इस पाठ में जिनालय क्या, जिनालय की स्थापना क्यों, छत्र, चंवर, शिखर, घंटानाद क्यों, प्रदक्षिणा क्यों आदि बातों का सटीक समाधान देते हुए, दर्शन करते समय परिणाम कैसे, देवदर्शन की विधि एवं संस्कृत दर्शन पाठ का अर्थ भी दिया है। यह पाठ आबाल—वृद्ध सभी के लिए पठनीय है। इस पाठ में १६ प्रश्नोत्तर दिए हैं। जिनालय
प्रश्न १. जिनालय (मंदिर) किसे कहते हैं ?
उत्तर—जिस स्थान पर जिनेन्द्र भगवान की स्थापना की जाती है, उसे जिनालय कहते हैं।
प्रश्न २. जिनालयों की स्थापना क्यों की जाती है ?
उत्तर—जिनबिम्ब दर्शन को सम्यदर्शन की प्राप्ति में बहिरंग साधन माना है। अत: जिनबिम्ब के दर्शन करने से हमारे परिणाम शुभ बनते हैं, श्रद्धान निर्मल होता है, इसलिए जिनबिम्ब दर्शन हेतु जिनालयों की स्थापना की जाती है। भगवान की प्रतिमा से हमें वीतराग बनने की शिक्षा मिलती है।
प्रश्न ३. जिनालय किसका प्रतीक है ?
उत्तर—जिनालय समवसरण का प्रतीक है। जिस प्रकार समवसरण में सभी जीव आपसी वैरभाव भूलकर परस्पर मैत्रीभाव धारण कर भगवान के दर्शन कर उपदेश श्रवण कर अपना आत्मकल्याण करते हैं, उसी प्रकार जिनालय में भी हम सभी प्रकार के विकारीभावों का त्याग कर प्रभु के दर्शन करते हैं। जिनप्रतिमा से हमें भगवान बनने का परम उपदेश मिलता है।
प्रश्न ४. तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा के ऊपर कितने छत्र लगाते हैं और क्यों ?
उत्तर—भगवान तीनों लोक के नाथ हैं। अत: तीन छत्र लगाते हैं। नीचे सबसे बड़ा उससे ऊपर क्रमश: छोटे—छोटे छत्र लगाते हैं।
प्रश्न ५. तीर्थंकर प्रतिमा के दोनों तरफ चँवर क्यों लगाते हैं ?
उत्तर—समवसरण में भगवान के समक्ष ६४ चँवर ढुराये जाते हैं जो कि ६४ प्रकार की ऋद्धियों के प्रतीक हैं। इसीलिए प्रतीक स्वरूप भगवान की प्रतिमा के समक्ष चँवर रखे जाते हैं।
प्रश्न ६. मंदिर में शिखर क्यों बनाते हैं ?
उत्तर—मकान और मंदिर में विशेषता अंतर दिखाने के लिए शिखर का निर्माण किया जाता है। शिखर का आकार पिरामिड के समान होता है, जिससे ध्वनि तरंगें एकत्रित होती हैं। शिखर के नीचे बैठकर जाप, पाठ करने से मन में शांति मिलती है। जितनी दूर से शिखर दिखने लगता है उतनी ही दूर से हमारे भाव शुभ बनने लगते हैं।
प्रश्न ७. मंदिर जी में प्रवेश करते समय निस्सहि—निस्सहि क्यों बोलते हैं ?
उत्तर—निस्सहि—नस्सहि बोलने का निम्न कारण है कि भगवान के समक्ष कोई अदृश्य देवगण अथवा श्रावक दर्शन कर रहे हों तो वे मुझे दर्शन के लिए स्थान दें।
प्रश्न ८. मंदिर जी में घंटा क्यों बजाते हैं ?
उत्तर—मंदिर समवसरण का प्रतीक है, समवसरण में देवगण दुन्दुभि बजाते हैं, अत: दुन्दुभि का प्रतीक होने से घंटा बजाया जाता है। दूसरा कारण यह भी है कि घंटा बजाने से जो ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती हैं वे वहाँ के वातावरण को निर्मल बनाती हुई हमारे मन में शांति प्रदान करती हैं।
प्रश्न ९. मंदिर जी में अक्षत (चावल) क्यों चढ़ाते हैं ?
उत्तर—चावलों के ऊपर का छिलका अलग हो जाने से अंकुरण शक्ति समाप्त हो जाती हैं। उसी प्रकार हे भगवन! हमारा जन्म मरण भी समाप्त हो जावे एवं हम भी चावलों जैसे उज्जवल, अखण्ड बन जावें इस भावना से चावल चढ़ाते हैं।
प्रश्न १०. प्रदक्षिणा किसकी दी जाती है और क्यों ?
