टिकूण्यां (?) तक २४ भाग का अन्तर रखे। टिकूण्यां से पादतलपर्यंत ४ भाग का अन्तर रखे। ऐसे ९ स्थान १०८ भाग प्रमाण में करना है।।८।।
द्वादशांगुलविस्तीर्ण-मायतं द्वादशांगुलम्।
मुखं कुर्यात् च केशान्तंत्रिधा तच्च यथाक्रमम्।।९।।
अर्थ-दाढ़ी से मस्तक के केश, पर्यंत १२ भाग चौड़ा और १२ भाग ऊँचा मुख करें। ऊँचाई के यथाक्रम से ३ विभाग करे। मुख के १२ भाग ऊँचाई में ३ भाग
वेदांगुलायतं कुर्यात्, ललाटं नासिका मुखं।
यो नारन्ध्रंयवाष्टाद्र्धं, घोणापाली चतुयुर्वा।।१०।।
अर्थ– ४ भाग प्रमाण ललाट ४ भाग प्रमाण नासिका ४ भाग प्रमाण ठोडी नासिका का रंध्र ४ यव अर्थात् आधा भाग करें। इसी प्रकार नासिका पाली अर्थात् रंध्र का ऊपरी भाग भी ४ यव प्रमाण करे।
किन्चिन्निम्नोन्नतं कुर्यात्, अग्रकोटिं च नामयेत्।
तिर्यगष्टांगुलायामं, भालमद्र्धेन्दुसन्निभं।।११।।
अर्थ-ललाट ४ भाग ऊँचा ८ भाग चौड़ा अर्ध चन्द्राकार बनावे। वह ललाट किन्चित् ऊँचा व नीचा दिखता हुआ बनावे और ललाट की अग्रकोटी नम्र अर्थात् झुकी हुई रखे।
केशस्थानं जिनेन्द्रस्य, प्रोक्तं पंचांगुलायतम्।
उष्णीषं चततो ज्ञेय-मंगुलद्वयमुन्नतम्।।१२।।
अर्थ-ललाट के ऊपर का केशस्थान ५ भाग रखे। उष्णीष भी ५ भाग रखे। ऊपर अर्थात् उसके ऊपर चोटी २ भाग क्रमरूप चूड़ा उतार रखे। ऐसे ललाट से चोटी तक १२ भाग रखे। पीछे ग्रीवा के केश से भी चोटी- पर्यंत १२ भाग रखे।
शंखौ वेदांगुलायामौ, भ्रूलते चतुरंगुले।
मध्यस्थूले कृशाग्रे च, स्वारोपितधनुर्निभे।।१३।।
अर्थ-मस्तक के दोनों पार्श्व में शंख नाम दो हाड ४ भाग चौड़ा रखे। भंवारे-भूलता ४ भाग लंबे मध्य में मोटा दोनों अग्र में कृश चढ़ाये हुए धनुष के आकार के शोभनीक बनावे।।१३।।
पादांगुलं प्रविस्तीर्णे-ष्वद्र्धांगुलमथोत्तरम्।
भ्रूचापमध्यकेशांतस्यांतरं द्व्यंगुलं मतम्।।१४।।
अर्थ-भंवारा १ (१/२) भाग चौड़ा, आदि में, पाव भाग चौड़ा अन्त में रखे, बाकी शोभनीक बनावें। दोनों भंवारे के मध्य में केशों का अंतर २ भाग रखे।
करवीरयुतायाम-स्त्र्यंगुलो नेत्रयोर्भवेत्।
केवलो द्व्यंगुल: कुर्यात्, नेत्रे पद्मदलाकृती।।१५।।
अर्थ-नेत्र की लम्बाई सफेदी सहित ३ भाग करना तथा केवल सफेदी का प्रमाण द्व्यंगुल अर्थात् २ भाग करें। दोनों ही नेत्र कमलपुष्प के समान मनोहर करें।।१५।।
नेत्रे मध्येंगुलं व्यास-स्त्रिभाग: कृष्णतारिका।
नेत्राध: पक्ष्मणी यावद्, भ्रूमध्यं त्र्यंगुलं मतम्।।१६।।
