(श्री गौतमस्वामी विरचित-चैत्यभक्ति से)
कृत्रिम-अकृत्रिम जिनप्रतिमा वन्दना
श्री गौतमगणधर देव चैत्यभक्ति में तीनों लोकों की अकृत्रिम और कृत्रिम जिनप्रतिमाओं की वंदना कर रहे हैं—
अकृतानि कृतानि चाप्रमेयद्युतिमन्ति द्युतिमत्सु मन्दिरेषु।
मनुजामरपूजितानि वंदे प्रतिबिम्बानि जगत्त्रये जिनानाम्।।११।।
पद्यानुवाद (गणिनी ज्ञानमती)
द्युतिकर जिनगृह में अकृत्रिम, कृत्रिम अप्रमेय द्युतिमान।
नर सुर पूजित भुवनत्रय के, सब जिन बिंब नमूँ गुणखान।।११।।
अर्थ-तीन जगत में विद्यमान प्रचुरप्रभा से समन्वित मन्दिरों में स्थित मनुष्यों और देवों द्वारा पूज्य, प्रचुरतर प्रभायुक्त कृत्रिम और अकृत्रिम जिनेन्द्र के प्रतिबिंबों को प्रणमन करता हूँ ।।११।।
द्युतिमंडलभासुराङ्गयष्टी: प्रतिमा अप्रतिमा जिनोत्तमानाम्।
भुवनेषु विभूतये प्रवृत्ता वपुषा प्राञ्जलिरस्मि वन्दमान:।।१२।।
द्युतिमंडल भासुर तनु शोभित, जिनवर प्रतिमा अप्रतिम हैं।
जग में वैभव हेतु उन्हें, वंदूँ अंजलिकर शिर नत मैं।।१२।।
अर्थ-जो तीन भुवन में विद्यमान हैं जिनका शरीर-यष्टि प्रभामंडल से दैदीप्यमान है, ऐसी अर्हंतों की अनुपम प्रतिमाओं को वन्दना करने वाला मैं पुण्य की प्राप्ति के निमित्त शरीर से अंजलि बांधता हूँ अर्थात् ऐसी प्रतिमाओं को हाथ जोड़कर नमस्कार करता हूँ।।१२।।
तीर्थंकर भगवंतों की प्रतिमायें आयुध-गदा आदि से रहित वीतराग मुद्रा में हैं—
विगतायुधविक्रियाविभूषा: प्रकृतिस्था: कृतिनां जिनेश्वराणाम्।
प्रतिमा: प्रतिमागृहेषु कांत्याप्रतिमा: कल्मषशान्तयेऽभिवन्दे।।१३।।
आयुध विक्रिय भूषा विरहित, जिनगृह में प्रतिमा प्राकृत।
कांती से अनुपम हैं कल्मष, शांति हेतु मैं नमूँ सतत।।१३।।
अर्थ-जो आयुध, विकार, आभूषणों से रहित हैं। अपने ही स्वभाव में स्थित हैं तथा कान्ति कर अतुल्य हैं ऐसी कृती अर्थात् कृतकृत्य जिनेश्वरों की प्रतिमागृहों में विराजमान प्रतिमाओं को पाप की शान्ति के लिये वन्दन करता हूँ।।१३।।
ये प्रतिमायें क्रोधादि से रहित शांत छवि दर्शाती हैं—
कथयंति कषायमुक्तिलक्ष्मीं परया शान्ततया भवान्तकानाम्।
प्रणमाम्यभिरूपमूर्तिमंति प्रतिरूपाणि विशुद्धये जिनानाम्।।१४।।
परम शांति से कषायमुक्ती, को कहती मनहर अभिरूप।
भव के अंतक जिन की प्रतिमा, प्रणमूँ मन विशुद्धि के हेतु।।१४।।
अर्थ-उत्कृष्ट शान्तता युक्त होने से कषाय का अभावरूप लक्ष्मी को कहने वाली, जिनेश्वर का जैसा रूप है वैसी मूर्तिमती, ऐसी संसार का नाश कर देने वाले जिनेश्वरों की मूर्तियों को आत्मपरिणामों की निर्मलता होने के लिये नमस्कार करता हूँ।।१४।।
श्री गौतमस्वामी भव-भव में जिनधर्म की याचना करते हैं—
यदिदं मम सिद्धभक्तिनीतं सुकृतं दुष्कृतवर्त्मरोधि तेन।
पटुना जिनधर्म एव भक्तिर्भवताज्जन्मनि जन्मनि स्थिरा मे।।१५।।
दुष्कृतपथ रोधक मम सिद्ध-भक्ति से हुआ पुण्य जो भी।
भव-भव में जिनधर्म हि में, दृढ़ भक्ति रहे फल मिले यही।।१५।।
