सम्पूर्ण जिनागम द्वादशांगरूप है इसे शब्दब्रह्म भी कहते हैं। भगवान् महावीर स्वामी की प्रथम देशना विपुलाचल पर्वत पर श्रावण वदी प्रतिपदा के दिन हुई थी उस समय सप्तऋद्धि से समन्वित गौतम गणधर को पूर्वाण्ह में समस्त अंगों के अर्थ और पद स्पष्ट जान पड़े। उसी दिन अपराण्ह में अनुक्रम से उन्हें पूर्वों के अर्थ तथा पदों का भी स्पष्ट बोध हो गया। पुन: मन:पर्यय ज्ञानधारी श्री गणधर देव ने उसी दिन रात्रि के पूर्ण भाग में अंगों की और पिछले भाग में पूर्वों की ग्रंथ रचना की।’’
इस ग्यारह अंग चौदह पूर्व रूप श्रुतसमुद्र में कोई विषय अपूर्ण नहीं है। अष्टांग निमित्त, अष्टांग आयुर्वेद, मंत्र, तंत्र आदि सभी विषय इसमें आ जाते हैं। आज द्वादशांगरूप से श्रुतज्ञान उपलब्ध नहीं है। हाँ, अग्रायणीय नामक द्वितीय पूर्व के चयनलब्धि नामक चतुर्थ अधिकार का ज्ञान श्री धरसेनाचार्य को था जिनके प्रसाद से वह षट्खण्डागमरूप ग्रंथ में निबद्ध हुआ है।
इस द्वादशांगरूप शास्त्र को आचार्यों ने चार अनुयोगों में विभक्त किया है। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। ये चारों ही अनुयोग भव्य जीवों को रत्नत्रय की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के कारण हैं। इन अनुयोगरूप द्रव्यश्रुत से उत्पन्न हुआ भावश्रुत परम्परा से केवलज्ञान का कारण है। कहा भी है-
विणयेण सुदमधीदं जदि वि पमादेण होदि विस्सरिदं।
तमुअवट्ठादि परभवे केवलणाणं च आवहदि।।
विनयपूर्वक पढ़ा हुआ शास्त्र यदि प्रमाद से विस्मृत भी हो जाता है तो भी जन्मांतर में पूरा का पूरा उपस्थित हो जाता है और अंत में केवलज्ञान को प्राप्त करा देता है।
यह समस्त श्रुतज्ञान की महिमा है न कि एक किसी अनुयोग की। श्री कुंदकुंद देव कहते हैं-
जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूदं।
जरमरणबाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं।।१७।।
जिनेन्द्रदेव के वचन औषधिरूप हैं, ये विषयसुखों का विरेचन कराने वाले हैं, अमृतस्वरूप हैं, इसीलिये ये जन्म-मरणरूप व्याधि का नाश करने वाले हैं और सर्वदु:खों का क्षय करने वाले हैं।
श्रुतज्ञान महान् वृक्ष सदृश है-
अनादिकाल की अविद्या के संस्कार से प्रत्येक मनुष्य का मन मर्कट के समान अतीव चंचल है, उसको रमाने के लिये श्री गुणभद्रसूरि इस श्रुतज्ञान को महान् वृक्ष की उपमा देते हुये कहते हैं-
अनेकांतात्मार्थप्रसवफलभारातिविनते ।
वच:पर्णाकीर्णे विपुलनयशाखाशतयुते।।
समुत्तुंगे सम्यक् प्रततमतिमूले प्रतिदिनं।
श्रुतस्कन्धे धीमान् रमयतु मनोमर्कटममुम्।।१७०।।
जो श्रुतस्कंधरूप वृक्ष अनेक धर्मात्मक पदार्थरूप फूल एवं फलों के भार से अतिशय झुका हुआ है, वचनोंरूप पत्ते से व्याप्त है, विस्तृत नयों रूप सैकड़ों शाखाओं से युक्त है, उन्नत है तथा समीचीन एवं विस्तृत मतिज्ञानरूप जड़ से स्थिर है उस श्रुतस्कन्ध वृक्ष के ऊपर बुद्धिमान साधु अपने मनरूपी बंदर को प्रतिदिन रमण करावे।