अर्थ-नेत्र की सफेदी के मध्य में श्यामतारा १ भाग रखें। इसके बीच तारिका जो छोटी कनिका गोल १ भाग का तीसरा हिस्सा चौड़ी रखें। भृकुटी के मध्य से नीचे की वांफणी तक ३ भाग चौड़े नेत्र रखें।।१६।।
अन्तरं नाशिकामूले, नेत्रयोद्र्व्यंगुलं मतम्।
उत्तरोष्ठोऽपि तावांस्तु, तथैकांगुलमुच्छ्रित:।।१७।।
अर्थ-नासिका के मूल में दोनों के बीच दो भाग का अन्तर रखना। ऊपर का ओंठ २ भाग लंबा १ भाग ऊँचा रखें।।१७।।
मुखस्य विवरं तिर्यग्, निर्दिष्टं चतुरंगुलम्।
अद्र्धांगुलायता गोजी, त्रिभागांगुलविस्तृता।।१८।।
अर्थ-मुख का फाड़ ४ भाग लंबी रखे, ऊपर के ओंठ के नासिका की नीचे की गोजी अर्थात् प्रणाली अद्र्ध भाग लंबी और एक भाग का तीसरा हिस्सा चौड़ी रखे।।१८।।
एकांगुलप्रविस्तीर्ण-स्तथैकांगुलमुच्छ्रित:।
आयतो द्व्यंगुलस्तज्ज्ञै-रधर: परिकीर्तित:।।१९।।
अर्थ-नीचे का ओंठ १ अंगुल मोटा, १ अंगुल चौड़ा अर्थात् (और) २ अंगुल लंबा रखें।।१९।।
स्रग्वणी त्र्यंगुलायामा, विज्ञेयाद्र्धांगुलां पृथु:।
चिबुकं द्व्यंगुलं ज्ञेयं विस्तारायामतस्तथा।।२०।।
अन्तरं हनुमूलात्स्याच्चिबुकस्यांगुलाष्टकं।
हनु द्वयस्य विस्तारो द्व्यंगुलं स्यात्पृथक् पृथक्।।२१।।
द्व्यंगुलं च पृथुक्त्वेन दीर्घत्वं चतुरंगुलं।
कर्णयोर्लम्बितौ पाशा-वंगुलानां चतुष्टयं।।२२।।
अद्र्धांगुलं प्रविस्तीर्णौ, कुर्यात् शोभान्वितौ शुभौ।
कर्णपूरोंऽगुलाद्र्धं स्यात्, पादं कर्णोद्र्धवर्तिका।।२३।।
कर्णसंकुलिकारंध्रं, साद्र्धांगुलमुदीरितं।
कर्णनेत्रान्तरं साद्र्ध-मंगुलानां चतुष्टयम्।।२४।।
कर्णौ च षड्भागयुतौ प्रलंबौ, वेदांगुलव्यासयुतौ तदन्त:।
छिद्रे तु नाली यवनालिकाभा, त्वद्र्धांगुलं चान्तरमुच्यतेऽथ।।
अर्थ-कर्ण ६ भाग लंबे ४ भाग चौड़े करे, बीच में छिद्र की नाली यव की नाली समान करें, इसका अन्तर अद्र्धांगुल प्रमाण करे।।
उच्छ्रयस्य समत्वेन, कर्णवत्र्तिर्नियोजयेत्।
तथा नेत्रान्ततुल्येन, कर्णपूरौ सरन्ध्रकौ।।२५।।
अर्थ-नेत्रों की ऊँचाई अर्थात् भंवारे की ऊँचाई के सीध में कर्णवर्तिका बनावे। वैसे ही नेत्रों के अन्त्यभाग की सीध में छिद्र रहित कर्णपूर बनावे।।२५।।
करवीरसमं कुर्यात्-नासापुटनिबंधनम्।
तस्य पर्यंततुल्येन, तारिके विनियोजयेत्।।२६।।
अर्थ-करवीर अर्थात् नेत्र की सफेदी के समान नासापुट की रचना करें। नासिका के पर्यंत भाग के तुल्य तारिका बनावे।।२६।।
अष्टादशांगुलं ज्ञेयं, कर्णयो: पूर्वमन्तरम्।
चतुर्दशापरे भागे, द्वात्रिंशन्मिलितं भवेत्।।२७।।