अर्थ-तीन जगत में प्रसिद्ध अर्हंतों के प्रतिबिंबों की भक्ति करने से जो यह पुण्य मुझे प्राप्त हुआ है जो कि पाप के मार्ग को रोकने वााला है उस समर्थ पुण्य से मेरी भक्ति जन्म-जन्म में जिनधर्म में ही स्थिर होवे ।।१५।।
चतुर्णिकाय देवों के गृहों में व मध्यलोक के कृत्रिम—अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं की वंदना करते हैं—
अर्हतां सर्वभावानां दर्शनज्ञानसम्पदाम् ।
कीर्तयिष्यामि चैत्यानि यथाबुद्धि विशुद्धये।।१६।।
सब पदार्थवित् दर्श ज्ञान-सम्पत् युत अर्हत् की प्रतिमा।
यथा बुद्धि मनशुद्धि हेतु, गुण कीर्तन करूँ अतुल महिमा।।१६।।
अर्थ-सम्पूर्ण पदार्थ जिनके विषयभूत हैं अथवा परिपूर्ण यथाख्यातचारित्र जिनके विद्यमान है, क्षायिकदर्शन और क्षायिकज्ञानरूप संपदा जिनके मौजूद है ऐसे अर्हंतों के चैत्यों का अपनी बुद्धि के अनुसार परिणामों की निर्मलता के लिए अथवा कर्ममल के प्रक्षालन के लिये कीर्तन करूँगा ।।१६।।
श्री गौतमस्वामी भवनवासी देवों के जिनमंदिरों की-जिनप्रतिमाओं की वन्दना करते हैं—
श्रीमद्भावनवासस्था: स्वयंभासुरमूर्तय:।
वंदिता नो विधेयासु: प्रतिमा: परमां गतिम् ।।१७।।
श्रीमद् भवनवासि के गृह में, भासुर जिनमूर्ति स्वयमेव।
परम सिद्धगति करें हमारी, वंदूँ उन्हें करूँ नित सेव।।१७।।
अर्थ-मेरे द्वारा जिनकी वन्दना की गई है जो भवनवासी देवों के दैदीप्यमान भवनों में स्थित हैं जिनका स्वरूप स्वयं भासुररूप है ऐसी प्रतिमाएँ मुझ वंदक को परमगति अर्थात् मुक्ति प्रदान करें।।१७।।
श्री गौतमस्वामी मध्यलोक के कृत्रिम—अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं को नमस्कार करते हैं—
यावन्ति सन्ति लोकेऽस्मिन्नकृतानि कृतानि च।
तानि सर्वाणि चैत्यानि वन्दे भूयांसि भूतये।।१८।।
इस जग में जितनी प्रतिमा हैं, कृत्रिम अकृत्रिम सबको।
मैं वंदूँ शिव वैभव हेतु, सब जिनचैत्य जिनालय को।।१८।।
अर्थ-इस तिर्यग्लोक में कृत्रिम और अकृत्रिम जितने प्रचुरतर प्रतिबिंब हैं उन सबको विभूति के लिए वंदन करता हूँ ।।१८।।
श्री गौतमस्वामी व्यंतर देवों के गृहों के जिनमंदिरों को नमस्कार कर रहे हैं—
ये व्यन्तरविमानेषु स्थेयांस: प्रतिमागृहा:।
ते च संख्यामतिक्रान्ता: सन्तु नो दोषविच्छिदे।।१९।।
व्यंतर के विमान में जिनगृह, उनमें अकृत्रिम प्रतिमा।
संख्यातीत कही हैं वंदूँ, दोष नाश के हेतु सदा।।१९।।
अर्थ– व्यंतरों के आवासों में सर्वदा अवस्थित जो असंख्यात प्रतिमागृह हैं वे मेरे दोषों की शान्ति के लिये होवें ।।१९।।
श्री गौतमस्वामी ज्योतिषी देवों के जिनमंदिरों की वंदना करते हैं—
ज्योतिषामथ लोकस्य भूतयेऽद्भुतसम्पद:।
गृहा: स्वयंभुव: सन्ति विमानेषु नमामि तान्।।२०।।
ज्योतिष देवों के विमान में, अद्भुत संपत्युत जिनगेह।
स्वयंभुवा प्रतिमा भी अगणित, उन्हें नमूँ निज वैभव हेतु।।२०।।
अर्थ- अनन्तर ज्योतिषी देवों के विमानों में अद्भुत सम्पत्तिधारी अर्हंतों के जो शाश्वत गृह हैं उनको मैं विभूति के निमित्त नमस्कार करता हूँ ।।२०।।