जिन्होंने ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों पर विजय प्राप्त कर सर्वज्ञता और सर्वदर्शिता प्राप्त कर ली है उन्हें अरहंत परमात्मा अथवा कर्मविजेता ‘जिन’ कहते हैं। अनादिकाल से प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के कल्पकाल में ऐसे असंख्य जिन होते हैं जो अपनी आयु के अंत में शेष अघातिया कर्मों का भी नाश कर मोक्ष में चले जाते हैं, उन्हें ‘सिद्ध’ कहते हैं। अनंत और अविनाशी सुख के स्थान मोक्ष को छोड़ फिर ये सिद्ध परमात्मा कभी संसार में आकर जन्म-मरण के चक्र में नहीं फंसते।
यद्यपि मोक्ष जाने के पूर्व प्रत्येक कल्पकाल में असंख्य जिन होते हैं तथापि उनमें से प्रत्येक उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल में जो २४-२४ तीर्थंकर होते हैं उनके द्वारा ही ‘जिन’ अवस्था में समवसरण सभा में दिव्यध्वनि के माध्यम से दिव्योपदेश होता है। यह दिव्यध्वनि सर्वज्ञवाणी होने से निर्दोष, सर्वप्राणी हितैषी और मंगलमय होती है अत: प्रमाणभूत होती है।
जिनमुख से उत्पन्न होने से इसको जिनवाणी कहते हैं। वर्तमान अवसर्पिणी के चतुर्थ काल के प्रारंभ में भगवान ऋषभदेव आद्य तीर्थंकर हुए, उनके द्वारा संसार को आत्मकल्याणकारी वास्तविक धर्म का स्वरूप समझाया गया। धर्म का आल्हादकारक, सुखप्रदायक प्रकाश सर्वत्र पैâला। असंख्य प्राणियों का अज्ञान और मिथ्यात्वांधकार तिरोहित हुआ। इस जिनवाणी के उद्गम की परम्परा इस हुण्डावसर्पिणी काल में भगवान ऋषभदेव और उनके अनंतर प्रत्येक तीर्थंकर के समय में तत्कालीन तीर्थंकर के द्वारा केवलज्ञान प्राप्त कर लेने पर समवसरण सभा में होती रही। असंख्य प्राणियों ने उसे सुना और वे आत्मकल्याण के वीतराग धर्म को अपनाकर परमसुखी परमात्मा बन गये।
अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर की भी जिनवाणी उनके द्वारा ४२ वर्ष की अवस्था में सर्वज्ञता प्राप्त कर लेने पर राजगृही के पास विपुलाचल पर्वत पर इन्द्राज्ञा से कुबेर द्वारा रचित अत्यंत सुंदर, लोकातिशय, महान वैभवशाली समवसरण सभा में हुई। उस अत्यंत भव्य समवसरण सभा में विशाल १२ कक्ष थे जिनमें मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका, पशु-पक्षी एवं चतुर्णिकाय के देव-देवियाँ अपने-अपने लिए नियोजित कक्ष में बैठकर भगवान का धर्मोपदेश सुनते थे। भगवान महावीर की दिव्य एवं लोकोपकारी वाणी को उनके प्रमुख शिष्य मन:पर्ययज्ञानधारी इन्द्रभूति गौतम गणधर ने द्वादशांग के रूप में निबद्ध कर प्राणियों को समझाया, उनको प्रबुद्ध किया। इस द्वादशांगरूप जिनवाणी में ऐसा कोई विषय शेष नहीं रहा जिस पर विशद प्रकाश नहीं डाला गया हो। विपुलाचल पर्वत पर कई दिनों तक भगवान महावीर की धर्मदेशना चली। उसके अनन्तर लगातार ३० वर्षों तक (निर्वाण गमन से पूर्व तक) यह धर्मदेशना अनेक पृथक्-पृथक् प्रदेशों और राज्यों में समवसरण के माध्यम से होती रही।