अर्थ-दोनों के कर्णों के अन्तर १८ भाग अगाड़ी (आगे) से रखें व चौदह भाग पिछाड़ी (पीछे) से रखें, ऐसे दोनों मिलकर ३२ भाग होते हैं।।२७।।
शिरस: परिणाहोऽयं, ग्रीवाया द्वादशांगुल:।
विस्तारकूप्र्परस्योक्त:, सत्र्यंशांगुलपंचकम्।।२८।।
अर्थ-ग्रीवा का विस्तार १२ भाग रखे, कोहनी का विस्तार ५ भाग (पौने छह भाग) रखें।।२८।।
परिणाह: पुनस्तस्य, विज्ञेय: षोडशांगुल:।
कुर्यात् कूर्पतो हानिं, मणिबंधावधिं क्रमात्।।२९।।
अर्थ-कोहनी का परिधि १६ भाग की रखें, कोहनी से पौंछा (पहुँचा) तक क्रम से हानिरूप चूड़ा उतार रखें।।२९।।
पंचांगुलं त्रिभागोनं, प्रवाहो मध्यविस्तर:।
परिणाहो भवत्तस्य, त्वंगुलानि चतुर्दश।।३०।।
अर्थ-कोहनी के नीचे भुजा मध्य १ भाग का त्रिभाग घाटि (कम) ५ भाग रखें। परिधि चौदह (१४) भाग करें।।३०।।
मणिबंधस्य विस्तारो, विज्ञेयश्चतुरंगुल:।
परिणाह: पुनस्तस्य, कीर्तितो द्वादशांगुल:।।३१।।
अर्थ-पोंछया (पहुँचा) का विस्तार ४ भाग रखे। परिधि १२ अंगुल (भाग रखें।।३१।। अर्थात् यहाँ परिधि तिगुनी है।
तस्य मध्यांगुलाग्रस्य, चांतरं द्वादशांगुलं।
अंगुली मध्यमा हस्ते, ज्ञेया पञ्चांगुलायता।।३२।।
अर्थ-पोंछा (कलाई) से मध्य अंगुली का अग्रभाग तक १२ भाग रखे। हाथ के मध्य की अंगुली ५ भाग रखे।।३२।।
अनामिकापि तत्रैव, हीना मध्याद्र्धपर्वणि।
अनामिका समा कार्या, स्वायामेन प्रदेशिनी।।३३।।
अर्थ-अनामिका और तर्जनी दोनों अंगुली मध्यमा से अद्र्ध पर्व घाटि (कम) रखे।।३३।।
कनीयस्यापि विज्ञेया, पर्वहीना त्वनामिका।
मणिबंधात् कनिष्ठाया, मूलं पंचांगुलं भवेत्।।३४।।
अर्थ-कनिष्ठा-अंगुली अनामिका से १ पोरवा घाटि-कम रखे। कलाई (पौंछा) से कनिष्टिका के मूल के ५ भाग अंतर रखे।।३४।।
तर्जनी मध्यमा नाम, मानतोऽद्र्धांगुला मता।
कनिष्ठिकाविशेषोन-त्रिगुणापरिणाहत:।।३५।।
अर्थ-तर्जनी तथा मध्यमा के प्रमाण से कनिष्ठा मोटाई में अद्र्धभाग कम रखें, चौड़ाई से त्रिगुणी करें।।३५।।
आयामतो विनिर्दिष्टा-वंगुष्टौ चतुरंगुलौ।
विस्तारेण समाख्यातौ, साधिकं चैकमंगुलम्।।३६।।
अर्थ-अंगूठा ४ भाग लंबा रखें, विस्तार १ भाग से कुछ अधिक रखें।।३६।।
अंगुष्ठको द्विपव्र्व: स्याद्, वेष्टनं चतुरंगुलं।
समांसला: प्रकर्तव्या:, शेषांगुल्यस्त्रिपर्विका:।।३७।।
अर्थ-अंगूठे के दो पर्व करे, गोलाई ४ भाग करे, बाकी चारों ही अंगुलियों के तीन-तीन पर्व करें।।३७।।
तासां पर्वाद्र्धमानेन, नखमानं प्रकीर्तितम्।
आत्मीयांगुलमानेन, विज्ञेयास्सम पर्विका:।।३८।।