उत्तर—वीतराग देव, जिनालय, तीर्थक्षेत्र, सिद्धक्षेत्र एवं निग्र्ँथ गुरुकी तीन—तीन प्रदक्षिणा दी जाती हैं। समवसरण में भगवान का मुख चारों दिशाओं में होता है, अत: सब आरे से भगवान के दर्शन हो जावें इसलिए प्रदक्षिणा (परिक्रमा) देते हैं। जन्म, जरा, मृत्यु से छुटकारा मिले अथवा रत्नत्रय की प्राप्ति हो इसलिए तीन प्रदक्षिणा देते हैं।
प्रश्न ११. जिनालय में दर्शन करते समय कैसी भावनायें रखना चाहिए ?
उत्तर—भगवान के दर्शन करते समय ऐसा विचार करना चाहिए कि मेरे समस्त पापों का क्षय हो जावे, दु:खों का नाश हो जावे, कर्मों का क्षय हो जावे, रत्नत्रय की प्राप्ति हो, सल्लेखना पूर्वक मरण हो इत्यादि भावनायें भाना चाहिए।
प्रश्न १२. जिनालय में दर्शन करते समय किन—कन भावनाओं का त्याग करना चाहिए ?
उत्तर—भगवान के दर्शन करते समय निम्न भावों का त्याग करना चाहिए—मुझे सांसारिक वैभव, धन सम्पत्ति, स्त्री पुत्र आदि की प्राप्ति हो। किसी के जीत हार, धन हानि आदि का विचार नहीं करना चाहिए।
प्रश्न १३. भगवान के दर्शन से क्या लाभ हैं ?
उत्तर—भगवान के दर्शन करने से निम्न लाभ हैं— १. सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, यदि है तो वह दृढ़ होता है। २. मन के अशुभभाव नष्ट हो जाते हैं। ३. असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा होती है। ४. अनेक उपवासों का फल मिलता है। ५. पुण्यास्रव होता है। ६. वीतरागता प्राप्त करने की भावना दृढ़ होती है। ७. प्रात: दर्शन करने से पूरे दिन के लिए ऊर्जा मिलती है।
प्रश्न १४. गंधोदक क्या है, गंधोदक किस प्रकार लेना चाहिए ?
उत्तर—जिनेन्द्र भगवान के शरीर से स्पर्शित जल गंधोदक कहलाता है। मंत्रों एवं प्रतिबिम्ब के सम्पर्क़ से पवित्रता एवं पूज्यता को प्राप्त हो जाता है। अपने दाहिने हाथ की मध्यमा और अनामिका अंगुलियों से गंधोदक लगाकर उत्तमांग (माथे) पर निम्न श्लोक पढ़ते हुए लगावें। निर्मलं निर्मलीकरणं, पवित्रं पाप नाशनम्। जिन गंधोदकं वंदे, अष्टकर्म विनाशकं।।
प्रश्न १५. मंदिर जी में कौन कौन से कार्य नहीं करना चाहिए ?
उत्तर—मंदिर जी में निम्न कार्य नहीं करना चाहिए— १. देव, शास्त्र, गुरु से ऊँचे आसन पर नहीं बैठना चाहिए। २. कोई श्रावक दर्शन, पूजन कर रहा हो तो उसके सामने से नहीं निकलना चाहिए। ३. नाक, कान और आँख का मैल नहीं निकालना चाहिए। ४. हिंसाजन्य अशुद्ध पदार्थ जैसे चमड़े के जूते चप्पल, पर्स बगैरह एवं लिपिस्टिक, नेलपॉलिश, क्रीम आदि लगाकर काले वस्त्र, लाल वस्त्र, अपवित्र वस्त्र आदि पहनकर मंदिर में नहीं जाना चाहिए। ५. लड़ाई—झगड़े गाली आदि मंदिर में नहीं देना चाहिए। ६. सगाई—विवाह, खान—पान, व्यापार, राजनीति की चर्चा भी मंदिर में नहीं करना चाहिए। ७. पूजन, भजन, स्तुति आदि इतनी जोर से नहीं पढ़ना चाहिए कि दूसरों को बाधा आवे। जिनदर्शन विधि
प्रश्न १६. देवदर्शन की विधि क्या है ?