इस धर्मदेशना का प्रभाव जनसाधारण और राजा-महाराजाओं पर खूब पड़ा। राजा-महाराजाओं ने, जो उस समय के प्रचलित हिंसामय धर्मों और मिथ्या मतों में फंस गये थे, उनका परित्याग कर दिया और वे प्राय: सभी भगवान महावीर के धर्मदेशना के झंडे के नीचे आ गये। क्रूर हिंसा से पूर्ण यज्ञ-यागादि की ज्वाला नष्ट हो गई। अहिंसा को धर्मरूप में सबने अपनाया था। अधर्म और पाप के रूप में जो संसार में उस समय भयंकर विषमता पैâल गयी थी, धर्म के नाम पर कलह, विसंवाद और संघर्ष होते थे उन सबको दूर करने के लिए भगवान महावीर ने अहिंसा के साथ-साथ सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और स्याद्वाद के लोक हितैषी और आत्मशांतिकारक सिद्धान्त दिये। आज अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का ही धर्मशासन चल रहा है और यह धर्मशासन इस अवसर्पिणी के पंचमकाल के अंत तक चलेगा।
अत: यह लोककल्याणकारी अहिंसा, अपरिग्रह और स्याद्वाद का द्वादशांगरूप धर्मशासन जिस धर्मदेशना (जिनवाणी) के आधार पर चल रहा है उसके प्रस्तुतकर्ता अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर हैं। जिस दिन यह जिनवाणी भगवान महावीर के मुख से सर्वप्रथम विपुलाचल पर्वत पर खिरी वह मंगलमय दिवस श्रावण कृष्णा प्रतिपदा का था।
भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् इन्द्रभूति (गौतमस्वामी), सुधर्मास्वामी और जम्बूस्वामी ये तीन केवली हुए उनके बाद पाँच श्रुतकेवली हुए , जिन्होंने भगवान महावीर की देशना को द्वादशांगरूप में प्रचारित किया। अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के बाद काल के अनुसार ज्ञान में क्षीणता आती गई और द्वादशांग श्रुतज्ञान की स्मृति भी कम होती गई। शिष्यपरम्परा से अंगज्ञान क्षीण होते—होते अंत में एक आचार्य लोहाचार्य नाम के हुए जिन्हें एक अंग का ज्ञान शेष रहा था। यह सर्वकाल भगवान महावीर के अनंतर ६८३ वर्ष का था।
इसके पश्चात् अंगज्ञान भी क्षीण होता चला गया। अंत में धरसेनाचार्य नामक एक आचार्य हुए जिन्हें मात्र अग्रायणीय पूर्व का ज्ञान था और वे अष्टांग महानिमित्त के महान ज्ञाता थे तब उन्हें इस जिनवाणी के शेष अंशमात्र श्रुतज्ञान के भी लुप्त हो जाने की चिंता हुई अत: उन्होंने संसार के जीवों के कल्याण हेतु उस अंशमात्र श्रुतज्ञान की रक्षा के लिए अपना ज्ञान उस समय के विशिष्ट महाज्ञानी तपस्वी महामुनि पुष्पदंत और भूतबली को दिया। इन दोनों विद्वान, महातपस्वी साधुओं ने गुरु परम्परा से प्राप्त जिनवाणी को षट्खंडागम नामक ग्रंथ में लिपिबद्ध कर लुप्त होने वाली जिनवाणी के अंश का विकास करने का प्रथम श्रेय प्राप्त किया।
जिस दिन यह षट्खंडागम नामक ग्रंथ लिपिबद्ध होकर पूर्ण हुआ वह दिन ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी का था। उस दिन अंकलेश्वर (सौराष्ट्र) में चतु:संघ ने उस ग्रंथ को महान भक्तिपूर्वक वेष्टन में बांधकर बड़ी भारी श्रद्धा और प्रभावना के साथ उसकी अष्टद्रव्य से पूजा की अत: यह मंगलमय दिवस श्रुतपंचमी के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