अर्थ-पाँचों ही अंगुलियों के अद्र्धपर्व समान नख रखें, अपने अंगुल के समान करके सब अंगुली सम पर्व बनावें।।३८।।
सप्तांगुलायतं हस्त-तलं पञ्चैव विस्तृतम्।
तत्रैव च परिज्ञेयो, विज्ञेयो द्वादशांगुल:।।३९।।
अर्थ-हथेली ७ भाग लंबी, ५ भाग चौड़ी रखें। इसकी मध्य गोलाई १२ भाग रखें।।३९।।
अंगुष्टक प्रदेशिन्यो-रन्तरं द्व्यंगुलं भवेत्।
बाहुदण्डौ च गोपुच्छौ, वृत्तौ संलीनसन्धिकौ।।४०।।
अर्थ-अंगूठे के मूल में और तर्जनी के मूल में २ भाग का अन्तर रखें। भुजा गोल संधि जोड़ से मिली हुई गोपुच्छ सदृश करें।।४०।।
करौ करिकराकारौ, प्रलंबौ जानुसंगतौ।
नातिनिम्नौ न चोत्तानौ, निश्छिद्रौ मांसलौ समौ।।४१।।
अर्थ-दोनों हाथ हाथी के सूंढ के आकार के लंबे गोड़े से (जानु से) मिले हुए, न तो अत्यंत नीचे न ऊँचे छिद्र रहित पुष्ट गोल करें।।४१।।
सुश्लिष्टांगुलिकौ स्निग्धौ, लालित्योपचयान्वितौ।
शंखचक्रार्कपद्यादि – सल्लक्षणसमन्वितौ।।४२।।
अर्थ-अंगुलियों को मिलापयुक्त, स्निग्ध, ललित, उपचयसंयुक्त शंख, चक्र, सूर्य, कमल आदि उत्तम चिन्हों से सहित बनावें।।४२।।
वितस्तिद्वयविस्तीर्ण-मुर: श्रीवत्सलक्षितम्।
पृष्टोर: परिणाह: स्यात्, स षट्पंचाशदंगुल:।।४३।।
अर्थ-वक्षस्थल २४ भाग चौड़ा रखें, उसके मध्य श्रीवत्स का चिन्ह बनावें। पीठ सहित वक्षस्थल की परिधि ५६ भाग रखें। भुजा तक ३६ भाग चौड़ी मय भुजा के वक्षस्थल करें। इस खवे से उस खवे तक ३६ भाग करें अर्थात् इस कंधे से उस कंधे तक ३६ भाग रखें।
स्तनांतरं वितस्ति: स्याद्, द्व्यंगुलौ स्तनचूचकौ।
चुच्चयोरुन्नतौ किन्चिद्, विंदू पादांगुलप्रमौ।।४४।।
अर्थ-दोनों स्तन के मध्य १२ भाग का अन्तर रखें। स्तन की चूँची २ भाग चौड़ी रखें। चूंची के मध्य की वींटली पाव (१/४) भाग प्रमाण करें।।४४।।
मुखरंध्रांगुलव्यासं, शंखनाभिसमाकृतिम्।
गंभीरां दक्षिणावर्तां, कुर्यान्नाभिं मनोहराम्।।४५।।
अर्थ-नाभि का मुख १ भाग चौड़ा गोल, शंख के मध्य भाग समान ऊँडा (गहरा) दक्षिणावर्त मनोहर करें।।४५।।
नाभिमण्डलमध्यस्य, मेढ्रमूलस्य चान्तरम्। अष्टांगुलं समुद्दिष्टं, रेखाष्टकमनोहरम्।।४६।।
अर्थ-नाभि के मध्य से लिंग का मूल ८ भाग का रखें। उन आठ भाग में ८ रेखा करें।।४६।।
अष्टादशांगुला तत्र, विस्तरेण कटिर्भवेत्।
हस्तद्वयं च संपूर्णं, तस्या: स्यात्परिवेष्टनम्।।४७।।
अर्थ-कटि-कमर १८ भाग चौड़ी रखें, जिसकी परिधि अड़तालीस (४८) भाग की करें।।४७।।
स्फिगष्टांगुलविस्तीर्णं, त्रिकमुच्चैरनाहत:१।