उत्तर—प्रात:काल स्नानादि कार्यों से निर्वृत्त होकर शुद्ध धुले हुए वस्त्र पहनकर तथा हाथ में स्वच्छ द्रव्य लेकर मन में प्रभु दर्शन की तीव्र भावना से युक्त होकर शुभभावनाओं के साथ घर से मंदिर की ओर जाना चाहिए। रास्ते में अन्य कोई कार्य करने का विकल्प न करें। दूर से ही मंदिर जी का शिखर दिखते ही जिनालय को सिर झुकाकर नमस्कार करें। जिनालय के द्वार पर पहुँचकर छने जल से पैर धोना चाहिए। मंदिर के प्रवेशद्वार पर पहुँचते ही ॐ जय, जय, जय, निस्सहि निस्सहि, निस्सहि, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु बोलते हुए घंटे को बजाना चाहिए। भगवान की वेदिका के सामने पहुँचकर हाथ जोड़कर सिर झुकावें।
चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंलगं। चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलि पण्णत्तो, धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरिहंते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, केवलि पण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि। णमोकार मंत्र, चत्तारिदण्डक पढ़कर अक्षत आदि पुञ्ज चढ़ाकर एकटक (अपलक दृष्टि) से भगवान को निहारते हुए गवासन से बैठकर जुड़े हुए हाथों को तथा मस्तक को जमीन से झुकाते हुए तीन बार नमस्कार करके खड़े हो जावें। पश्चात् दर्शनपाठ अथवा अन्य कोई स्तुति पढ़ते हुए वेदी की तीन परिक्रमा करें। कायोत्सर्ग करें, अन्य वेदियों के दर्शन करें। गंधोदक विधिपूर्वक लें। जिनवाणी के समक्ष भी पुञ्ज चढ़ाकर नमस्कार करें। कुछ समय निकालकर स्वाध्याय करें। अंत में दरवाजे से बाहर अस्सहि, अस्सहि, अस्सहि बोलकर निकल जाना चाहिए।
अर्थ — सूर्य के समान तेजस्वी जिनेन्द्र देव के दर्शन करने से, संसार रूपी अंधकार नष्ट हो जाता है, चित्तरूपी कमल खिलता है और सर्वपदार्थ प्रकाश में आते हैं अर्थात् जाने जाते हैं।
अर्थ — चन्द्रमा के समान श्री जिनेन्द्र देव का दर्शन करने से सच्चेधर्मरूपी अमृत की वर्षा होती है, संसार के दु:खों का नाश होता है और सुख रूपी समुद्र की वृद्धि होती है।
अर्थ — जो ज्ञानानंद एक स्वरूप वाले हैं, अष्टकर्मों को जीतने वाले हैं, परमात्म स्वरूप हैं, ऐसे सिद्धात्मा को अपने परमात्म स्वरूप के प्रकाशित होने के लिए नित्य नमस्कार हो।
अर्थ — आपकी शरण के अलावा संसार में मेरे लिए कोई शरण नहीं है, आप ही शरण हैं, इसलिए करुणाभाव करके, हे जिनेन्द्रदेव! हमारी रक्षा करो, रक्षा करो।
नहि त्राता नहि त्राता, नहि त्राता जगत्त्रये। वीतरागात्परो देवो, न भूतो न भविष्यति।।९।।
अर्थ — तीनों लोक में कोई अपना रक्षक नहीं है, रक्षक नहीं है, रक्षक नहीं है (यदि कोई रक्षक हैं तो वे वीतराग देव आप ही हैं) क्योंकि आपसे बड़ा देव न तो कोई हुआ है और न ही भविष्य में कभी होगा।
अर्थ — मैं यह आकांक्षा करता हूँ कि जिनेन्द्र भगवान के प्रति मेरी भक्ति प्रतिदिन और प्रत्येक भव में बनी रहे एवं जिनेन्द्र भगवान मेरे लिए भव—भव में मिलते रहें।
जिनधर्मविनिर्मुक्तो, मा भवेच्चक्रवत्र्यपि। स्याच्चेऽपि दरिद्रोऽपि, जिनधर्मानुवासित:।।११।।
अर्थ — जिनधर्मरहित चक्रवर्ती होना भी अच्छा नहीं है किन्तु जिनधर्म का पालन करते हुए यदि दरिद्री एवं दास बनना पड़े तो वह स्वीकार है।
अर्थ — जिनेन्द्र भगवान के दर्शन से करोड़ों जन्मों के एकत्रित किये हुये पाप तथा जन्म, बुढ़ापा, मृत्युरूपी रोग अवश्य ही नष्ट हो जाते हैं।
अध्या—भवत् सफलता नयन—व्दयस्य, देव! त्वदीय चरणाम्बुज वीक्षणेन। अध्य त्रिलोक तिलक प्रतिभासते में, संसार—वारिधिरयं चुलुक—प्रमाणं।।१३।।
अर्थ — हे देवाधिदेव ! आपके कल्याणकारी चरण कमलों के दर्शन से मेरे दोनों नेत्र आज सफल हुए। हे तीनों लोक के तिलक स्वरूप आपके प्रताप से मेरा संसार रूपी समुद्र, हाथ में लिये गये चुल्लु भर पानी के समान प्रतीत होता है अर्थात् आपके प्रताप से ही मैं सहज ही संसार समुद्र से पार हो जाऊँगा।
अर्थ — ‘अष्टमी’ तिथि अष्टकर्मों के नाश करने की प्रतीक है, ‘चतुर्दशी’ तिथि चौदह गुणस्थान की प्रक्रियापूर्ण करके सिद्धि अर्थात् मोक्षलक्ष्मी प्राप्त करने की सूचक है तथा ‘पञ्चमी’ तिथि पञ्चम ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान की प्राप्ति को बताती है। अत: इन तीनों तिथियों में व्रत, उपवास आदि विशेष धर्मानुष्ठानों का आचरण करना चाहिए।