उसके अनंतर श्री वीरसेनाचार्य ने षट्खंडागम के पांच खण्डों की ७२ हजार श्लोक प्रमाण विस्तृत टीका की, जो धवला टीका के नाम से प्रख्यात है। वे छठे खण्ड की २० हजार श्लोक प्रमाण महाधवला टीका करके समाधिस्थ हो गये। उनके बाद उनके महान विद्वान शिष्य महापुराण ग्रंथ के रचयिता आचार्य जिनसेन ने छठे खंड की अपूर्ण टीका को ४० हजार श्लोक प्रमाण रचकर महाधवला टीका पूर्णकर अपने गुरु के कार्य को पूर्ण किया। इस प्रकार १ लाख ३२ हजार श्लोक प्रमाण टीका ग्रंथ अन्य किसी धर्म का आज उपलब्ध नहीं है।
इसके पश्चात् तो अनेक महान दिगम्बर जैनाचार्य हुए जिन्होंने गुरु परम्परा से प्राप्त जिनवाणी के अनुसार चतुरनुयोग संबंधी अनेक महान ग्रंथों की संस्कृत-प्राकृत भाषा में रचनाएँ कीं और उनकी टीकाएँ कर संसार पर महान उपकार किया है। उनमें गुणधराचार्य, कुन्दकुन्दाचार्य, यतिवृषभाचार्य, उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंकदेव, गुणभद्र, विद्यानंदि, अमृतचंद्राचार्य, सोमदेव, जयसिंहनंदि, नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती आदि अनेकानेक आचार्य हुए हैं जिन्होंने अपने सम्यक्ज्ञानरूप दिव्य प्रकाश से संसार को साहित्य रचनाएँ प्रदान करके आलोकित किया है।
भगवान महावीर के पश्चात् एक ऐसे महान विद्वान तपस्वी आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी हुए हैं जिन्होंने समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, रयणसार, पंचास्तिकाय, मूलाचार और अष्टपाहुड़ आदि अनेक प्राभृत ग्रंथों की अध्यात्मप्रधान शैली में रचनाएँ की हैं। बारस अणुवेक्खा और प्राकृत दशभक्तियाँ भी आपकी अमूल्य रचनाएँ हैं। तमिलभाषा में एक कुरलकाव्य भी है जो आपकी रचना माना जाता है जो कि तमिल साहित्य का अनुपम रत्न है।
तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता श्री उमास्वामी आचार्य महान विद्वान आचार्य हुए हैं, जिन्होंने संस्कृत भाषा में सूत्ररूप ग्रंथों की रचना का सूत्रपात किया। तत्त्वार्थसूत्र नामक अनुपम ग्रंथ के माध्यम से आपने मोक्षमार्ग का निरूपण करते हुए १० अध्यायों में सप्त तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप प्रतिपादित किया है। आपके इस ग्रंथ पर अनेक विद्वान आचार्यों ने विद्वत्ता पूर्ण बड़ी-बड़ी संस्कृत टीकाएँ रची हैं।
इसी प्रकार जिनवाणी के विकास में जिन्होंने बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया है, उनमें से एक आचार्य समंतभद्र भी हैं। ये असाधारण विद्वत्ता के धनी थे। महान प्रतिवादी, प्रतिभासम्पन्न और बड़े तपस्वी साधुरत्न थे। वृहत्स्वयंभू स्तोत्र, देवागम स्तोत्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, युक्त्यनुशासन, जिनशतक, गंधहस्ति महाभाष्य, तत्त्वानुशासन जैसे महान ग्रंथों की रचना कर संसार का महान उपकार किया है। गंधहस्ति महाभाष्य तो तत्त्वार्थसूत्र की टीका है जो दुर्भाग्य से उपलब्ध नहीं है। शेष सभी ग्रंथ संस्कृत श्लोकमय रचनाएँ हैं। तत्त्वानुशासन ग्रंथ भी उपलब्ध नहीं है।