(तनाहत:) कुकुंदरौ नितम्बस्थौ, सव्यावत्र्तौ षडंगुलौ।।४८।।
अर्थ-बैठक का हाड़ त्रिकोण ८ भाग लंबा करें, कमर के पीछे के भाग में कूला गोल ६ भाग प्रमाण बनावें।।४८।।
कंधरादंतरं यावद्, गुदं षट्त्रिंशदंगुलम्।
दीर्घ: पृष्टास्थिवंशश्च, विस्तृत: सोऽद्र्धमंगुलम्।।४९।।
अर्थ-स्कंध के सूत से गुदापर्यंत ३६ भाग लंबा आधा भाग मोटा बांसे का हाड़ रखें।।४९।।
द्व्यंगुलो मेढ्रविस्तारो, मूले मध्येंऽगुलं भवेत्।
अग्रेंऽगुलचतुर्भागो, व्यासान्नाहस्त्रिसंगुण:।।५०।।
अर्थ-लिंग का विस्तार मूल में २ भाग, मध्य में १ भाग, अग्र में चतुर्थ भाग रखें, जिसकी गोलाई त्रिगुणी करें।।५०।।
लिंगं पंचांगुलायामं द्व्यंगुला तततिर्भवेत्।।
अर्थ-लिंग ५ भाग लंबा और २ भाग चौड़ा बनावें।।
समांसलौ समौ कायौ, पोत्रौ पंचांगुलायतौ।
आम्रास्थिसन्निभौ युक्तौ, विस्तृतौ चतुरंगुलौ।।५१।।
अर्थ-दोनों पोता पुष्ट व समान ५ भाग लंबे ४ भाग चौड़े आम की गुठली के समान बनावें।।५१।।
वितस्तिद्वितयायाम-मूरूयुग्मं समांसलम्।
एकादशप्रविस्तीर्णं, मूले मध्ये नवांगुलम्।।५२।।
अर्थ-२४ भाग लंबे दोनों जंघा पुष्ट करें, ११ भाग मूल में व ९ भाग मध्य में विस्ताररूप करें।।५२।।
सप्तजानुद्व्येनाह:, स्वकव्यासस्त्रिसंगुण:।
गूढे वृत्ते सुसंश्लिष्टे, मांसले जानुनी समे।।५३।।
अर्थ-७ भाग गोड़े के पास चौड़ा करें, इनकी परिधि तिगुनी करें। दोनों गोड़े समान, गोल, जंघा से मिले हुए पुष्ट बनावें।।५३।।
ततो जंघाद्वयें वृत्तं, द्वितस्तिद्वितयायत:।
जंघाया: पिंडिकामध्ये, विस्तार: स्यात् षडंगुल:।।५४।।
अर्थ-गोड़ा के नीचे जंघा अर्थात् पींडी गोल २४ भाग लंबी करें, जंघा के मध्य पींडी का विस्तार ६ भाग प्रमाण करें।।५४।।
पंचांगुलस्त्रिभागोनो, गुल्फदेशे च विस्तर:।
उभयो: परिधीज्र्ञेयौ, स्वविस्तारात् त्रिसंगुणौ।।५५।।
अर्थ-टिकूण्यां-…….के पास ५ भाग १ भाग का त्रिभाग घाटि-कम ५ भाग रखें, इनकी गोलाई विस्तार से त्रिगुणी करें।।५५।।
अंगुलं गुल्फविस्तारस्त्र्यंगुल: परिधिर्भवेत्।
पादौ चतुर्दशायामौ, गूढगुल्फौ सुलक्षणौ।।५६।।
अर्थ-दोनों टिकूण्यां १ भाग रखें, इनकी गोलाई विस्तार से तिगुनी करें, चरण पगथली एड़ी से अंगूठा तक १४ भाग लंबी शुभलक्षण सहित करें।।५६।।
गुल्फादंगुष्टकाग्रंच, विज्ञेयं द्वादशांगुलं।
गुल्फयो: पश्चिमे भागे, द्व्यंगुला पाष्र्णिका भवेत्।।५७।।
अर्थ-टिकूण्यां से अंगूठा का अग्रभागपर्यंत १२ भाग रखें, टिकूण्यां के पीछे एड़ी २ भाग रखें। इनकी गोलाई विस्तार में त्रिगुणी करें।।५७।।
