एकांतवादी आगम को परद्रव्य मान परस्त्री समान अग्राह्य मानते हैं। उस भ्रांति निवारण हेतु निम्नलिखित समीक्षा ध्यान देने योग्य हैं—जनसूत्र—सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिये जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादित सूत्र को निमित्त कारण कहा है।
सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं ।।नियमसार ५३।।
उसका अंतरंग कारण दर्शनमोह का क्षय, उपशमादि है।
‘‘अंतरहेयो भणिदो दंसणमोहस्स खय पहुदी।।’’
सुयोग्य भव्य जीव शास्त्ररूप निमित्त से लाभ उठाता है, अभद्र, अविवेकी को शास्त्र रूप निमित्त उपकारी नहीं होगा। नीतिकार कहता है:—
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पण: कि करिष्यति।
दर्पण मुख देखने में सहायक कारण है किन्तु नेत्रहीन व्यक्ति को दर्पण लाभ नहीं दे सकेगा। इससे यह बात जाननी चाहिये कि उपादान तथा निमित्त की मैत्री उपयोगी है। वृद्ध पुरुष अपने कमजोर नेत्रों से चश्मे की सहायता से देखता है। नेत्रों में शक्ति रहने के साथ सहायक सामग्री का उपयोग होता है। इसी प्रकार अकेला निमित्त या उपादान कारण कार्य सम्पन्न करने में असमर्थ है। अत्यन्त प्राचीन आचार्य परम्परा के प्रतिनिधि रूप षट्खंडागम सूत्र की सम्यक्त्वचूलिका (जीवट्ठाण सूत्र २९) में शास्त्र श्रवण, जिनबिम्बदर्शन तथा जाति स्मरण को प्रथम सम्यक्त्व प्राप्ति का हेतु कहा है—
तीहिं कारणेहिं पढम सम्मत्त मुप्पादेंति,—केई जाइस्सरा, केई सोऊण, केई जिणबिम्बं दट्ठूण।
एकांतवादी शास्त्र श्रवण को अपने प्रचार का साधन बनाता है, किन्तु वह शास्त्र को हितकारी नहीं स्वीकार करता। कुन्दकुन्द स्वामी प्रवचनसार में कहते हैं—
आगमहीणो समणो खेवप्पाणं परं वियाणादि। अविजाणंता अट्ठे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू।।२३३।।
आगमरहित मुनि स्व तथा पर का यथार्थ ज्ञान नहीं करता है। पदार्थ को जाने बिना मुनि किस प्रकार कर्मों का नाश करेगा ?
जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादी हि बुज्झदो णियमा। खीयदि मोहोवचओ तम्हा सत्थं समधिदव्वं।।८६।।
प्रत्यक्षादि प्रमाणों से शास्त्र के द्वारा पदार्थ का परिज्ञान करने से मोह का क्षय होता है इसलिए शास्त्र का परिज्ञान करना चाहिये।
ण अत्थि ण विय होहदि सज्झाय समं तवो कम्मं।।७९।।
(समयसार अधिकार)
स्वाध्याय के समान कोई तपश्चर्या नहीं है और न भविष्य में उसके समान कोई तप होगा।
दर्शनपाहुड में आचार्य कहते हैं—
जणवयण मोसहमिणं विसयसुह विरेयणं अमिदभूदं।
जर—मरण—वाहिहरणं खयकरणं सव्वकम्माणं।।११७।।
ये जिनेन्द्र के वचन औषधि रूप हैं, विषयों के सुख की वासना का निराकरण करते हैं। जिन वचन अमृत रूप हैं, जरा—मरण—व्याधि को दूर करते हैं तथा सम्पूर्ण दु:खों का क्षय करते हैं। पंचास्तिकाय में आचार्य कहते हैं, कि जिनेन्द्र की मुखोत्पन्न वाणी चारों गति के दु:खों का निवारण करने के साथ मोक्ष प्रदान करती है।
समण—मुहग्गद्—मट्ठं—चदुगति निवारणं स णिव्वाणं।।२।।
प्रवचनसार में कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं, ‘‘मुनियों के नेत्र जिनवचन हैं’’—‘‘आगम चक्खू साहू’’ (२३४)। अपने नियमसार ग्रन्थ में अन्त में कुन्दकुन्द स्वामी लिखते हैं—
णिय—भावणा—णमित्तं मए कदं णियमसार—णाम—सुदं।।१८७।।
आत्मभावना में निमित्त कारण रूप नियमसार नाम का शास्त्र मैंने बनाया है। यहां नियमसार ग्रंथ को निज भावना का निमित्तकारण कहकर आचार्य महाराज ने निमित्तकारण के महत्व को प्रकाशित किया है।
कुन्दकुन्द स्वामी के चेतन द्रव्य द्वारा शब्द रूप में समयसार पौद्गलिक शास्त्र की रचना हुई। इससे यह एकान्त मान्यता खंडित हो जाती है कि एक द्रव्य का निमित्त कारण नहीं हो सकता। भिन्न द्रव्यों में उपादान उपादेय भाव नहीं होता यह बात ठीक है किन्तु उनका निमित्त बनना आगम तथा अनुभवसिद्ध बात है। राजवार्तिक में अकलंक स्वामी ने आगम के द्वारा जीव का महान हित होता है, इस विषय में कहा है— प्रज्ञातिशय—प्रशस्ताध्यवसायाद्यर्थ: स्वाध्याय: (सूत्र २६ अ—९ पृ ३४७) स्वाध्याय द्वारा प्रज्ञा में अतिशयपना आता है तथा उससे उपयोग प्रशस्त रूप रहता है।बाहरी सामग्री का परिणामों पर असर पड़ता है। एक व्यक्ति खूब डटकर शराब पी लेता है। उसकी चैतन्य स्वरूप ज्ञान शक्ति काम नही करती। वह मूर्छित हो जाता है तथा निरर्गल, सारशून्य प्रलाप करता है। संगतिरूप बाहरी निमित्त के विषय मेें कहा है—जैसी संगति कीजिये तैसे हो परिणाम। तीर गहे ताके तुरत, माला ले प्रभु नाम।।यदि निमित्त कारण को सर्वथा बेकार माना जाए जो जीव के गमन, स्थिति, परिणमन तथा अवगाहन में निमित्त कारण धर्म—अधर्म—काल तथा आकाश द्रव्य का लोप हो जायेगा। उनको मानने की क्या आवश्यकता है ? अत: आत्महितप्रेमियों को परमागम का महत्व नहीं भूलना चाहिए। आचार्य, भगवान के समक्ष प्रार्थना पढ़ते हैंं—मेरा शास्त्रों का अभ्यास भव—भव मेें हो जब तक कि मैं मुक्त नहीं होता हूँ, ‘‘ शास्त्राभ्यासो संपद्यन्तां भवे भवे’’