प्रतिभाशाली महान आचार्यों की इस शृखंला में पूज्यपाद आचार्य का नाम भी जैन जगत में अत्यंत गौरव के साथ लिया जाता है, उन्होंने अपनी अमूल्य कृतियों से जिनवाणी के रहस्य को खोलकर संसार के समक्ष उपस्थित किया है। समन्तभद्राचार्य ने जैनेन्द्र व्याकरण, समाधिशतक, इष्टोपदेश आदि स्वतंत्र रचनाएँ निर्मित की हैं। इसके अलावा संस्कृत दश भक्तियों की रचना भी आपने की है। तत्त्वार्थसूत्र पर सर्वार्थसिद्धि नामक टीका ग्रंथ जैन जगत में अनुपम टीका गं्रथ है, जो वर्तमान के उपलब्ध ग्रंथों में तत्त्वार्थसूत्र पर सर्वप्रथम टीका ग्रंथ है। ‘जिनाभिषेक’ ग्रंथ भी आपका माना जाता है।
आचार्य विद्यानंदि भी महान प्रतिभाशाली आचार्य हुए हैं, जिन्होंने तत्त्वार्थसूत्र पर श्लोकवार्तिकालंकार नाम विशद टीका ग्रंथ दार्शनिक शैली में रचा है। इसी प्रकार अष्टसहस्री नामक टीका ग्रंथ समन्तभद्राचार्य के देवागम स्तोत्र पर रचा गया है। स्वोपज्ञ टीका सहित आप्तपरीक्षा आपकी स्वतंत्र रचना है। इसके अतिरिक्त भी आपने विद्यानंद महोदय, सत्यशासन परीक्षा आदि कई ग्रंथों का प्रणयन किया है।
दार्शनिक शैली के ग्रंथकार जैन आचार्योें की शृंखला में पात्रकेसरी आचार्य का नाम भी प्रसिद्ध है। वे उच्चकोटि के विद्वान आचार्य थे उन्होंने पात्रकेसरी स्तोत्र, त्रिलक्षणकदर्शन आदि ग्रंथों की रचनाकर जिनधर्म के उद्योत में अपना अपूर्व योगदान दिया है।
आचार्य अकलंकदेव भी अद्वितीय प्रतिभा के धनी महान आचार्य हुए हैं। उनकी विद्वत्ता भी नामानुसार अकलंक ही थी। इनके समय में बौद्धदर्शन का बहुत जोर था अत: अन्य दर्शनों की अपेक्षा बौद्धदर्शन की विशेष समीक्षा आपके ग्रंथों मे पायी जाती है। दार्शनिकप्रधान आपकी रचनाएँ स्वतंत्र और टीका ग्रंथोंथों के रूप में जैन साहित्य की अनुपम निधियाँ हैं।
तत्त्वार्थवार्तिक तत्त्वार्थसूत्र की टीका है। अष्टशती देवागम स्तोत्र की टीका है। इसके अतिरिक्त अकलंकस्तोत्र, लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय और प्रमाणसंग्रह आदि स्वतन्त्र रचनारूप में प्रमुख ग्रंथ हैं।
जिनसेनाचार्य की प्रतिभा और विद्वत्ता तो अवर्णनीय थी। उनका बनाया हुआ प्रथमानुयोग का महान पुराण ग्रंथ ‘महापुराण’ काव्यग्रंथों में जैन साहित्य की ही नहीं, संसार की समस्त साहित्य कृतियों में एक महान रचना है। लगभग ४० हजार श्लोक प्रमाण आपकी जयधवला टीका है। इसके अतिरिक्त पार्श्वाभ्युदय काव्य भी काव्य संसार में एक श्रेष्ठ कृति है।
जिनसेनाचार्य के ही विद्वान शिष्य गुणभद्राचार्य ने उत्तर पुराण रचकर भगवान ऋषभदेव और भरत चक्रवर्ती को छोड़ समस्त शलाका पुरुषों का जीवन चरित्र आठ हजार श्लोकों में निबद्ध किया है। इसके अतिरिक्त आत्मानुशासन भी आपकी अनुपम रचना है। जिनदत्त चरित्र भी आपकी ही रचना माना जाता है।