तलं निम्नोन्नतं तस्या, द्व्यंगुलं विस्तृतं मतम्।
कार्यं समांसलं तस्य, परिणाह: षडंगुल:।।५८।।
अर्थ-एड़ी नीचे से दोय २ भाग, बगल में किन्चित् न्यून, मध्य में ऊँची गोल रखें, जिसकी गोलाई ६ भाग रखें।।५८।।
अंगुष्टस्त्र्यंगुलायामस्तावती च प्रदेशिनी।
षोडशाष्टाष्टभागेन, शेषा हीनास्त्वनुक्रमात्।।५९।।
अर्थ-अंगुष्ट और प्रदेशिनी ३ भाग लंबी करें, प्रदेशिनी से मध्यमा १ भाग का सोलहवाँ भाग छोटी करें। मध्यमा से अनामिका १ भाग का आठवाँ भाग छोटी करें, अनामिका से कनिष्टिका-कनिष्ठा भी १ भाग का आठवाँ भाग छोटी रखें।।५९।।
अंगुलं द्वितयं मध्ये, विस्तारोंऽगुष्टकस्य च।
मूलेऽग्रे न्यूनक: किन्चिच्छेषांगुल्योंगुल: प्रमा:।।६०।।
अर्थ-अंगुष्ट-अंगूठा मध्य में २ भाग चौड़ा रखें, मूल में तथा मध्य में किन्चित् न्यून करें। बाकी चारों ही अंगुली १ भाग चौड़ी रखें।।६०।।
सर्वासां त्रिगुणो नाहो, यथा शोभं निरूपयेत्।
पर्वद्वितयमंगुष्टे, शेषांगुल्यस्त्रिपर्विका:।।६१।।
अर्थ-इन सबकी गुलाई-गोलाई शोभनीक त्रिगुणी करे, अंगुष्ट-अंगूठे में २ पर्व करें। बाकी अंगुलियों में (३-३) तीन-तीन पर्व करें।।६१।।
अंगुलं नख मंगुष्टे, शेषाणां तद्दलप्रमं।
किंचिन्नयूनं कनिष्टान्त-मुत्तरोत्तरमीरितम्।।६२।।
अर्थ-अंगूठे का नख १ भाग रखें। प्रदेशिनी का नख १ भाग का आधा भाग रखें। बाकी तीन अंगुलियों का नख अनुक्रम से किंचित्-किंचित् न्यून करें।।६२।।
तले पादस्य विस्तार:, पाष्ण्र्या: स्याच्चतुरंगुल:।
मध्ये पंचांगुलस्तस्य, पादस्यान्ते षडंगुलम:।।६३।।
अर्थ-पादतल एडी के पास ४ भाग, मध्य में ५ भाग एवं अन्त में ६ भाग चौड़ा है।।६३।।
पादयुग्मं सुसंश्लिष्टं, कार्यं निश्छिद्रसुस्थितम्।
शंखचक्रांकुशांभोज-यवच्छत्राद्यलंकृतम्।।६४।।
अर्थ-चरणयुगल पुष्ट इकसार-एकसदृश छिद्ररहित, सुंदर शंख, चक्र, अंकुश, कमल, यव, छत्र आदि शुभ चिन्हों से युक्त करें।।६४।।
ऋज्वायतस्य रूपस्य, त्वेष मार्गो निरूपित:।
शेषस्थानविकल्पेषु, यथाशोभं विकल्पयेत्।।६५।।
अर्थ-इस प्रकार कायोत्सर्ग प्रतिमा बनावें। बाकी के उपांग शोभनीक पुष्ट करें।।६५।।
कायोत्सर्गास्थितस्यैव, लक्षणं भाषितं बुधै:।
पर्यंकस्थस्य चाप्येवं, किन्तु किंचिद् विशिष्यते।।६६।।
अर्थ-इस प्रकार कायोत्सर्ग प्रतिमा के लक्षण हैं। पद्मासन के भी कितने ही भाग ये ही हैं, किन्तु जहाँ भेद है सो-उसे विशेषरूप से कहते हैं।।६६।।