श्री गौतमस्वामी वैमानिक देवों के जिनमंदिरों की जिनप्रतिमाओं को नमन कर रहे हैं—
वन्दे सुरतिरीटाग्रमणिच्छायाभिषेचनम्।
या: क्रमेणैव सेवन्ते तदर्चा: सिद्धिलब्धये।।२१।।
सुरपति के नत मुकुटमणि-प्रभ से अभिषेक हुआ जिनका।
वैमानिक सुर सेवित प्रतिमा, सिद्धि हेतु मैं नमूँ सदा।।२१।।
अर्थ- जो देवों के मुकुट के अग्र भाग में लगी हुई मणियों की कान्ति से अभिषेक को चरणों द्वारा सेवन करती हैं अर्थात् जिनके चरणों में वैमानिक देव सिर झुकाते हैं उन वैमानिक देवों के विमान संबंधी प्रतिमाओं को मुक्ति की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ ।।२१।।
श्री गौतमस्वामी स्तुति का फल माँग रहे हैं—
इति स्तुतिपथातीतश्रीभृतामर्हतां मम।
चैत्यानामस्तु संकीर्ति: सर्वास्रवनिरोधिनी।।२२।।
इस विध स्तुति पथातीत, अन्तर बाहिर श्रीयुत अर्हन्।
चैत्यों के संकीर्तन से मम, सर्वास्रव का हो रोधन।।२२।।
अर्थ- इस प्रकार स्तुति के मार्ग को अतिक्रमण करने वाली अर्थात् जिसकी स्तुति इन्द्रादिक देव भी नहीं कर सकते ऐसी अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी को धारण करने वाले अर्हंतों के चैत्यों की स्तुति मेरे सम्पूर्ण आस्रवों को रोकने वाली होवे ।।२२।।
तीन लोक के अकृत्रिम जिनमंदिर एक दृष्टि में—
उड्ढमहतिरियलोए सिद्धायदणाणि णमंसामि।
अधोलोक में खरभाग व पंकभाग में भवनवासी देवों के सात करोड़, बहत्तर लाख (७,७२०००००० ± ८४,९७०२३) जिनमंदिर हैं। मध्यलोक में जम्बूद्वीप से लेकर तेरहवें रुचकवरद्वीप तक चार सौ अट्ठावन (४५८) जिनमंदिर तथा ऊर्ध्वलोक में सौधर्म स्वर्ग से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक चौरासी लाख, सत्तानवे हजार, तेईस (८४, ९७०२३) जिनमंदिर हैं।
ये सर्व—७७२००००० ± ४५८ ± ८४९७०२३ · ८, ५६, ९७, ४८१ अर्थात् आठ करोड़, छप्पन लाख, सत्तानवे हजार, चार सौ इक्यासी जिनमंदिर हैं। इन सभी में १०८-१०८ जिनप्रतिमायें विराजमान हैं। अत: नव सौ पचीस करोड़, त्रेपन लाख, सत्ताईस हजार, नव सौ अड़तालीस जिनप्रतिमायें हैं—
८,५६,९७,४८१ ² १०८ · ९२५,५३,२७ ९४८ जिनप्रतिमायें हो जाती हैं। इन सभी को मेरा कोटि-कोटि नमस्कार होवे।इसके साथ ही व्यन्तर देवों के अधोलोक में असंख्यातों भवन हैं। मध्यलोक में जंबूद्वीप से लेकर स्वयंभूरमण समुद्र तक असंख्यातों भवनपुर व आवास हैं। इन सभी में अकृत्रिम जिनमंदिर होने से व्यंतर देवों के असंख्यातों जिनमंदिर- जिनप्रतिमायें हैं।इसी प्रकार ज्योतिर्वासी देवों के सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र व तारे जंबूद्वीप से लेकर अंतिम असंख्यातवें स्वयंभूरमण समुद्र तक माने हैं। ये ज्योतिषी देवों के विमान असंख्यातों हैं। इन सभी में एक-एक जिनमंदिर होने से ये मंदिर असंख्यातों हो गये हैं।भवनवासी देवों के भी अगणित भवनपुर-आवास मध्यलोक में हैं। उन सभी में जिनमंदिर हैं।इन व्यंतर देवों के, भवनवासी देवों के व ज्योतिषीदेवों के असंख्यातों जिनमंदिर व असंख्यातों जिनप्रतिमाओं को मेरा अनंत-अनंत नमस्कार होवे।