श्री नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के द्वारा रचित करणानुयोग प्रधान ग्रंथ हैं, जो करणानुयोग के प्रसिद्ध गं्रथ हैं। षट्खंडागम के आधार पर गोम्मटसार (जीवकाण्ड व कर्मकाण्ड), लब्धिसार-क्षपणासार का प्रणयन किया तथा त्रिलोक का वर्णन करने वाला त्रिलोकसार ग्रंथ भी आपने ही निर्मित किया है। आपकी इन रचनाओं से जैन जगत का महान उपकार हुआ है।
अमृतचंद्राचार्य, कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा विरचित समयसारादि गं्रथों के विशेष टीकाकार आचार्य हुए हैं। समयसार, प्रवचनसार व पंचास्तिकाय ग्रंथों पर आत्मख्याति आदि टीकाओं का प्रणयन आपने किया। आपने स्वतंत्र रूप से तत्त्वार्थसार और पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रंथ का निर्माण भी किया है।
कुन्दकुन्दाचार्य के ही उक्त तीन ग्रंथ, श्री सोमदेवसूरि के यशस्तिलकचम्पू और नीतिवाक्यामृत तथा वादीभसूरि का छत्रचूड़ामणि एवं गद्य चिन्तामणि काव्यग्रंथ भी जैन जगत की अनुपम निधियाँ हैं। इसी प्रकार देवसेनाचार्य, माणिक्यनंदि, शुभचंद्राचार्य आदि अनेक उद्भट विद्वान् तपस्वी आचार्य हुए हैं, जिन्होंने चारों अनुयोगों पर महान विद्वत्तापूर्ण रचनाएँ कर जिनवाणी के रहस्य को खोलने में और संसार में उसका दिव्य प्रकाश पैâलाने में बड़ा भारी श्रम किया है।
सचमुच में यदि इन उपकारकबुद्धि आचार्यों ने संसार के कल्याणार्थ अपने तपस्वी जीवन का बहुमूल्य समय जिनवाणी के रहस्योद्घाटन में न दिया होता तो संसार धर्म के वास्तविक स्वरूप को जानने में अज्ञात रहता। दिगम्बर जैन जगत के सभी महान आचार्य जिनवाणी के सच्चे सपूत कहे जा सकते हैं, जिन्होंने जिनवाणी की जन्म भर सेवा की और जिनवाणी को विकास में लाकर समीचीन धर्म का प्रकाश संसार को दिया। धन्य हैं वे आचार्य और धन्य हैं उनकी बहुमूल्य साहित्यिक कृतियाँ, जिन पर भगवान महावीर का अनुयायी जैन समाज गौरवान्वित है।
दिगम्बर जैनाचार्यों ने जैसे रत्नत्रय धर्म के विभिन्न अंगों पर अपनी रचनाएँ कीं वैसे ही आयुर्वेद, छन्द, अलंकार, व्याकरण, मंत्र, यंत्र, काव्य आदि विभिन्न विषयों पर भी जो द्वादशांग के ही भाग हैं, प्रकाश डाला है। उग्रादित्याचार्य का आयुर्वेद संबंधी कल्याणकारक ग्रंथ और श्री मानतुंगाचार्य, कुमुदचन्द्राचार्य, वादिराजसूरि के काव्य भी भक्तिरस की बहुमूल्य कृतियाँ हैं। जिनागम की ये बहुमूल्य कृतियाँ अब देश-विदेशों में भी विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाने लगी हैं। संसार के विचारशील विद्वान् और छात्र जिनवाणी के अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत जैसे तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप को हृदयंगम करते हैं तो उनको सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने का आनंद होता है।