ऊध्र्वस्थिस्य मानाद्र्ध-मुत्सेधं परिकल्पयेत्।
पर्यंकमपि तावत्कं, तिर्यगायामसंस्थितम्।।६७।।
अर्थ-कायोत्सर्ग प्रतिमा के १०८ भाग किये थे, उनके आधे ५४ भाग पद्मासन प्रतिमा के करना। पलोटी-पलाथी दोनों गोड़ेपर्यंत चौड़ी-चौड़ाई रखें। आयाम-चौड़ाई तिरछी गोडे के बीच से खवे के बीच तक (कंधे के बीच तक) नापें। पलोठी के ऊपर से शिर के केश तक ५४ भाग नापें। भावार्थ-चारों भाग ५४ नापें, शोभनीक बनावें। प्रक्षाल के जल निकलने का स्थान चरण चौकी के ऊपर रखें। लिंग ८ भाग नीचा नाभि से बनावें (अर्थात् नाभि से ८ भाग नीचे लिंग बनावें) तब पानी का निकास चरण चौकी के नीचे आवेगा। लिंग के मुख के नीचे कर पानी का निकास करना, तब प्रतिमा शुद्ध बनेगी।।६७।।
बाहुयुग्मं तरुद्देशे, भासयेच्चतुरंगुलम्।
प्रकोष्टात्कूप्र्परं यावद्, द्व्यंगुलं वर्धयेत्सदा।।६८।।
अर्थ-दोनों हाथों की अंगुली के और पेडू के अन्तर ४ भाग का रखें। पौंछा-पहुँचा से कोहनीपर्यंत यथाशोभित हानिरूप अन्तर रखें। कोहनी के पास २ भाग का उदर से अन्तर रखें।।६८।।
प्रातिहार्याष्टकोपेतं, संपूर्णावयवं शुभम्।
भावरूपानुविद्धांगं, कारयेद् बिम्बमर्हत:।।६९।।
अर्थ-ऐसी कायोत्सर्ग तथा पद्मासनरूप प्रतिमा अरिहंत की आठ प्रातिहार्य युक्त सम्पूर्ण अवयवों से पूर्ण शुभ भावों से युक्त बनावें।।६९।।
प्रातिहार्यं विना शुद्धं, सिद्धबिम्बमपीदृशम्।
सूरीणां पाठकानां च, साधूनां च यथागमम्।।७०।।
अर्थ-पूर्वोक्त लक्षण संयुक्त, प्रातिहार्यरहित जो हैं, वे सिद्ध प्रतिमा है। आचार्य, उपाध्याय और साधुओं की प्रतिमाएँ आगम के अनुसार सुन्दर बनावें।।७०।।
यक्षाणां देवतानां च, सर्वालंकारभूषितम्।
सुवाहनायुधोपेतं, कुर्यात् सर्वांगसुन्दरम्।।७१।।
अर्थ-ऐसे ही यक्षों की, देवता आदि की सम्पूर्ण अलंकार से भूषित, सवारी, शस्त्र-आयुध से सहित सर्वांग सुन्दर प्रतिमाएँ बनावें।।७१।।
लक्षणैरपि संयुक्त्तं, बिम्बं दृष्टिविवर्जितम्।
न शोभते यतस्तस्मात्, कुर्याद् दृष्टिप्रकाशनम्।।७२।।
अर्थ-सम्पूर्ण लक्षणों से संयुक्त भी जिनबिम्ब दृष्टि से रहित शोभा नहीं पाते हैं। इसलिए दृष्टि का प्रकाशन करना चाहिए।।७२।।
नात्यन्तोन्मीलितास्तब्धा, न विस्फारितमीलिता।
तिर्यगूध्र्वमधोदृष्टिं, वर्जयित्वा प्रयत्नत:।।७३।।
अर्थ-न तो दृष्टि अत्यन्त उघड़ी-खुली करें, न मिची हुई करें, न तिरछी, न ऊँची-ऊपर को देखती हुई, न नीचे को देखती हुई करें, प्रत्युत् अद्र्धोन्मीलित, शांतिरूप दृष्टि करें।।७३।।