‘‘चेइयरुक्खा य चेइयाणि।’’ (श्रीगौतमस्वामी कृत प्रतिक्रमण भक्ति से)
ऐसे ही अकृत्रिम असंख्यातों चैत्यवृक्षों में अकृत्रिम जिनप्रतिमायें असंख्यातों हैं। अकृत्रिम नदी के निर्गम स्थान व प्रवेश स्थानों में, तोरणद्वारों में, नदी के पतन-गिरने के स्थानों में जितनी की अकृत्रिम जिनप्रतिमायें हैं, उन सभी को मेरा नमस्कार होवे।
जो अनादिकाल से अनंतोंकाल तक विद्यमान हैं, आगे भी अनंतानंत काल रहेंगी, स्वयंसिद्ध—स्वयं बनी हुई प्राकृतिक हैं, जिन्हें किन्हीं ने न बनाया है और न जिनका कभी विनाश होगा, जिनमें से एक अणुमात्र का भी कभी क्षरण नहीं होगा, ऐसे जिनमंदिर व ऐसी जिनप्रतिमायें अकृत्रिम कहलाती हैं। जिनका निर्माण किया—कराया जाता है, वे जिनमंदिर व प्रतिमायें कृत्रिम कहलाती हैं।
इस ग्रंथ में मध्यलोक में मात्र ढाईद्वीप तक जो कृत्रिम जिनमंदिर हैं, उनमें भी वर्तमान में भरतक्षेत्र के आर्यखंड में चतुर्थ काल में कतिपय मात्र जो जिनमंदिर इंद्रों द्वारा, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों द्वारा बनवाये गये हैं। उन्हीं में से िंकचित् मात्र मंदिरों का व जिनप्रतिमाओं का वर्णन है, जो कि तृतीयकाल के अंतिम समय में श्रीऋषभदेव के समय से लिया गया है। उन सभी जिनमंदिर- जिनप्रतिमाओं को मेरा अनंत-अनंत नमस्कार होवे।
श्रीगौतमस्वामी ने भी उन-उन तीर्थों को व प्रतिमाओं को नमस्कार किया है—
‘‘णमंसामि सिद्धणिसीहियाओ अट्ठावयपव्वदे सम्मेदे चंपाए पावाए मज्झिमाए हत्थिवालियसहाए जाओ अण्णाओ काओ वि णिसीहियाओ जीव-लोयम्मि१।।’’
ऊर्ध्व अधो अरु मध्यलोक में, सिद्धायतन नमूँ उनको।
सिद्धक्षेत्र अष्टापद सम्मेदाचल ऊर्जयन्त गिरि को।।
चंपा पावा नगरि मध्यमा हस्तिबालिका मंडप में।
और अन्य भी मनुज लोक में, तीर्थ क्षेत्र सबको प्रणमें।।
श्री भरत्ा चक्रवर्ती द्वारा बनवाये गये कैलाशपर्वत पर जो रत्नों के जिनमंदिर थे। असंख्यातों वर्षों बाद आज से नव लाख वर्ष पूर्व श्रीरामचंद्र के पिता राजा दशरथ ने उन मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया था, ऐसा पद्मपुराण ग्रंथ—जैन रामायण ग्रंथ में वर्णन आया है।
वर्तमान में चौबीस तीर्थंकरों की निर्वाणभूमि-अष्टापद—कैलाश पर्वत, सम्मेदशिखर, चंपापुरी, पावापुरी, गिरनारपर्वत इन पवित्र तीर्थों पर व अन्य महापुरुषों की निर्वाण भूमियाँ-मांगीतुंगी, सोनागिरि, बड़वानी, पावागिरि आदि निर्वाण क्षेत्रों में, तीर्थंकर भगवंतों की जन्मभूमि १६ हैं—अयोध्या से कुंडलपुर तक, उनमें दीक्षाभूमि, केवलज्ञानभूमि प्रयाग, अहिच्छत्र, जृंभिका आदि तीर्थों पर, अन्यत्र भी इस भारतभूमि में जितने भी निर्वाण क्षेत्र, अतिशय क्षेत्र आदि हैं व नगरों में, शहरों में, ग्राम आदि में जितने भी जिनमंदिर हैं, जितनी भी जिनप्रतिमायें हैं, उन सभी की यहाँ वंदना की गई है।हम भी सर्वत्र त्रैकालिक सभी जिनमंदिर-जिनप्रतिमाओं की मन, वचन, काय से शिर झुकाकर अनंतानंत बार नमस्कार करते हैं।