नासाग्रनिहिता शांता, प्रसन्ना निर्विकारिका।
वीतरागस्य मध्यस्था, कर्तव्या चोत्तमा तथा।।७४।।
अर्थ-नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि पड़ती हुई, शांत, प्रसन्न, निर्विकार, मध्यस्थ दृष्टि वाली ऐसी जिनप्रतिमा बनावें।।७४।।
अर्थनाशं विरोधं च, तिर्यग्दृष्टिर्भयं तथा।
अधस्तात्पुत्रनाशं च, भार्यामरणमूध्र्वगा।।७५।
अर्थ-यदि तिरछी दृष्टि है तो अर्थनाश, विरोध और भय होगा। यदि अधोमुख-नीची दृष्टि है, तो पुत्र का नाश होगा और यदि ऊँची दृष्टि होगी तो भार्या का नाश होगा।।७५।।
शोकमुद्वेगसंतापं, स्तब्धा कुर्याद् धनक्षयम्।
शान्ता सौभाग्यपुत्रार्था, शांतिवृद्धिप्रदा भवेत्।।७६।।
अर्थ-स्तब्ध अर्थात् सम्मुख दृष्टि होवे, तो शोक, उद्वेग, संताप और धन का क्षय होता है। शान्त दृष्टि होवे तो सौभाग्य, पुत्र, धन और शांति की वृद्धि होती है।।७६।।
सदोषा र्चा न कर्तव्या, यत: स्यादशुभावहा।
कुर्याद् रौद्रा प्रभोर्नाशं, कृशांगी द्रव्यसंक्षयम्।।७७।।
अर्थ-सदोष प्रतिमा नहीं बनाना, क्योंकि वह अशुभ को देने वाली है। यदि रौद्ररूप प्रतिमा है, तो राजा का नाश करती है और दुर्बल अंगयुक्त होवे, तो द्रव्य का नाश करती है।।७७।।
संक्षिप्तांगी क्षयं कुर्यात्, चिपिटा दु:खदायिनी।
विनेत्रा नेत्रविध्वंसं, हीनवक्त्रात्वशोभिनी।।७८।।
अर्थ-सूक्ष्म अंगधारक प्रतिमा होवे तो क्षय करती है, चिपटा मुख की होवे तो दु:ख को देने वाली होगी, नेत्र रहित होगी तो नेत्र विध्वंस करेगी और छोटे मुख की होगी तो अशोभित होगी अथवा शोक को कराने वाली होगी।
व्याधिं महोदरी कुर्यात्, हृद्रोगं हृदये कृशा।
अंशहीनानुजं हन्यात्, शुष्कजंघा नरेन्द्रहा।।७९।।
अर्थ-बड़े उदर की होवे तो उदर रोग होगा, कृश हृदय की होगी तो हृदयरोग होगा, कंधा हीन होवे तो भाई का नाश होगा और यदि शुष्क जंघा होगी तो नरेन्द्र का नाश होगा।।७९।।
पादहीना जनं हन्यात्, कटिहीना च वाहनम्।
ज्ञात्वैवं कारयेज्जैनीं, प्रतिमा दोष वर्जिताम्।।८०।।
अर्थ-यदि पादहीन है, तो प्रजा की हानि होगी, कटि-कमर हीन है-कमर कृश है, तो वाहन का नाश होगा, इस प्रकार दोषों को जान करके दोषवर्जित जिनप्रतिमा बनावें।।८०।।
सामान्येनेदमाख्यातं, प्रतिमालक्षणं मया।
विशेषत: पुनज्र्ञेयं, श्रावकाध्ययने स्टफुम्।।८१।।
अर्थ-सामान्यरूप से मैंने यह प्रतिमा के लक्षण कहे हैं, विशेषरूप से श्रावकाचार आदि ग्रंथों में स्पष्टतया वर्णित है, वहाँ से जानना चाहिए।।८१।।